मंगलवार, जून 24, 2008

राम कथा: अवतारों की कथा

उत्‍तरी भारत में सरयू नदी के तट पर बसी अयोध्‍या,जहॉं त्रेता युग में दशरथ के पुत्र राम का जन्‍म हुआ था। अयोध्‍या, अर्थात् जहॉं कभी युद्ध नहीं होता। एक दिन विश्‍वामित्र आए और अपने आश्रम के संरक्षण हेतु दो राजकुमार - राम और लक्ष्‍मण - मॉंगे। विश्‍वामित्र और दशरथ के गुरू वसिष्‍ठ का पुराना मनमुटाव प्रसिद्ध है। कहते हैं, विश्‍वामित्र क्षत्रिय कुल में उत्‍पन्‍न हुए थे और वसिष्‍ठ उन्‍हें ‘राजर्षि’ कहते थे। विश्‍वामित्र की इच्‍छा ‘ब्रम्‍हर्षि’ कहाने की थी। अंत में विश्‍वामित्र क्रोध पर विजय प्राप्‍त कर सचमुच में ब्रम्‍हर्षि बने। पर जब विश्‍वामित्र ने इन बालकों की जोड़ी को अपने आश्रम की रक्षा के लिए मॉंगा तो वसिष्‍ठ ने सहर्ष आज्ञा दिलवा दी। मानवता का और समाज का कार्य राम के द्वारा संपन्‍न होना था। राम ने आश्रम के पास पड़ी ऋषि-मुनियों की हडिड्यॉं देखीं,
‘तब करौं नि शाचरहीन महि भुज उठाय प्रन कीन्‍ह।’
विश्‍वामित्र के आश्रम में राम-लक्ष्‍मण ने शस्‍त्रास्‍त्रों की विद्या और उनके प्रयोग में दक्षता प्राप्‍त की।

जनकपुरी में सीता स्‍वयंवर रचा जा रहा था। राजा जनक ने प्रण किया था, जो‍ शिव-धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ा देगा उसी से सीता का विवाह होगा। विश्‍वामित्र भी आश्रमवासियों के वेश में दोनों कुमारों सहित उस स्‍वयंवर में पधारे। जनकपुरी और अयोध्‍या राज्‍यों में स्‍पर्धा थी - राजा दशरथ को संभवतया निमंत्रण भी न था।

उस विशाल स्‍वयंवर में रावण आदि महाबली राजा भी धनुष न हिला सके। तब राजा जनक ने दु:खित होकर कहा,
‘वीर विहीन मही मैं जानी।’
शिव धनुष तोड़ने का चित्र रवी वर्मा का है और विकिपीडिया से लिया गया है।

इस पर लक्ष्‍मण को क्रोध आ गया। उन्‍होंने भाई की ओर ताका । विश्‍वामित्र का इशारा पाकर राम ने धनुष उठा लिया; पर प्रत्‍यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। सीता ने स्‍वयंवर की वरमाला राम के गले में डाल दी। अपने इष्‍टदेव के धनुष टूटने पर परशुराम जनक के दरबार में पहुँचे पर मानव जीवन में पुन: मर्यादाऍं स्‍थापित करने के लिए एक नए अवतार की आवश्‍यकता थी। इस प्रकार भारत के दो शक्तिशाली घराने और राज्‍य एक बने। वसिष्‍ठ-विश्‍वामित्र की अभिसंधि सफल हुई। पुराना परशुराम युग गया और राम के नवयुग का सूत्रपात हुआ।

धनुष-यज्ञ प्रकरण के अनेक अर्थ लगाने का प्रयत्‍न हुआ है। मेरे छोटे बाबाजी इसको अनातोलिया (अब एशियाई तुर्की) की कथा बताकर एक विचित्र अर्थ लगाते थे। पुराने एशिया से यूरोप के व्‍यापार मार्ग बासपोरस (Bosporus) तथा दानियाल (Dardnelles) जलसंधियों को पार करके जाते थे। उसके उत्‍तर में फैला था काला सागर, कश्‍यप सागर और अरब सागर को संभवतया समेटता महासागर, जिसके कारण यूरोप (प्राचीन योरोपा, संस्‍कृत ‘सुरूपा’) एक महाद्वीप कहलाया। इन्‍हीं के पास यूनान के त्रिशूल प्रदेश में जहॉं सलोनिका नगर है) से लेकर मरमरा सागर (Sea of Marmara) तक शिव के उपासक रहते थे। किंवदंती है कि ये व्‍यापारियों को लूटते-खसोटते और कर वसूलते थे। अनातोलिया का यह भाग धनुषाकार है। सीता स्‍वयंवर के समय इसी को निरापद करने का कार्य शिव के धनुष का घेरा तोड़ना कहलाया। बदले में किए गए रावण द्वारा सीता-हरण की ध्‍वनि इलियड में ‘हेलेन’ व ‘ट्रॉय’ की कहानी में मिलती है। संसार की अनेक दंत-कथाऍं इसी प्रकार उलझी हुई हैं और उनके अनेक अर्थ लगाए जा सकते हैं।

विश्‍वामित्र के आश्रम में उनके जीवन का लक्ष्‍य निश्चित हो चुका था। पर अयोध्‍या आने पर दशरथ ने उनका राज्‍याभिषेक करने की सोची। किंवदंती है कि इस पर देवताओं ने मंथरा दासी की मति फेर दी। युद्धस्‍थल में कैकेयी के अपूर्व साहस दिखाने पर दशरथ ने दो वर देने का वचन दिया था।
मंथरा के उकसाने पर कैकेयी ने वे दोनों वर मॉंग लिये—भरत को राज्‍य और राम को चौदह वर्ष का वनवास। इसने इतिहास ही मोड़ दिया।

राम, सीता, लछमण और हनुमान का यह चित्र विकिपीडिया से है।

वन-गमन के मार्ग में राम के आश्रम के सहपाठी निषादराज का वृत्‍तांत आता है। उनकी नगरी श्रंगवेरपुर में उन्‍हीं की नौका से राम, लक्ष्‍मण और सीता ने गगा पार की। तब उन दिनों के सबसे विख्‍यात विश्‍वविद्यालय भरद्वाज मुनि के आश्रम में गए और उनके इंगित पर चित्रकूट। भरत और कैकेयी के अनुनय के बाद भी जब राम पिता का वचन पूरा किये बिना लौटने को राजी न हुए तो भरत उनकी पादुकाऍं ले आए। बाहर नंदि ग्राम में रहकर उन्‍होंने अयोध्‍या का शासन किया—राम की पादुकाओं को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर, उनके प्रतिनिधि के रूप में।

राम वहॉं से पंचवटी गए। बाद की घटनाओं में दो संस्‍कृतियों के संघर्ष के दर्शन होते हैं। षड्रस व्‍यंजन त्‍याग जंगली कंद-मूल-फल खाए। ब्रम्‍हचारी वनवासी जीवन अपनाया। रावण की बहन शूर्पणखा को राम का नाहीं करना और अंत में सीता-हरण। राम ने स्‍नेह का आदर भीलनी शबरी के जूठे बेर खाकर किया। सैन्‍य-विहीन, निर्वासित अवस्‍था में लगभग अकेले ‘वानर’ एवं ‘ऋक्ष’ नामक वनवासीजातियों (ये उनके गण-चिन्‍ह थे, जिनसे वे जानी जाती थीं) का संगठन कर लंका पर अभियान किया। रावण की विरोधी और राक्षसी अपार शक्ति को नष्‍ट कर राज्‍य विभीषण को सौंप दिया। लक्ष्‍मण के मन की बात समझकर कि इस सुख-सुविधा से भरपूर लंका में क्‍यों न रूकें, राम के मुख से प्रकटे वे अमर शब्‍द,
‘अपि स्‍वर्णमयी लंका न मे लक्ष्‍मण रोचते, जननी जन्‍मभूमिश्‍च स्‍वर्गादपि गरीयसी।‘


राम ने अपने जीवन में सदा मर्यादा का पालन किया, इसी से ‘मर्यादा पुरूषोत्‍तम’ कहलाए। अयोध्‍या में राजा के रूप में प्रजा-वात्‍सल्‍य की एक अपूर्व घटना आती है, जिसने मुझे विद्यार्थी जीवन में अनेक बार रूलाया है। एक बार प्रजा की स्थिति जानने के लिए राम रात्रि में छिपकर घूम रहे थे कि एक धोबी अपनी पत्‍नी से कह रहा था, ‘अरी, तू कुलटा है, पराए घर में रह आई। मैं स्‍त्री – लोभी राम नहीं हूँ, जो तुझे रखूँ।‘ बहुतों के मुख से बात सुनने पर लोकापवाद के डर से उन्‍होंने अग्निपरीक्षा में उत्‍तीर्ण गर्भवती सीता का परित्‍याग किया। वह वाल्‍मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। उन्‍होंने दो जुड़वॉं पुत्र-लव और कुश—को जन्‍म दिया। भरत, लक्ष्‍मण और शत्रुघ्‍न के भी दो-दो पुत्र हुए।

राम ने गृहस्‍थ मर्यादा के अनुरूप एक-पत्‍नीव्रत धारण किया था। इसलिए राजसूय यज्ञ के समय सीता की स्‍वर्ण मूर्ति अपनी बगल में बैठाकर यजन किया। निर्वासित सीता ने राम को हृदय में धारण करते हुये अपने पुत्रों को वाल्‍मीकि के हाथों सौंपकर निर्वाण लिया। तब समाचार सुनकर राम अपने शोकावेश को रोक न सके। वह ब्रम्‍हचर्य व्रत ले प्रजा-रंजन में लगे। पर उस दु:ख से कभी उबर न पाए। कहते हैं कि एक आदर्श राज्‍य का संचालन अनेक वर्षो तक करने के बाद एक दिन राम, भरत और लक्ष्‍मण ने (तथा उनके साथ कुछ अयोध्‍यावासियों ने) सरयू में जल-समाधि ले ली। अयोध्‍या उजड़ गई।

शत्रुघ्‍न ने मधुबन में मधु के पुत्र लवण राक्षस को मारकर वहॉं मथुरापुरी बसाई थी। लव के नाम पर लाहौर बसा और कुश ने बसाया महाकौशल का दक्षिणी भाग। जब अयोध्‍या की दशा का पता चला तब कुश की प्रेरणा से उनके पुत्रों ने पुन: अयोध्‍या बसाई।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा

शुक्रवार, जून 13, 2008

त्रेता युगः अवतारों की कथा

त्रेता युग में उस अवतार का जन्‍म हुआ जिसका नाम भारत और हिंदु समाज से एकाकार हो गया है। देश में सहज अभिवादन ‘सीताराम’, ‘जय रामजी की’ या ‘जय श्रीराम’ बने। पुत्र का जन्‍म हुआ तो कहा, ‘हमारे घर राम आए हैं।‘ विवाह के अवसर पर लोकगीतबने-‘आज राम-सीता का विवाह है।‘ मानव जीवन की चरम आकांक्षाओं का केंद्र – राम। हिंदु जीवन में क्षण-क्षण के साथी बने-राम। रामराज्‍य आदर्श बना और ‘राम' का नामोच्‍चारण सब संकटों से त्राण करने वाला। हिदु के लिए सृष्टि राममय बनी।

राम की यशोगाथा भारत एवं दक्षिण- पूर्व एशिया की सभी भाषाओं ने गाई है। वह धीरे-धीरे संसार में फैली। आदि कवि वाल्‍मीकि की वाणी में मर्यादा पुरूषोत्‍तम राम की छंदबद्ध कथा फूट निकली। यही मर्यादा पुरूषोत्‍तम राम कंबन की तमिल भाषा में लिखी ‘कंब रामायण’ से लेकर गोस्‍वामी तुलसीदास की अवधी बोली की ‘रामचरितमानस’ तक के भगवान् राम बने। यह ‘रामचरितमानस’ संसार के साहित्‍य में एक अद्वितीय और अनुपम ग्रंथ है। जिस समय भारत के भाग्‍याकाश में घोर निराशा के बादल छाए थे और यह धरा आक्रमणकारियों से पददलित थी, तब इसने राम का स्‍मरण दिलाकर समाज को जीवंत बनाया। यह कहानी दंतकथा के रूप में बड़े-बूढ़ों द्वारा घर-घर में कही गई। मेरे बचपन में ग्रीष्‍मावकाश के समय प्रति सायं काल का ग्रामीण अंचल मनौती माने विद्यार्थियों द्वारा इसके पाठ से मुखरित हो उठता था।

नव दुर्गा के त्‍योहार के समय ग्राम-नगर राम की लीला खेलते। इसकी परिणति विजयादशमी के रावण वध में अथवा दीपावली के दिन राम के राजतिलक में होती है। बृहत्‍तर भारत में मंचित ये गीतनृत्‍य-नाटिकाऍं भारत के अतिरिक्‍त दक्षिण- पूर्व एशिया के अनेक देशों में देखी जा सकती हैं। भारत में पूर्वी हिंद द्वीप समूह (इंडोनेशिया) (जो मुसलिम बहुल देश है) के प्रथम राजदूत अपनी दोनों पुत्रियों ‘जावित्री’ और ‘सावित्री’ के साथ दिल्‍ली की रामलीला देखने आए। तब बताया कि दोनों पुत्रियॉं किस प्रकार जावा (यव द्वीप) की रामलीला में ऩत्‍य- अभिनय करती थीं। स्‍याम (आधुनिक थाईलैंड) के राजाओं की पदवी सदा से ‘राम’ चली आई है। कंबोज (आधुनिक कंबोडिया) के राजघराने यह पदवी धारण करते थे।

दक्षिण-पश्चिम एशिया (middle east) की सभ्‍यताओं में भी कभी-कभी यह नाम (राम) दिखता है; किंवदंतियों में इस कहानी की छाया और संसार के अनेक रीति-रिवाजों में इसकी अभिव्‍यक्ति है।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग

शनिवार, जून 07, 2008

परशुराम अवतार

कालांतर में कुछ क्षत्रिरूय स्‍वेच्‍छाचारी हो गए। उन्‍होंने धार्मिक कृत्‍य करना और ऋषियों के परामर्श के अनुसार चलना छोड़ दिया। ऐसे क्षत्रियों की कई जातियॉं, जिनमें मनुस्‍मृति के अनुसार चोल, द्रविड़, यवन (ग्रीक), कांबोज ( आधुनिक कंबोडिया निवासी), शक, चीन, किरात ( गिरिवासी) और खस ( असम पहाडियों के निवासी) भी हैं, संसार में ‘वृषल’ ( शूद्र) के समान हो गए। बाकी क्षत्रिय भी प्राण के स्‍थान पर अत्‍याचार करने लगे। तब परशुराम का अवतार हुआ। उन्‍होंने इक्‍कीस बार पृथ्‍वी नि:क्षत्रिय की। पर कहते हैं, हर बार कहीं-न-कहीं बीज रह गया। उनसे पुन: वैसे ही लोग उत्‍पन्‍न हुए। हर बार परशुराम ने अत्‍याचारियों को मारकर समाज की रक्षा की।

परशुराम का स्‍थान है ‘गोमांतक’ (आधुनिक गोवा)। किंव‍दंती में कहा गया कि परशुराम ने अपने फरसे द्वारा सागर से यह सुंदर वनस्‍थली प्राप्‍त की। आज प्राचीनता का स्‍मरण दिलाते कुछ प्रस्‍तरयुगीन फलक वहॉं के पुरातत्‍व संग्रहालय में रखे हैं। परशुराम के अवतारी कार्य के अवशिष्‍ट चिन्‍ह क्रूर पुर्तगाली नृशंस अत्‍याचारियों ने मिटा दिए हैं। उनका स्‍थान ले लिया है ईसाई अंधविश्‍वासों, टोटकों और अवशेषों ने, जिनके बचाने की दुहाई मानवता के नाम पर दी जाती है । केवल एक ‘मंगेश’ का मंदिर पुर्तगाली मजहबी उन्‍माद से उस प्रदेश में बच सका।
उनकी दानवता तथा नृशंस अत्‍याचारों की एक झलक हमें वीर सावरकर लिखित खंड-काव्‍य ‘गोमांतक’ में मिलती है।

शिव धनुष तोड़ने का चित्र रवी वर्मा का है और विकिपीडिया से लिया गया है।

यदि वामन समाज की शिशु अवस्‍था का प्रतीक है तो परशुराम किशोरावस्‍था का। इस अवस्‍था में मन के अंदर अत्‍याचार के विरूद्ध स्‍वाभाविक रोष रहता है। शक्ति के मद में जो दुराचारी बने, उनसे परशुराम ने समाज को उबारा। यह सभ्‍यता की एक प्रक्रिया है। पर इस प्रक्रिया से जब समाज दुर्बल हो गया और क्षात्र शक्ति की पुन: आवश्‍यकता प्रतीत हुई तब एक बालक के मुख से परशुराम को चुनौती मिली। जनकपुरी में सीता स्‍वयंवर के अवसर पर लक्ष्‍मण ने दर्प भरी वाणी में परशुराम से कहा, ‘इहॉं कुम्‍हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं।‘ राम ने परशुराम का तेज हर लिया। मानो कहा कि उनका अवतारी कार्य समाप्‍त हो गया। एक नए अवतार का उदय हुआ। इस प्रकार परशुराम, किशोरावस्‍था के समाज की, अत्‍याचारी के दमन और सभ्‍य बनाने तथा व्‍यवस्‍था लागू करने की प्रक्रिया सहस्‍त्राब्दियों तक चली।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार