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सोमवार, मार्च 31, 2008

अमृत-मंथन कथा की सार्थकता: अवतारों की कथा

एक बार असुरों ने तीखे शस्‍त्रों से देवताओं को पराजित किया। अनेक देवता रणभूमि में गिरकर उठ न सके। स्‍वयं इंद्र श्रीहीन हो गए। तब ब्रम्‍हा ने यह देखकर कि सभी देवताओं की दुर्दशा हो रही है तथा उनकी परिस्थिति विकट एवं संकटग्रस्‍त हो गई है, जबकि असुर फल-फूल रहे हैं, कहा, ‘मैं, देवता तथा असुर, दैत्‍य, मनुष्‍य, पशु-पक्षी, वृक्ष, कीट आदि समस्‍त प्राणी, जिनके विराट् रूप के अत्‍यंत छोटे-से-छोटे अंश से रचे गये हैं, उन शंकर की शरण में चलें।‘ तब सबने भगवान के विराट स्‍वरूप, अर्थात् जड़-जीव से युक्‍त समूची सृष्टि की उपासना की। भगवान ने सलाह दी, ‘असुरों से संधि कर लो। फिर क्षीर सागर में सब प्रकार के घास-तिनके, लताऍं और औषधियॉं डालकर मंदराचल की मथानी बनाकर वासुकि नाग की रस्‍सी से मेरी सहायता से समुद्र-मंथन करो। असुर लोग जो कहें सब स्‍वीकार कर लो। पहले कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। किसी वस्‍तु का लोभ न करना। इस प्रकार बिना विलंब अमृत निकालने का प्रयत्‍न करो। इसे पी लेने पर मरने वाला प्राणी भी अमर हो जाता है।‘

तब देवताओं ने असुरों से संधि कर समुद्र-मंथन के लिए सम्मिलित उद्योग प्रारंभ किया। दैत्‍य सेनापतियों ने कहा, ‘पूँछ तो सॉंप का अशुभ अंग है, हम उसे न पकड़ेंगे। हमने वेद-शास्‍त्रों का अध्‍ययन किया है। ऊँचे वंश में हमारा जन्‍म हुआ है और हमने वीरता के कार्य किए हैं। हम देवताओं से किस बात में कम हैं।‘ अंत में देवताओं ने वासुकि नाग की पूँछ पकड़ी और असुरों ने उसका फन। इस प्रकार स्‍वर्ण पर्वत मंदराचल की मथानी से मंथन प्रारंभ हुआ। पर नीचे कोई आधार न होने के कारण मंदराचल डूबने लगा। तब भगवान ने कच्‍छप अवतार के रूप में प्रकट हो जंबूद्वीप के समान फैली अपनी पीठ पर मंदराचल को धारण किया।

सागर-मंथन में पहले कालकूट विष निकला। यह चारों ओर फैलने लगा। तब संपूर्ण प्रजा तथा प्रजापति कहीं त्राण न मिलने पर शिव की शरण में गए। शिव ने वह तीक्ष्‍ण हलाहल पी लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया। जो थोड़ा विष टपक पड़ा उसे विषैले जीवों एवं वनस्‍पतियों ग्रहण कर लिया।

इसके बाद सागर-मंथन से अनेक वस्‍तुऍं निकलीं। कामधेनु को, जो यज्ञ के लिए घी-दूध देती थी, ऋषियों ने ग्रहण किया। इसी प्रकार उच्‍चै:श्रवा नामक श्‍वेत वर्ण घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्‍तुभ मणि, कल्‍पवृक्ष-जो याचकों को इच्छित वस्‍तु देता था-और संगीत- प्रवण अप्‍सराऍं प्रकट हुई। इसके बाद नित्‍यशक्ति लक्ष्‍मी प्रकट हुई जो सृष्टि रूपी भगवान के वक्षस्‍थल पर निवास करले लगीं। इसके बाद वारूणी-शराब-निकली, जिसे असुरों ने ले लिया। अंत में भगवान के अंशावतार तथा आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्‍वंतरि हाथ में अमृत कलश लिये प्रकट हुए। तब असुरों ने उस अमृत कलश को छीन लिया। उनमें आपस में झगड़ा होने लगा कि पहले कौन पिए। कुछ दुर्बल दैत्‍य ही बलवान दैत्‍यों का ईर्ष्‍यावश विरोध करने तथा न्‍याय की दुहाई देने लगे-‘देवताओं ने हमारे बराबर परिश्रम किया, इसलिए उनको यज्ञ-भाग समान रूप से मिलना चाहिए।‘

इस पर भगवान ने अत्‍यंत सुंदर स्‍त्री मोहिनी का रूप धारण किया। असुरों ने मोहित हो मोहिनी को ही वारूणी तथा अमृत सबमें बॉंटने के लिए दे दिए। मोहिनी ने असुरों तथा देवताओं को अलग-अलग पंक्ति में बैठाकर पिलाना प्रारंभ किया। असुरों की बारी में वारूणी तथा देवताओं की बारी में अमृत पिलाया। नशा उतरने पर असुरों ने देखा कि उनके साथ धोखा हुआ। तब उन्‍होंने देवताओं पर धावा बोल दिया। पुन: देवासुर संग्राम हुआ। अबकी बार असुरराज बेहोश हो गए, पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उन्‍हें फिर ठीक कर दिया। नारदजी के आग्रह पर, कि देवताओं को अभीष्‍ट प्राप्‍त हो चुका है, युद्ध बंद हुआ। देवता और असुर अपने-अपने लोक को पधारे।

यदि समझें कि क्षीर सागर मानव समूह का रूपक मात्र है तो अमृत-मंथन की कथा सार्थक हो उठती है। भिन्‍न-भिन्‍न रूप-रंग, आचार-व्‍यवहार, मत-कतांतर और परंपरा के लोग इस पृथ्‍वी पर निवास करते हैं। इन सबको मथकर एकरस जीवन उत्‍पन्‍न किया-यही अमृत-मंथन है। आखिर उत्‍कृष्‍ट जीवनी शक्ति से अनुप्राणित एकरस समाज अमर है। असुरों और देवों, दोनों के उपासकों ने इसमें भाग लिया।

इस प्रकार मथकर एक राष्‍ट्रीय जीवन उत्‍पन्‍न करने की प्रक्रिया में प्रारंभ में विष मिलता है। आपसी संदेह, अपनेपन के झूठे आग्रह, काम, क्रोध, अभिमान तथा लोभ से भरे जीवन में, असामाजिक प्रवृत्तियों के नियंत्रण और एकीकरण के प्रयत्‍नों में प्रारंभ में कालकूट विष निकलता है। इसे किसीको पीना पड़ता है। इसके लिए संहारक शक्ति के अधिष्‍ठातृ देव ‘शिव’ उपयुक्‍त थे। कालकूट पीकर वह महादेव बने।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता

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