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मंगलवार, जून 23, 2009

सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता

आज सिंधु घाटी की सभ्यता प्राचीनतम सभ्यता जानी जाती है। नाम के कारण इसके शोध की दिशा बदल गयी। वास्तव में यह सभ्यता एक बहुत बड़ी सभ्यता का अंश है, जिसके अवशिष्ट चिन्ह उत्तर में हिमालय की तलहटी (मांडा) से लेकर नर्मदा और ताप्ती नदियों तक और उत्तर प्रदेश में कौशाम्बी से गांधार (बलूचिस्तान) तक मिले हैं। अनुमानत: यह पूरे उत्तरी भारत में थी। यदि इसे किसी नदी की सभ्यता ही कहना हो तो यह उत्तरी भारत की नदियों की सभ्यता है। इसे कुछ विद्वान उनके बीच उस समय प्रवाहित प्राचीन सरस्वती नदी की सभ्यता करते हैं। यह नदी प्राचीन काल में शिवालिक पहाड़ियों से निकल कर पूर्व में गंगा-यमुना का क्षेत्र और पश्चिम में सतलुज-सिंधु के क्षेत्र के बीच बहकर राजस्थान को सिंचित करती थी, जहाँ आज घग्घर का सूखा ताल है, और कच्छ के रन में ( जो उसी का बचा भाग कहा जाता है) सागर से मिलती थी। कालांतर में बदलती जलवायु और राजस्थान की ऊपर उठती भूमि के कारण यह सूख गयी। इसका जल यमुना ने खींच लिया।

इस सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था। अन्य सभी का कार्यक्षेत्र तुलना में बहुत छोटा- सुमेर और फिर बाबुल (Babylonia) दजला (संस्कृत : दृषद्वती) और फरात नदियों के बीच की घाटी में, हित्ती सभ्यता अनातोलिया के कुछ भाग में, प्राचीन यहूदी सभ्यता पुलस्तिन् (Palestine) की छोटी घाटी के आसपास, यूनान, क्रीट तथा रोम की सभ्यताएँ उनके छोटे क्षेत्रों में, मिस्त्र की प्राचीन सभ्यता नील नदी के उत्तरी भाग में, ईरान और हखामशी सभ्यता ईरान के कुछ भागों में और मंगोल एवं चीनी सभ्यताएँ ( जो उक्त सभ्यताओं की तुलना में आधुनिक थीं) के उस समय के घेरे भी सैंधव सभ्यता (आगे इसे सारस्वत सभ्यता कहेंगे) के क्षेत्र से बहुत छोटे थे। यह भी महत्वपूर्ण है कि यदि कोई मानव सभ्यता का आदि देश होगा तो उसके अवशिष्ट चिन्ह किसी विस्तृत क्षेत्र में फैले होने की संभावना है।

अधिकांश प्राचीन सभ्यताएँ किसी साम्राज्य के सहारे बढ़ीं। इसीलिए अनेक पुरातत्वज्ञ सभ्यता और साम्राज्य दोनों का एक साथ विचार करते हैं। पर सारस्वत सभ्यता किसी साम्राज्य के साये में नहीं पली। वह युद्घ से, शिरस्त्राण एवं कवच से अपरिचित प्रतीत होती है। जो भी अस्त्र-शस्त्र थे वे साधारण थे तथा इनके विकसित या उन्नत रूप नगरों में भी उपलब्ध न थे। यहाँ तक कि शिकार के चित्र एवं दृश्य इनके नगर-गृहों में तथा भित्तियों पर नहीं मिलते। ऎसा लगता है कि सहस्त्राब्दियों से जिन्हें किसी आक्रमण का भय न था और युद्घ से सामना न पड़ा, जिन्होंने सुदीर्घ काल तक शांति-सुख भोगा उनके बीच उपजी तथा पनपी यह सभ्यता। इसी से प्रारंभ में पुरातत्वज्ञों ने इसे 'सिंधु घाटी का रहस्यमय साम्राज्य ' की संज्ञा दी। वे साम्राज्स से विलग कर किसी सभ्यता का विचार न कर सके।

इतिहासज्ञ कहते हैं कि संघर्ष और युद्घ के बीच विज्ञापन का विकास होता है। उनमें होता है विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का एवं बचाव के साधनों का आविष्कार; और नए साम्राज्यों का निर्माण, जिनमें नयी सभ्यताएँ बनती-बिगड़ती हैं। ऎसा ही दृश्य आज का इतिहास प्रस्तुत करता है। इसलिए कौन आश्चर्य कि जब वे इस शांतिकाल की संस्कृति के संपर्क में आए तो उसके विस्तार ने, उसकी एकरूपता ने (जिसमें न भौगोलिक दूरी और न समय की गति चोट पहुँचा सकी) और जिसे उन्होंने 'सभ्यता की धीमी प्रगति' कहा (अर्थात शीघ्र बदल या विकास के लक्षणों का अभाव), उसने उन्हें चकित कर दिया। 'मुइन-जो-दड़ो' ('मृतकों की डीह') नगर का कम-से-कम सात बार निर्माण हुआ कहते हैं, पर प्रारंभ तथा अंत के निर्माण में अंतर नहीं दिखता। इसे देखकर उन्होंने कहना प्रारंभ किया कि जैसे बाबुल की साम्राज्यवादी सभ्यता का एक क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होता है वैसा न होने के कारण सारस्वत सभ्यता किसी सैद्घांतिक विस्फोट (ideological explosion) का सुफल था। वे भूलते हैं कि दीर्घ शांतिकाल में ही दर्शन, विज्ञान और कलाएँ विकसित होती हैं। यह भारत की प्रकृति को दृष्टि से ओझल करना है, जिसने दीर्घकालीन शांति एवं समृद्घि देखी; जहाँ की सभ्यता किसी साम्राज्य की देन नहीं, किंतु सभ्यता की देन एक सांस्कृतिक साम्राज्य था। इसी कारण आर्य और अन्य जातियों के मध्य एक काल्पनिक संघर्ष की बात गढ़नी पड़ी।


श्री बालसुब्रमण्यम, एवं श्री पीएन बालसुब्रमण्यम जी ने टिप्पणी पर कुछ प्रश्न पूछे हैं। उन्हीं के बारे में,
आज जिसे 'सिन्धु घाटी की सभ्यता' कहते हैं, वह तो सारस्वत सभ्यता के अन्त की कहानी है। सारस्वत सभ्यता इसके पूर्व की है, जो तटीय पृथ्वी को ऊँची उठने के कारण उसे पश्चिम सिन्धु नदी की ओर जाना पड़ा। किवदन्ती है कि त्रेता युग अर्थात बड़ा युग (राम का युग) पहले आया और द्वापर (कृष्ण का युग) बाद में। अर्थात अयोध्या व गंगा का मैदान पुराना है, और पश्चिम में द्वारिका जो प्राचीन काल में सिन्धु घाटी के पूर्व मुहाने के बगल में थी बाद में।

ऋग्वेद का युग, सिन्धु घाटी की सभ्यता से पुराना है ही पर काल निश्चित करने का केवल एक ही विश्वस्त तरीका है। वह है उस घटना के बारे में वर्णित खगोलीय जानकारी। अब इस दिशा में कार्य प्रारम्भ हुआ है। (देखें डेटिंग दि इरा आफ राम-पुष्कर भटनागर) खगोलीय घटनाएँ भी अपने काल अथवा युग में दुहराती है, इसलिए अन्य साक्ष्य से देखना पड़ेगा कि यह घटना उसके पहिले वाले युग की तो नहीं है। इसमें किवदन्तियां सहायक होती है। संम्भवतः ऋग्वेद का युग जैसा डा० राम विलास शर्मा ने लिखा, उसके पहले का हो।

'जल प्रलय' की घटना। 'ग्लेशियल एज' की बर्फ पिघलने से जल-स्तर बढ़ा। उसकी एक व्याख्या मैंने अपनी पुस्तक 'कालचक्र: सभ्यता की कहानी' के अध्याय 'सम्यता की प्रथम किरणें एवं दन्तकथाएं' में यहां दी है। सम्भवतया यह भूमध्यसागर बनने की कहानी है। ऋग्वेद में उसका वर्णन न होना कोई अनहोनी बात नहीं। हम जागलिक परिप्रेक्ष्य में घटनाओं को देखें।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य


०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता


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8 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ नयी जानकारियों के साथ साथ आपका यह लेख मुझे अच्छा लगा।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. आपने सही कहा, आर्यों और सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों में संघर्ष की कहानी विदेशियों द्वारा अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को सुग्राह्य बनाने के लिए गढ़ी गई थी। आर्य यहीं के लोग थे, जो सरस्वती नदी-तट में रहते थे। ऋग्वेद में सरस्वती नदी का भरपूर उल्लेख है।

    सिंधु घाटी सभ्यता के संबंध में एक बात रोचक है, जिसके बारे में मैं आपकी राय भी जानना चाहूंगा। डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक "इताहस दर्शन" (वाणी प्रकाशन, दिल्ली) में लिखा है कि ऋग्वेद का काल सिंधु घाटी सभ्यता के पहले का है। वे ऋग्वेद के समय को ईसा पूर्व 5000 साल या उससे अधिक बताते हैं। उन्होंने इसके पक्ष में अनेक तर्क दिए हैं।

    प्रमुख तर्क यह है कि ऋग्वेद मे जल प्रलय का उल्लेख नहीं है, जबकि सुमेर, बैबिलोन आदि में और पुराणों में जल प्रलय का उल्लेख है। इसलिए ऋग्वेद जल प्रलय के पहले की चीज है। जल प्रलय शायद अति-वृष्टि के कारण हुआ था और उससे सरस्वती नदी में तथा सुमेर, बैबिलोन आदि में भयंकर बाढ़ आ गई थी, जिससे ये सभी सभ्याएं तबाह हो गई थीं। सरस्वती किनारे रह रहे आर्यों को भी सरस्वती तट छोड़कर पूर्व की ओर तथा ईरान, यूरोप आदि की ओर छितर जाना पड़ा।

    आर्यों के गंगा तट पर आ जाने के पीछे यही रहस्य है। सरस्वती तट से आर्य यूनान, जर्मनी, मध्य एशिया तक भी फैल गए थे। इन सब प्रदेशों की भाषाओं में संस्कृत के शब्दों के मिलने का रहस्य भी यही है।

    इस संबंध में आपका मत जानकर प्रसन्नता होगी।

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  3. जानकारी की श्रृंखला में एक और कड़ी प्राप्‍त हुई, बहुत ही अच्‍छी ज्ञानवर्धक पोस्‍ट

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  4. ज्ञानवर्धक पोस्ट. हम भी बालसुब्रमणियम जी के साथ आपके दृष्टिकोण को जानना चाहेंगे.

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  5. all post are very nice....
    http://sunitakhatri.blogspot.com

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  6. कितनी भी लिपा पोती करे पर १९३२ से पहले किसी को नहीं पता था ऐसी कोई सभ्यता भी है,अगर आर्य ये दावा करते है की वे सबसे प्राचीनतम सभ्यता है तो फिर सिन्धु सभ्यता को एक अंग्रेज ने क्यों खोजा किसी आर्य ने क्यों नहीं.....आर्य सभ्यता के पास सिन्धु सभ्यता के कोई प्रमाण क्यों नहीं थे.....यहाँ तक की वेदों में भी सिन्धी सभ्यता से मिलते जुलते कोई प्रमाण नहीं है.

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  7. ---भैया, खोजने की आवश्यकता उसे ही होगी जो जानता-मानता न हो, सभी जानते थे उस सभ्यता के बारे में, तभी तो इतने किस्से कहानियां बने।
    ----पहले ही कहा है लेखक ने --आर्य सभ्यता , सिन्धु सभ्यता से पहले की है तो प्रमाण क्यों होंगे?
    ---- वेदों में सिन्धु/ सरस्वती शब्द बहुत बार है, सिन्धु नदी का भी वर्णन है, उसके किनारे सभ्यता भी है ।
    ---ये सिन्धी सभ्यता क्याहै?----सिन्धु घाटी सभ्यता!

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