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शनिवार, जनवरी 26, 2008

जादू, टोने टुटके से - विज्ञान के पथ पर

प्रारंभ में आदि मानव ने संसार को वैसे ही देखा होगा जैसे शिशु अपने मकान के छोटे से संसार को देखता है। ‘यह है’, इतना ही भाव उसके लिए पर्याप्‍त है। धीरे-धीरे वह मस्तिष्‍क दौड़ाने लगा। अन्‍वेषण का भाव उत्‍पन्‍न हुआ। उसके साथ जागी आश्‍चर्यजनक तथा अबोध्‍य लगने वाले कार्य-कलापों के प्रति जिज्ञासा। कठोपनिषद में नचिकेता का प्रसंग है, जिसने अपने पिता के विचारों को चुनौती दी। अंत में जब तक यम ने उसे जीवन और मृत्‍यु का रहस्‍य नहीं बताया तब तक वहॉं से हटने से इनकार किया। यह वैचारिक साहस और मानव की अमर जिज्ञासा का प्रतीक है। इस जिज्ञासा के कारण दर्शन और विज्ञान संभव हो पाया।

कार्य-कारण भाव मन में आना स्‍वाभाविक है। ‘तुम ऐसा करते हो तो यह हो जाता है’, यह संबंध एक सीमा तक पशुओं के मस्तिष्‍क में भी रहता है; और धीरे-धीरे उनकी अंत:प्रवृत्ति में बदल जाता है। आदि मानव बहुत व्‍यवस्थित और विवेकपूर्ण ढंग से सोचने का आदी न होगा। इसलिए कई बातों में असंगति थी। कुछ बातें प्रत्‍यक्ष अनुभव से सिद्ध हो जातीं—यदि विषैला फल खाओगे तो मर जाओगे। पर आदि मानव के लिए अनेक अहम समस्‍याऍं थीं, जिनके हल की खोज में गलत कारण मन में आए, पर जो इतने गलत न थे कि उनकी गलती पकड़ में आ सके। इसने अंधविश्‍वासों को जन्‍म दिया। कुछ अंधविश्‍वासों को मानव आज तक भुगत रहा है। इसलिए कौन सा आश्‍चर्य है कि हजारों प्रकार के जादू-टोना, झाड़-फूँक, मंत्र-तंत्र, शकुन-अपशकुन और तावीजों आदि में उसका विश्‍वास बढ़ा। आज भी वनवासी एवं अशिक्षित लोगों में इस प्रकार के अंधविश्‍वास पलते हैं और शिक्षितों में उनकी छाया।

बालक के समान आदि मानव के स्‍वप्‍न और कल्‍पना-चित्र अधिक सजीव तथा विशद थे और भीति तीव्र थी। वह पशुओं में और यहॉं तक कि जड़ वस्‍तुओंमें भी अपनी तरह के मनोभाव आरोपित करता। ऊफनती नदी और उठती ऑंधी को वह किसी के क्रोध के लक्षण समझता। कबीले के प्रधान की मृत्‍यु के बाद भी उसके सजीव स्‍वप्‍न आदि मानव को विश्‍वास दिलाते होंगे कि वह (मुखिया) मरा नहीं बल्कि किसी परोक्ष काल्‍पनिक जगत में विचरण कर रहा है। उसके हृदय में प्रधान के प्रति आदर तथा भय नया हो जाता। शायद पूर्व प्रस्‍तर युग में इसी से कहीं-कहीं शव को दफनाते समय व्‍यक्ति के हथियार और हड्डी आदि के अलंकार साथ दफना दिए जाते थे। इनको देखकर भारतीय सामाजिक जीवन (एवं शवदाह) और चिंतन की अलौकिकता को समझा जा सकता है।

आदि मानव के लिए बीमारी और मृत्‍यु अपना भयंकर रहस्‍य छिपाए खड़ी थी। कभी महामारी लंबे डग भरती हुई सारे प्रदेश में महानाश उपस्थित करती। उसका भयग्रस्‍त भावुक हृदय आतंक में कभी इधर कारण खोजता और कभी उधर दोष देता। गाढ़े में सहायता के लिए कभी इस वस्‍तु या प्राणी की, कभी उसकी शरण में भटकता। प्रकृति की क्रूरता को उसने मृदु बनाने का यत्‍न किया। अपनी तरह के मनोभाव इन विपत्तियों तथा जड़ वस्‍तुओं पर आरोपित कर उनको तुष्‍ट कर अनुकूल बनाने का प्रयास किया। इसी से वस्‍तु-पूजा, उनके समक्ष जीव-बलि प्रारंभ हुई। इस प्रकार उसने अनेक कठोर परिस्थितियों को जीवन में सहनीय बनाया। प्रकृति की क्रूरता को सहने की शक्ति अर्जित की। पर भारत में इसे वैज्ञानिक दृष्टि से देखना प्रारंभ हुआ।

इसके साथ आया अनजानी शक्तियों को प्रसन्‍न करने का भाव। फिर यह कि मानव कुछ त्‍याग करे, अपनी प्रिय-से प्रिय वस्‍तु देवताओं को अर्पण करे। इसी से बलि की प्रथा आई। नव प्रस्‍तर युग के प्रारंभ में खेत बोने के पहले उर्वरता ( fertility) की देवी को नर-बलि देने की प्रथा भी कहीं-कहीं थी। कोई नीच, बहिष्‍कृत व्‍यक्ति की बलि नहीं बल्कि चुने हुए सुंदर युवक या युवती की, जिसको वे श्रद्धा से देखते और बलिदान के पहले पूजते। इसके पीछे एक कर्मकांड था और एक मानसिक बाध्‍यता। प्रस्‍तरयुगीन मानव को बलि होने वाले व्‍यक्ति और उसके प्रियजनों को भी इसकी क्रूरता का भास नहीं होता था। भारत में जब अकाल पड़ता तो सोने के हल से प्रमुख या राजा खेत जोतता। ऐसी राजा जनक द्वारा पुत्री सीता को प्राप्‍त करने की कथा है। सबका ध्‍यान आकर्षित करने के लिए यह किया जाता होगा। केवल एक अपवाद भारत में कहा जाता है सतयुग की शुन:शेप कथा। जब बारह वर्ष तक अनावृष्टि के कारण अकाल हुआ तो वर्षा के देवता इंद्र को प्रसन्‍न करने के लिए स्‍वेच्‍छा से अपने को बलि के निमित्‍त एक ब्राम्‍हण पुत्र ने, जिससे माता-पिता तथा समाज की दुर्दशा नहीं देखी गई, अर्पित किया। उसे बलि चढ़ाने खेत पर ले जाया गया। पर हवन प्रारंभ करते ही वर्षा हुई और नर-बलि की नौबत नहीं आई। भारत ने नर-बलि को कभी नहीं स्‍वीकारा।

अनुभव से मानव ने बीमारी का संबंध अनेक प्रकार की गंदगी और छूत से लगाया। इसी से शुचिता के भाव उत्‍पन्‍न हुए। भारतीय जीवन में छुआछूत के विचार इसी से आए। इनकी विकृति भी बाद में आई। इसका संबंध किसी आर्य-अनार्य भाव से न था। अनेक लोगों के साथ रहने पर यह आवश्‍यक था कि सामाजिक जीवन चलाने के लिए शरीर-मन-कर्म की शुद्धता पर बल दिया जाता। इस त्रिविध पवित्रता और उसमें उत्‍कर्ष करने के भाव से श्रेष्‍ठ सामाजिक जीवन यहॉं उत्‍पन्‍न हो सका।

पूर्व प्रस्‍तर युग में कुछ प्रौढ़ स्थिरमति लोग होंगे, जो भावनाओं और अंधविश्‍वासों में सहभागी होते हुए भी अधिक आग्रही तथा साहसी होंगे। इनके ऊपर कबीले के नेतृत्‍व का भार आ पड़ा। प्रकृति के कोप को शांत करना और दैवी विपत्तियों के निराकरण का मार्ग सुझाना, शकुन-अपशकुन का विचार करना आदि कार्य इनके मत्‍थे थे। यही परामर्शदाता एवं पुरोहित बने। संकट-निवारण तथा सौभाग्‍य बुलाने के अनेक टोटकों के ज्ञाता। यह समझना भूल होगी कि उस समय के ये पुरोहित नेता छल-कपट या चालबाजी करते और कबीले उनके शिकार बनते थे। इन सब टोटकों, झाड़-फूँक एवं मंत्र-तंत्र पर उनका विश्‍वास था और कबीले के सर्व-कल्‍याण के लिए ही यह सब किया जाता था। यह पुरोहितों का आदिकालीन व्‍यावरिक विज्ञान था। प्रारंभ में पुरोहित धार्मिक व्‍यक्ति न होकर तत्‍कालीन विज्ञान के अभ्‍यासकर्ता थे।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
०१- समय का पैमाना
०२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
०३- सभ्‍यता का दोहरा कार्य
०४- पाषाण युग
०५- उत्‍तर- पाषाण युग
०६- जल प्‍लावन
०७- धातु युग
०८- राजा उदयन की राजधानी - कौशांबी
०९- पुराने कबीले मातृप्रधान थे
१०- जादू, टोने टुटके से - विज्ञान के पथ पर

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