यह सारा वर्णन मध्य-नूतन युग में ज्वालामुखी के क्रिया-कलापों का है, जब बसने योग्य धरती का निर्माण हुआ। यह सारा ब्रम्हांड ब्रम्ह है। उसी से ज्वालामुखी पर्वत उत्पन्न हुआ। इसका आकार भी सूँड़ की तरह है, इसी से यह कल्पना की गई है।
एक विचित्र कथा वाराह अवतार के बारे में कही जाती है। मानव के बसने योग्य धरती समुद्र से निकालने के बाद वाराह प्रजापति बना। स्पष्ट ही आदि मानव ने इस समाज के लिए आधार रूप धरती प्रदान करने के महान कल्याणकारी कार्य के बाद ज्वालामुखी की देवता के रूप में पूजा प्रारंभ की। दक्षिण भारत के पठार पर सर्वत्र ज्वालामुखी के लावा से निर्मित कपास उत्पन्न करने वाली काली मिट्टी (black cotton soil) पाई जाती है। उत्तरी भारत में यह मिट्टी नदी निर्मित मैदानों से बह गई। बुंदेलखंड में नदी-नालों से दूर कहीं-कहीं काली मिट्टी की मोटी परत आज भी विद्यमान है। कहते हैं कि प्रजापति होकर वाराह अत्याचारी हो गया। तब प्रजा ने एक दिन उसका मूलोच्छेद कर दिया, अर्थात् सिर काट लिया। उस स्थान को आज वाराहमूल (बारामूला, कश्मीर) कहते हैं। स्पष्ट है कि ज्वालामुखी द्वारा निर्मित पृथ्वी पर उसके आश्रय में मानव बस गए। तब एक दिन उनका वह देवता ज्वालामुखी पुन: फूट निकला-सारी बस्ती में अग्नि, लावा तथा पिघले पत्थरों की, विनाश की वर्षा करता हुआ। अंत में उसका शमन हुआ। आज भारत में कोई ज्वालामुखी नही है। ‘ज्वालामुखी’ तीर्थ में भी नहीं।
भूमध्य सागर के सिसली द्वीप के विसूवियस (Vesuvius) ज्वालामुखी और उसके किनारे बसे पंपा (Pompei) नगरी की कहानी प्रसिद्ध है। विक्रम संवत् के आरंभ से आरंभ से कुछ पहले यह विसूवियस फूट निकला। उसका बहता हुआ लावा संपन्न नगर में एकाएक भर गया। लोग जैसा कर रहे थे वैसे ही रह गए और संपूर्ण नगर विशाल पिघले पत्थर की नदी में दब गया। अब खुदाई होने पर वह नगर प्रकट हुआ। आज विसूवियस शांत है, पर कभी-कभी घरघराहट सुनाई पड़ती है।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
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