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शनिवार, अक्तूबर 13, 2007

मानव का आदि देश-८

नव प्रस्‍तर युग में भूमंडल की मेखलाकार पट्टी में फैली एक विशेष संस्‍कृति दिखाई पड़ती है। यह मेखला आइबेरियन प्रायद्वीप से लेकर भूमध्‍य सागर के दोनों ओर के प्रदेश, संपूर्ण दक्षिण एशिया और प्रशांत महासागर के द्वीपों को लेकर उस पार मेक्सिको और पेरू तक नई दुनिया में फैली थी। इसके कुछ लक्षण ऐसे विचित्र थे कि पृथ्‍वी के दूरस्‍थ भागों में उनका स्‍वाभाविक रीति से प्रकट होना असंभव है। चारों ओर घेरती इस मेखला में सूर्य-पूजा तथा नाग –पूजा के साथ ‘स्‍वस्तिक’ का शुभ चिन्‍ह के रूप में प्रयोग दिखता है। इसमें सूर्य-पूजा होने के कारण कुछ पुरातत्‍वज्ञ इसे सूर्यप्रस्‍तर संस्‍कृति ( Heliolithic Culture) कहते हैं।

सूर्य को अपने यहॉं भगवान का स्‍वरूप कहा है। इसे प्राचीन ग्रंथों में अनेक नामों से पुकारा गया है और वेद की ऋचाऍं उसकी महिमा गाती हैं। ऋग्‍वेद एवं बौधायन ने सूर्य को आकाश मार्ग पर हिरण्‍य रथ पर सवार दिखाया है, जिसे सात भिन्‍न रंगों के घोड़े हॉंक रहे हैं। यह इंद्रधनुषी वर्णक्रम ( spectrum) का वर्णन है। सूर्य- रश्मियों से प्रकाश- रासायनिक प्रक्रिया (photo chemical process) द्वारा जीवन प्रारंभ हुआ—सूर्य जीवनदाता है। यह अन्‍यत्र ऊर्जा का उद्गम है, जिससे संसार का संचालन होता है। कोणार्क का सूर्य मंदिर प्रसिद्ध है-वैसे ही हैं दक्षिण अमेरिका में पेरू ( Peru) के सूर्य मंदिर। पृष्‍ठ २०-२१ पर पृथ्‍वी को आवेष्टित और इस प्रकार धारण करती जल-प्‍लावन के समय शेष रही पर्वतमाला की भारतीय कल्‍पना का ‘शेषनाग’ के नाम से वर्णन है। इसी से है नाग-पूजा। फनीशियन ( Phoenecians: यह संभवतया ‘फणीश’ अर्थात नाग का अपभ्रंश है) नाग-पूजक थे। ये वेदों में पणि नाम से उल्लिखित हैं। सूर्य और नाग दोनोंकिंवदंतियों में मिलते हैं। भूमंडल को चारों ओर से कटिबंध की भॉंति घेरती ये उपासनाऍं भारतीय हैं। एच.जी.वेल्‍स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘इतिहास की रूपरेखा’
(Outline of History) में लिखा है – ‘किंतु अंततोगत्‍वा जब कभी रहन-सहन के प्रस्‍तरयुगीन तौर- तरीकों का प्रसार-केंद्र निर्धारित होगा तो वह प्रदेश होगा जहॉं सर्प और धूप जीवन में मूलभूत महत्‍व के होंगे।‘ दुर्भाग्‍यवश वे इन विचारों के अवश्‍यंभावी परिणाम भारत तक न पहुँच सके।


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