रविवार, दिसंबर 10, 2006

भौतिक जगत और मानव-3

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
संक्षेप में
प्रस्तावना
भौतिक जगत और मानव-१
भौतिक जगत और मानव-२

आजकल बिग बैंग सौरमंडल की उत्पत्ति मानी जाती है। उसी समय पृथ्वी व अन्य ग्रह अलग हो गए। उस समय वनस्पतिविहीन पृथ्वी में तूफान नाशलीला करते होंगे। पृथ्वी के घूर्णन (revolution) में अपकेंद्री बल (centrifugal force) के कारण तप्त वाष्प के रूप में भाप आदि ऊपर आ गए या ठंडे हो रहे धरातल से उष्णोत्स (geyser) के रूप में फूट निकले। जल क्रिया से परतदार तलछटी शैल (sedimentary rocks) का कालांतर में निर्माण हुआ। ज्वालामुखी ने अग्नि तथा लावा बरसाया। भूकंप और अन्य भीम दबाव ने बड़े-बड़े भूखंडों को खिलौने की तरह तोड़ डाला, इनसे पहाड़ों का निर्माण हुआ। ये तलछटी शैल पुन: अग्नि में पिघलकर बालुकाश्म (sandstone) या आग्नेय शैल (igneous rocks ) बने। इस तरह अनेक प्रकार की पर्वतमालाओं का जन्म हुआ। यह प्रक्रिया वाराह अवतार के रूप में वर्णित है।

पृथ्वी पर फैली आज की पर्वत-श्रृंखला को देखें, अथवा उसके किसी प्राकृतिक मानचित्र को लें। इसमें हरे रंग से निचले मैदान तथा भूरे,स्लेटी, बैंगनी और सफेद रंग से क्रमश: ऊँचे होते पर्वत अंकित हैं। यह पर्वत-श्रेणी मानो यूरोप के उत्तर नार्वे (स्कैंडिनेविया : स्कंद देश) में फन काढ़े खड़ी है। फिर फिनलैंड से होकर पोलैंड, दक्षिण जर्मनी होते हुए स्विस आल्पस (Swiss Alps) पर्वत पर पूर्व की ओर घूम जाती है। यहॉं से यूगोस्लाविया, अनातोलिया (एशियाई तुर्की), ईरान (आर्यान) होकर हिंदुकुश पर्वत, फिर गिरिराज हिमालय, आगे अल्टाई और थियनशान के रूप में एशिया के सुदूर उत्तर-पूर्व कोने से अलास्का में जा पहुँचती है। वहॉं से यह पर्वत-श्रेणी राकीज पर्वतमाला बनकर उत्तरी अमेरिका और एंडीज पर्वत-श्रृंखला बनकर दक्षिणी अमेरिका पार करती है। अंत में इस सर्पिल श्रेणी की टेढ़ी पूँछ नई दुनिया के दक्षिणी छोर पर समाप्त होती है। पुरानी दुनिया के उत्तर नार्वे से नई दुनिया के दक्षिणी छोर तक इस संपूर्ण नगराज को लें। इसने सर्प की भॉंति इस सारी दुनिया को आवेष्टित कर रखा है। हिमयुग के बाद पिघलती बर्फ के जल से प्लावित संसार में उभरा हुआ कुछ शेष रहा तो यह नगराज। मानो इसके द्वारा धरती की धारणा हुई। यही पुरानी भारतीय कल्पनाओं का शेषनाग है।

यह हमारी पृथ्वी ४०,००० किलोमीटर परिधि का गोला है। इसका ज्ञान ऊपरी पपड़ी तक सीमित है। इसे चारों ओर से अवगुंठित करता वायुमंडल ऊपर क्षीण होता जाता है और चिडियाँ कठिनाई से छह किलोमीटर ऊँचाई तक उड़ सकती हैं तथा वायुयान दस किलोमीटर तक। उष्णकटिबंध में भी सात किलोमीटर के ऊपर हिम से ढके पर्वतों पर कोई जीवन नहीं है। सागर में मछलियॉं या वनस्पति लगभग पॉंच-किलोमीटर गहराई तक ही मिलती हैं। इसी धरातल में जीवन का विकास हुआ।

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