बुधवार, सितंबर 24, 2008

वेदांती शंकर अथार्त आदि शंकराचार्य

विक्रमी संवत् से ४५२ वर्ष पूर्व (यह आचार्य उदयवीर शास्त्री का मय-निर्धारण है) केरल के एक गांव में प्रसिद्घ वेदांती शंकर (जो बाद में आदि शंकराचार्य कहलाए) का जन्म हुआ। वह अद्वैत दर्शन के आचार्य हुए; आज के हिंदू विचारों में जिनका सबसे अधिक प्रभाव दिखता है। कम आयु में ही वह संन्यासी हुए। जिसे इतिहास उनकी 'दिग्विजय' कहता है, वह काशी से प्रारंभ की। वहां मीमांसा-दार्शनिक मंडन मिश्र के साथ प्रसिद्घ शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी भाती निर्णायिका थी। उसके बाद उन्होंने सादे देश को मथ डाला। भारत के चार कोनों में, दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में पुरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में शंकराचार्य ने मठ स्थापित किए। ये विहारों की परंपरा के अनुसार संचालित होते थे। इनका कार्यक्षेत्र तथा नियम भी 'मठाम्नाय' और 'महानुशासनम्' द्वारा निर्धारित  किए। समूचे देश में 'दशनाम' संन्यासियों के अखाड़े प्रारंभ किए। इन्हें देश की नागरिक सेना कह सकते हैं। इन दशनाम संन्यासियों में पुरी, सागर, गिरि, पर्वत, अरण्य, तीर्थ, आश्रम, भारती, सरस्वती जैसे नाम थे। स्पष्ट ही यह भिन्न-भिन्न स्थलों की रक्षा के लिए बनाई संन्यासियों की सेना थी जो देश भर में घूमकर धर्म (नियम तथा नैतिकता) की और समय आने पर अस्त्र-शस्त्र की तथा आक्रमण से बचाव की शिक्षा देती थी। वह निश्चित समय पर अपने केंद्र (आश्रम और अखाड़े) में उत्सव तथा अगली शिक्षा के आदान-प्रदान के लिए आती। अधिकांशत: बौद्घ विहार की पद्घति पर इनका संघटन हुआ। इस प्रकार इन चार मठों और इन अखाड़ों, दोनों ने मिलकर उन कमियों को पूरा किया जो भारत से बौद्घ मत के लोप होने के कारण थे।

आदि शंकराचार्य की मूर्ती का चित्र विकिपीडिया से

सुबोध और प्रांजल भाषा के धनी शंकर लगभग ३०० भाष्यों एवं पुस्तकों के रचयिता कहे जाते हैं। कुछ इतिहासज्ञ कहते हैं कि अपने ३२ वर्ष के जीवन में उनके बौद्घिक दिग्विजय के कारण पुन: उस अस्थिर राजनीतिक वातावरण में वेदांत पर आस्था जगी, उससे रहा-सहा बौद्घ मत भारत से समाप्त हुआ। वहीं दूसरी ओर इतिहासज्ञ उनके दादागुरू गौड़पाद एवं स्वयं शंकर को प्रच्छन्न बौद्घ कहते हैं। उन शंकर को भी देश ने अवतारी पुरूष कहा।


वास्तव में यह उदाहरण है कि भारतीय संस्कृति की भिन्न धाराएं कैसे एक-दूसरे से ग्रथित हैं। इन्हें अलग करके देखना संभव नहीं है। परंतु यह सदा होता आया है कि छोटा सा अंतर, जो वास्तव में हिंदु जीवन में वैचारिक स्वतंत्रता की निशानी है, उसको लेकर इस संस्कृति से अनभिज्ञ व्यक्ति तिल का ताड़ बनाकर लोगों को बहकाते आए हैं। विचारों की स्वतंत्रता पथभ्रष्टता का लक्षण न होकर उत्कृष्ट बुद्घि तथा परिपक्वता का लक्षण है और मानव सभ्यता के उस स्तर को प्रदर्शित करता है जिसकी बहुतेरे अन्य समाज कल्पना भी नहीं कर सकते। इसी से अनेक बार भ्रमित होकर हास्यास्पद बातें हिंदु समाज के लिए कही जाती हैं। आज इस समाज की मूलभूत सभ्यता की छलांगों में संसार को आश्चर्यचकित करने वाले एकता के सूत्र को न समझने के कारण उसको छिन्न-भिन्न दिखाने के प्रयासों को प्रगतिशीलता माना जाता है।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों
१८ महाभारत में, कृष्ण की धर्म शिक्षा
१९ कृष्ण की मृत्यु और कलियुग की प्रारम्भ
२० बौद्ध धर्म
२१ जैन धर्म
२२ सिद्धार्त से गौतम बुद्ध तक का सफर
२३ बौद्ध धर्म का विकास
२४ भारत में बौद्घ मत के ह्रास के कारण और वेदांती की आवश्यकता
२५  वेदांती शंकर अथार्त आदि शंकराचार्य

रविवार, सितंबर 07, 2008

भारत में बौद्घ मत के ह्रास के कारण और वेदांती की आवश्यकता

कैसे कभी-कभी सद्गुणों की विकृति हो जाती है, इसका उल्लेख वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक 'भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ' में किया है। यह 'सद्गुण विकृति' तभी होती है जब अनेक वर्ष अथवा शताब्दियां बीतने पर उन सद्गुणों का विस्मरण हो जाय और उनका स्थान कोरे कर्मकांड ने ले लिया हो; जब सद्गगुणों की कारण-मीमांसा बंद हो जाय अथवा श्रेष्ठ गुणों का हेतु साधारण जन को उपलब्ध न हो, अथ्वा गुणों के अतिचार में एक अदूरदर्शी, संकुचित अंधविश्वासी दृष्टि आ जाय। ऎसा बौद्घ और जैन मत के इतिहास में भी हुआ। उदात्त भाव लेकर चलने वाले मानव जीवन के परम सुख की कल्पना ले और उसको श्रेष्ठ गुणों से संयुक्त करने वाले तथा मोक्ष की कल्पना करने वाले इन मतों में भी 'सद्गुण विकृति' आ सकती है, इसका गुमान न था। पर ऎसा प्रसंग आया।

एक बार मुंबई के उपनगर में पैदल जब एक सीधी जाने वाली सड़क से निकला तो मेरे साथी ने उधर जाने से मना किया। कहा, 'उधर जैनियों का मठ है।' आश्चर्यचकित मुझे बताया गया, 
'उस मठ के जैन साधक मूत्र को सीवर में नहीं डालते। उससे नाली के कीड़े मर जायेंगे, इसलिये इकट्ठा कर सड़क पर बहाते हैं। इससे दुर्गन्ध फैलती है और पड़ोसियों का निकलना-बैठना दुश्वार है।' 
सीवर के कीड़े सुरक्षित रहें, इसलिए पड़ोसियों को कष्ट हें।

व्यक्तिगत मान-अपमान भी विकृति उपजाता है। ऎसी विक्रमी संवत् के पूर्व शताब्दी की जैन आचार्य की कहानी है। कालकाचार्य ने उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल (विक्रमादित्य के पिता) द्वारा अपनी बहन से दुर्व्यवहार किए जाने पर दु:खित हो गजनी जाकर शक-हूणों को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। अनंततोगत्वा अगली पीढ़ी में विक्रमादित्य की विजय हुई और भारत शक और हूणों के आतंक से मुक्त हो गया। किंवदंती है कि जब विक्रमादित्य की सारी सेना नष्ट हो गई तब मिट्टी की मूर्तियों में प्राण फूंककर सेना खड़ी की। ये मिट्टी की मूर्तियां, अर्थात् साधारण किसानों को संगठित कर मानो प्राण फूंके और भारत की धरती शक और हूण आक्रांताविहीन की। इस विजय के उपलक्ष्य में विक्रमी संवत् प्रारंभ हुआ। एक किंवदंती और भी है कि ईरान (आर्यान) के राजा मित्रादित्य (मित्रडोट्स), जो तानाशाह हो अत्याचारी बना, का वध करके विक्रमादित्य ने यह 'विक्रमारि' संवत् प्रारंभ किया।
Standing Buddha sculpture, ancient region of G...Image via Wikipedia
महावीर और बुद्घ ने जिस अहिंसा को अपनाने को कहा, वह बलवान की अहिंसा थी। बलवान् के द्वारा अहिंसा का व्रत सार्थक है। प्राणिमात्र को किसी प्रकार की पीड़ा न पहुंचाना, यह ईश्वरीय गुण है। बुद्घ का एक प्रसंग है - एक राज्य के सेनापति ने दीक्षा लेकर शिष्य बनने की प्रार्थना की। बुद्घ ने पूछा कि,
'आखिर सेनापति का पद छोड़कर शिष्य बनने की इच्छा क्यों हुई ? शत्रु सेना वापस नहीं जाएगी और युद्घ होकर रहेगा। तब जन-धन की अपार हानि होगी; और उस हिंसा के लिए वही उत्तरदायी होगा, क्योंकि उसने अपना कतर्व्य नहीं निभाया। रक्षा करना धर्म-कार्य में प्राण हानि होने पर उसे पातक न लगेगा?' 
बुद्घ ने उसे उपदेश दिया कि उसका 
'भिक्षु बनने का विचार कर्तव्यच्युत होना है।'


'अहिंसा परमो धर्म:'; पर उसका दूसरा भाग जो शास्त्रों ने कहा, 'धर्महिंसा तथैव च'। यदि अहिंसा परम धर्म है तो धर्महिंसा (अर्थात् कानून के अनुसार हिंसा) भी परम धर्म है। आत्मरक्षा में हिंसा विधिसम्मत है, इसलिए वह भी परम धर्म है। बाद के भाग का विस्मरण होता गया। पर जब कोई सभ्यता या संस्कृति अपने लोगों की रक्षा नहीं कर सकती तो वह मर जीती है। जब मुसलिम आक्रमणकारियों ने गांधार (कंधार) और सिंध पर आक्रमण किया तब जनता ने अपने को 'बौद्घ' कहकर युद्घ करने से इनकार किया। मुहम्मद-बिन-कासिम ने सब प्रदेश जीता। राजा दाहिर को बंदी बनाकर मार डाला और उसके बाद नरसंहार प्रारंभ किया। आखिर इस पाप की दोषी तो वहां की बौद्घ जनता थी, जो अहिंसा व्रत के कारण युद्घ से विरत रही। यह बात दूसरी है कि दो राजकुमारियों ने इसका बदला लिया। सिंध कुछ वर्ष के बाद भीषण रक्तपात के बीच स्वतंत्र हो गया। ऎसा कि १५० वर्ष तक फिर भारत पर विदेशी आक्रमण नहीं हुआ। अहिंसा के दैवी सद्गुण की भी कैसी विकृति हो सकती है, और परिणाम, कैसी भयानक दुर्दशा! इसके उदाहरण भारत की पश्चिमी सीमा पर हुए इसलामी आक्रमणों की कहानियां हैं।

बौद्घ मत में कालांतर में अनेक मतांतर उत्पन्न हुए। इसलिए कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न होता है कि संभवतया विदेशी आक्रमणकारियों से मत का नामा, देश के अन्य बांधवों से बड़ा दिखा हो, जैसा कि इतिहास में बाद में हुआ। आखिर मुसलिम और ईसाई आक्रमणकारियों ने अत्याचारों से ; भय, लालच, जाल-फरेब आदि से, तलवार तथा धन से मुसलमान और ईसाई बनाकर अनेक देशों में अपने हस्तक निर्मित किए। आज जिनको सामान्यतया हिंदू ( अथवा उनका बौद्घ मत) कहते हैं, उनका उस प्रकार का कोई पंथ (मजहब अथवा रिलीजन) कभी नहीं रहा। जिस प्रकार धर्मांतरण या तबलीग (Proselytization) करने वाले पंथ हैं। बौद्घ मत भी हिंदू समाज में एक मत था; विशाल गंगा की एक प्रमुख धारा, जहां विचारों की स्वतंत्रता, तर्कपूर्ण शैली, त्याग तथा अहिंसा पर आधारित समग्र मानव के कल्याण की, दु:खों के निवारण की और मुक्ति की उसकी कल्पना है वहां बिना मूल धारा को समझे, ऊपरी सादृश्य के किसी तुच्छ भाग को ले, तिल से ताड़ बनाना मानव सभ्यता के इस महान् कल्याणकारी आंदोलनकारी आंदोलन का उपहास करना है।

पर मध्य एशिया और भारत से भी बौद्घ मत का धीरे-धीरे ह्रास होता गया। राजाश्रय गया। पेशावर (पुरूषपुर) और कंधार (गांधार) से पश्चिमी प्रदेशों में हूणों के आक्रमण के कारण क्षति प्रारंभ हुई। और जब आठवीं शताब्दी में गांधार और उड्डियान (उजबेकिस्तान) में इस मत में पुन: उभार आया तब तुर्क आक्रमण से और सिंध में अरब आक्रमण से बौद्घ समाप्तप्राय हो गए। भारत में जब विदेशी आक्रमणकारी आए तब देशरक्षा और प्रतिरोध के लिए क्षात्रशक्ति की आवश्यकता थी। ये सभ्यता के ऊंचे स्तर पर विराजमान मानवीय गुणों से विभूषित, उदात्त आध्यात्मिक चेतना के मत थे । संसार के इतिहास में अनेक बार बर्बर जातियों ने अपने से सभ्य लोगों का विनाश कर डाला। साधारण जनता के साथ-साथ बौद्घ तथा उनके विहार (मठ) भी इन मदांध आक्रमणकारियों के शिकार बने। जैन मत कुछ सीमा तक प्रतिकूल समय में अपने मठ-मंदिर और पूजा-वस्तुओं पर छद्मावरण डाल अच्छा समय आने पर पुन: उपासना की प्रतीक्षा के कारण बच सके। डा. अंबेडकर के अनुसार, 
'बर्बर मुसलिम आक्रमण ही बौद्घ मत के समूल उच्छेद का कारण बने।'

भारत में बौद्घ मत के ह्रास का दूसरा कारण सार्वजनिक लौकिक जीवन से संबंध छूटना है। इन सब कमियों को दूर करने के लिए एक वेदांती की आवश्यकता थी।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों
१८ महाभारत में, कृष्ण की धर्म शिक्षा
१९ कृष्ण की मृत्यु और कलियुग की प्रारम्भ
२० बौद्ध धर्म
२१ जैन धर्म
२२ सिद्धार्त से गौतम बुद्ध तक का सफर
२३ बौद्ध धर्म का विकास
२४  भारत में बौद्घ मत के ह्रास के कारण और वेदांती की आवश्यकता



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