मंगलवार, मई 20, 2008

राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा

इस कालखंड में पहुँचकर ‘क्षत्रिय’ और ‘राजा’ की उत्‍पत्ति पर विचार करना पड़ेगा। कहते हैं कि आपस में लड़ाई-झगड़ों से तंग आकर सब ब्रम्‍हा के पास गए। ब्रम्‍हा न स्‍वायंभुव मनु से प्रजापालन हेतु कहा। पहले मनु ने इनकार किया। जब प्रजा ने आश्‍वासन दिया कि हम छठा भाग राज्‍य-संचालन के लिए देंगे तथा सत्‍कर्म का भी छठा भाग देंगे और आपकी बात मानेंगे, तब मनु प्रजापति बने। उस समय की अत्‍यंत विरल जनसंख्‍या में शासन का विधिसंगत प्रारंभ बताने के लिए इस प्रकार की कथा प्रतिपादित की गई। यही रूसी (Rousseau) के सामाजिक अनुबंध (Social Contract) के सिद्धांत की पूर्व पीठिका है।

दूसरी कथा है कि पहले धर्म का शासन था। उसका ह्रास होने पर नीति शास्‍त्र की रचना की गई और विरज शासक हुआ। इस विरज के दो पीढ़ी बाद वेन, जिसे मृत्‍यु का नाती बताया गया है, अगुआ बना। यह राग-द्वेष के वशीभूत हो प्रजा को धर्म से च्‍युत करने लगा तो ऋषियों ने मंत्रपूत कुशाओं से उसे मार डाला। अराजकता बढ़ने पर शव के दाहिने हाथ को मथकर पृथु को उत्‍पन्‍न किया। इसे भगवान् का अंशावतार कहते हैं। ऋषियों ने पृथु से कहा कि वह स्‍वयं दुर्गुणों से रहित होकर धर्म की रक्षा करे और अधर्मियों को दंड दे। पृथु ने यह मान लिया। वह प्रजा का रंजन करने के कारण ‘राजा’ कहलाया और क्षतों से त्राण करने के कारण ‘क्षत्रिय’ । पृथु के नाम पर ही यह वसुंधरा ‘पृथ्‍वी’ कहलाई।

पृथु के अभिषेक के पहले वेन के अनाचार से और कोई प्रजापालक न रहने के कारण पृथ्‍वी अन्‍नहीन हो गई थी और प्रजाजनों के शरीर सूखकर कॉंटे। इस पर पृथु ने गौ रूपिणी पृथ्‍वी से कहा, ‘तू यज्ञ में देवता रूप में भाग तो लेती है, किन्‍तु बदले में हमें अन्‍न नही देती।‘ तब पृथ्‍वी ने कहा, ‘राजा लोगों ने मेरा पालन तथा आदर करना छोड़ दिया है। दुष्‍ट और चोर सर्वरूत्र फैले हैं। इसलिए धान्‍य और औषध को मैंने छिपा रखा है। अब आप मुझे समतल करें, जिससे इंद्र का बरसाया जल सदैव बना रहे। फिर मेरे योग्‍य बछड़े की व्‍यवस्‍था कर इच्छित वस्‍तु दुह लें।‘ पृथु ने पर्वतों को फोड़ भूमि समतल की। यथायोग्‍य निवास स्‍थान बनाकर प्रजा के पालन-पोषण की व्‍यवस्‍था की। गॉंव, कस्‍बे, नगर, दुर्ग, पशुओं के स्‍थान, छावनियॉं, खानें आदि बसाईं। पहले इस प्रकार के ग्राम, नगर आदि का विभाजन न था। फिर पृथु ने धान्‍य, औषध तथा खनिज आवश्‍यकतानुसार और बछड़े का ध्‍यान रखकर दुहा। इस प्रकार पृथु के समय कृषि और धातु उद्योग मानव समाज को प्राप्‍त हुए तथा ग्राम-नगर से युक्‍त सभ्‍यता आई। पर साथ-साथ उठा पर्यावरण और वनस्‍पति एवं प्राणिमात्र के संरक्षण का विचार, उसकी नितांत आवश्‍यकता तथा प्रकृति के प्रति भक्ति।



कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा

गुरुवार, मई 15, 2008

वामन अवतार और बलि

अगली कथा प्रहलाद के पौत्र बलि की है। बलि ने शुक्राचार्य आदि भृगुवंशियों की सेवा कर एवं विश्‍वजित यज्ञ कर सोने की चादर से मढ़ा दिव्‍य रथ तथा धनुष, दो अक्षय तूणीर और कवच प्राप्‍त किए थे। इनसे युक्‍त होकर बलि ने इंद्र की नगरी अमरावती और सारे विश्‍व को जीत लिया। तब उसने सौ अश्‍वमेध यज्ञ किए।

अंतिम यज्ञ के समय एक नन्‍हें ब्रम्‍हचारी ने यज्ञ- मंडप में प्रवेश किया। बलि ने अवसर के अनुसार स्‍वागत कर जो चाहे मॉंगने को कहा। वामन ने कुल परपरा एवं धर्माचरण की प्रशंसा करते हुए और उसकी दानवीरता की दुहाई देकर केवल तीन पग पृथ्‍वी मॉंगी। बलि ने पूरा द्वीप मॉंगने को कहा। पर वामन अपने आग्रह पर डटा रहा, ‘चक्रवर्ती नरेश भी धन और भोग की सामग्री प्राप्‍त होने पर तृष्‍णा का पार न पा सके। संतोषी, इंद्रियोंको वश में रखने वाला व्‍यक्ति ही सुखी रहता है। इसलिए जितने से मेरा काम बने, वह तीन पग मॉंगता हूँ।‘ बलि हँस पड़ा, ‘जितनी इच्‍छा हो, ले लो।‘ कहकर संकल्‍प को उद्यत हुआ। इस पर शुक्राचार्य ने मना किया ‘यह तीन पग में सारे लोक नाप लेगा। जब तुम सर्वस्‍व दे दोगे तब निर्वाह कैसे होगा? अपनी जीविका की रक्षा के लिए, प्राण संकट पर या किसी को मृत्‍यु से बचाने के लिए असत्‍य भाषण उतना निंदनीय नहीं है।‘ पर बलि न माना और पत्‍नी से जल ले संकल्‍प किया।

तब एक अद्भुत घटना घटी । वामन का रूप बढ़कर संसार-व्‍यापी हो गया। दो पगों में ही उसने तीनों लोकों को नाप लिया। तब बलि से कहा, ‘तुमने मुझे तीन पग पृथ्‍वी देने का दंभ किया था। अब तीसरे पग का स्‍थान कहॉं ?’ इस पर बलि ने अपना सिर दिखा दिया। वामन ने उसे पाताल लोक में राज्‍य करने भेज दिया। कहा, ‘जो तुम्‍हारा असुर भाव होगा वह मेरे संसर्ग से नष्‍ट हो जाएगा।‘ इस प्रकार वामन ने बलि से पृथ्‍वी की भिक्षा मांग कर देवताओं को स्‍वर्ग लौटा दिया। बाद में बलि इंद्र बना।


इसी कथा से प्रेरित हो कर जयंत विष्णु नार्लीकर ने एक विज्ञान कहानी द रिटर्न ऑफ वामन (The Return of Vaman) लिखी

यह समाज की अगली सभ्‍य अवस्‍था का चित्र है। वामन शिशु रूप समाज है। तब हिंसा अथवा ‘जंगल के नियम’ की आवश्‍यकता नहीं पड़ी। यह शिशु रूपी समाज सब जगह फैल गया। इसके मॉंगने मात्र से अधिकार मिल गए। इस कथा से स्‍पष्‍ट है कि असुर को भी आसुरी भाव नष्‍ट होने पर देवताओं का राज्‍य एवं इंद्र पद मिल सकता है।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि

मंगलवार, मई 06, 2008

हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद

अमृत-मंथन से अंकुरित, विभिन्‍नताओं के बीच अनेक उपासना पद्धतियों का समन्‍वय करते हुए, सभी प्रकार के मत-मतांतरों को समेटकर एक सहिष्‍णु सामाजिक जीवन देवों के उपासकों के देश में प्रारंभ हुआ। पर असुरों के उपासक भारत से गए नहीं। अगली कहानी असुर राजा हिरण्‍यकशिपु की है।
‘हिरण्‍यकशिपु तथा हिरण्‍याक्ष दो जुड़वॉं भाई थे। जिस समय वे पैदा हुए, पृथ्‍वी एवं अंतरिक्ष में अनेक उत्‍पात होने लगे। पृथ्‍वी और पर्वत कॉंपने लगे, सब दिशाओं में दाह होने लगा। उल्‍कापात होने लगा और बिजलियॉं गिरने लगीं। घटाऍं छा गईं। समुद्र कोलाहल करने लगा। बिना बादलों के गरजने का शब्‍द होने लगा तथा गुफाओं से रथ की घरघराहट-सा शब्‍द निकलने लगा। पशु अमंगल शब्‍द करते, रेंकते, पागल होकर इधर-उधर दौड़ने लगे और मल-मूत्र त्‍याग करने लगे। ये दोनों दैत्‍य सहसा अपने फौलाद के समान कठोर शरीर से पर्वताकार हो गए। उनका हेमकिरीट स्‍वर्ग को छूता था। जब वे कदम रखते तब भूकंप आता।‘
श्रीमद्भागवत का यह वर्णन ज्‍वालामुखी पर्वतों के जन्‍म का है। हिरण्‍याक्ष तो वाराह के समय नष्‍ट हो गया, हिरण्‍यकशिपु सहस्‍त्रों शताब्दियों तक जीवित रहा। हिरण्‍यकशिपु का शाब्दिक अर्थ ‘स्‍वर्ण कछुआ’ या ‘स्‍वर्ण पर्वत’ है। कालांतर में एक असुर राजा हुआ जो ‘हिरण्‍यकशिपु’ अर्थात् उस ज्‍वालामुखी का पुजारी या प्रवक्‍ता बना। इसी से वह स्‍वयं हिरण्‍यकशिपु कहलाया। असुरों को इस प्रकार शक्ति दिखाने की माया आती थी। कहते हैं, हिरण्‍यकशिपु राजा ने तप किया। (ज्‍वालामुखी का आगे वर्णन चलता है) जब बहुत दिनों तक तपस्‍या करते वह मिट्टी के ढेर में छिप गया तब उसके सिर से अग्नि धुऍं के साथ निकलने लगी और लोगों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप एवं पर्वतों सहित पृथ्‍वी डगमगाने लगी। दसों दिशाओं में आग लग गई। तब ब्रम्‍हा वहॉं गये । हिरण्‍यकशिपु ने वर मॉंगा—
‘आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्‍य, पशु, देवता, दैत्‍य, नागादि किसी से मेरी मृत्‍यु न हो। मैं समस्‍त प्राणियों पर राज्‍य करूं।‘
ब्रम्‍हा से वरदान पाकर दैत्‍यराज ने समस्‍त प्राणियों को जीतकर अपने वश में कर लिया। पृथ्‍वी के सातों द्वीपों पर उसका अखंड राज्‍य था। ऐश्‍वर्य के मद में मतवाला और घमंड में चूर होकर उसने अपने को ‘भगवान’ प्रसिद्ध किया और अत्‍याचारी बना।

जब हिरण्‍यकशिपु तप के द्वारा शक्ति बटोर रहा था, उसकी रानी ने नारद के आश्रम में शरण ली। वहॉं प्रहलाद नामक पुत्र पैदा हुआ। आश्रम के संस्‍कारों के कारण वह समस्‍त प्राणियों के साथ समता का बरताव करने वाला, सबका प्रिय, हितैषी एवं गुणी हुआ। हिरण्‍यकशिपु के लौटने पर प्रहलाद ने कहा,
‘अपने-पराए का भेदभाव झूठा है। इसे अज्ञानी करते हैं। भगवान सबके अन्‍दर, सब जगह है।‘
प्रहलाद ने अपने पिता को भगवान मानने से इनकार किया और समझाने में न आया। अपने साथियों को भी आसुरी प्रवृत्ति और विषयों में आसक्ति त्‍याग सबकी भलाई करने की सलाह दी। हिरण्‍यकशिपु ने पहले ताड़ना दी, फिर उसके मरवाने के यत्‍न किए। उसे मतवाले हाथी के सामने डाला गया, पर हाथी ने उठा लिया। विषधर सॉंपों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। पहाड़ की चोटी से नीचे गिराने तथा चट्टान से दबाने पर भी वह बच गया।

हिरण्‍यकशिपु को चिंति‍त देख उसकी बहन होलिका ने प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करने का प्रस्‍ताव रखा। होलिका को वर प्राप्‍त था कि वह स्‍वयं अग्नि में न जलेगी। पर जब होलिका प्रहलाद को गोद में ले चिता पर बैठी तो एक चमत्‍कार हुआ। होलिका जल गई—दूसरे के साथ, हृदय में पाप लेकर जो बैठी थी। पर प्रहलाद को अग्नि ने छुआ भी नहीं। प्रहलाद रूपी संस्‍कृति बच गई। तभी फाल्‍गुन की पूर्णिमा को इसी स्‍मृति में प्रति वर्ष पतझड़ के पत्‍ते और डाल इकट्ठा कर होली जलाते हैं। और अगले दिन प्रहलाद के जीवित निकलने के उपलक्ष्‍य में रंग और गुलाल डालकर तथा गले मिलकर बधाई देते और खुशियॉं मनाते हैं। हृदय का कल्‍मष जलाकर, बुराई को त्‍यागकर और पुराने अप्रिय प्रसंगों को भूलकर पुन: संस्‍कृति में पगें।

तब हिरण्‍यकशिपु ने प्रहलाद से पूछा,
‘किसके बलबूते पर तू मेरी आज्ञा के विरूद्ध कार्य करता है ?’
प्रहलाद ने कहा,
‘आप अपना असुरभाव छोड़ दें । सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की पूजा है।‘
हिरण्‍यकशिपु क्रोध में कहा,
‘तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्‍वामी बताता है। कहॉं है वह तेरा जगदीश्‍वर ? क्‍या इस खंभे में है जिससे तू बँधा है ?’
कहकर खंभे में घूँसा मारा। तभी खंभा भयंकर शब्‍द के साथ फट गया और उसमें से एक डरावना रूप प्रकट हुआ। सिर सिंह का और धड़ मनुष्‍य का, पीली ऑंखें, जम्‍हाई लेते समय लहराती अयाल, विकराल डाढ़ें, तलवार-सी लपलपाती जीभ। सिंह का भयानक मुख और अनेक बड़े नखों से युक्‍त हाथ कँपकँपी पैदा करते थ। यही ‘नृसिंह अवतार’ है। वेग से नृसिंह ने हिरण्‍यकशिपु को पकड़ लिया और द्वाभा की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जॉंघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्‍त्र से, न शास्‍त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला। हजारों सैनिक जो प्रहार करने आए, उन्‍हें नृसिंह ने हजारों भुजाओं और नख रूपा शस्‍त्रों से खदेड़कर मार डाला।

फिर क्रोध से उद्दीप्‍त नृसिंह सिंहासन पर जा बैठा। किसी को पास जाने का साहस न हुआ। तब प्रहलाद ने दंडवत हो उसकी प्रार्थना की। प्रहलाद का राजतिलक करने के बाद नृसिंह चला गया।

नृसिंह अपने सहस्‍त्रों हाथों सहित समाज का क्रोधित अर्द्ध जंगली स्‍वरूप है। उस समय समाज पशुभाव से पूर्णरूपेण उठ नहीं पाया था। प्रहलाद रूपी संस्‍कृति ने समता का – सभी वस्‍तुओं में भगवान के दर्शन का-संदेश दिया। उसकी रक्षा समाज ने सत्‍ता के विरूद्ध विद्रोह करके और अपना क्रोध दिखाकर की। उस अत्‍याचारी का, जो लगता था कि अमर है, हनन किया। संस्‍कृति की रक्षा हुई और समाज का कार्य संपन्‍न हुआ।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी


०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि

रविवार, अप्रैल 27, 2008

शिव पुराण - कथा: अवतारों की कथा

सागर-मंथन की कथा से शिव (shiva) का रूप निखरता है। ऋग्‍वेद में जहॉ सूर्य, वरूण,वायु, अग्नि, इंद्र आदि प्रा‍कृतिक शक्तियों की उपासना है वहीं ‘रूद्र’ का भी उल्‍लेख है। पर विनाशकारी शक्तियों के प्रतीक ‘रूद्र’ गौण देवता थे। सागर- मंथन के बाद शायद ‘रूद्र’ नए रूप में ‘शिव’ बने। ‘शिव’ तथा ‘शंकर’ दोनों का अर्थ कल्‍याणकारी होता है। अंतिम विश्‍लेषण में विध्‍वंसक शक्ति कल्‍याणकारी भी होती है – यदि वह न हो तो जिंदगी भार बन जाय और दुनिया बसने के योग्‍य न रहे। आखिर कालकूट पीनेवाले ने समाज का महान् कल्‍याण किया।

बैंगलोर में शिव मूर्ति का चित्र विकिपीडिया से है और ग्नू मुक्त प्रलेखन अनुमति पत्र की शर्तों के अन्दर प्रकाशित है।

शिव का रूप विचित्र अमंगल है। नंग – धड़ंग, शरीर पर राख मले, जटाजूटधारी, सर्प लपेटे, गले में हडिडयों एवं नरमूंडों की माला और जिसके भूत – प्रेत, पिशाच आदि गण हैं। ये औघड़दानी सभी के लिए सुगम्‍य थे। देव तथ असुर सभी को बिना सोचे – समझे वरदान दे बैठते। एक बार भस्‍मासुर ने वरदान प्राप्‍त कर लिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखे वह भस्‍म हो जाय। तब यह सोचकर कि शिव कहीं दूसरे को ऐसा वरदान न दें, वह उन्‍हीं पर हाथ रखने दौड़ा । शिव सारे संसार में भागते फिरे। अंत में भगवान् सुंदरी ‘तिलोत्‍तमा’ का रूप धरकर नृत्‍य करने लगे। भस्‍मासुर मोहित होकर साथ में उसी प्रकार नाचने लगा। तिलोत्‍तमा ने नृत्‍य की मुद्रा में अपने सिर पर हाथ रखा, दूसरा हाथ कटि पर रखना नृत्‍य की साधारण प्रारंभिक मुद्रा है। भस्‍मासुर ने नकल करते हुए जैसे ही हाथ अपने सिर पर रख, वह स्‍वयं वरदान के अनुसार भस्‍म हो गया। शायद किसी असुर ने अग्नि के ऊपर यांत्रिक सिद्धि प्राप्‍त की और उससे संहारक शक्ति को नष्‍ट करने की सोची। पर संहारक शक्ति को नष्‍ट करने की सोची। पर संहारक शक्ति को इस प्रकार नष्‍ट नहीं किया जा सकता और वह स्‍वयं नष्‍ट हो गया। शिव का उक्‍त रूप उस समय के सभी अंधविश्‍वासों से युक्‍त सामान्‍य लोगों का प्रतीक है। असुर भी शिव के उपासक थे। संभ्‍वतया समाज – मंथन के समय साधारण लोगों को तुष्‍ट करने के लिए उनके रूप में ढले ‘रूद्र’ को ‘महादेव’ तथा ‘महेश’ कहकर पुकारने लगे। इस प्रकार ‘महा’ उपसर्ग लगाकर संतुष्‍ट करने का एक एंग है। कुछ पुरातत्‍वज्ञ यह मानते हैं कि शंकर दक्षिण के देवता थे, इसीलिए घोषित किया गया कि वह कैलास पर रम रहे। पार्वती उत्‍तर हिमालय की कन्‍या थी। उसने शिव की प्राप्ति के लिए कन्‍याकुमारी जाकर तपस्‍या की। आज भी कुमारी अंतरीप में, जहॉ सागर की ओर मुंह करके खड़े होने की स्‍वाभाविक प्रवृत्ति होती है, उनकी मूर्ति उत्‍तर की, अपने आराध्‍य देव कैलास आसीन शिव की ओर मुंह करके खड़ी है। यह भरत की एकता का प्रतीक है। मानो शिव – पार्वती की विवाह से दक्षिण – उत्‍तर भारत एक हो गया।

शिव का चिन्‍ह मानकर शिवलिंग की पूजा बुद्ध के कालखंड के पूर्व आई । वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिन्‍ह की पूजा कर सकें,उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिन्‍ह माना। विक्रम संवत् के कुछ सहस्राब्‍दी पूर्व उक्‍कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रूद्र का आविर्भाव दिखा। शिव पुरण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया । यही उल्‍का पिंड बारह ज्‍योतिर्लिंग कहलाए। इसी कारण उल्‍का पिंड से आकार में मिलती बटिया रूद्र या शिव का प्रतीक बनी।

किंवदंती है कि शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था। प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष ने घमंड में शाप दिया,
'अब इंद्रादि देवताओं के साथ इसे यज्ञ का भाग न मिले।'
और क्रोध में चले गये। तब नंदी (शिव के वाहन) ने दक्ष को शाप देने के साथ-साथ यज्ञकर्ता ब्राम्हणों को, जो दक्ष की बातें सुनकर हँसे थे, शाप दिया,
'जो कर्मकांडी ब्राम्हण दक्ष के पीछे चलने वाले हैं वे केवल पेट पालने के लिए विद्या, तप, व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इंद्रिय-सुख को ही सुख मानकर इन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख मांगते भटकें।'
इस पर भृगु ने शाप दिया,
'जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्वि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हों वे ही शैव संप्रदाय में दीक्षित हों, जिनमें सुरा और आसव देवता समान आदरणीय हों। तुम पाखंड मार्ग में जाओ, जिनमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं।'
जैसे कर्मकांडी ब्राम्हण या जैसी तांत्रिक क्रियाएँ शैव संप्रदाय में बाद में आई, ये शाप उनका संकेत करते है।

अधिक समय बीतने पर दक्ष ने महायज्ञ किया। उसमें सभी को बुवाया, पर अपनी प्रिय पुत्री सती एवं शिव को नहीं। सती का स्त्री-सुलभ मन न माना और मना करने पर भी अपने पिता दक्ष के यहाँ गई। पर पिता द्वारा शिव की अवहेलना से दु:खित होकर सती ने प्राण त्याग दिए। जब शिव ने यह सुना तो एक जटा से अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हजारों भुजाओं वाले रूद्र के अंश-वीरभद्र –को जन्म दिया। उसने दक्ष का महायक्ष विध्वंस कर डाला। शिव ने अपनी प्रिया सती के शव को लेकर भयंकर संहारक तांडव किया। जब संसार जलने लगा और किसी का कुछ कहने का साहस न हुआ तब भगवान ने सुदर्शन चक्र से शव का एक-एक अंश काट दिया। शव विहीन होकर शिव शांत हुए। जहाँ भिन्न-भिन्न अंक कटकर गिरे वहाँ शक्तिपीठ बने। ये १०८ शक्तिपीठ, जो गांधार (आधुनिक कंधार और बलूचिस्तान) से लेकर ब्रम्हदेश (आधुनिक म्याँमार) तक फैले हैं, देवी की उपासना के केंद्र हैं।

सती के शरीर के टुकड़े मानो इस मिटटी से एकाकार हो गए-सती मातृरूपा भरतभूमि है। यही सती अगले जन्म में हिमालय की पुत्री पार्वती हुई (हिमालय की गोद में बसी यह भरतभूमि मानो उसकी पुत्री है)। शिव के उपासक शैव, विष्णु के उपासक वैष्णव तथा शक्ति (देवी) के उपासक शाक्त कहलाए। शिव और सती को लोग पुसत्व एवं मातृशक्ति के प्रतीक के रूप में भी देख्ते हैं। इस प्रकार का अलंकार प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में आता है। यह शिव-सती की कहानी शैव एवं शाक्त मतों का समन्वय भी करती है। शैव एवं वैष्णव मतों के भेद भारत के ऎतिहासिक काल में उठे हैं। इसकी झलक रामचरितमानस में मिलती है। शिव ने पार्वती को राम का परिचय 'भगवान' कहकर दिया,राम के द्वारा रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना हई। दोनों ने कहा कि उनका भक्त दूसरे का द्रोही नहीं हो सकता। यह शैव एवं वैष्णव संप्रदायों के मतभेद (यदि रहे हों) की समाप्ति की घोषणा है।

शिव को तंत्र का अधिष्‍ठाता कहा गया है। इसी से शैव एवं शाक्‍त संप्रदायों में तांत्रिक क्रियाऍं आईं। तंत्र का शाब्दिक अर्थ ‘तन को त्राण देने वाला’ है, जिसके द्वारा शरीर को राहत मिले। वैसे तो योगासन भी मन और शरीर दोनों को शांति पहुँचाने की क्रिया है। तंत्र का उद्देश्‍य भय, घृणा, लज्‍जा आदि शरीर के सभी प्रारंभिक भावों पर विजय प्राप्‍त करना है। मृत्‍यु का भय सबसे बड़ा है। इसी से श्‍मशान में अथवा शव के ऊपर बैठकर साधना करना, भूत-प्रेत सिद्ध करना, अघोरपंथीपन, जटाजूट, राख मला हुआ नंग-धड़ंग, नरमुंड तथा हडिड्ओं का हार आदि कल्‍पनाऍं आईं। तांत्रिक यह समझते थे कि वे इससे चमत्‍कार करने की सिद्धि प्राप्‍त कर सकते हैं। देखें – बंकिमचंद्र का उपन्‍यास ‘कपाल-कुंडला’। यह विकृति ‘वामपंथ’ में प्रकट हुई जिसमें मांस-मदिरा, व्‍यसन और भोग को ही संपूर्ण सुख माना। ययाति की कहानी भूल गए कि भोग से तृष्‍णा बढ़ती है, कभी शांत नहीं होती। जब कभी ऐसा जीवन उत्‍पन्‍न हुआ तो सभ्‍यता मर गई। शिव का रूप विरोधी विचारों के दो छोर लिये है।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा

शनिवार, अप्रैल 12, 2008

कच्‍छप अवतार की गाथा: अवतारों की कथा

ज्‍यों-ज्‍यों एकरस समाज-जीवन के निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ी, पृथ्‍वी का ऐश्‍वर्य, संपदा और सामूहिक शक्ति समाज के हाथ पड़ी। कामधेनु, अश्‍व, हाथी,मणि, कल्‍पतरू, अप्‍सराऍं और उनका संगीत, वारूणी, महाभारत के अनुसार प्राप्‍त शंख एवं धनुष और फिर साक्षात् लक्ष्‍मी-यह सब संपदा, ऐश्‍वर्य तथा अनंत पालन-शक्ति के प्रतीक हैं। परस्‍पर सहयोग तथा एकजुट प्रयत्‍न से एक राष्‍ट्रीय जीवन की खोज हुई। पशुपालन भी समाज ने सीखा और खेती व्‍यापक बनी। धनुष-बाण तथा शंख भी, जो समाज की सुरक्षा के लिए अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण थे, मानव को मिले। इस प्रकार एक ओर जहॉं सामाजिकता के सर्वश्रेष्‍ठ भावों का निर्माण हुआ दूसरी ओर वहॉं लौकिक उन्‍नति भी हुई। यह सभ्‍यता के दोहरे कार्य की ओर पहला प्रयत्‍नपूर्वक उठाया गया कदम था। सबका समन्‍वय करता हुआ, सहिष्‍णु,एकरस सामाजिक जीवन के निर्माण से समाज मे स्‍थायित्‍व एवं अमरत्‍व आया।

इस समाज-मंथन से ऐश्‍वर्य तथा संपदा के साथ मानव को वारूणी भी प्राप्‍त हुई। असुरों के उपासक, जो प्राकृतिक शक्तियों के ज्ञान में आगे थे, पर रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान थे, वारूणी पीकर मदहोश हो गए। इसलिए उनके पल्‍ले अमृत नहीं पड़ा। वे एकरस सांस्‍कृतिक जीवन के अंग न बन बसे। पर एक विशाल प्रयत्‍न सभी प्रकार के लोगों को मिलाकर साथ चलने का अध्‍यवसाय हुआ और इसी से प्रारंभिक समृद्धि, सामर्थ्‍य और लौकिक संपदा एकरस सामाजिक जीवन की खोज में मिलीं।

भारत आर्यों का आदि देश है; इसके विभिन्‍न भागों में आर्यों की भिन्‍न उपजातियॉं निवास करती थीं। कुछ अन्‍य उपजातियों के लोग भी आ बसे। सबके भावात्‍मक मिश्रण से एकात्‍म सामाजिक जीवन के निर्माण का श्रीगणेश जंबूद्वीप (बृहत्‍तर भारत) में हुआ। आज भी सभी विभिन्‍नताओं के बीच पिरोई भारत की मौलिक एकता दिखती है और जिस महामना व्‍यक्ति या जिस जाति के लोगों के द्वारा मानव के प्रारंभिक काल में यह चमत्‍कार संभव हुआ उसे अवतार कहा। सागर-मंथन के रूपक को लेकर उसे सागर के प्रारंभिक जीव कछुआ की संज्ञा दी गई। यही कच्‍छप अवतार की गाथा है।

इस कथा से जुड़ी ब्रम्‍हांड संबंधी दो अन्‍योक्तियॉं हैं। महाभारत के अनुसार, मंथन के समय सागर से चंद्रमा भी मिला। अभी तक कुछ भूशास्‍त्री कहते थे कि पृथ्‍वी का जो भाग टूटकर चंद्रमा बन गया, वहॉं पर आज प्रशांत महासागर है। इसी प्रकार कहते हैं कि अमृत बॉंटने के समय ‘राहु’ नामक असुर, जो वारूणी न पीता था, देवताओं का वेष बनाकर उनकी पंक्ति में आ बैठा। देवताओं के साथ उसे भी अमृत मिला। पर चंद्र एवं सूर्य ने उसकी पोल खोल दी। अभी अमृत उसके मुख में ही था कि भगवान ने सिर ‘राहु’ (dragons head) धड़ ‘केतु’ (dragons tail) से अलग कर दिया। सिर अमर हो गया और उसे आकाशीय ग्रह मान लिया गया। इसलिए राहु एवं चंद्र को पर्व (अमावस्‍या तथा पूर्णिमा) के दिन ग्रसने का प्रयत्‍न करता है। यह सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण का वर्णन मात्र है।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार