रविवार, अगस्त 08, 2010

दक्षिण अमेरिका व इन्का

दक्षिण अमेरिका की इन्का सभ्यता, जिसका पालना एंडीज पर्वत और पश्चिम सागर-तट रहा, और इनके मंदिर। कहते हैं, कहीं-कहीं अंदर से मंदिर की दीवारेंऔर गुंबज स्वर्ण-मंडित थे। एक ओर सूर्य चक्र, दूसरी ओर चंद्र का रजत वृत्त और बीच में तारों को चिन्हित करते जड़े रत्न। आज का तारागृह (Planetarium) मानो बीज रूप में है। वे प्रमंथन द्वारा अग्नि को अरणी से प्रज्वलित करते थे, जैसा वेदों में वर्णित है। शरद हेबालकर ने अपने पुस्तक 'भारतीय संस्कृति का विश्व-संचार' में इनकी सामाजिक रीतियों के बारे में लिखा है, 
'इन्का संस्कृति में रूढ़ शिक्षा-प्रणाली प्राचीन भारतीय गुरूकुल प्रणाली जैसी थी। छात्र गुरू के यहाँ रहकर अध्ययन करता था। अध्ययन पूर्ण होने तक उसे गूरू की आज्ञा में रहना होता था। इन्का अग्नि की भी पूजा करते थे। अग्नि के साक्ष्य में उपनयन संस्कार होता था। इन्काओं की वर्तमान रूढ़ियाँ देखने पर जन्म से मृत्यु तक की सभी प्रथाओं और संस्कारों में भारतीय परंपरा से विलक्षण समानता पायी जाती है।--ऋग्वेद की अनेक प्रार्थनाओं से मिलती-जुलती प्रार्थनाएँ उनके यहाँ रूढ़ हैं इन्का भाषा ('किजुआ' या 'किशुआ') भी अति प्राचीन है। उसकी जननी है संस्कृत।'
मध्य एवं दक्षिण अमेरिका की इन प्राचीन सभ्यताओं की लिपि (पंचांग और गणित अंश को छोड़कर) पढ़ी नहीं जा सकी। इसका एक कारण आक्रमणकारी बनकर आए स्पेनवासियों द्वारा इन्हें बलपूर्वक ईसाई बनाने की प्रक्रिया में किए गए विध्वंस हैं। मय लोगों का ज्ञान-विज्ञान पत्थर की पाटियों, लकड़ी और मिट्टी के बरतनों तथा रेशे से बनी पुस्तकों में निहित था। स्पेन के बिशप ने सभी आलेख ईसाई पंथ की रक्षा के नाम पर जलवा दिए। उनकी बहुमूल्य पुस्तकें अग्नि की भेंट चढ़ीं। आलेख नष्ट किए गए। आज भी, शोधकर्ताओं का भारतीय जीवन से अनजान होने और पूर्वाग्रह एवं धर्मांधता के कारण, खोज पूर्ण नहीं हुयी। पर आज शिल्डमैन सरीखे जर्मन भाषाविद् कहते हैं कि मध्य अमेरिका और पेरू की गुफाओं के शिलालेख संस्कृत से ज्यों-के-त्यों मिलते हैं और उनकी लिपि सिंधु घाटी में प्रचलित लिपि की भाँति संस्कृत पर आधारित है।


'इन्का' राज्य-व्यवस्था देखकर आधुनिक कल्याण राज्य (Welfare State) का स्मरण हो आता है। अपनी राजधानी से पश्चिमी सागर-तट के नीचे (आधुनिक क्यिटो Quito से लेकर सैंटियागो Santiago तक) ५,००० किलोमीटर से भी लंबा, पक्का, एंडीज पर्वत की घाटियों को लाँघता, विषुवतीय उफनती नदियों को पत्थर के पुलों द्वारा पार करता, कहीं पर्वत पर चढ़ता, कहीं सीढ़ियों तथा कहीं गुफाओं और कंदराओं से गुजरता शासकीय मार्ग था, जिसपर हरकारे दौड़ते थे। उस पर लगभग प्रति १५ किलोमीटर पर विश्रामगृह और लगभग ३० किलोमीटर पर भोजनालय थे। आधुनिक राज्यों की तरह अपनी निश्चित जनसंख्या उन्हें पता थी। उसकी गणना होती थी और जन्म-मरण का लेखा रखा जाता था। हर कुटुंब अन्न-वस्त्र में आत्मनिर्भर था। वह खेती करता था और कताई-बुनाई भी। पर छोटी बस्तियाँ भी स्वशासित होने के साथ स्वावलंबी थीं। उनके अय्यर राजाओं को तो 'सूर्य देवता' ने ही भेजा था। उन अय्यर राजाओं के चित्र उपलब्ध हैं। सिर पर पगड़ी और उसका अलंकरण है हाथ में राजदंड, जिसके ऊपरी छोर पर कतल का सोने का फूल है। यही कमल उनके मंदिरों तथा प्रासाद से लगे तालाबों और पोखरों की शोभा बढ़ाता है, जो भारत का राष्ट्रीय पुष्प है।

क्वेत्सलकोट्ल (पंखधारी सर्प) चित्र विकिपीडिया से

भारत के देहात की तरह देव-मंदिर के चारों ओर घूमता जीवन। ये मंदिर प्राथमिक विद्यालय भी थे। त्रिमूर्ति-अर्थात सृष्टि, पालन और संहार के देवताओं की उन्हें कल्पना थी। सभी प्राचीन सभ्यताओं के समान सूर्य-पूजा एवं नाग-पूजा यहाँ प्रचलित थी। 'आस्तिक' सभ्यता के प्रमुख देवता क्वेत्सलकोट्ल (Quetzalcoatl) (शाब्दिक अर्थ पंखधारी सर्प: dragon) हैं। क्वेत्सल (Quetzal) मध्य अमेरिका का एक सुंदर पक्षी है। उसी के पंख धारण किए हुए है यह नाग। वैसा ही जैसा भारत के कुछ भागों में, अथवा चीन और जापान पूजित है। सूर्य के मंदिर हैं, जिनमें पंचांग भी अंकित है। पेरू के इन्का सूर्य मंदिर तो कोणार्क की छोटी प्रतिकृति कहे जाते हैं। स्पेन के आक्रमण के समय मेक्सिको नगर में गोपुरम् शैली का एक विशाल शिव मंदिर था। उनको युद्घ (संहार) का देवता कहते थे। मूर्ति के चारों ओर स्वर्ण के सर्प लिपटे थे। स्पेन के लोभी लुटेरों ने स्वर्ण के लालच में उसका विध्वंस कर डाला। मदुरा के मंदिर की झलक भी वहाँ देखने को मिल सकती है। मंदिर में पत्ररू-पुष्प अर्पित कर, धूप जलाकर सुगंध से हिंदु की भाँति देवता की पूजा होती थी। स्पेन के वृत्त कहते हैं कि पुजारी अविवाहित ब्रम्हचारी थे। उनका पवित्ररू और शुचितापूर्ण कठोर जीवन था। वे त्याग-तपस्या की मूर्ति कहे जाते थे। किन्हीं मंदिरों में देवदासी भी थीं। स्वर्ण, रजत और रत्नों से जटित ये मंदिर सदा स्वच्छ रहते थे।

भिक्षु चमनलाल ने अपने विलक्षण पुस्तक 'हिंदु अमेरिका: अलगाववादियों को एक चुनौती' (Hindu America: A challenge  to Isolationists) में अध्यवसायपूर्वक उन तथ्यों को उजागर किया है जो निर्विवाद रूप से अमेरिका की विक्रम संवत् पूर्व तेरहवीं शताब्दी से चली आई प्राचनी सभ्यताओं को भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य का पुरातन अंग बताते हैं और हिंदु के अदम्य साहस की कहानी कहते हैं। अमेरिका की इन प्राचीन सभ्यताओं का रहन-सहन, उनकी महिलाओं का साड़ी का पल्ला डालने का ढंग, उनके विचार, परंपराएँ, रीतियाँ, आचार-व्यवहार, उनके देवता एवं आस्थाएँ, उनका विज्ञान तथा पंचांग, उनका 'पचीसी' का खेल- सभी पर भारतीय संस्कृति की छाप देखी जा सकती है। उस पर मुहर लगाता 'आस्तिकों' का 'राम-सिया' त्योहार है। उसी प्रकार जैसे दक्षिण-पूर्व एशिया को कभी 'लघु भारत' कहा जाता था, अमेरिका के आदि निवासियों को अज्ञान में दिया गया 'इंडियन' (Indian: भारतीय) नाम उनकी प्राचीन सभ्यता को देखकर सार्थक हो उठता है।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ - पताल देश व मय देश
४५ - अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत
४६ - दक्षिण अमेरिका व इन्का

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें