सोमवार, दिसंबर 24, 2007

जल प्‍लावनः सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं

दूसरी बहुत बड़ी घटना जल प्‍लावन की है। तृतीय हिमाच्‍छादन के समय भूमध्‍य सागर का अस्तित्‍व दो झीलों के रूप में था, जो नदी द्वारा संबद्ध हो सकती थीं। पूर्वी झील में, जो शायद मीठे पानी की थी, नील नदी और आसपास का जल आता था। भूमध्‍य सागर आज भी एक प्‍यासा सागर है। सूर्य के ताप से पानी अधिक उड़ने के कारण वह सिकुड़ता है, जैसे आज कश्‍यप सागर और मृत सागर (Dead Sea) सिकुड़ रहे हैं। इस संकुचन को दूर करने के लिए आज पानी अटलांटिक महासागर से जिब्राल्‍टर जलसंधि होकर तथा काला सागर से दानियाल (Dardanelles) जलसंधि होकर भूमध्‍य सागर में आता है। काला सागर को आवश्‍यता से अधिक जल नदियों से प्राप्‍त होता है। जब भूमध्‍य सागर की घाटी दोनों ओर सागरों से संबद्ध न थी तब जहॉं आज नील सागर लहराता है वहॉं हरी-भरी घाटी में मनुष्‍य स्‍वच्‍छंद घूमते थे।

पर हिमाच्‍छादनस की बर्फ पिघलने से महासागरों के जल की सतह ऊपर उठने लगी। तभी संभवतया किसी आकाशीय पिंड ने पास आकर भयंकर ज्‍वार-तरंगे उत्‍पन्‍न कीं। फलत: अटलांटिक महासागर का जल पश्चिम से यूरोप और अफ्रीका के बीच की घाटी में फूट निकला। उसने मिट्टी बहा दी। आज भी अटलांटिक महासागर से जिब्राल्‍टर जलसंधि होकर भूमध्‍यसागर तल तक एक गहरा गलियारा रूपी महाखड्ड विद्यमान है। वहॉं की सीधी चट्टानों को ‘हरकुलिस’ के स्‍तंभ (Pillars of Hercules) कहते हैं। हरकुलिस (हरि + कुलि:, बलराम का दूसरा नाम) के साहसिक कार्यों की कहानियॉं विदित हैं। इस महा विपत्ति की कल्‍पना करें। सारे संसार में ज्‍वार तरंगे उठीं। पहले थोड़ी धारा में और फिर भयंकर गहराता सागर ‘भूमध्‍य घाटी’ की झीलों के किनारों की आदिम बस्तियों पर उमड़ पड़ा। शनै:-शनै: वह खारा पानी बस्तियों और पेड़ों के ऊपर पहाड़ों को छूने लगा। वहॉं पनपता सभ्‍यता का बीज मिट गया और अफ्रीका का यूरोप से स्‍थल-संबंध टूट गया। अफ्रीकी प्रजातियों का बड़ी मात्रा में यूरोप में निर्गमन समाप्‍त हुआ। प्रारंभिक मानव इतिहास के कुछ रहस्‍यों को गर्भ में धारण किए आज भूमध्‍य सागर लहरा रहा है।


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भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
- समय का पैमाना
- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
- सभ्‍यता का दोहरा कार्य
- पाषाण युग
- उत्‍तर- पाषाण युग
६- जल प्‍लावन

रविवार, दिसंबर 16, 2007

उत्‍तर- पाषाण युगः सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं

उत्‍तर- पाषाण (Upper Paleolithic) युग के प्रारंभ में दो बहुत बड़े परिवर्तन पृथ्‍वी पर हुए। प्रथम, उत्‍तरी अफ्रीका एवं दक्षिण-पश्चिम एशिया की जलवायु बदलने लगी। वर्षा कम हो गई और घास के मैदान मरूस्‍थल बनने लगे। सहारा का रेगिस्‍तान तभी बना और रेगिस्‍तान के बीच नील नदी की धारा मिस्‍त्र की जीवन-धारा बनी। अरब (अर्व देश, अर्वन = घोड़ा), गांधार (आधुनिक कंधार) और थार के मरूस्‍थल तभी बने। जहॉं कहीं पानी बचा, वह मरूद्यान (oasis) बन गया। इन प्रदेशों के वन्‍य-पशु और मनुष्‍य इन्‍हीं जल-स्‍त्रोंतों के समीप रहने को बाध्‍य हुए। कुत्‍ता मानव के साथ पहले से था। पांडवों के साथ कुत्‍ते के भी हिमालय जाने की कथा है। चारा खाकर रह सकने वाले पशु –गाय-बैल, भेड़, बकरी, सुअर आदि मरूद्यानों के समीप चक्‍कर काटने लगे। भैंस संभवतया बाद में मानव जीवन में आई। कहते हैं, एक बार विश्‍वामित्र ने वसिष्‍ठ के यहॉं से कामधेनु को ले जाना चाहा। पर वह छूटकर वापस भाग गई तो उन्‍होंने एक नई सृष्टि-रचना की, जिसमें गाय के स्‍थान पर भैंस थीं। मनुष्‍य ने हिंसक जंतुओं से उनकी रक्षा की और खेत का चारा उन्‍हें दिया। वे मनुष्‍य के ऊपर निर्भर हो गई। इस प्रकार या अन्‍य कारणों से पशु का साथ होने पर मानव ने पशुपालन सीखा।

भारत में थार का मरूस्‍थल बनना शुरू हो गया था। तब राजस्‍थान और सिंध की भूमि ऊपर उठने से जहॉं एक ओर सॉभर जैसी खारे पानी की झील बच गई वहॉं दूसरी ओर एक बालुकामय खंड निकल आया। किसी समय राजस्‍थान में पर्याप्‍त वर्षा होती थी; पर विश्‍व की बदलती जलवायु ने उसे शुष्‍क रेगिस्‍तान बना दिया। यहॉं की नदियाँ सूख गई। आज भी राजस्‍थान के बीच सरस्‍वती नदी ( जिसे कहीं ‘घग्‍घर’ भी कहते हैं) का शुष्‍क नदी तल सतलुज के दक्षिण, कुछ दूर उसके समानांतर,कच्‍छ के रन तक पाया जाता है।

कुछ पुरातत्‍वज्ञों का मत है कि आज जिस प्रदेश को पंजाब कहते हैं उसे कभी ‘सप्‍तसिंधव:’, सात नदियों की भूमि कहते थे। कुछ कहते हैं कि यमुना भी पहले सरस्‍वती के साथ राजस्‍थान और कच्‍छ या सिंधु सागर में गिरती थी। गंगावतरण के बाद गंगा की किसी सहायक नदी ने धीरे-धीरे यमुना को अपनी ओर खींच लिया। उनके कहने के अनुसार आधुनिक पंजाब की पॉंच नदियॉं—सतलुज ( शतद्रु), व्‍यास ( विपाशा), रावी (परूष्‍णी), चेनाब ( असक्री), झेलम ( वितस्‍ता) और सरस्‍वती तथा यमुना मिलकर सात नदियॉं सिंधु सागर में मिलती थीं। इन्‍हीं के कारण ‘सप्‍तसिंधव:’ नाम पड़ा। कुछ अन्‍य कहते हैं कि सप्‍तसिंधु में सरस्‍वती एवं सिंधु नदी और उनके बीच बहती पॉंच नदियॉं गिननी चाहिए। परंतु विष्‍णु पुराण के एक श्‍लोक में सात पवित्र नदियों के नाम इस प्रकार हैं—‘गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्‍वती। नर्मदे सिंधु कावेरी (जलेस्मिन सन्निधिं कुरू)।‘ इस प्रकार हिमालय के दक्षिण के संपूर्ण देश को ही ‘सप्‍तसिंधु’ कहते थे।

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- पाषाण युग
५- उत्‍तर- पाषाण युग

गुरुवार, दिसंबर 06, 2007

पाषाण युग - सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं

लगभग दो लाख वर्ष का मानव का प्रारंभिक जीवन, जब हमें पत्‍थर के हथियार ही उसके अस्तित्‍व की याद दिलाते हैं, पाषाण युग (stone age) के नाम से विख्‍यात है। उस समय के जीवन का चित्ररू खड़ा करते समय मानव को जंगली कहकर कल्‍पनाऍं करते हैं। पर वह असमय में शरीर से वयस्‍क बने शिशु के समान था। पूर्व पाषाण युग में पीढियों के संचित अनुभव से प्राप्‍त ज्ञान ने उसे मन का स्‍थायित्‍व और बालावस्‍था दी। चतुर्थ हिमाच्‍छादन लगभग ५०,००० वर्ष ( हमारे पैमाने पर पॉंच सेंटीमीटर) पहले पराकाष्‍ठा पर था और उसके १०,००० वर्ष बाद संभवतया उसका प्रभाव घटने लगा। तब नव प्रस्‍तर युग का प्रारंभ कहा जाता है।

ऐसे समय ग्रीष्‍मोन्‍मुख जलवायु के कारण वनस्‍पति और जंतु के साथ मानव भी उत्‍तर की ओर बढ़े। यूरोपीय विचाराधारा के अनुसार इन्‍होंने स्‍पेन और फ्रांस की कंदराओं में रेनडियर और अन्‍य जानवरों के कलापूर्ण चित्र खींचे। उत्‍तरी अफ्रीका में भी ऐसे चित्र मिलते हैं। अंत में ये ज्‍यामितीय रेखाचित्ररू बन गए। सहस्‍त्राब्दियों में दूर हटते शीत ने रेनडियर को उत्‍तर की ओर भगा दिया। अब दक्षिण में बढ़े घास के मैदान, जंगल और पशु। शीघ्र ही रेनडियर मानव के बाद दूसरी लहरें श्‍यामल मानव की यूरोप में पहुँची। ये अपने साथ लाए धनुष-बाण, कृषि का प्रारंभिक ज्ञान एवं मिट्टी के बरतन, मृद्भांड।

हम भोपाल से रेल द्वारा होशंगाबाद की यात्रा करें तो दूर विंध्‍याचल की पहाडियों में गढ़ी भीमबेतका की खड़ी चट्टानें दिखेंगीं। यहॉं भित्ति चित्रों से युक्‍त कंदराऍं हैं, जहॉं संभवतया दो (बीस ?) लाख वर्ष से मानव निवास करते थे। और पूर्व पाषाण युग से लेकर कंदरा-कला का सिलसिलेवार दर्शन हो जाता है। वहॉं 40,000 वर्ष हुए विभिन्‍न रंगों के रेखाचित्र बनते थे, वे कालांतर में मांसल हो गए। ऐतिहासिक कालखंड आते-आते (तीस सहस्‍त्राब्‍दी संवत् पूर्व) उस प्रकार के सांकेतिक और ज्‍यामितीय रेखाचित्र भी आने लगे, जैसे वर्षा ऋतु में त्‍योहार के दिन देहात में लोग मुख्‍य द्वार के दोनों ओर बनाते हैं।

भारत में, जहॉं चतुर्थ हिमाच्‍छादन का प्रभाव हिमालय की रक्षा पंक्ति और मौसमी हवाओं के कारण नगण्‍य था, पुरातत्‍व के उक्‍त युगों का संक्रमण अगोचर ही था। लगभग 60,000 वर्ष पहले भी मिट्टी के बरतनस का प्रयोग यहॉं था और उसकी चित्रकारी की नकल पहाड़ी कंदराओं में मिलती है। यूरोपीय मध्‍य एवं नव प्रस्‍तर युग के पालिशदार तथा परिष्‍कृत हथियार, पतले धारदार फलक (blade) यहॉं पहले से थे। मानव ने ‘अमृत मंथन’ से प्राप्‍त धनुष-बाण धारण किया। प्रति वर्ष आती वर्षा ऋतु और उससे उत्‍पन्‍न हरियाली के अध्‍ययन से खेती और पशुओं से निकट संपर्क होने पर पशुपालन प्रारंभ हुआ। देखा कि मिट्टी से लिपी टोकरी जब आग में जल जाती है तब उसके आकार का पका मिट्टी का बरतन बचा रहता है। इससे मृद्भांड अनेक प्रकार के मिलते हैं-धूसर, लोहित, गेरूए तथा काले; वैसे ही पालिशदार, चमकदार या चित्रित। संभवतया फैशन के समान भिन्‍न प्रकार के मृद्भांड भिन्‍न समय में अपनाए गए। यूरोपीय पूर्व पाषाण युग के वल्‍कल और चमड़े (खाल) के वस्‍त्रों का स्‍थान भारत में ( जहॉं कपास पाई जाती थी) बुने वस्‍त्रां ने लिया। बिना खेती के ग्राम का गठन और उसके बाद नागरिक जीवन संभव न था। नगरों के प्रारंभ होने तक मानव सभ्‍यता के अधिकांश आधार जुट चुके थे।

प्राकृतिक संकट यातायात के साधनों के अभाव में उग्र हो जाते हैं। खेती और यातायात से संबंधित अनेक आविष्‍कार इसी काल में हुए। मानव ने खेती के लिए हल, बैलों को जोतने के लिए जुआ, पालदार नाव और दो या चार पहिए की गाड़ी का आविष्‍कार किया। इस युग का सबसे क्रांतिकारी आविष्‍कार था ‘पहिया’। गाड़ी का चलन भारत के मैदानों से प्रारंभ हुआ। प्रकृति ने जीव-सृष्टि में पहिए का उपयोग नहीं किया। हाथ-पैर के क्रिया-कलाप तो उत्‍तोलक ( lever) के सिद्धांत पर आधारित हैं। आज विरली ही मशीनें मिलेंगी जो पहिए का उपयोग नहीं करतीं। पहिए के आविष्‍कार ने कुम्‍हार के चाक को जन्‍म दिया, जिससे मिट्टी के सुडौल और अच्‍छे पात्र बनने लगे। नाव में पाल के उपयोग ने यातायात का सबसे सस्‍ता साधन उपलब्‍ध किया।


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४- पाषाण युग

मंगलवार, नवंबर 27, 2007

सभ्‍यता का दोहरा कार्य - सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं

सभ्‍यता का दोहरा कार्य रहा है। एक ओर नग्‍न प्रकृति भयानकता में खड़ी है। वह आग उगलता ज्‍वालामुखी और मानो क्रोध में कॉंपती पृथ्‍वी, वह हहराती और सब कुछ ढहाती बाढ़, वह रक्‍त से रँगे जानवर के पंजे व दॉंत और महामारी तथा मृत्‍यु का दारूण दु:ख। पश्चिमी विचारधारा कहती है कि प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्‍त करना सभ्‍यता का प्रथम लक्ष्‍य है। मानव के पास नवीन उपकरणों के निर्माण के लिए हाथ थे। उसके पास विकासोन्‍मुख वाक्-शक्ति और अत्‍यंत उन्‍नत मस्तिष्‍क था। इन तीन साधनों से वह धीरे-धीरे प्रकृति और अन्‍य प्राणियों पर प्रभुत्‍व पाने के लिए बढ़ा।

पर हिंदु विचारों ने यह दृष्टिकोण कभी नहीं स्‍वीकारा। सामी सभ्‍यताओं के लिए प्रकृति एक ‘स्‍त्री’ है। उसके ऊपर विजय प्राप्‍त करना, उसे दबाकर अपनी मुट्ठी में रखना, यही उन सभ्‍यताओं की मूल प्रवृत्ति थी। पर भारतीय दर्शन ने प्रकृति को ‘मॉं’ की संज्ञा दी। इसी से उपजा उसके प्रति भक्ति एवं श्रद्धा का भाव; प्राकृतिक सुषमा की उपासना। ऐसे सुंदर स्‍थल देवी-देवताओं के निवास, तीर्थ बने। इसी से संपूर्ण प्रकृति एवं चराचर सृष्टि के साथ सह-अस्तित्‍व की और पर्यावरण के संरक्षण की भावना आई। इसी से प्रारंभ हुआ भूमि पर कुछ करने के पहले भूमि-पूजन। प्रात: शय्या से नीचे पैर रखते समय प्रार्थना—‘समुद्रवसने देवि, पर्वतस्‍तन मंडले; विष्‍णुपत्नि: नमस्‍तुभ्‍यं पादस्‍पर्श क्षमस्‍व में।‘ माता समान प्रकृति से सामंजस्‍य स्‍थापित कर पुत्रवत् भाव से प्राकृतिक शक्तियों का आवाहन। यह विज्ञान की ओर देखने का भारतीय दृष्टिकोण है। उसका उपयोग प्रकृति के शोषण और इस प्रकार अंततोगत्‍वा वनस्‍पति तथा अन्‍य जीवन के विनाश के लिए नहीं वरन् सृष्टि के संरक्षण के लिए एक माध्‍यम अथवा सरणि प्रदान करना है।

इसी प्रकार मानव-मानव के बीच संबंध न्‍यायपूर्ण एवं स्‍नेह से निर्मित हों, जिसपर समाज का ढॉचा खड़ा हो सके, यह दूसरा उतना ही महत्‍वपूर्ण कार्य है। पहले कार्य से कुछ कम प्रयत्‍न मनुष्‍यों के संबंध निर्धारण करने में और एक न्‍यायपूर्ण सामाजिक ढॉंचा खड़ा करने में नहीं लगे। सिग्‍मंड फ्रायड ने अपनी पुस्‍तक ‘सभ्‍यता के कार्य’ ( The Tasks of Civilization) में यूरोपीय दृष्टिकोण से मानव सभ्‍यता के उद्देश्‍यों का मनोवैज्ञनिक विश्‍लेषण किया है।

प्राचीन वैदिक साहित्‍य में कभी-कभी शब्‍द- प्रयोग आते हैं ‘विद्या’ और ‘अविद्या’। ‘विद्या’ से अभिप्राय उस दर्शन या विचारों से है जो ‘मानव’ और ‘भगवान्’ के संबंधों का निरूपण करें। जैसा ‘गीता’ में कहा, समाज भगवान का व्‍यक्‍त स्‍वरूप है। इसलिये मानव और समाज के संबंध या दूसरे शब्‍दों में समाज में मानव-मानव के संबंध के विचार ही सर्वश्रेष्‍ठ ‘ज्ञान’ है, यही ‘विद्या’ है। अर्थात ‘समाजशास्‍त्र’ (social sciences), जिसे महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम में मानविकी (humanities) कहते हैं, ‘विद्या’ है। ‘अविद्या’ कभी-कभी उस दर्शन या विचारों को कहते थे जो मानवशास्‍त्र से परे प्रकृति के बारे में थे। इसे अब ‘विज्ञान’ कहते हैं। यह द्विभाजन सभ्‍यता के दोहरे ध्‍येय को दर्शाता है। प्राचीन भारतीय संस्‍कृति में इन दोनों प्रकार के शास्‍त्रों का समान स्‍थान था। जहॉं एक ओर ऋषि-मुनियों ने सामाजिक शास्‍त्रों का चिंतन किया वहॉं उन्‍होंने आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी कार्य किया। यह तो बाद में हुआ कि भारतीय चिंतन पर एकपक्षीय आवरण छाता गया।

किस प्रकार मानव सभ्‍यता अपने इन दो लक्ष्‍यों की ओर बढ़ी - यह अगली बार।

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३-

गुरुवार, नवंबर 22, 2007

समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय - सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं

यदि सूर्य की निर्मिति से हम इस पॉच किलोमीटर लंबे काल-पैमाने (time scale) पर यात्रा करें तो लगभग तीन किलोमीटर की सूनी यात्रा के बाद ( आज से लगभग २ x १०^९ वर्ष पहले) सौरमंडल में पृथ्‍वी का जन्‍म दिखेगा। एक किलोमीटर और जाने के पहले ( लगभग १.२० x१०^९ वर्ष पर) दिखेगा कि पृथ्‍वी पर पपड़ी जमकर उसके छिछले गरम पानी के पोखरों में अध:जीवन का कंपन प्रारंभ हुआ। यह आदि जैविक महाकल्‍प का समय है। धीरे-धीरे लसलसी झिल्‍ली तथा काई सरीखे पौधे दिखने लगे, जो जलीय कीट तथा सेवार में बदल गए। अंत से लगभग ५४० मीटर पर ( लगभग ५४ करोड़ वर्ष पहले) ज्‍यों यह काल्‍पनिक यात्री पुराजीवी महाकल्‍प में बढ़ते हैं, सागर में जीवन बढ़ता जाता है और कछुए, मछली आदि की वहॉं भरमार है। लो, अब जीवन-स्‍थल की बढ़ा। उभयचर पृथ्‍वी पर आ चुके हैं और धीरे-धीरे वनस्‍पति एवं जंतु दलदलों और जलमार्गो से स्‍थल में बढ़ रहे हैं। इसी समय उष्‍ण-नम जलवायु में कार्बोनी युग के जंगल दिखते हैं। तब तक हम लगभग सारी यात्रा कर आए हैं, केवल २००-१५० मीटर दूरी पैमाने पर शेष है। बीच के एक प्राय: सूने अंतराल के बाद मध्‍यजीवी महाकल्‍प की जीवन की विपुलता दिखाई देती है जब भीमकाय सरीसृप घूमते हैं और फैले हैं सदाहरित वृक्षों के जंगल। अंत से लगभग १२१.५ मीटर पहले (आज से १.२१५ x१०^८ वर्ष पहले) भारतीय गणना के अनुसार उस ‘कल्‍प’ का प्रारंभ हुआ जो आज तक चला आ रहा है। कुछ वैज्ञानिक इसी समय को जीवन का आरंभ कहते हैं। इसके बाद किसी भयानक दुर्घटना के कारण पृथ्‍वी की धुरी एक ओर झुक जाती है। ग्रीष्‍म एवं शीत ऋतुऍं आरंभ होती हैं और सरीसृप संभवतया इसे सहन न कर सकने के कारण नष्‍ट हो जाते हैं। पून: लगभग सूना अंतराल। और जब जीवन फिर विवधिता में प्रस्‍फुटित होता है तब नूतनजीवी कल्‍प आ गया है; आ गए स्‍तरपायी जीव एवं पक्षी। अब कुछेक करोड़ वर्ष की यात्रा, जो हमारे पैमाने पर १०० मीटर से कम है, ही शेष है। लगभग ३० मीटर की शेष यात्रा पर भयानक भूकंपों से पृथ्‍वी कॉंप उठती है और ऊँची पर्वत-श्रेणियों का निर्माण होता है।

इस पॉंच किलोमीटर की यात्रा में जब केवल दस मीटर की यात्रा रह जाती है तब आता है हिमानी युग। तुलना में इस थोड़ी सी दूरी में उष्‍ण कटिबन्‍ध के आसपास तथा पर्वत रक्षित भारत छोड़कर शेष पृथ्‍वी हिमाच्‍छादन से कई बार कॉंप उठती है। इसी में अवमानव के दर्शन होते हैं। जब लगभग बीस सेंटीमीटर ( दो लाख वर्ष) हमारी मंजिल रह गई तब मानव के दर्शन हुए। और मंजिल से पॉंच सेंटीमीटर पहले नियंडरथल मानव को चतुर्थ हिमाच्‍छादन की क्रूर ठंडक का शिकार बनते देखते हैं। पुरातत्‍व के अनुसार तीन सेंटीमीटर (३०,००० वर्ष) पहले हम दक्षिणी एशिया और अफ्रीका से यूरोप तथा उत्‍तरी एशिया में बढ़ती वनस्‍पति, घास और जंगल के साथ मानव को भी वहॉं जाते देखते हैं। इस विचार से हमारे पैमाने पर मानव सभ्‍यता तीन सेंटीमीटर (३०,००० वर्ष) की, जब से चिंतन प्रभावी हुआ, देन है।


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