शनिवार, मार्च 17, 2007

भौतिक जगत और मानव-११

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
संक्षेप में
प्रस्तावना
भौतिक जगत और मानव-१
भौतिक जगत और मानव-२
भौतिक जगत और मानव-३
भौतिक जगत और मानव-४
भौतिक जगत और मानव-५
भौतिक जगत और मानव-६
भौतिक जगत और मानव-७
१० भौतिक जगत और मानव-८
११ भौतिक जगत और मानव-९
१२ भौतिक जगत और मानव-१०

जीवन, जो सागर में कीट या काई की एक क्षीण लहरी-सा प्रारंभ हुआ, उसकी परिणति लाखों योनियों (प्रजातियों: species) से होकर प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ जीव मानव में हुई। पर डारविन (Darwin) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्‍तकें ‘प्रजातियों की उत्पत्ति’(Origin of Species) और ‘मानव का अवतरण’ (Descent of Man) में विकासवाद, और यह सिद्धान्त कि मानव जैविक विकास-क्रम की नवीनतम कड़ी है, प्रतिपादित किया तो उसके विरूद्ध एक बवंडर उठ खड़ा हुआ। कुछ स्थनों पर इसके पढ़ाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाइबिल पूर्व विधान (Old Testament) के उत‍पत्ति अध्‍याय (Genesis),जिसको ईसाई और मुसलमान दोनों ही मानते हैं, के विचारों से यह मेल नहीं खाता था। वहाँ वर्णित अदन वाटिका (Garden of Eden) की कहानी विदित है। ‘ईश्वर ने पहले आदम (Adem) का अपनी अनुकृति में निर्माण किया और फिर उसकी पसली से हव्वा (Eve) को। उसी वाटिका में सर्प के लुभाने से ज्ञानवृक्ष का वर्जित सेब खाने के कारण ईश्वर के शाप से पीड़ित हो मानव संतति प्रारम्भ हूई। जैसे यह मानव जाति विकास का वरदान न होकर शाप का परिणाम हो, जिसे नारी आज तक ढ़ो रही है। पश्चिमी जगत ने इन कथानकों का शाब्दिक अर्थ लेना छोड़ दिया, फिर भी कुछ लोगों ने मजाक उड़ाया- ‘डारविनपंथी समझें कि वे बंदर की संतान हैं। हम नहीं है’। यद्यपि डारविन ने ऐसा कुछ नहीं कहा था।

रामायण में कपियों का उल्लेख आता है । पर त्रेता युग के जिन ‘वानर’ एवं ‘ऋक्ष’ (रीछ) जातियों का वर्णन है, वे हमारी तरह मनुष्‍य थे। ऑस्ट्रेलिया के आदि निवासियों में अभी तक ऐसी जातियॉ हैं जो किसी प्राणी को पवित्र मानतीं, उसकी पूजा करतीं और उसी के नाम से जानी जाती हैं। इसी प्रकार वानर और ऋक्ष जातियों के गण – चिन्ह थे।

‘पर मानव का वंश – क्रम आदि जीवन से प्रारंभ होता है’ , यह तथ्‍य केवल रीढ़धारी जंतुओं (vertebrates या chordate) के अस्थि – पंजर एवं प्रजातियों के तुलनात्‍मक अध्ययन पर आधारित नहीं है। उसके इस वंश – क्रम का सबसे बड़ा प्रमाण तो मानव – गर्भ की जन्म के पहले की विभिन्न अवस्थाऍ हैं। मानव – गर्भ प्रारंभ होता है जैसे वह मछली हो – वैसे गलफड़े और अंग – प्रत्यंग। वह उन सभी अवस्‍थाओं से गुजरता है जो हमको क्रमश: उभयचर,सरीसृप और स्तनपायी जीवों की याद दिलाते हैं । यहाँ तक कि कुछ समय के लिए उसके पूँछ भी होती है। जीवन के संपूर्ण विकास –क्रम को पार कर वह मानव – शिशु बनता है। यह आयुर्वेद को ज्ञात था।
पुराणों में कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों से होकर मानव जीवन प्राप्त होता है। आज भी वैज्ञानिक अस्सी लाख प्रकार के जंतुओं का अनुमान करते हैं। पहले कुछ प्रेत योनियों की कल्पना थी, अभी तक हम नहीं जानते कि वे क्या हैं। पतंजलि ने ‘योगदर्शन’ के एक सूत्र में कहा है कि प्रकृति धीरे – धीरे अपनी कमियों को पूरा करते चलती है, जिसके कारण एक प्रकार का जीव दूसरे में बदल जाता है । यह चौरासी लाख योनियों से होकर मानव शरीर प्राप्त करने की संकल्‍पना सभी जंतुओं को एक सूत्र में गूंथती है। उसके भी आगे, मानव के निम्नस्थ जंतु से विकास का संकेत करती है।

शायद हमें ‘रामचरितमानस’ की उक्ति याद आए – ‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।।‘ पर यह पदार्थ (द्रव्य) (matter) की भिन्न अवस्‍थाओं (state)या लक्षणों का वर्णन है। ‘क्षिति’ से अभिप्राय ठोस पदार्थ (solid) है, ‘जल’ से द्रव (liquid), ‘समीर’ से गैस, ‘पावक’ से ऊर्जा (energy) और ‘गगन’(space) से शून्यता । शरीर इन सभी से बना है। ये रासायनिक मूल तत्व (chemical elements) नहीं हैं।

जिस समय डारविन की पुस्तकें प्रकाशित हुई, लोग कपि और मानव के संसंध कडियों में जीवाश्म के विषय में पूछते थे। इस ‘अप्राप्त’ कड़ी (missing link) की बात को लेकर हँसी उड़ाई जाती थी। पर मानव जाति का संबंध सागर से बहुत पहले छूट चुका था। उसके मानव के निकटतम पूर्वज कभी बड़ी संख्या में न थे। वे अधिक होशियार भी थे। अत: आश्चर्य नहीं कि नूतनजीवी कल्प में अवमानव के अस्थि – चिन्ह दुर्लभ या अप्राप्य हैं । वैसे अभी शैल पुस्तिका का शोध प्रारंभिक है। भारत (या एशिया-अफ्रीका), जहाँ अवमानव के बारे में प्रकाश डालनेवाले सबसे मूल्यवान सूत्र दबे होंगे, लगभग अनखोजें हैं।

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