मंगलवार, जनवरी 20, 2009

प्राचीन भारत में मानवाधिकार

तीसरी बुनियादी धारणा मानव-मूल्यों को लेकर है। आज सारे संसार में मानवाधिकार (human rights) को लेकर बतंगड़ खड़ा किया जाता है और इसकी होड़ में कुछ देश शायद जानबूझकर या अपप्रचार के शिकार बनकर अपनी स्वार्थ-पूर्ति में दादागिरी का दृश्य उपस्थित करते हैं। खोखले दावों की प्रतीति भी उन्हें नहीं होती। प्राणिमात्र के 'स्वत्व' की भारतीय विचारधारा के संदर्भ में इसे समझना आवश्यक है।

मानवाधिकारों के पश्चिमी विचारों के मूल में एक मनोग्रंथि है। वहाँ सभी अधिकारों की चर्चा करते हैं। कानून की आवश्यकता के बारे में उनकी साधारण मान्यता है कि मानवाधिकार और समूह अर्थात समाज के अधिकारों में कोई विरोध है, इसलिए कानून के मूल में ऎसी धारणा पर यूरोपीय समाजवाद या साम्यवादी विचार दर्शन खड़ा है। पर हिंदु विधि एवं दर्शन का मूलभूत विश्वास है कि व्यक्ति और समाज ( जिसका वह एक घटक है) के अधिकारों में कोई अंतर्निहित प्रतिकूलता नहीं है। दोनों परस्परावलंबी हैं। सामाजिक विकास का मूलाधार उसके घटकों का विकास है, और मानव जीवन के गुणों के विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता अनिवार्य है। पर दूसरी ओर मनुष्य की सार्थकता समाज में है।

इससे भी बढ़कर हिंदु जीवन एवं दर्शन का विश्वास है कि मानव-मूल्यों के अनुरूप प्राणिमात्र के स्वत्व की रक्षा होनी चाहिए। यही नहीं, सभी प्राणियों व मानव का प्रकृति के साथ सामंजस्य होना चाहिए। यह पर्यावरण के संरक्षण का मूल मंत्र है।

प्राचीन भारतीय विधि में 'स्वत्व' शब्द का प्रयोग होता है। साधारणतया इसे 'अधिकार' का समानार्थी मानते हैं। पर इस शब्द का जोड़ शायद संसार की किसी भाषा में नहीं है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसका अर्थ होता है, 'जो तुमको देय या तुम्हारा प्राप्य है' अर्थात वही तुम्हारा 'स्वत्व' है। यह तुम्हारा अधिकार नहीं, पर स्वत्व होने के नाते सभी को वह तुमको देना होगा। स्वत्व उन सबके कर्तव्य से, जो तुम्हारे संबंध में आएँ, जुड़ा दायित्व है। यह अधिकारों को दूसरी ओर से देखने का उपक्रम है; एक अनूठी भारतीय कल्पना।

प्राचीन विधि में मुक्त वायु, जल, धरती और आकाश प्राणिमात्र के 'स्वत्व' कहे गए हैं। यह प्रत्येक प्राणी को दिया जाता है, क्योंकि उसने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है। इसको 'ना' नहीं करेंगे। यह स्वत्व प्राणों से जुड़ा है; जीवन में व्याप्त है। उसे अलग नहीं किया जा सकता। पिंड जहाँ बना है वहाँ उसका स्वत्व है। यह किसी के द्वारा प्रदत्त नहीं, और इसलिए किसी के द्वारा छीना भी नहीं जा सकता । अधिकार राजसत्ता तथा अंतरराष्ट्रीय समझौते के द्वारा प्रतिबंधित किए जा सकते हैं; पर 'स्वत्व' न तो प्राधिकार (Privilege) है, न नैसर्गिक अधिकार, क्योंकि वह अहरणीय है।

'मुक्त वायु' दैहिक स्वतंत्रता की कल्पना है। मेरे बचपन में मेरी माँ गाय को दुहने के समय के अतिरिक्त बाँधकर रखना गर्हित समझती थीं। उसे बाड़े में, जिसके किनारे गोशाला का छप्परयुक्त कमरा था, छोड़ देते थे। केवल अपराधी को ही निरूद्घ किया जा सकता था। पालतू चिड़ियों और पशुओं को पिंजरे या कठघरे में बंद रखना नीच कर्म माना गया।


०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु
०३ - मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
०४ - समता और इसका सही अर्थ
०५ - सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है
०६- प्राचीन भारत में मानवाधिकार

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1 टिप्पणी:

  1. आज बहुत दिनो बाद पुन: आपको पढ़ने का सौभाग्‍य मिला, आपके वाणी से सदैव अमृत रस पान की अनुभूति होती है।

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