रविवार, अक्तूबर 11, 2009

भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग




कारगिल से पर्वतमाला


भारत से उत्तर-पश्चिम की ओर जाने का व्यापारिक भू-मार्ग सदा से रहा है। एक मार्ग 'करगिल' (कश्मीर) [कारगिल] होकर था। करगिल का शाब्दिक अर्थ है, जहाँ करों की 'गिला' (शिकायत) अथवा अपवंचना हो, अथवा जो कर-मुक्त स्थान (पत्तन: Free port) हो।  ये मार्ग उत्तर में बल्ख-बुखारा, समरकंद और ताशकंद आदि को जाते थे। यहाँ से दो मार्ग थे। एक उत्तर को चीन एवं मंगोलिया की ओर तो दूसरा पश्चिम-मध्य एशिया के देशों की ओर मुड़ जाता था। ये सभी दुर्गम मार्ग भारतीय व्यापारियों ने निकाले। सर्वश्रेष्ठ धातु की वस्तुएँ, रेशम के वस्त्र, चंदन, मूर्तियाँ तथा अन्य कला-कौशल का सामान, मसाले और औषधियाँ सभी एशिया, यूरोप के देशों में भारत से जाते थे और बदले में स्वर्ण एवं चाँदी आती थी। भारतीयों ने इन मार्गों में अपने उपनिवेश बना रखे थे। जहाँ कहीं भारतीय गए वहाँ के लोगों को शील दिया, धर्म दिया, श्रेष्ठ (आर्य) बनने की ज्योति उनके मन में जलाई। उन्हें शिक्षा दी, अपना ज्ञान-विज्ञान दिया और कलाएँ, सहकारिता और सहयोग के पाठ सिखाए। जीवमात्र एवं प्रकृति से प्रेम और बड़ों के आदर के गुण उन्हें दिए तथा चरित्र की शिक्षा दी। सबसे बढ़कर मानवता का अभिमान और स्वशासन उन्हें दिया। कहीं किसी को गुलाम नहीं बनाया, न किसी की श्रद्घा पर आघात किया, न उनके पवित्र स्थान भ्रष्ट किए, न पूजा-स्थल तोड़े।


  करगिल (कारगिल) की ज़ंसकार तहसील में, फुगतल बौद्ध मन्दिर


आगे चलकर बौद्घ प्रचारकों ने भी व्यापार के मार्ग अपनाकर मध्य एशिया में और दूर चीन-मंगोलिया में बुद्घ के संदेश की दुंदुभि बजाई। दृढ़व्रती और साहसी बौद्घ भिक्षुओं ने व्यापारिक मार्गों पर सब जगह बौद्घ विहार स्थापित किए। मध्य एशिया के साथ ईरान और सुदूर पश्चिम में भूमध्य सागर के तट तक बौद्घ भिक्षु गए। यही ईसा मसीह की अहिंसा की प्रेरणा बने।

पर सामी सभ्यता और उनके साम्राज्यों की चमक-दमक ईरान के जीवन को बदल रही थी। उनमें साम्राज्यवादी लिप्सा उत्पन्न हुयी और एक दूसरी वृत्ति के शिकार बने। मुस्लिम आक्रमण के बाद तो ईरान में सब बदल गया। उसने शिया पंथ अपनाया। आज का कट्टरपंथी आतंकवादी जीवन बना उस देश का। भारत में उस इसलामी आक्रमण के शिकार बने और अपनी पवित्र अग्नि बचाकर आए पारसी। अपनी मूल संस्कृति तथा इस विभीषिका की स्मृति, जिसके कारण ईरान छोड़ना पड़ा, आज वे भूलते हैं। भारत में उनके नाम मुसलमानों से मिलते-जुलते होने के कारण वस्तुत: उन्हें मुसलमान ही समझने लगे। आज वे उस हिंदु संस्कृति को जिसका आश्रय उन्होंने घोर विपत्ति में ग्रहण किया, तथा उस माता के उपकारों को भूल गए। दोनों संस्कृतियों का प्रेरणा-केन्द्र एक था, इसका भी विस्मरण। क्या कभी ईरान में प्राचीन आर्य संस्कृति की स्मृति, उसके प्रति आस्था जगेगी?


इस चिट्ठी के चित्र - विकिपीडिया के सौजन्य से

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग

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