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रविवार, जून 13, 2010

अंग्कोर थोम व जन-जीवन

विक्रम संवत् की नौवीं शताब्दी में जयवर्मन द्वितीय के द्वारा कंबुज की पुन: प्रतिष्ठा हुयी। तब 'अंग्कोर युग' का प्रारंभ हुआ, जो कंबुज के इतिहास में 'स्वर्ण युग' कहा जाता है। इसी युग में इंद्रवर्मन ने अनेक मंदिरों एवं झीलों का निर्माण कराया। यशोवर्मन (दशम शताब्दी) ने, जो स्वयं संस्कृत का विद्वान और हिंदु शास्त्रों का मर्मज्ञ था, 'यशोधरपुर' राजधानी बसायी। वह 'अंग्कोर थोम' ('थोम' का अर्थ है राजधानी) के नाम से प्रसिद्घ है और थोड़ी दूर पर है 'अंग्कोर (ओंकार) वात' नामक प्रसिद्घ विष्णु मंदिर। हिंदी विश्वकोश ने लिखा है-
'इस काल में हिंदु धर्म, साहित्य और कला की अभूतपूर्व उन्नति हुयी।' यह अंग्कोर युग की कभी इठलाती राजधानी और गर्वोन्नत विष्णु मंदिर संसार की स्थापत्य-कला की दृष्टि से अद्वितीय कहे जाते हैं। आज वे विशाल खंडहर हैं। इनके निर्माण की अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।'


प्रसिद्घ विष्णु मंदिर - अंग्कोर (ओंकार) वात

हिंदु धर्म एवं संस्कृति का महत् केंद्र यशोधरपुर या 'अंग्कोर थोम' नामक राजधानी ज्यामितीय योजना से बना एक विशाल वर्गाकार नगर था। चारों ओर उसकी रक्षा करती १०० मीटर से अधिक चौड़ी खाई (यह परिखा साढ़े १३ किलोमीटर लंबी थी) तथा उसके बाद नगर को आवेष्टित करती थी एक ऊँची सुदृढ़ प्राचीर। हिंदी विश्वकोश ने उसका वर्णन किया है-'प्राचीर में अनेक भव्य व विशाल महाद्वार  बने हैं। उनके ऊँचे शिखरों को त्रिशीर्ष दिग्गज अपने मस्तक पर उठाए खड़े हैं। द्वारों से पाँच विशाल राजपथ, ३०.५ मीटर चौड़े व १.६ किलोमीटर लंबे, नगर के मध्य मंदिर तक पहुँचते हैं। विभन्न आकृतिवाले सरोवरों के खंडहर आज जीर्णावस्था में भी निर्माणकर्ता की प्रशस्ति गाते हैं। नगर के बीचोबीच (दक्षिण भारत की शैली में बना) शिव का विशाल मंदिर है। उसमें तीन शिखर हैं। मध्य-शिखर की ऊँचाई १५० फीट है। इन ऊँचे शिखरों के चारों ओर छोटे-छोटे लगभग ५० शिखर बने हैं। इनके चारों ओर समाधिस्थ शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मंदिर की विशालता एवं निर्माण-कला आश्चर्यजनक है। दीवारों को पशु-पक्षी, पुष्प एवं नृत्यांगनाओं जैसी विभिन्न आकृतियों से अलंकृत किया गया है। अंग्कोर थोम के मंदिर, भवन, प्राचीन राजपथ और सरोवर- सभी नगर की समृद्घि के सूचक हैं। इस विशाल हिंदु मंदिर में ६६,६२५ व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए ३,४०० ग्रामों की आय लगी थी।' जल आपूर्ति के लिए बाहर ७ किलोमीटर लंबा और २ किलोमीटर चौड़ा जलाशय था, जहाँ से नहरों द्वारा जल राजधानी और उसके हरे-भरे अंचल को आता था।

इसी प्रकार कुछ दूरी पर दूसरी ओर विष्णु का सुनियोजित विशाल मंदिर अंग्कोरवाल में है। इसे चारों ओर घेरती लगभग २१५ मीटर चौड़ी खाई एक विशाल झील दिखती है। हिंदी विश्वकोश ने इसका भी वर्णन किया है- 'पश्चिम की ओर खाई पार करने के लिये पुल है। इसके पास मंदिर में प्रवेश के लिए विशाल द्वार निर्मित है, जो लगभग १,००० फीट (३०५ मीटर) चौड़ा है। --इसकी दीवार पर समस्त रामायण मूर्तियों में अंकित है। प्रकट है कि अंग्कोर थोम जिस देश की राजधानी थी उसमें विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश आदि सभी देवताओं की पूजा प्रचलित थी। अंग्कोरवात के मंदिर, तोरणद्वार और शिखर के अलंकरण में (भारत के) गुप्तकाल की कला प्रतिबंधित है। इसमें भारतीय सांस्कृतिक परंपरा जीवित रखी गयी है।--- एक (संस्कृत) अभिलेख से ज्ञात होता है कि यशोधरपुर (अंग्कोर थोम) का संस्थापक नरेश यशोवर्मा 'अर्जुन और भीम जैसा वीर, सुश्रुत जैसा विद्वान तथा शिल्प, भाषा, लिपि एवं नृत्यकला में पारंगत था।' उसने (इनके अतिरिक्त) अनेक अन्य स्थानों पर आश्रम स्थापित किए, जहाँ रामायण, महाभारत, पुराण तथा अन्य भारतीय ग्रंथों का अध्ययन होता था।' एक दूसरा अभिलेख बताता है-'कंबुज में ७९८ मंदिर, १०२ चिकित्सालय और १२१ विश्रामगृह (मार्ग के) थे।' इन मंदिरों का उपयोग सांस्कृतिक केंद्र एवं विद्यालयों के रूप में होता था और उनसे संलग्न सार्वजनिक पुस्तकालय भी थे।

कंबुज की राजभाषा संस्कृत थी, जिसका स्थान बहुत बाद में पाली ने ले लिया। एक समय आया जब राजा के लिए 'कंबुज राजेंद्र' और महारानी के लिए 'कंबुज राजलक्ष्मी' नाम प्रचलित हुए। शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय आश्रम-व्यवस्था लागू हुयी। उस समय के बृहत् संस्कृत अभिलेख आज भी उपलब्ध हैं। राजा संस्कृत साहित्य, व्याकरण तथा भारतीय दर्शन के विद्वान और वैष्णव (जिसके अनंतर बौद्घ मत भी था), शैव एवं शाक्त, सभी मतों के पालनकर्ता थे। उनका जीवन, सभ्यता और संस्कृति भारतीय है; उनकी साहित्यिक परंपराओं, भाषा, स्थापत्य, विज्ञान, ज्योतिष, पंचांग, कृषि, कला एवं दर्शन- सभी में भारत की अमिट छाप है। साहित्य तथा सरकारी अभिलेखों में भारतीय वर्णमाला एवं लिपि का प्रयोग आया। भारत की पौराणिक एवं साहित्यिक कहानियाँ उनके जीवन की कहानियाँ बनीं। यहाँ के संस्कृत अभिलेख भारतीय अभिव्यंजना प्रकट करते हैं। मंदिर, मूर्तियाँ तथा चित्र भारतीय शैली में हिंदु मनोभावों को दर्शाते हैं। रामायण, महाभारत एवं पुराणों की गाथाएँ उनके गीत, नाट्य, साहित्य, कला और शिल्प- सभी में व्यक्त होती है।

उत्कर्ष काल की सामाजिक व्यवस्था आश्चर्यचकित करने वाली है। आश्रम द्वारा शिक्षा के द्वार सभी के लिए खुले एवं सुलभ थे। जल-संरक्षण और आपूर्ति के तरीके उन्हें ज्ञात थे। सार्वजनिक हित राज्य का प्रथम कर्तव्य था। हिंदु दर्शन जीवन का अंग बना, कर्मवाद एवं पुनर्जन्म पर आस्थाएँ जगीं। वर्णाश्रम व्यवस्था सामाजिक समरसता की सहायक बनी। वहाँ भिन्न वर्णों में आपस में विवाह संबंध सामान्य बात थी। भारतीय पर्वों का मनाना, वर्ष प्रतिप्रदा, व्यास-पूजा, विजयादशमी आदि सार्वजनिक समारोह राजा और जनता सभी के लिए समान रूप से थे। धीरे-धीरे ग्राम्य जीवन में स्वायत्तता आई। चीनी प्रतिनिधियों ने लिखा है कि वहाँ जनकार्यों के लिए उनकी स्वतंत्र संस्थाएँ थीं। तब का सामाजिक और राजनीतिक जीवन देखकर लोग दक्षिण-पूर्व एशिया को भारत का उपनिवेश कहते हैं। आंग्ल विश्वकोश का मानना है कि यह शब्द-प्रयोग ठीक नहीं, क्योंकि बहुत कम लोग, केवल भारतीय संस्कृति के दूत, वहाँ पहुँचे। उन्होंने कोई अलग हिंदु उपनिवेश (Colony) नहीं बनाया। हिंदु ने उन्हें एक सांस्कृतिक एकात्मता देने का, उनकी निजी प्रतिभा एवं क्षमता को निखारने का यत्य किया।

इस वर्णन में 'राजा' शब्द का प्रयोग भारतीय अर्थ में है। जहाँ कहीं हिंदु गए, उस संस्कृति की अमिट छाप पड़ी। उनके साथ आया मानव-मूल्यों का सम्मान, समता का आदर्श, समरसता से अनुप्राणित समाज-रचना, धर्म अर्थात विधि का राज्य, भारतीय राजनीतिक गणतांत्रिक प्रणाली में प्रदेश का और वर्ग का भी स्वायत्त शासन। जोर-जबरदस्ती से नहीं वरन् सबके हृदय जीतने का निश्चय। इन हिंदु राज्यों या तथाकथित उपनिवेशों के बारे में यह सदा-सर्वदा ध्यान में रखना होगा। इसी से संपूर्ण जन और समाज इन भारतीय प्रचारकों के पीछे चला। उनका जनसाधारण के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित हो सका। हिंदु ने कभी किसी के पूजागृह नहीं तोड़े, न किसी के श्रद्घ-स्थानों को नष्ट किया; न वहाँ के लोगों को गुलाम बनाया, न दास प्रथा चालू की। शस्त्रबल तथा अत्याचारों से मतांतर का विचार कभी उन्हें छू न सका। व्यापार किसी के शोषण के लिए नहीं, न राज्य की आकांक्षा से था। सर्वहितकारी भारतीय संस्कृति का प्रसार था उनका लक्ष्य और उनका ज्ञान तथा तकनीक मानव-कल्याण के लिए थी। उनकी प्रणाली थी प्रकृति के प्रति भक्ति एवं प्राणिमात्र से प्रेम की सीख। इसी से इन चुने गए राजाओं को प्राप्त था संपूर्ण एवं विशाल जन-समर्थन।



चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन

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