रविवार, जनवरी 04, 2009

समता और इसका सही अर्थ

कुछ आधारभूत अभिधारणाएं हैं जिनपर सभ्यता के प्रारंभिक चरण बढ़े। समाज के अंदर एक आंतरिक स्नेह-बंधन, घटकों को जोड़ने वाला सीमेंट, एक ढंग की परंपराएं, आस्थाएं एवं विश्वास, सामाजिक आदर्श, सब सुख-दु:ख के एक साथ मिलकर जीने अथवा विपत्तियों को झेलने के प्रसंग और एक प्रकार के शत्रु-मित्र का भाव और सबसे बढ़कर एकता की प्रतीति है। ( ऎसा समाज किसी भूखंड से जुड़ने पर राष्ट्र कहा जाता है। इसके लिए 'समता' की आधारभूत अभिधारणा है, जिसके बिना सामाजिक ढांचा संभव नहीं है।  जिस समाज में ऊंच-नीच की कृत्रिम भावनाएं उत्पन्न होती हैं वह समाज के रूप में अधिक दिनों तक नहीं टिकता, क्योंकि सहयोग अथवा स्पर्धा के स्थान पर संघर्ष पैदा होना विनाश की ओर बढ़ने की निशानी है। फिर भी व्यक्तिगत स्वार्थ एवं लालसाएं और आपस के काम, क्रोध, मद, लोभ टकराते ही हैं। इसके लिए एक न्याय पर टिकी समाज-व्यवस्था आवश्यक है। और न्यायपूर्ण समाज की नींव 'समता' पर आधारित है।

यह समता दुर्ग्राह्य है और पकड़ में न आने वाले छलावे की भांति मृगमरीचिका दिखती रहती है। इसकी खोज सदा मानव सभ्यता में रही है। भारतीय दर्शन में कहा गया, 

'पांचों अंगुलियां बराबर नहीं होतीं, पर उनमें एक ही रक्त प्रवाहित होता है।'
इसलिए समता एकरूपता में नहीं है, वह समरसता में है। इसी के द्वारा एकात्मता उत्पन्न होती है। समता वही है जिसकी परिणति एकता में हो ।

कालांतर में 'समता' का यह भारतीय आदर्श तिरोहित हो गया। उसका स्थान एकरूपता ने ले लिया। आज साम्यवाद और यूरोपीय समाजवाद के पिछलग्गू समरसताविहीन शुषक एकरूपता के कंकाल का गुणगान करते दिखते हैं और भारतीय व्यवस्थाओं को, आंतरिक एकता न देख सकने के कारण, समताविहीन समझते हैं। जब मैं विद्यार्थी था, सामूहिक जीवन का एक साम्यवादी आदर्श चींटियों, मधुमक्खियों का जीवन कहा जाता था। कैसे सहस्त्रों कीट एक साथ, एक लगन से रहते हैं। स्वचालित अंतर्मन और सहज वृत्ति से, उस समाज का एक यंत्र बनकर। पर हम जानते हैं कि ऎसे सामूहिक जीवन में व्यक्तिगत स्वाभाविक विकास रूक जाता है। सच्चा सामाजिक जीवन सहस्त्रों शाखाओं में अलग-अलग पल्लवित- पुष्पित होता है अगणित प्रकार का, पर एक रस से अनुप्राणित मानव जीवन है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अथवा घटक का विकास हो। अपनी विशिष्ट एवं अनंत संभावनाओं को ले एकरस समाज जीवन ही आदर्श रहा है। इसलिए सामाजिक जीवन का लक्ष्य एकरूपता नहीं, समरसता है। जिससे एकता पनपे उसी को 'समता' कहते हैं।

यह कैसा व्यंग्य है कि सच्ची समता के भक्त को आज  उसका भंजक कहें। इसका कारण है आज शब्दों के बदले हुए अर्थ का यूरोपीय चश्मा, जिसे आंखों से हटाने को लोग तैयार नहीं होते। यही बात मनु द्वारा वर्णित वर्ण-व्यवस्था विषय में है। इसे लेकर कभी-कभी विवाद खड़ा किया जाता है। यह वृत्ति के अनुसार वर्गीकरण उस वैज्ञानिक मनीषा का उदाहरण है जो संपूर्ण भौतिकी तथा मानविकी के क्षेत्र में छाई है। यही वृत्तिमूलक वर्गीकरण प्लातोन (Plato)  ने अपनी पुस्तक 'रिपब्लिक' (Republic : गणराज्य)  में किया था। यह एक व्यवस्था थी। इसके अंदर विभाजन अथवा द्वेष का भाव न था। मनु का समाज रूपी शरीर का उदाहरण ऊंच-नीच दर्शाने के लिए नहीं, वरन् एकरस समाज का चित्र खड़ा करने के लिए है। इससे इनकार करना भूल होगी कि कभी इस व्यवस्था के कारण समाज का संरक्षण हुआ था। परंतु इसमें आश्रम व्यवस्था, जहां विद्यार्थियों का वर्ण निर्धारण हो सके, नष्ट हो जाने से विकृति आई, और वर्ण जन्मना मानने लगे। भारतीय समाज रचना सभी व्यावसायिक संघों अथवा वर्गों को स्वायत्त शासन प्रदान करती थी। इसके कारण बाद में विकृत हो वर्ण ( अथवा जाति-पांत) में एक निहित स्वार्थ निर्मित हो सकता था। जिससे एक वर्ण से दूसरे में संचरण बंद हो गया। इस कारण आज यह वर्ण-व्यवस्था काल-बाह्य हो गई है और उसका कंकाल मात्र रह गया है। मनु ने स्वयं कहा कि नवीन रीतियां और सदाचरण ही विधि का स्त्रोत हैं, अर्थात काल-बाह्य रीतियां त्याज्य हैं।

मनु (Manu) ने मानवमात्र की समानता दिखाई है।सब मानव कर्मों के द्वारा श्रेष्ठता को, और जो वर्ण चाहें उसे प्राप्त कर सकते हैं। मनु ने वर्ण व्यवस्था को कर्मणा माना, 'जन्मना' नहीं। गुण कर्म के अनुसार ( जैसा 'गीता' में कृष्ण ने कहा, गुणकर्म विभागश:') वर्ण निश्चित होता है। कर्मों के अनुसार वर्ण प्राप्त करने की बात मनु ने कही ( अध्याय १०, श्लोक ६५) –'शूद्र ब्राम्हण हो जाता है तथा ब्राम्हण शूद्र हो जाता है।' मनु ने उसे शूद्र कहा, जो अन्य तीन वर्णों के योग्य कर्म न कर सके। यदि आश्रम में शूद्र के पुत्र में अन्य वर्ण के गुण पाए जाएं तो वैसा ही वर्ण उसे प्राप्त होता है। उसी वर्ण की शिक्षा प्राप्त युवती के साथ उसका विवाह होता है। शूद्र भी इस समाज रूपी विराट् पुरूष के अंग हैं। वे न घृणास्पद हैं, न अस्पृश्य। किसी को श्रेष्ठ कहने वाले, किसी को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं कहने वाले अथवा हीन प्रदर्शित करने वाले श्लोक, नवीन शोधग्रंथों के अनुसार बाद में जोड़े गये हैं। ये मनुस्मृति की मूल भावना के प्रतिकूल हैं। मनु के अनुसार संस्कारों से और धर्मपालन से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और उसके कर्मों के अनुसार वर्ण-परिवर्तन होता है।

'ब्राम्हणवादी संस्कृति' कहकर मजाक उड़ाना या समाज के कुछ वर्गों के प्रति वर्ण-व्यवस्थ को ले रोष उत्पन्न करने का कार्य गर्हित है। एक दिन रेल में यात्रा करते समय साथ के सज्जन मेरा खादी का कुरता-धोती देख राजनेता समझकर बोले,

'इन ब्राम्हणों ने देश का सत्यानाश कर दिया है।'
'कैसे ?' पूछने पर वह बोले,

'यही व्यवस्था देकर।'
मैंने पूछा,

'किस ब्राम्हण ने व्यवस्था दी?'
मेरी अनभिज्ञता पर आश्चर्य से बोले,

'यही मनु, याज्ञवल्क्य, शांडिल्य, पराशर आदि।'
इस पर मैंने कहा,

'हां, ये सब विद्वान् मनीषी ऋषि थे। पर इनमें से किसी का जन्म, जिसे आज ब्राम्हण कुल कहते हैं, में नहीं हुआ। मनु तथा  याज्ञवल्क्य के पिता क्षत्रिय थे , परंतु ये सब विद्वान ऋषि बने, इसलिए ब्राम्हण कहलाए।'
पूर्वाग्रह की रंगीनी ने उस सहयात्री को मनु के महान कार्य के प्रति अंधा बना दिया।

स्मृतिकारों ने कभी किसी कार्य को छोट या बड़ा नहीं कहा। सबमें भगवान का अंश माना। मध्ययुगीन संतों में से विरले ने ही, आज जिसे ब्राम्हण कुल कहेंगे, उसमें जन्म लिया थ। समर्थ गुरू रामदास का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। संत गोरोबा कुम्हारी करते थे। संत नामदेव दर्जी परिवार के थे। महाराष्ट्र के संत-शिरोमणि तुकाराम कुनबी परिवार के थे और कर्णावती (अहमदाबाद) के संत चांडाल परिवार के, जिनका पेशा मांस बेचना था। संत रैदास उस परिवार के थे जहां चर्मकारी होती थी। समाज के हित में अपना कार्य निपुणता एवं दक्षता से करने से भगवान की प्राप्ति होती है, यह स्मृतिकारों ने कहा।

बाह्य आक्रमणों से जब आश्रम शिक्षा पद्घति नष्ट हो गयी और गुण-कर्म के अनुसार विद्यार्थी का वर्ण-निर्धारण करने की प्रक्रिया न रही तब जिस कुल में जन्म लिया उसी का वर्ण मान लेने की परंपरा आई। जब गुण एवं शिक्षा के आधार पर वर्ण निश्चित होता था तब स्पष्ट ही 'वर्णसंकर' का कोई अर्थ न था। महाभारत में कितने उदाहरण हैं जहां स्त्री-पुरूष ने अन्य कर्म करने वाले परिवार के युवक-युवती के साथ विवाह किया। तब यह शब्द नहीं था। इस विषय में मनुस्मृति में जोड़े गये श्लोक मनु की धारणाओं के विरूद्घ प्रक्षिप्त हैं। कहा जाता है कि दशरथ के पुरोहित वसिष्ठ की माता वनवासी कन्या थीं। उनके पिता से विवाह का आग्रह होने पर उन्होंने एक वनवासी कन्या से विवाह की इच्छा की तो उनसे कहा गया,

'उसे वाणी (शिक्षा) दो, फिर विवाह कर सकते हो।'
पर शिक्षा कौन दे? गुरू बनकर तो उसके साथ विवाह न हो सकता था; शिष्या के साथ विवाह वर्जित है। तो अन्य आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर उनका विवाह हुआ।

वास्तव में समाज के दीर्घ जीवन के लिए बहिर्विवाह ( exogamy) की भारत की प्राचीन प्रथा थी। इसके अनुसार अपने कबीले या गांव अथवा गोत्र ( या जिस आश्रम में शिक्षा पाई) या समूह के बाहर विवाह। इनके अंदर सब भाई-बहन के समान समझे जाते थे। आज भी इसका स्मरण दिलाता सपिंड विवाह का निषेध है। वर्ण वृत्तिमूलक कल्पना थी, इसलिए उसी वर्ण में विवाह, पति-पत्नी का एक ही वृत्ति का होना अच्छा समझते थे। अंतर्विवाह (एक ही कबीले या निकट रक्त-संबंधियों में विवाहऋ के जीवशास्त्रीय तथा सामाजिक दुष्परिणामों से यहां अति प्राचीन काल से परिचय था। वैसे संसार के अनेक भागों, उदाहरणार्थ मिस्त्र में, रक्त -शुद्घता की विकृत कल्पना ले, भाई-बहन या निकट रक्त-संबंधियों के बीच विवाह प्रचलित थे जिससे रक्तस्त्राव की बीमारी या अन्य समस्याएं उत्पन्न हुई।

समता का लक्षण समान अवसर है। आज भी सारे संसार में समता की खोज समाज तथा न्याय प्रणाली में हो रही है। साम्यवादी अथवा यूरोपीय समाजवादी दर्शन में एकरूपता में समता खोजते हैं। उसके मर्म 'समरसता' को आज हम भूल गए और इसलिए भटक गए। इसका फल है संघर्ष, द्वेष और शतखंड-खंडित जीवन तथा उसकी परिणति है युद्घ, हिंसा और भय की काली छाया।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी
स्मृतिकार और समाज रचना 
०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु 
०३ - मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
०४ - समता और इसका सही अर्थ
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3 टिप्‍पणियां:

  1. उत्कृष्ट लेख जो कई प्रचलित ग़लत मान्यताओं का निषेध करता है -आभार !

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  2. बहुत अच्छा लेख। परन्तु मुझे इसे ठीक से समझने के लिए बहुत अधिक अध्ययन करना होगा। आपके बताए लिंक देखती हूँ।
    घुघूती बासूती

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  3. The views expressed in this article are gist of all epics on the subject of social system and equality. It is well known that mother of Vedvyas was shudra. But Vedvyas said that Brahmin is God of the God. He has addressed Lord Vishnu as Brahmanyadeva – (one who’s God is Brahmin). Contribution of Vedvyas to the Indian culture is also well known. Most revered epic authored by him, shreemadbhagvatam is full of concept of equality elucidating through concept of “sutratma”, “Sarvatma” or “sarvanter”. In skandh 7, chapter 8 slokas 10 & 11 he says, sense of equality towards all is the greatest worship of the God. In same skandha, in chapter 9 slokas 9 & 10 he says that a devout chandal is better than an atheist Brahmin; and in chapter 12 sloka 35 he says , if a person belonging to one caste (varna) bears the symptoms or conduct of other caste he should be treated as the later.
    Vedvyas has referred at several places elevation or demotion from one caste to other by virtue of conduct. (e.g. Shrimadbhagvatam, 9/2/9; 9/2/17; 9/2/23 and 11/2/19) . In skandha 3 chapter 6 sloka 33 he says that sudra is greatest among all castes as he serves all.
    I do agree and support the views and interpretation given in this article. I wish, daddaji may live long and continue to eradicate the misconceptions about our rich culture .
    - Dr. V.N. Tripathi, Advocate - Allahabad High Court, chamber No. 34A Mob.: 9839527421

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