रविवार, फ़रवरी 01, 2009

भारतीय विधि ने दास प्रथा कभी नहीं मानी

द्वितीय महायुद्घ के बाद धीरे-धीरे एशिया-अफ्रीका के देश स्वतंत्र हुए और संसार के जीवन में बदलाव आया। मानव जाति मुसलिम और यूरोपीय साम्राज्यवाद के अवशिष्ट चिन्हों से अभी पूरी तौर पर उबर नहीं पाई है। आज भी शोषण तथा उत्पीड़न से मुक्ति का आंदोलन कुछ सीमा तक है। पर दास प्रथा (slavery) का नागपाश क्या कभी भारत की धरती पर था, जहाँ प्राणिमात्र के प्रथम स्वत्व 'मुक्त वायु' का उच्चरण हुआ ? जहाँ अरब या यूरोपीय जैसी साम्राज्य-लिप्सा नहीं रही?

युरोप में दास बाज़ार का एक चित्र


यूरोपीय इतिहासकार इसके उत्तर में आर्यों का इस धरती पर उपनिवेश बसाना और जैसे पापकर्म यूरोप के लोगों ने किए थे उसी तरह के कर्म इस देश के लोगों पर थोपते हैं। पर यदि संपूर्ण सोच का आधार गलत है तो उसके निकाले गए अनुमान असत्य ही होंगे। यह आर्यों का बाहर से आना और तथाकथित आदिवासियों से युद्घ आदि को आज पुरातत्वज्ञ कपोल-कल्पित कहते हैं। इसी प्रकार जब वर्ण कर्मणा था, जन्मना नहीं और सब श्रेष्ठ गुण-कर्म द्वारा इच्छित वर्ण प्राप्त कर सकते थे तब दासता की प्रथा का प्रश्न ही नहीं उठता। मानव-मूल्यों की जहाँ प्रतिष्ठा हुई, ऎसी अकेली प्राचीन सभ्यता भारत में रही। संसार में यह अनूठी सभ्यता चली आई, जो दास प्रथा से अछूती थी।
१३वीं शताब्दी येमन में दास बाज़ार का एक दृश्य

चंद्रगुप्त के दरबार में यूनान के राजदूत मेगस्थनीज (Megasthenese) ने लिखा है कि भारत में सभी स्वतंत्र हैं और कोई दास नहीं। ऎसा ही चीनी यात्रियों ने वर्णन किया है। चाणक्य ने कहा,
'आर्य (यहाँ के नागरिकों का सामान्य संबोधन ) कभी दास नहीं होता।'
चंद्र गुप्त मौर्य के राज्य का एक दृश्य

'दास' शब्द दो अर्थों में प्रयोग किया जाता रहा है। इसका एक अर्थ भृत्य (नौकर) भी है। अर्थशास्त्र में चाणक्य ने इस प्रकार के लोगों के साथ उदारता बरतने के लिए कहा। अनेक ग्रंथों में भृत्य, जो उचित मूल्य लेकर किसी परिवार की सेवा करता है, के अर्थ में ही 'दास' शब्द का प्रयोग हुआ है, गुलाम के अर्थ में नहीं। द्यूत में हार जाने पर अथवा ऋण अदा करने के लिए अपनी सेवाएँ कुछ कालावधि के लिए समर्पित करने का उल्लेख प्राचीन साहित्य में है। पर कोई अपनी संतान बेच नहीं सकता था। न युद्घबंदी, न मनुष्य बिकते थे। उसके लिए कठोर दंड का विधान था। दास का कोई हीन, अधिकार-शून्य वर्ग न था, जो दूसरे की संपत्ति हो और इसलिए स्वयं संपत्ति न रख सकता हो, अथवा जिसे अन्य नागरिकों की भाँति स्वतंत्रता का पूर्ण अधिकार न हो। जातक तथा अन्य साहित्य में स्वयं की इच्छा से बने इस प्रकार के दास (भृत्य) का उल्लेख है। मनु ने इसी प्रकार के 'दास' (भृत्य) को अपने स्वामी, अर्थात नियोजक (employer) के परिवार का सदस्य माना और वैसा ही महत्व दिया है। इनके हित की रक्षा, इनकी तथा इनके बच्चों की उसी प्रकार की शिक्षा का प्रावधान किया जैसा परिवार के सदस्यों के लिए था। 'अमरकोश' में 'दास' और उसके पर्यायवाची शब्द सभी 'सेवक' के समानार्थी हैं, जो अपनी इच्छा से उचित मूल्य लेकर सेवाकार्य करते हैं। भारतीय जीवन में अरब और यूरोपीय देशों की गुलाम बनाने वाली दास प्रथा कभी नहीं आई। मनुष्मृति के अष्ट्म अध्याय के अंत में श्लोक ४१० से ४२० को विषय, प्रसंग-विरोध, भिन्न शैली तथा अंतर्विरोध के कारण अनुसंधानात्मक संस्करण प्रक्षिप्त मानते हैं।


ऎसा इस स्वतंत्रता का व्याप था, जो सारे भारतीय चिंतन पर छाया। पर जब आक्रमणकारी भारत में आए तब उन्होंने (अपनी दास प्रथा के समान ही), जिन लोगों ने धर्म-परिवर्तन से इनकार किया, उन्हें अपमानित करने के लिए गंदगी ढोने आदि के काम करवाए। इस प्रकार जिन्हें घृणास्पद कार्य करने के लिए विवश किया गया, बाद में उनका एक अलग वर्ग बना। जो आक्रमणकारी लुटेरे बनकर आए थे युद्घबंदी बनाकर ले गए, जिनका क्रय-विक्रय उनके देश के बाजारों में होता रहा। पर भारतीय विधि ने दास प्रथा कभी नहीं मानी।


इस प्राणिमात्र की दैहिक स्वतंत्रता के प्रथम स्वत्व के अंदर जो मानव-मूल्य प्रतिष्ठित हैं वे भारतीय सभ्यता की अमूल्य देन हैं।


इस चिट्ठी के चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से हैं।

०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु
०३ - मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
०४ - समता और इसका सही अर्थ
०५ - सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है
०६ - अन्य देशों में मानवाधिकार और स्वत्व
०७ - भारतीय विधि ने दास प्रथा कभी नहीं मानी

4 टिप्‍पणियां:

  1. भारत को अपने पूर्वजों पर गर्व है। पश्चिमी छद्मविचारकों एवं कम्युनिस्टों के भ्रामक दुष्प्रचार के कारण हम अपने अतीत के गौरव को समझ नहीं पा रहे। जिसके पास कोई आदर्श ही नहीं होगा उसका भविष्य क्या होगा?

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  2. शीर्शक में 'विधी' जानबूझकर लिखा गया है या गलती से?

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  3. विधी गलती से लिख गया था। इस तरफ ध्यान दिलाने के लिये - धन्यवाद

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  4. mahoday...aarya ager bharat ka hi tha ,to 1930 main british ka sindhu sabhyata ke khoje jane se pahle,kisi arya ne sindhu sabhyata ka bare main koi vivrad kyu nahi diya,ved aur sindhu sabhyata main koi samanta kyu nahi dikhai deti hai,kyu aryo ka pass sindhu sabhyata ka koi itihasik pramad nahi hai,aur ager ye kalpnik mithak hi hai to fir anuvanshik padhati ki sahayata se is stya ka pata kyu nahi lagaya jata hai,,,,,

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