बुधवार, अक्टूबर 17, 2007

ईसा मसीह का जन्म दिन - बड़ा दिन और भारतीय त्योहार

मानव सभ्‍यता के आदि काल का प्रमुख त्‍योहार सूर्य-पूजा से संबंधित है। हम जानते हैं कि सूर्य २३ दिसंबर को उत्‍तरायण होते हैं। जब भारतीय पंचाग का अंतिम पुनर्निर्धारण हुआ, तब यह घटना सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के साथ होती थी। इसी से दक्षिणतम रेखा को, जहॉं सूर्य (२१ तथा २२ दिसंबर को) लंबवत चमकता है, ‘मकर रेखा’ (Tropic of Capricorn) कहा और उसके उत्‍तरायण होने के दिन को मकर संक्रांति। यही भारतीय खिचड़ी ( पोंगल) का त्‍योहार है। कालांतर में पृथ्‍वी सूर्य के चारों ओर जो दीर्घवृत्‍त बनाती है उसके पात (प्रतिच्‍छेद बिंदु: nodes) पीछे हटते गए, और अब सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का दिन १४ जनवरी है। स्‍मरण होगा कि नरेंद्रनाथ दत्‍त (स्‍वामी विवेकानंद) का जन्‍म मकर संक्रांति के दिन १२ जनवरी को हुआ था। ईसाई पंथ के प्रारंभिक विस्‍तार के समय सभी प्राचीन सभ्‍यताओं में ‘बड़ा दिन’ (अर्थात सूर्य के उत्‍तरायण होने का भारतीय उत्‍सव, यानी उस समय सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का दिन) २५ दिसंबर था।

पृथ्‍वी को आवेष्टित करती प्राचीन आदि सभ्‍यताओं की मेखला में सर्वत्र यह मकर संक्रांति अथवा सूर्य के उत्‍तरायण होने का त्‍योहार सूर्य-पूजा का अंग समझकर मनाया जाता था। ईसाई पंथ के प्रचारकों ने आदि सभ्‍यताओं में प्रचलित इस भारतीय त्‍योहार को ईसा मसीह का जन्‍म- दिवस कहकर अपना लिया। नवीन शोध बताते हैं कि ईसा के जन्‍म के समय प्रभात में तीन ग्रहों की एक साथ युति दिखी, एक जात्‍वल्‍यमान प्रकाश के रूप में, वह घटना ९ सितंबर ईस्‍वी पूर्व तीसरे या छठे वर्ष की है। हिंदी विश्‍वकोश के अनुसार संवत ५८५ (सन ५२७) के लगभग रोम निवासी पादरी डायोसिनियस ने गणना करके रोम की स्‍थापना के ७९५ वर्ष बाद ईसा मसीह (Jesus Christ) का जन्‍म होना निश्चित किया तथा छठी शताब्‍दी से ईस्‍वी ‘सन्’ का प्रचार प्रारंभ हुआ। इस प्रकार २५ दिसंबर को मनाया जाने वाला विशुद्ध भारतीय त्‍योहार ‘बड़े दिन’ (christmas) को ईसाई जगत के लिए अपहृत कर लिया गया और भारतीय पद्धति के अनुसार उन्‍होंने शिशु ईसा की ‘छठी’ का दिन १ जनवरी तथा ‘बरहों’ ६ जनवरी को मनाना प्रारंभ किया।

ईसाई और मुसलिम मान्‍यता है कि मानव का प्रारंभ आदम और हव्‍वा से अदन वाटिका में हुआ। यह मानव की जन्‍मस्‍थली अदन वाटिका थी कहॉं ? इस विषय में अरब (प्राचीन अर्व देश, अर्थात अच्‍छे घोड़ों का देश) की किंवदंतियों तथा विश्‍वासों का सहारा लें तो मानव का आदि प्रदेश उसके शैशव की लीलास्‍थली, जहॉं से वे संसार में फैले, उनके देश के पूर्व में दक्षिण भारत के पठारी शीतोष्‍ण जलवायु के अरण्‍य में थी।

स्‍वस्तिक चिन्‍ह सदा-सर्वदा भारत में मंगल, सर्वकल्‍याणकारी, शुभ चिन्‍ह के रूप में प्रयोग होता आया है। कहते हैं, प्रारंभ में ऋषियों ने आकाश के किसी भाग में तारों को देखकर इस शुभ चिन्‍ह की कल्‍पना की थी। भारत में पूजा, हवन या अन्‍य शुभ अवसरों पर, घर तथा मंदिरों में यह चिन्‍ह बनाते हैं। भारत में यह दक्षिणावर्ती (clockwise) है, पर कहीं वामावर्ती (anti- clockwise) स्‍वस्तिक (swastik) चिन्‍ह भी प्रचलित था। जब हिटलर ने जर्मन लोगों को विशुद्ध आर्य कहना प्रारंभ किया तब ‘वामावर्ती स्‍वस्तिक’ धारण किया। इसके पहले लगभग सहस्‍त्र वर्ष से इसका उपयोग भारत में सीमित रह गया था। यह स्‍वस्तिक चिन्‍ह भारत से उक्‍त भू-मेखला में फैला।

संभवतया भारत के सांस्‍कृतिक प्रभाव के कारण ही इन पूजा और स्‍वस्तिक चिन्‍ह ने संसार का चक्‍कर काटा। यह विशेषकर पुरानी दुनिया के लिए ही नहीं वरन् नई दुनिया, मेक्सिको और पेरू के लिए भी सत्‍य है जहॉं पिंगल प्रजाति के लोग भी बसे। मानव केवल रूप-रंग का आकार नहीं। उसने विचारों की सृष्टि की, जिन्‍होंने एक सभ्‍यता उपजाई। प्राचीन सभ्‍यताओं की प्रेरणा का कोई केंद्र, कोई छोर है क्‍या, जहॉं से वह नि:सृत हुई? ज्‍यों-ज्‍यों अधखुले नेत्रों से प्रारंभ होकर मानव सभ्‍यता की यह कहानी आगे बढ़ती है, यह केंद्र स्‍पष्‍टतर होता जाता है।


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९ ईसा मसीह का जन्म दिन - बड़ा दिन और भारतीय त्योहार

शनिवार, अक्टूबर 13, 2007

मानव का आदि देश-८

नव प्रस्‍तर युग में भूमंडल की मेखलाकार पट्टी में फैली एक विशेष संस्‍कृति दिखाई पड़ती है। यह मेखला आइबेरियन प्रायद्वीप से लेकर भूमध्‍य सागर के दोनों ओर के प्रदेश, संपूर्ण दक्षिण एशिया और प्रशांत महासागर के द्वीपों को लेकर उस पार मेक्सिको और पेरू तक नई दुनिया में फैली थी। इसके कुछ लक्षण ऐसे विचित्र थे कि पृथ्‍वी के दूरस्‍थ भागों में उनका स्‍वाभाविक रीति से प्रकट होना असंभव है। चारों ओर घेरती इस मेखला में सूर्य-पूजा तथा नाग –पूजा के साथ ‘स्‍वस्तिक’ का शुभ चिन्‍ह के रूप में प्रयोग दिखता है। इसमें सूर्य-पूजा होने के कारण कुछ पुरातत्‍वज्ञ इसे सूर्यप्रस्‍तर संस्‍कृति ( Heliolithic Culture) कहते हैं।

सूर्य को अपने यहॉं भगवान का स्‍वरूप कहा है। इसे प्राचीन ग्रंथों में अनेक नामों से पुकारा गया है और वेद की ऋचाऍं उसकी महिमा गाती हैं। ऋग्‍वेद एवं बौधायन ने सूर्य को आकाश मार्ग पर हिरण्‍य रथ पर सवार दिखाया है, जिसे सात भिन्‍न रंगों के घोड़े हॉंक रहे हैं। यह इंद्रधनुषी वर्णक्रम ( spectrum) का वर्णन है। सूर्य- रश्मियों से प्रकाश- रासायनिक प्रक्रिया (photo chemical process) द्वारा जीवन प्रारंभ हुआ—सूर्य जीवनदाता है। यह अन्‍यत्र ऊर्जा का उद्गम है, जिससे संसार का संचालन होता है। कोणार्क का सूर्य मंदिर प्रसिद्ध है-वैसे ही हैं दक्षिण अमेरिका में पेरू ( Peru) के सूर्य मंदिर। पृष्‍ठ २०-२१ पर पृथ्‍वी को आवेष्टित और इस प्रकार धारण करती जल-प्‍लावन के समय शेष रही पर्वतमाला की भारतीय कल्‍पना का ‘शेषनाग’ के नाम से वर्णन है। इसी से है नाग-पूजा। फनीशियन ( Phoenecians: यह संभवतया ‘फणीश’ अर्थात नाग का अपभ्रंश है) नाग-पूजक थे। ये वेदों में पणि नाम से उल्लिखित हैं। सूर्य और नाग दोनोंकिंवदंतियों में मिलते हैं। भूमंडल को चारों ओर से कटिबंध की भॉंति घेरती ये उपासनाऍं भारतीय हैं। एच.जी.वेल्‍स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘इतिहास की रूपरेखा’
(Outline of History) में लिखा है – ‘किंतु अंततोगत्‍वा जब कभी रहन-सहन के प्रस्‍तरयुगीन तौर- तरीकों का प्रसार-केंद्र निर्धारित होगा तो वह प्रदेश होगा जहॉं सर्प और धूप जीवन में मूलभूत महत्‍व के होंगे।‘ दुर्भाग्‍यवश वे इन विचारों के अवश्‍यंभावी परिणाम भारत तक न पहुँच सके।


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सोमवार, अक्टूबर 01, 2007

मानव का आदि देश-७

वेदग्रंथ संभवतया संवत् के बीस सहस्‍त्र वर्ष पूर्व रचे गए। भारतीय गणना के अनुसार वे सदा थे, पर साधना द्वारा व्‍यक्‍त हुए। ‘ऋग्‍वैदिक’ घटनाओं और ‘शतपथ ब्राम्‍हण’ के वाक्‍य से कि ‘कृत्तिकाऍं ठीक पूर्व दिशा में उदय होती हैं’ पंचांग-सुधार एवं वेदों के लिपिबद्ध करने का समय संवत् के आरंभ से कम-से –कम छह सहस्‍त्र वर्ष पूर्व अथवा उसके पहले जब कभी वैसा समय आया हो, प्रमाणित होता है। रचना के समय वैदिक संस्‍कृत एक उन्‍नत और सशक्‍त भाषा थी, जिसमें घटनाओं और मनोभावों से लेकर अध्‍यात्‍म, विज्ञान और दर्शन की परिकल्‍पनाओं को व्‍यक्‍त करने की सामर्थ्‍य थी।

किंतु यूरोपीय इतिहासज्ञों के अनुसार आर्य भारत में संवत् के सहस्‍त्र वर्ष पूर्व उत्‍तर-पश्चिम के दर्रो से आकर पंजाब में बसे और वहॉं से पूर्व एवं दक्षिण की ओर बढ़े। किंतु हम जानते हैं कि रामायण काल और दशरथ का अयोध्‍या का राज्‍य इससे पहले आया। तब पूर्व में मगध एवं कौशल प्रतापी राज्‍य थे। और संवत् के करीब ३५०० पूर्व महाभारत काल और हस्तिनापुर ( दिल्‍ली) का राज्‍य आया। इसी प्रकार मोइन-जो-दड़ो (मृतकों की डीह) तथा हड़प्‍पा के पृथ्‍वी में दबे नगर और उनकी सभ्‍यता पंजाब से पुरानी सिद्ध होती है। इसलिए पूर्व एवं दक्षिण की सभ्‍यताऍं पंजाब से गई हुई नहीं हैं। एक गलत पूर्वाग्रह के कैसे दुष्‍परिणाम हाते हैं कि सारा इतिहास उलट गया।

आर्य खेती जानते थे। यह प्रकृति के अध्‍यययन उन्‍होंने सीखा। भारत में ऋतुओं के क्रम, और साल में एक बार वर्षा के आगमन से जब बीज जमते और सारी प्रकृति हरा परिधान धारण करती, खेती के विचार का जन्‍म हुआ। अन्‍यत्र कहॉं बहती हैं मौसमी हवाऍं और कहॉं आती हैं षट ऋतुऍं ? यह जलवायु तो संसार में अन्‍यत्र नहीं। मानव ने उत्‍तरी भारत के मैदानों में पहले-पहल पृथ्‍वी से अन्‍न उपजाया। चतुर्थ हिमाच्‍छादन के बाद जब प्रस्‍तरयुगीन प्रव्रजन की अनेक लहरें यूरोप पहुँचीं तब वे खेती से परिचित थे।


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गुरुवार, सितंबर 20, 2007

मानव का आदि देश-६

एक घटना याद आती है। मेरे छोटे बाबाजी को पुरातत्‍व से लगाव था। एक दिन उन्‍होंने मुझसे कहा,
अंग्रेजी में हमारी ठेठ भाषा के ठेठ देहाती शब्‍द हैं। उन बेचारों को उच्‍चारण नहीं आता, इससे दूसरी भाषा बन गई।
मैं तब नौवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे चेहरे पर संदेह देखकर उन्‍होंने कहा,
‘पूछो तुम शब्‍द।
तब मैं अंग्रेजी शब्‍द कहता और वह उसीसे मिलते-जुलते हिंदी के पर्याय शब्‍द बताते चलते। हम एक कस्‍बे में रहते थे। तंग आकर मैंने पूंछा,
‘टाउन ( town)?
उन्‍होंने हँसकर कहा,
‘अब तुम ठेठ देहाती शब्‍द पर उतर आए हो। बुंदेलखंडी में पूछते हैं, "तुहार ठॉंव कवन आय ?" यह ‘ठॉंव’ ही ‘टाउन’ है।
जब मुझे विश्‍वास नहीं हुआ तो मुझसे आंग्‍ल विश्‍वकोश (Encyclopedia Brittanica) दिखवाया। उसमें ‘टाउन’ शब्‍द के विवेचन के बाद लिखा था, ‘तुलना करें, संस्‍कृत ‘स्‍थान’। संस्‍कृत ‘स्‍थान’ से ही ‘ठॉंव’ और ‘टाउन’ दोनों बने। उन्‍होंने हजारों अंग्रेजी शब्‍दों के उसी से मिलते-जुलते हिंदी पर्याय लिखे थे।

भाषा के आश्‍चर्यजनक साम्‍य से यह निष्‍कर्ष भी निकलता है कि आर्य किसी एक स्‍थान, जैसे भारत से पश्चिमी एशिया और यूरोप में फैले। संस्‍कृत संसार की प्राचीनतम और समृद्धतम भाषा है। हर प्रकार के साहित्‍य का, जिनमें वेद-पुराण प्रमुख हैं, बहुत बड़ा भंडार उसके पास है और है शब्‍द बनाने तथा भाव व्‍यक्‍त करने का सरल एवं अनुपम ढंग तथा विश्‍व भाषा बनने की क्षमता। ऐसी दशा में संस्‍कृत यदि आर्य सभ्‍यता की मूल भाषा (या उसके निकट-पूर्व की प्रचलित भाषा) रही हो तो क्‍या आश्‍चर्य।

आर्य भाषाओं साम्‍य का एक और कारण अनुमान कर सकते हैं। कल्‍पना करें कि यह विस्‍मरण हो जाए कि भारत में कभी अंग्रेजी राज्‍य था। अंग्रेजी के बहुत से शब्‍द हिंदी में और हिंदी के अनेक शब्‍द अंग्रेजी में प्रतिदिन के व्‍यवहार में आते हैं। इसे देखकर यदि कोई कहे कि अंग्रेज और भारतीय कहीं बीच के निवासी थे, कुछ इंग्‍लैंड चले गए और कुछ भारत आए तो कितनी हास्‍यास्‍पद बात होगी! कभी भारतीय सभ्‍यता का प्रभाव सारे संसार में फैला; उसने अखिल मानव जीवन को दिशा दी। इसी से आदि भारती के शब्‍दो को लोगों ने सिर-माथे लगाया। पर इतनी बड़ी मात्रा में आर्य भाषाओं में अद्भुत साम्‍य है कि आर्य प्रजाति का भारत से जाना भी युक्तिसंगत है।

आखिर पुरातत्‍व से भाषाशास्‍त्र में वे क्‍यों घुसे ? इसकी कहानी बाबाजी (चौ. धनराज सिंह) ने बताई थी। एक रात गांव में लेटे हुए बाहर सियारों का ‘हुआना’ ( हुआ-हुआ) सुनते रहे। उनको लगा कि संसार में एक जाति के जानवर एक प्रकार से बोलते हैं, फिर मानव की अनेक भाषाऍं क्‍यो हैं ? इसके बारे में बाबुल (Babul) की एक दंतकथा है। कहते हैं कि पहले मानव की एक ही भाषा थी। तब पृथ्‍वी के लोगों ने स्‍वर्ग तक ऊँची मीनार उठाने का विचार किया, जिससे सशरीर स्‍वर्ग पहुँच सकें। जब मीनार बननी प्रारंभ हुई तो देवताओं को भय लगा। उन्‍होंने शाप दिया कि आगे से एक-दूसरे की भाषा मनुष्‍य समझ न पाऍंगे। इस पर मीनार का निर्माण कार्य ठप्‍प हो गया। आज भी फारस की खाड़ी में, जहॉं की यह दंतकथा है, बाबुलमंदप नामक स्‍थान देखा जा सकता है। पर मानव की कभी एक भाषा रही होगी,ऐसा विश्‍वास भाषाशास्त्रियों का नहीं है।

अनुमान है कि प्रस्‍तरयुगीन मानव के पास बहुत कम शब्‍द होंगे—भय, क्रोध, प्रेम आदि की चिल्‍लाहट या वस्‍तुओं की नकल से प्राप्‍त ध्‍वनि। आपस में बात करने के लिए संकेतों का भी प्रयोग होता होगा, जैसा अमेरिका के भिन्‍न भाषा वाले आदि निवासी करते थे। लाखों वर्षो के जीवन के बाद कहीं विचारों के लिए शब्‍दों का निर्माण हो पाया। भारत की प्राचीन भाषा, जिसके अवशिष्‍ट अंश चहुँओर सभी आर्य सभ्‍यताओं में बिखरे, कैसी महान उपलब्धि थी।

प्रजाति के विभाग या वर्गीकरण से मेल खाते हैं संसार की भाषाओं के वर्ग। एक वर्ग के अंदर धातुऍं एवं शब्‍द गढ़ने का तरीका, वाक्‍य-विन्‍यास, अभिव्‍यक्ति की पद्धति तथा व्‍याकरण एक-सा मिलता है। सबसे बड़ा विभाग आर्य भाषाओं का है जिनमें मूल संस्‍कृत एवं पाली है और हैं भारत की सभी भाषाऍं, फारसी, अरमीनी तथा यूरोपीय। दूसरा बड़ा वर्ग सामी (Semitic) भाषाओं का है जिसमें अरबी, इब्रानी (Hebrew), एबीसीनी (Abyssinian) और उस क्षेत्र की प्राचीन भाषाऍं हैं। इसी प्रकार एक अन्‍य बड़ा वर्ग पूर्वी एशिया की भाषाओं का है जहॉं कुछ प्रारंभिक ध्‍वनियों से बोली बनती है। उनका स्‍वर तथा उतार-चढ़ाव उनको भिन्‍न अर्थ देता है। यह चीनी भाषाओं का वर्ग है। आर्य भाषा रूपकों में स्‍पष्‍ट चित्र खड़ा करती है; वहॉं चीनी भाषा सार मात्र देती है, जिसके भिन्‍न संदर्भ में भिन्‍न-भिन्‍न अर्थ होते हैं। इनकी व्‍याकरण की कल्‍पना भिन्‍न है-या जैसा कुछ भाषाशास्‍त्री कहते हैं, व्‍याकरण है ही नहीं। इसलिए चीनी भाषा से आर्य भाषा में शब्‍दानुवाद संभव नहीं।

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बुधवार, सितंबर 12, 2007

मानव का आदि देश-५

प्रमाण में कि आर्य भारत में बाहर से आए, दो बातें कही जाती हैं। प्रथम, भारत में सभी प्रकार के लोग पाए जाते हैं-गोरे, काले तथा उत्‍तर-पूर्व में मंगोल लक्षण लिये हुए भी। इससे कहते हैं कि गोरे आर्यों तथा काले अनार्यों के सम्मिश्रण से आज के गेहुँए भारतीय पैदा हुए। मंगोल लक्षणों के लिए वे कहते हैं कि कुछ मंगोल भी उत्‍तर-पूर्व में बस गए होंगे। ये आधारविहीन कल्‍पनाऍं हैं। संसार में पिंगल प्रजाति भी है और भारत में उस चेहरे-मोहरे के लोग हैं। यदि संसार में गोर-काले ही होते तभी केवल जलवायु के प्रभाव से यह भेद उत्‍पन्‍न होना कहा जा सकता था। भारत सभी प्रजातियों का संगम स्‍थल है, जहॉं से मानव भिन्‍न दिशाओं में, अन्‍य परिस्थितियों एवं जलवायु में गए। इन प्रवासियों में नई विशिष्‍टताऍं एवं लक्षण उत्‍पन्‍न हुए और नई प्रजातियॉं बनीं। इसी प्रकार जो यूरोपवासी अमेरिका जाकर बसे उनकी संतति, चेहरे-मोहरे में शताब्दियों में परिवर्तन आया। यूरोपीय इतिहासज्ञ भूलते हैं कि चतुर्थ हिमाच्‍छादन के बाद यूरोप में दक्षिण-पूर्व से जब विशुद्ध मानव पहुँचे तो वे गेहुँए या श्‍यामल वर्ण के थे, जैसे अधिकांश भारतीय आज हैं।

इस ऐतिहासिक भ्रम ने कैसा विष उत्‍पन्‍न किया, इसकी छाया तमिलनाडु के हिंदी-विरोधी आंदोलनों में देखी जा सकती है। एक बार विचित्र अनुभव हुआ। तब यह आंदोलन प्रारंभ हुआ था। इटारसी से नागपुर जाते समय मैं रेल के छोटे डिब्‍बे में कोने में बैठा पुस्‍तक पढ़ रहा था। इतने में देखा कि एक श्‍याम तमिल सज्‍जन अंग्रेजी में उत्‍तरी भारत के विरूद्ध, उत्‍तर के गोरे लोगों के विरूद्ध और हिंदी के विरूद्ध बक रहे थे और‍ डिब्‍बे में सबसे हुँकारी भरा रहे थे। सब उनसे त्रस्‍त थे, पर उनका ‘उत्‍तरी भारत’, ‘गोरे आर्य’ तथा ‘हिंदी’ के ‘साम्राज्‍यवाद’ के विरूद्ध प्रस्‍ताव चालू था। अंत में मेरी ओर घूमकर उन्‍होंने कहा,
‘क्‍यों साहब, आप कुछ नहीं बोल रहे ?’
मैंने कहा,
‘मैं तो उलटा ही जानता हूँ। यदि दक्षिण के साम्राज्‍यवाद से छुटकारा मिल जाए तो हम लोगों का बड़ा भला हो।
उनकी त्‍योरियॉं चढ़ गई,
‘यह कैसे ?’
मैंने कहा,
‘एक शंकराचार्य दक्षिण में केरल के कालडी ग्राम में पैदा हुआ। कहते हैं, उसने उत्‍तर भारत आकर दिग्विजय की। तब से कैसे नियम बना गए—गंगा का जल ले जाकर रामेश्‍वरम में चढ़ाओ। भारत के चार कोनों में स्‍थापित चारों धाम की यात्रा करो। हम उत्‍तरी भारत में बेवकूफ बने उसकी कही करते रहते हैं। -- और तो और, इतिहासज्ञ कहते हैं कि आर्य जब भारत में आए तो वे गोरे थे, पर द्रविड़ों ने अपने देवी-देवता उन्‍हें दे दिए। हमारे राम भी सॉंवले, कृष्‍ण का नाम ही कृष्‍ण है। ‘काली’ को देखते भय लगता है। और देवों के देवता ‘महादेव’ भी सॉंवले। अब हम उत्‍तर में इन सॉंवले देवी- देवताओं की पूजा करते फिरते हैं।– इससे भी बढ़कर सीता जगन्‍माता हैं, इसलिए उनके सौंदर्य का वर्णन कहीं नहीं है। पर जिसे महाभारत में अनिंद्य सुंदरी कहकर पुकारा, वह द्रौपदी भी काली। इसी से कृष्‍ण की बहन कहलाई। जिसके कारण चित्‍तौड़गढ़ में जौहर हुआ, भारत के संघर्ष काल की अद्वितीय सुंदरी पदिमनी, वह भी सॉंवली। सॉंवलों से तथा उनके देवी-देवताओं से पीछा छूटे तो हम उबर जाऍं।
क्रोध के मारे उन सज्‍जन की आवा न निकली। डिब्‍बे के लोग हँस पड़े और चैन सॉंस ली। जब दृष्टि भ्रमवश संकुचित हो जाती है तो कैसा विकार उत्‍पन्‍न होता है।

दूसरा भाषा का प्रमाण देते हैं। मैक्‍समूलर का प्रसिद्ध उदाहरण है-कैसे संस्‍कृत का ‘पितृ’ शब्‍द (हिंदी ‘पिता’), देहाती अपभ्रंश में ‘पितर’ बनता है, वही फारसी में ‘पिदर’, लैटिन तथा जर्मन भाषा में ‘पेटर’ (pater) और अंग्रेजी में ‘फादर’ (father) बन जाता है। इस प्रकार के सहस्‍त्रों उदाहरण मिलते हैं। हिंद-यूरोपीय (Indo-European) भाषाओं के अद्भुत साम्‍य के कारण कुछ इतिहासज्ञ कहने लगे-‘भारत के आर्य और यूरोपीय किसी एक ही प्रदेश में जनमें हैं। एक शाखा निकली, यह यूरोप में बस गई। दूसरी भारत आई। बीच में कश्‍यप सागर के आसपास का क्षेत्र है। इसलिए ये दोनों शाखाऍं वहीं से निकती होंगी। वही आर्यों का आदि देश है।‘ भाषा के साम्‍य को इस बात का प्रमाण मान सकते हैं कि आर्यों का आदि देश एक था, जिससे शब्‍द –ध्‍वनियों की बानगी उनके पास बनी रही।

आज जो ‘जिप्‍सी’ (Gypsy) मध्‍य यूरोप में घुमक्‍कड़ जिंदगी व्‍यतीत करते हैं उनकी भाषा ‘रामणी’ (Romany) में बहुत से भारत के देहाती शब्‍द हैं। इन जिप्सियों के परंपरागत विश्‍वास, उनकी दंतकथाऍं और रीति-रिवाज बताते हैं कि वे संवत͉ पूर्व पंजाब से मिस्‍त्र (Egypt) ( इसी से जिप्‍सी कहलाए) तथा अनेक मंजिलें पार कर मध्‍य यूरोप पहुँचे।

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