बुधवार, जुलाई 30, 2008

कृष्ण की मृत्यु और कलियुग की प्रारम्भ

महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई। (एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, १,०९,३५० पैदल और ६५,६१० घुड़सवार होते थे।) कहते हैं, इसमें ज्ञात संसार के अनेक देशों और जातियों ने भाग लिया। धरती का वह भाग श्मशान तथा मरूभूमि हो गया। ब्रम्हास्त्र (आणविक अस्त्र) तथा आग्नेय अस्त्रों के प्रयोग ने धरती और उस पर सभी कुछ जला डाला। यह भयानक संहार का मूक साक्षी संभवतया थार का मरूस्थल है। जो भी हो, उसके बाद राजस्थान (भारत) के क्षेत्र में भौमिकीय उथल-पुथल होती रही। सरस्वती नदी, जो पश्चिम की ओर बहकर प्रभाकर प्रभासक्षेत्र में समुद्र में मिलती थी और लहलहाती वनस्पति से भरी शस्य-श्यामला उर्वरा भूमि सूख गई और रेगिस्तान निकल आया।

कृष्ण ने कहा,
'मेरा अभी एक काम शेष है। ये यदुवंशी बल-विक्रम,वीरता-शूरता और धन-संपत्ति से उन्मत्त होकर सारी पृथ्वी ग्रस लेने पर तुली हैं। यदि मैं घमंडी और उच्छृंखल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किए बिना चला जाऊंगा तो ये सब मर्यादाओं का उल्लंघन कर सब लोकों का संहार कर डालेंगे।'

अंत में कृष्ण के परामर्श से सब प्रभासक्षेत्र में गए। वहां मदिरा में मस्त हो एक-दूसरे से लड़ते 'यादवी' संघर्ष में वे नष्ट हो गए। मानवता का अंतिम कार्य भी पूरा हुआ। बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली। यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों के अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई। आज भी आधुनिक द्वारका से रेल से ओखा और वहां से जलयान द्वारा 'बेट द्वारका' पहुंचते हैं। तब द्वीप के पहले, यदि सागर शांत हो तो, तल में डूबी कृष्ण की द्वारका देखी जा सकती है।

कृष्ण की जीवन-लीला समाप्त होते ही कलियुग आया। यह घटना विक्रमी संवत् से ३०४४ वर्ष पहले की है। युधिष्ठिर के राज्य का अंत होते कलिकाल का पदार्पण हो चुका था। उसके उत्पात भी प्रारंभ हो गए। अपशकुनों के बीच जब युधिष्ठिर को कृष्ण के निधन का समाचार मिला तब पांडवों ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज्य सौंपकर द्रौपदी सहित स्वर्ग (त्रिविष्टप : आधुनिक तिब्बत) पहुंचने के लिए मानसरोवर की यात्रा की।
कुत्ता मानव का साथी रहा है, उसी प्रकार धर्म हिमालय यात्रा में वह उनके साथ चला।

परीक्षित ने कलियुग को बांधने और उसके उत्पातों को क्षीण करने का यत्न किया। अंत में सर्पदंश से उनकी मृत्यु हो गई।
इसलिये उनके पुत्र जन्मेजय ने मानवता के कल्याण के लिए सर्प-संहारक 'नागयज्ञ' किया। भ्रामक पूर्व धारणाएं कैसी कल्पनाओं को जन्म देती हैं, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। 'आर्य कहीं बाहर से आए' इस भूमिका ने इस नागयज्ञ की एक विचित्र व्याख्या को जन्म दिया, जो हिंदी के प्रसिद्घ साहित्यकार जयशंकर प्रसाद के नाटक 'जन्मेजय का नागयज्ञ' में देखी जा सकती है।

जन्मेजय के नागयज्ञ का यह चित्र, कृष्णा डाट कॉम के सौजन्य से है

मेरे बाबा जी कहते थे,
यह 'मथुरा' शत्रुघ्न ने बसाई होगी, पर यह कंस की मथुरा नहीं है।

वह किंवदंतियों से अरब प्रायद्वीप के उत्तर-पूर्व की नदी, जो पास में रत्नाकर (सिंधु सागर) में गिरती है, के तट पर बसे नगर को कंस की मथुरा बताते थे। प्राचीन भू-चित्रावली में यह नगर और नदी 'मथुरा' और 'यमन' के नाम से प्रसिद्घ थे। संसार की किंवदंतियां इसी प्रकार ग्रथित हैं। ऎसा भी हो सकता है कि भारतीय संस्कृति से प्रभावित इन क्षेत्रों के निवासियों ने अपनी मथुरा और यमुना बना ली हो। सागर तट पर बसी द्वारका पश्चिम से भारत आने का द्वार थी ही।

संसार में फैले राम और कृष्ण की लीला के चिन्ह अभी अनखोजे हैं। ये चिन्ह भारत में ही नहीं, संपूर्ण एशिया में, मध्य-पूर्व में, भूमध्य सागर के चारों ओर और सुदूर मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग में-जो प्राचीन सभ्यताओं की पृथ्वी को घेरती मेखला थी-में किसी-न-किसी रूप में फैले हैं। ये विष्णु के अथवा अन्य मंदिरों के रूप में हैं, अथवा प्राचीन मंदिरों में उत्कीर्ण कहानियों में विष्णु के प्रारंभिक अवतारों की झलक मिलती है। दुर्भाग्य से उनका संबंध उनके मूल और अखंड प्रेरणा के स्त्रोत भारत से छूट गया। दुर्दैव से कालांतर में भारत गुलाम होकर संकुचित हो गया। आज सारे संसार में फैली मेखला में भारतीय संस्कृति के अवशिष्ट चिन्हों का अर्थ, हेतु और व्याख्या यूरोपीय विद्वान खोजते हैं; पर भारतीय लोक-गाथाओं से अनभिज्ञ होने के कारण, स्पष्ट होने के बाद भी वे सांस्कृतिक प्रतीक एवं चिन्ह उनकी समझ से बाहर हैं।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों

गुरुवार, जुलाई 24, 2008

महाभारत में, कृष्ण की धर्म शिक्षा

महाभारत युद्घ को लेकर ऎसा ही एक वितंडा है। कृष्ण ने कहा,
'धर्म की संस्थापना के लिए मैंने जन्म लिया है।' ('परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।')
इसलिए महाभारत युद्घ धर्मयुद्घ कहा जाता है। उसमें पांडवों का धर्म का पक्ष है और कौरवों का अधर्म का। पर सोचें -उसके विभिन्न प्रसंग, जिनके सूत्रधार बने उस युद्घ में हथियार का प्रयोग न करने का संकल्प लिये, कृष्ण।

कौरवों के प्रथम सेनापति भीष्म ने नौ दिन तक पांडवों की सेना में भयंकर संहार मचाया। भीष्म ने घोषणा की थी -
'पांडवों के रथी शिखंडी पर मैं हथियार नहीं चलाऊंगा; क्योंकि वह पूर्वजन्म में स्त्री था। किसी स्त्री के ऊपर अस्त्र चलाना वीर के लिए वर्जित है, अधर्म है।'
जब तक भीष्म के हाथ में अस्त्र-शस्त्र थे, उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। तो कृष्ण की मंत्रणा से दसवें दिन भीष्म के विरूद्घ शिखंडी को सामने किया गया। भीष्म ने यह देख अपने हथियार डाल दिए। तब महावीर अर्जुन ने मानो स्त्री के पीछे छिपकर अपने दृढ़प्रतिज्ञ पितामह को बाणों से बींध डाला। किसने किया धर्म का पालन ? भीष्म ने, जिन्होंने उसके पीछे प्रच्छन्न शत्रु होने पर भी प्रतिरोध नहीं किया, क्योंकि शिखंडी पर वार करना अधर्म था; या अर्जुन ने, जिसने कृष्ण के कहने पर नीति-विरूद्घ छिपकर पीछे से अपने पितामह को युद्घभूमि में शर-शय्या प्रदान की?

कौरवों के दूसरे सेनापति हुए द्रोणाचार्य। वह जानते थे कि उनका पुत्र चिरजीवी है। परंतु पांचवें दिन कृष्ण ने अफवाह फैलाई-
'अश्वत्थामा मारा गया।
' अश्वत्थामा नामक हाथी मारा गया था। तब द्रोण ने युधिष्ठिर से पूछा,
'क्या यह सच है?'
पूर्व मंत्रणा के अनुसार सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा,
'अश्वत्थामा हतो (मारा गया)',
परंतु इसके पहले कि वे 'नरो वा कुंजरो वा' कह सकते, कृष्ण ने शंख बजा दिया। बाद का वाक्यांश उस नाद में खो गया। द्रोणाचार्य पुत्र-शोक में डूब गए और धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट लिया। अर्द्घ सत्य (अथवा झूठ कहें क्या?) पर आधारित घटना या सत्यवादी युधिष्ठिर की असत्य का आवरण ओढ़े प्रतिध्वनि।

अर्जुन को गीता का ज्ञान देते समय, कृष्ण अपने दिव्य रूप दिखाते हुऐ

तब कौरवों ने सेनापति के रूप में वरण किया कर्ण का। कृष्ण ने कुंती से युद्घ के पहले कर्ण को कहलवाया था,
'तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो।'
और उससे अर्जुन के अन्य भाइयों को न मारने का वचन लिया था। इसी से अवसर पाकर भी कर्ण ने दूसरे भाइयों को छोड़ दिया। ब्राम्हण का वेश धरकर इंद्र ने उससे कवच-कुंडल मांगे, जो जन्म से उसे मिले थे। सूर्य के मना करने पर भी,
'मैं दानवीर हूं',
इसलिये उसने वे कवच-कुंडल दे दिए। उसका सारथि शल्य ताने कसकर उसका उत्साह भंग करता रहा। अंत में कृष्ण कर्णार्जुन के घनघोर युद्घ को उस ओर घसीट ले गए जहां दलदल था। कर्ण के रथ का पहिया उसमें फंस गया। तब कर्ण ने धनुष-बाण त्याग कर युद्घ के नियमों का आह्वान करते हुए अर्जुन से कहा,
'मैं शस्त्र -त्याग करता हूं। धर्मानुसार कुछ छणों के लिए युद्घ बंद करो। मैं रथ का पहिया निकाल लूं।'
जब वह रथ का पहिया निकाल रहा था तब कृष्ण ने कहा,
'कर्ण, कहां था तुम्हारा धर्म का विचार जब तुम्हारे साथ दुर्योधन, दु:शासन और शकुनि द्रौपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए दरबार में लाए? तब धर्म था क्या जब तुम लोगों ने युधिष्ठिर को फुसलाकर जुए में छल-कपट किया? यह भी धर्म है, जब बारह वर्ष वनवास और तेरहवें वर्ष अज्ञातवास में रहने के बाद उनका राज्य उन्हें देने से इनकार करते हो? तुम्हारी धर्मबुद्घि तब कहां थी जब लाक्षागृह में सब भाइयों को जलाने का यत्न किया गया? अकेले और निहत्थे अभिमन्यु को जब तुम सबने मिलकर मार डाला तब कहां गया था तुम्हारा क्षात्रधर्म और न्याय-व्यवहार?'
कर्ण ने अमोघ अस्त्र का मंत्र दोहराना चाहा, पर उसकी स्मृति लुप्त हो गई। कृष्ण ने कहा,
'क्या देख रहे हो, अर्जुन? आततायी शत्रु के हनन का यही समय है।'
अनिच्छा से ही सही, पर कृष्ण की बात पर अर्जुन के बाण से कर्ण का सिर भू-लुंठित हो गया। महाभारत में उल्लेख है कि सभी ने अर्जुन के इस अन्यायपूर्ण कृत्य की निंदा की, पर कृष्ण ने उसकी जिम्मेदारी स्वयं ली।

दुर्योधन ने सुना तो उसे अपार दु:ख हुआ। उसके भाई, बड़े-बड़े योद्घा, भूपति मारे जा चुके थे। तब शल्य को कौरवों का सेनापति चुना गया। जब शल्य भी युद्घ में खेत रहा और दुर्योधन के शेष भाई मारे गए तब अपनी पराजित सेना की पुन: एकजुट न कर पाने पर विवश, वह अकेल मानो तप्त शरीर को ले व्यास ताल में छिप गया। पीछा करते पांडवों की ललकार पर वह बाहर आया।

दुर्योधन ने कहा,
'एक-एक कर आओ, मैं तुम सबको देख लूंगा। निश्चय ही तुम सब एक साथ आक्रमण न करोगे; क्योकि मैं एकाकी, कवचविहीन, थका और घायल हूं।'
युधिष्ठिर ने कहा,
'मिलकर अकेले को मारना यदि अधर्म था तो निहत्थे अभिमन्यु पर कैसे सभी महारथी मिलकर टूट पड़े? दुर्भाग्य के समय घर्म का पर-उपदेश लोग देने लगते हैं। पर तुम हममें से किसी को चुन लो और युद्घ करो। उसमें मृत्यु को पाकर स्वर्ग पाओ अथवा जीतकर राज्य लो।'
यदि दुर्योधन चाहता तो नकुल या सहदेव को चुनकर विजयी बनता; पर कृष्ण के ताने पर उसने अपने जोड़ीदार भीम को चुना। उस बराबरी के युद्घ में एकाएक कृष्ण ने अर्जुन से कहा,
'भीम दुर्योधन की जंघा विदारकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करेगा।'
तब भीम के मन:चक्षुओं में द्रौपदी का अपमान तथा धृतराष्ट्र के दरबार की प्रतिज्ञा पुन: कौंध गई। वह दुर्योधन पर टूट पड़ा और गदा से उसकी दोनो जांघें तोड़ डालीं। दुर्योधन पृथ्वी पर गिर पड़ा और भीम निपातित दुर्योधन के ऊपर बीभत्स नृत्य कर उठा।

युद्घ अवश्यंभावी देख एक बार गांधारी ने दुर्योधन को उस रूप में जैसा वह पैदा हुआ था, सायंकाल में आने को कहा। कृष्ण ने देखा तो दुर्योधन से कहा,
'अरे, तुम्हारी मां है तो क्या हुआ, ऎसे नंगे जाओगे?'
तब लज्जावश दुर्योधन ने कमर में वल्कल लपेट लिया। गांधारी ने आंखों से पट्टी क्षण भर के लिए खोली। शरीर के जितने भाग में गांधारी की दृष्टि पड़ी, वह भाग पत्थर-सा कठोर हो गया। पर वल्कल से ढका जांघ का भाग वैसा ही रह गया। यह कृष्ण को पता था।

पर गदायुद्घ में नाभि के नीचे प्रहार वर्जित था। जब दुर्योधन-भीम का युद्घ हो रहा था तभी तीर्थाटन कर बलराम वहां आए। बलराम ने क्रोध में कहा,
'धिक्कार है सबको, जो खड़े देख रहे हैं इस अधर्म को। मैं सहन नहीं कर सकता इसे।'
हलधर अपना हल उठाकर भीम की ओर बढ़े। तभी कृष्ण ने बीच में पड़कर कहा,
'भीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। पर विचारें वे अत्याचार और अधर्म, जो निर्दोष और निष्पाप पांडवों पर बरपे गए।'
सभी घटनाओं का स्मरण उन्हें मनवा न सका, पर उनका क्रोध शांत हो गया। यह प्रश्न शेष रहता है कि किसने किया धर्म का पालन? दुर्योधन ने, जिसने नकुल-सहदेव को छोड़ भीम को ही युद्घ के लिए चुना; अथवा भीम ने, जिसने गदायुद्घ के नियमों को तिलांजलि दे दुर्योधन की जांघ पर वार किया?

भीष्म के अन्त समय, पांडव उनसे ज्ञान प्राप्त करते हुऐ

धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य- ये सनातन प्रश्न हैं। पर कृष्ण का एक उत्तर है। जिन्होंने व्यक्तिगत अहम्मन्यता के वश होकर, जिसके द्वारा समाज की धारणा हो, उस धर्म की अवहेलना की उन्होंने आचार-व्यवहार के एक छोटे व्यक्तिगत अंश का पालन किया होगा। भीष्म पितामह ने कहा, मैं स्त्री के विरूद्घ हाथ नहीं उठाऊंगा । द्रोणाचार्य, यह जानकर भी कि अश्वत्थामा चिरजीवी है, पुत्र-शोक में विह्वल वेशधारी इंद्र को कवच-कुंडल के दान से कैसे इनकार करते। दुर्योधन भीम से ही लड़ेगा, इस घमंड ने भीम को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया। युद्घ में अधर्म पनपता है। आततायी का हनन और धर्म पक्ष की विजय-कामना-यह समाज-धर्म है और यही शाश्वत है।

युद्घ के श्रीगणेश के समय कृष्ण ने कहा,
'जिधर धर्म है उधर मैं रहता हूं।'
पर अंत में जो करके दिखाया,
'जिधर मैं हूं (अर्थात् जिधर भगवान् का व्यक्त स्वरूप समाज की जीवनी शक्ति है) उधर धर्म है।'
कृष्ण ने बताया,
'जो व्यक्तिगत भावना के वश कार्य करते हैं, पर-समाज की हानि करते हैं वे अधर्म के राही हैं। पांडवों का पक्ष धर्म का था, क्योंकि वह मानव-कल्याण का मार्ग था।'


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कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों

मंगलवार, जुलाई 15, 2008

कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों

श्रीमद्भागवत में उस समय का रूपक है—
‘लाखों दैत्‍यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भार से धरती को आक्रांत कर रखा था। उसने गौ का रूप धारण किया। (संस्‍कृत में गो का अर्थ पृथ्‍वी भी होता है।) उसके नेत्रों से ऑंसू बहकर मुँह में आ रहे थे। मन खिन्‍न था और शरीर कृश हो गया था। वह करूण स्‍वर से रँभा रही थी।‘
परंतु एक-एक कर सभी कष्‍ट- बाधाओं का कृष्‍ण के द्वारा, स्‍वयं अथवा किसी को उपकरण बनाकर, निराकरण हुआ और धर्म का राज्‍य आया।

राधा कृष्ण का चित्र विकिपीडिया से और उसी की शर्तों में

उनके जीवन में ‘धर्म’ अर्थात विधि (कानून) के प्रवर्तन का शुभ कार्य अनेक कल्पनाओं में फँसकर एक-दो बार निंदा-अपवाद बना। भौमासुर (नरकासुर) ने सोलह हजार एक सौ सुंदरी राजकन्याओं को पकड़कर अपनी राजधानी प्राज्योतिषपुर के बंदीगृह में डाल रखा था। कृष्ण ने चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी विदीर्ण कर, शस्त्रों की मोरचाबंदी को छिन्न-भिन्न कर, जल से भरी खाई पार कर, अग्नि, बिजली और गैस की चारदीवारियों को तहस-नहस कर, उस नगर के चारो ओर दस हजार फंदों और यंत्रों को काटकर नगर के परकोटे का घ्वंस कर दिया। घनघोर युद्घ में भौमासुर को मारकर उन स्त्रियों का उद्घार किया। उन स्त्रियों ने कहा,
'जैसे हम कोई संपत्ति हो, भौमासुर ने पाशविक बल से हमारा अपहरण किया। समाज की दृष्टि में हम पतित हैं। हम कहां जाएं?'
तब कृष्ण ने उत्तर दिया,
'यदि भौमासुर तुम्हें संपत्ति समझता था तो उसकी पराजय पर तुम मेरी हो। कौन कहेगा कि मेरे द्वारा अंगीकार करने पर तुम पवित्र और सम्मान के योग्य नहीं हो?'
समाज में उनको उचित स्थान दिलाने का कार्य कृष्ण ने किया। यह कृष्ण की कथित सोलह हजार एक सौ रानियों का प्रवाद है।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों

बुधवार, जुलाई 02, 2008

कृष्ण लीला: अवतारों की कथा

दु:ख और जोखिम से भरा कृष्‍ण का बहुआयामी जीवन अगले अवतार की कहानी है। इस दुनिया का कौन सा ऐसा कष्‍ट है जो कृष्‍ण ने मुसकराते न झेला हो; कौन सा संकट है जिसका युक्ति से निराकरण न किया हो।

यशोदा मैया बालक कृष्ण को नहलाती हुईं

क्‍या कहा जाय उसे, जिसके माता-पिता यौवन की दहलीज पर कारागार में डाल दिए गए हों ! जिसके छह अग्रज जनमते ही मार डाले गए। जन्‍म के समय जिसकी ऑंखें कारागार में खुलीं। जिसने माता-पिता का सुख कभी देखा नहीं आर उनके रहते लालन-पालन पराए घर में हुआ। गोप-गोपियों के बीच गौऍं चराकर जिसका बचपन बीता। और ऐसे समय मृत्‍यु के घाट उतारने में जिसके मामा ने कोई कसर बाकी र रखी। जिसके भाग्‍य मेंजन्‍म-स्‍थान और लालन-पालन के स्‍थान छोड़कर दूर द्वारका में शरण लेना बदा था। रण छोड़कर भागना पड़ा, इसी से ‘रणछोड़’ कहलाया। मणि चुराने का झूठा अपवाद सहन करना पड़ा। सारा जीवन अन्‍याय के विरूद्ध संघर्ष करते बीता। राजसूय यज्ञ में अपने लिए जिसने जूते रखने का कार्य चुना। सर्वगुण-संपन्‍न होने के बाद भी अर्जुन के रथ को हॉंकने वाला सारथि बना। सदा विजय होने के बाद भी कभी राजा बनना नहीं स्‍वीकारा। महाभारत में जिसने चार अक्षौहिणी सेना विरूद्ध पक्ष को देकर नष्‍ट होने दी। जिसने गांधारी के क्रोध और ‘तुम्‍हारे भी कुल का सर्वनाश हो जाय’, इस दारूण शाप को हँसते हुए सिर-माथे पर लगाया, कहा,
‘तुम्‍हारे ज्ञान चक्षु होते तो तुम समझतीं कि हर बार मैं ही मरा हूँ।‘
उसके बाद अपने यादव वंश को अपने सामने नष्‍ट होते देखा। कुल की ललनाओं का अपहरण हो गया, उन्‍हें महाबली अर्जुन भी न बचा सके और जिस परम वीर की मृत्‍यु जंगली जंतु की भॉंति व्‍याध के हाथों हुई।

इस संकटापन्‍न जीवन में सदा धर्म की मर्यादा बनाए रखी, उसी के अनुगामी बने। सर्वदा उसी का समर्थन। हँसते-हँसते महाविपत्तियों को झेला। मानो महाकाल को भी चुनौती दी। युद्ध न हो, यही सतत प्रयत्‍न; पर जब युद्ध अवश्‍यंभावी दिखा तो विजय की कामना ही मूल मंत्र बनी। जिसने ‘गीता’ में समस्‍त वेद- उपनिषदों का सारतत्‍व गाया, भारतीय दर्शन का चरम सत्‍य समझाया। नृत्‍य, गान आदि ललित कलाओं का प्रवर्तक; सौंदर्य, माधुर्य, भक्ति और प्रेम रस की खान, वह योगेश्‍वर बना। कितना विरोधाभास और विसंगतियॉं आईं, द्वंदात्‍मक परिस्थितियॉं उभरीं; पर उनके बीच से निष्‍पाप निकलने का मार्ग बनाया।
रामावतार विष्‍णु की बारह कलाओं का था पर सभी सोलह कलाओं से युक्‍त विष्‍णु का पूर्णावतार, ऐसा था श्रीकृष्‍ण का चमत्‍कारिक जीवन।

कृष्ण गोवर्धन पर्वत उठाये हुऐ

उनके बचपन में ब्रज में इंद्र की पूजा होती थी, जो वर्षा से पृथ्‍वी को सिंचित करता था। बालक कृष्‍ण ने कहा,
‘होंगे इंद्र स्‍वर्ग के राजा, उनसे बड़ी तो हमारी गोवर्द्धन पहाड़ी है, जिसने हमारी गायों को बड़ा किया। पूजा करनी है तो उसी की करो।‘
फिर क्‍या था, ब्रज में उस वर्ष इंद्र के स्‍थान पर गोवर्द्धन की पूजा हुई। तब इंद्र ने कुपित होकर घनघोर वर्षा की। सारी पृथ्‍वी जल-प्‍लावित हो गई। सब भागकर कृष्‍ण के पास गए। तब कृष्‍ण ने कहा,
‘चलो, गोवर्द्धन के पास चलें। उसकी पूजा की है, वही रक्षा करेगा।‘
कहते हैं कि सबने मिलकर उठाया तो पर्वत भी उठ गया। उसके नीचे सबने शरण ली। उस एक सप्‍ताह की घटाटोप वर्षा और कीचड़ से गोवर्द्धन ने व्रजवासियों तथा उनकी गायों को त्राण दिया। इस प्रकार कृष्‍ण ने जीवन में कृति से बताया कि स्‍वर्ग के राजा से अपनी मातृभूमि की छोटी सी वस्‍तु भी बड़ी है। यदि मिलकर काम करें तो पहाड़ भी उठ जाए; कौन सा ऐसा दु:साध्‍य कार्य है जो सरल नहीं हो जाता।


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कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला

मंगलवार, जून 24, 2008

राम कथा: अवतारों की कथा

उत्‍तरी भारत में सरयू नदी के तट पर बसी अयोध्‍या,जहॉं त्रेता युग में दशरथ के पुत्र राम का जन्‍म हुआ था। अयोध्‍या, अर्थात् जहॉं कभी युद्ध नहीं होता। एक दिन विश्‍वामित्र आए और अपने आश्रम के संरक्षण हेतु दो राजकुमार - राम और लक्ष्‍मण - मॉंगे। विश्‍वामित्र और दशरथ के गुरू वसिष्‍ठ का पुराना मनमुटाव प्रसिद्ध है। कहते हैं, विश्‍वामित्र क्षत्रिय कुल में उत्‍पन्‍न हुए थे और वसिष्‍ठ उन्‍हें ‘राजर्षि’ कहते थे। विश्‍वामित्र की इच्‍छा ‘ब्रम्‍हर्षि’ कहाने की थी। अंत में विश्‍वामित्र क्रोध पर विजय प्राप्‍त कर सचमुच में ब्रम्‍हर्षि बने। पर जब विश्‍वामित्र ने इन बालकों की जोड़ी को अपने आश्रम की रक्षा के लिए मॉंगा तो वसिष्‍ठ ने सहर्ष आज्ञा दिलवा दी। मानवता का और समाज का कार्य राम के द्वारा संपन्‍न होना था। राम ने आश्रम के पास पड़ी ऋषि-मुनियों की हडिड्यॉं देखीं,
‘तब करौं नि शाचरहीन महि भुज उठाय प्रन कीन्‍ह।’
विश्‍वामित्र के आश्रम में राम-लक्ष्‍मण ने शस्‍त्रास्‍त्रों की विद्या और उनके प्रयोग में दक्षता प्राप्‍त की।

जनकपुरी में सीता स्‍वयंवर रचा जा रहा था। राजा जनक ने प्रण किया था, जो‍ शिव-धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ा देगा उसी से सीता का विवाह होगा। विश्‍वामित्र भी आश्रमवासियों के वेश में दोनों कुमारों सहित उस स्‍वयंवर में पधारे। जनकपुरी और अयोध्‍या राज्‍यों में स्‍पर्धा थी - राजा दशरथ को संभवतया निमंत्रण भी न था।

उस विशाल स्‍वयंवर में रावण आदि महाबली राजा भी धनुष न हिला सके। तब राजा जनक ने दु:खित होकर कहा,
‘वीर विहीन मही मैं जानी।’
शिव धनुष तोड़ने का चित्र रवी वर्मा का है और विकिपीडिया से लिया गया है।

इस पर लक्ष्‍मण को क्रोध आ गया। उन्‍होंने भाई की ओर ताका । विश्‍वामित्र का इशारा पाकर राम ने धनुष उठा लिया; पर प्रत्‍यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। सीता ने स्‍वयंवर की वरमाला राम के गले में डाल दी। अपने इष्‍टदेव के धनुष टूटने पर परशुराम जनक के दरबार में पहुँचे पर मानव जीवन में पुन: मर्यादाऍं स्‍थापित करने के लिए एक नए अवतार की आवश्‍यकता थी। इस प्रकार भारत के दो शक्तिशाली घराने और राज्‍य एक बने। वसिष्‍ठ-विश्‍वामित्र की अभिसंधि सफल हुई। पुराना परशुराम युग गया और राम के नवयुग का सूत्रपात हुआ।

धनुष-यज्ञ प्रकरण के अनेक अर्थ लगाने का प्रयत्‍न हुआ है। मेरे छोटे बाबाजी इसको अनातोलिया (अब एशियाई तुर्की) की कथा बताकर एक विचित्र अर्थ लगाते थे। पुराने एशिया से यूरोप के व्‍यापार मार्ग बासपोरस (Bosporus) तथा दानियाल (Dardnelles) जलसंधियों को पार करके जाते थे। उसके उत्‍तर में फैला था काला सागर, कश्‍यप सागर और अरब सागर को संभवतया समेटता महासागर, जिसके कारण यूरोप (प्राचीन योरोपा, संस्‍कृत ‘सुरूपा’) एक महाद्वीप कहलाया। इन्‍हीं के पास यूनान के त्रिशूल प्रदेश में जहॉं सलोनिका नगर है) से लेकर मरमरा सागर (Sea of Marmara) तक शिव के उपासक रहते थे। किंवदंती है कि ये व्‍यापारियों को लूटते-खसोटते और कर वसूलते थे। अनातोलिया का यह भाग धनुषाकार है। सीता स्‍वयंवर के समय इसी को निरापद करने का कार्य शिव के धनुष का घेरा तोड़ना कहलाया। बदले में किए गए रावण द्वारा सीता-हरण की ध्‍वनि इलियड में ‘हेलेन’ व ‘ट्रॉय’ की कहानी में मिलती है। संसार की अनेक दंत-कथाऍं इसी प्रकार उलझी हुई हैं और उनके अनेक अर्थ लगाए जा सकते हैं।

विश्‍वामित्र के आश्रम में उनके जीवन का लक्ष्‍य निश्चित हो चुका था। पर अयोध्‍या आने पर दशरथ ने उनका राज्‍याभिषेक करने की सोची। किंवदंती है कि इस पर देवताओं ने मंथरा दासी की मति फेर दी। युद्धस्‍थल में कैकेयी के अपूर्व साहस दिखाने पर दशरथ ने दो वर देने का वचन दिया था।
मंथरा के उकसाने पर कैकेयी ने वे दोनों वर मॉंग लिये—भरत को राज्‍य और राम को चौदह वर्ष का वनवास। इसने इतिहास ही मोड़ दिया।

राम, सीता, लछमण और हनुमान का यह चित्र विकिपीडिया से है।

वन-गमन के मार्ग में राम के आश्रम के सहपाठी निषादराज का वृत्‍तांत आता है। उनकी नगरी श्रंगवेरपुर में उन्‍हीं की नौका से राम, लक्ष्‍मण और सीता ने गगा पार की। तब उन दिनों के सबसे विख्‍यात विश्‍वविद्यालय भरद्वाज मुनि के आश्रम में गए और उनके इंगित पर चित्रकूट। भरत और कैकेयी के अनुनय के बाद भी जब राम पिता का वचन पूरा किये बिना लौटने को राजी न हुए तो भरत उनकी पादुकाऍं ले आए। बाहर नंदि ग्राम में रहकर उन्‍होंने अयोध्‍या का शासन किया—राम की पादुकाओं को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर, उनके प्रतिनिधि के रूप में।

राम वहॉं से पंचवटी गए। बाद की घटनाओं में दो संस्‍कृतियों के संघर्ष के दर्शन होते हैं। षड्रस व्‍यंजन त्‍याग जंगली कंद-मूल-फल खाए। ब्रम्‍हचारी वनवासी जीवन अपनाया। रावण की बहन शूर्पणखा को राम का नाहीं करना और अंत में सीता-हरण। राम ने स्‍नेह का आदर भीलनी शबरी के जूठे बेर खाकर किया। सैन्‍य-विहीन, निर्वासित अवस्‍था में लगभग अकेले ‘वानर’ एवं ‘ऋक्ष’ नामक वनवासीजातियों (ये उनके गण-चिन्‍ह थे, जिनसे वे जानी जाती थीं) का संगठन कर लंका पर अभियान किया। रावण की विरोधी और राक्षसी अपार शक्ति को नष्‍ट कर राज्‍य विभीषण को सौंप दिया। लक्ष्‍मण के मन की बात समझकर कि इस सुख-सुविधा से भरपूर लंका में क्‍यों न रूकें, राम के मुख से प्रकटे वे अमर शब्‍द,
‘अपि स्‍वर्णमयी लंका न मे लक्ष्‍मण रोचते, जननी जन्‍मभूमिश्‍च स्‍वर्गादपि गरीयसी।‘


राम ने अपने जीवन में सदा मर्यादा का पालन किया, इसी से ‘मर्यादा पुरूषोत्‍तम’ कहलाए। अयोध्‍या में राजा के रूप में प्रजा-वात्‍सल्‍य की एक अपूर्व घटना आती है, जिसने मुझे विद्यार्थी जीवन में अनेक बार रूलाया है। एक बार प्रजा की स्थिति जानने के लिए राम रात्रि में छिपकर घूम रहे थे कि एक धोबी अपनी पत्‍नी से कह रहा था, ‘अरी, तू कुलटा है, पराए घर में रह आई। मैं स्‍त्री – लोभी राम नहीं हूँ, जो तुझे रखूँ।‘ बहुतों के मुख से बात सुनने पर लोकापवाद के डर से उन्‍होंने अग्निपरीक्षा में उत्‍तीर्ण गर्भवती सीता का परित्‍याग किया। वह वाल्‍मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। उन्‍होंने दो जुड़वॉं पुत्र-लव और कुश—को जन्‍म दिया। भरत, लक्ष्‍मण और शत्रुघ्‍न के भी दो-दो पुत्र हुए।

राम ने गृहस्‍थ मर्यादा के अनुरूप एक-पत्‍नीव्रत धारण किया था। इसलिए राजसूय यज्ञ के समय सीता की स्‍वर्ण मूर्ति अपनी बगल में बैठाकर यजन किया। निर्वासित सीता ने राम को हृदय में धारण करते हुये अपने पुत्रों को वाल्‍मीकि के हाथों सौंपकर निर्वाण लिया। तब समाचार सुनकर राम अपने शोकावेश को रोक न सके। वह ब्रम्‍हचर्य व्रत ले प्रजा-रंजन में लगे। पर उस दु:ख से कभी उबर न पाए। कहते हैं कि एक आदर्श राज्‍य का संचालन अनेक वर्षो तक करने के बाद एक दिन राम, भरत और लक्ष्‍मण ने (तथा उनके साथ कुछ अयोध्‍यावासियों ने) सरयू में जल-समाधि ले ली। अयोध्‍या उजड़ गई।

शत्रुघ्‍न ने मधुबन में मधु के पुत्र लवण राक्षस को मारकर वहॉं मथुरापुरी बसाई थी। लव के नाम पर लाहौर बसा और कुश ने बसाया महाकौशल का दक्षिणी भाग। जब अयोध्‍या की दशा का पता चला तब कुश की प्रेरणा से उनके पुत्रों ने पुन: अयोध्‍या बसाई।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा