शनिवार, जनवरी 10, 2009

सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है

समाज में सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है। लगभग दो शताब्दियों से स्त्री-स्वतंत्रता की आवाज संसार में उठ रही है। पर भिन्न सामाजिक प्रणालियों में प्राचीन काल से उसकी दशा क्या चली आई?

अनेक पुरूषर-आक्रांत सभ्यताओं में लोग स्त्री को संपत्ति समझते थे। अफ्रीका के भागों में वधू की खरीद होती है और इसके लिए वरपक्ष को मूल्य चुकाना पड़ता है। सामी सभ्यताओं में उसे अनेक निर्योग्यताओं से जूझना पड़ता रहा है, जो आज तक हैं। यह आदम और हव्वा, सामी सभ्यताओं में प्रचलित कहानी की देन है जो नारी के जीवन को तथा प्रसूति को भगवान के आदेश की अवहेलना कर अर्जित सेब खाने को प्रेरित करने के कारण शापग्रस्त करार देती है। वरदान ही शाप बन गया।

विक्रमी संवत् की सातवीं शताब्दी में ईसाई जगत ने एक बृहत् सम्मेलन किया (मैकन : सन् ५८५)। प्रश्न था, नारी मनुष्य है अथवा पशु? बाइबिल के अनुसार उसकी निर्मित आदमी की पसली से हुई। इसलिए सभी ने कहा, उसे मनुष्य की श्रेणी में कैसे रख सकते हैं ? तब तक किसी ने याद दिलाई,
'तो फिर ईसा की माता मरियम को क्या (पशु) कहा जाय?'

तब यह सम्मेलन अनिर्णय में भंग हो गया। पर यह प्रश्न खलता रहा और अनेक सम्मेलन बुलाए गए। तब कहीं संवत् की उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के संधिकाल में इस पर ईसाइयों का पुन: बृहत् सम्मेलन हुआ। अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि
'ईसाई नारी को मानव की श्रेणी में रख सकते हैं; पर अन्य सभी स्त्रियाँ पशु की श्रेणी में आती हैं, अर्थात वे मनुष्य की संपत्ति मात्र हैं।'

ईसाई जगत में इसके बाद ही नारी की मुक्ति का द्वार कुछ खुल पाया।

ईसाई विधि में विवाह होने पर स्त्री की कुल संपत्ति उसके पति की हो जाती थी, क्योंकि वह स्वयं पति की संपत्ति थी। यही कारण था कि ईसाई देशों में उन्नीसवीं सदी तक विवाहित स्त्री को उधार कोई वस्तु, बिना पति के कहे, बेचता न था; क्योंकि उससे दाम वसूल ही नहीं हो सकते थे । इंग्लैंड में विवाहित स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार पहले-पहल सन् १८७० में 'विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम' (Married Women's Property Act, 1870) द्वारा प्राप्त हुए। नेपोलियन संहिता (Napoleonic Code) के अंतर्गत फ्रांस और यूरोप के उससे प्रभावित देशों में स्त्री का संपत्ति पर धारणाधिकार सीमित चला आता है। उसके अन्य अधिकार भी पुरूष की तुलना में सदा कम थे। तलाक के मामलों में समान अधिकार तो आज भी नहीं हैं। रोजगार, नियोजन, वेतन, मजदूरी, उद्योग-धंधा, व्यवसाय, वृत्ति और शासन-सभी में नारी की सहभागिता और हिस्सेदारी बहुत कम है। इस भूमिका में इंग्लैंड और अमेरिका में संवत् की बीसवीं सदी तक न्यायालयों ने स्त्री को 'व्यक्ति' मानने तथा वकील के रूप में पंजीकृत करने से इनकार किया।

पर मुसलिम जगत में स्त्री की दयनीय दशा का संसार में सानी नहीं है। यह सत्य है कि मुसलिम विधि में कुछ स्त्री संबंधियों को दायाधिकार मिलना अनिवार्य हो गया; पर पुरूष संबंधियों के सामने उसे आधे का अधिकार मिला और उसके जीवन में छा गया एक घोर आवरण, जिसने उसकी स्वतंत्रता हर ली। जीवन में मानो बेड़ियाँ पड़ गई और वह बुरके की कारा में आबद्घ हो गई। आंग्ल विश्वकोश (Encyclopedia Brittanica) के अनुसार, मुसलिम देशों में महिलाओं की श्रमिकों में, उद्योग-धंधों में, सार्वजनिक जीवन और कार्यों में, देश के निर्णयों में, कला-विज्ञान-दर्शन-शिक्षा आदि के विस्तृत क्षेत्रों में सहभागिता नगण्य है। उन्हें सामान्य नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं होते। इन देशों में अथवा जहाँ भी मुसलिम आबादी है, बच्चों की दर प्रति विवाहित स्त्री छह से आठ बच्चे हैं, जबकि अनेक देशों और दूसरे समाजों में यह दर एक या दो के आसपास है। जैसे केवल पुरूष के उपभोग अथवा घर के कामकाज के लिए दासी का जीवन उनका हो।

इस मुसलिम व्यक्तिगत विधि में उनकी दशा सबसे गई-गुजरी है। पति चाहे जितने विवाह करके (कुरान में वर्णित चार विवाह केवल लाक्षणिक हैं) पत्नी का घर में आबद्घ जीवन दूभर और अर्थहीन बना सकता है। जब चाहे बिना पत्नी के किसी कसूर के, बिना उसे बताए, अपनी स्वेच्छाचारिता में केवल तीन बार उस जादुई शब्द का प्रयोग कर अथवा एक बार ही कहकर कि तुझे तीन बार तलाक देता हूँ, उसे 'तलाक' दे समता है। तब बिना किसी गुजारे के बेसहारा उसे घर से निकलकर सड़क पर खड़ा होना पड़ता है। पति का कोई उत्तरदायित्व शेष नहीं रहता। ये कानून विवाहिता नारी की स्थिति साधारण दासी से भी बदतर बना देते हैं। इस सबने नारी जीवन में कितनी विडंबना भर दी है।

ऎसे ही विचार कार्ल मार्क्स के 'साम्यवादी घोषणापत्र' (Communist Manifesto) में हैं। कौटुंबिक संबंधों को 'बुर्जुआ बकवास' बताकर वह घोषणा करता है कि 'नारी उत्पादन की मशीन समझी जाती है और पूँजीवादी समाज में 'संपत्ति', इसलिए जब सभी उत्पादन के साधन समाज के हो जाएँगे तब नारी का भी खुला साझा समूह बनेगा। इसलिए विवाह प्रथा त्याज्य है।'

यूरोप व संयुक्त राज्य अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में, जब ज्ञानोदय (enlightenment) का प्रारंभ कहा जाता है, स्त्री-स्वतंत्रता का आंदोलन फूट निकता उस समय अनेक विचारकों की रचनाएँ स्त्रियों के अधिकारों के बारे में लिखी गईं। उनमें मेरी वोज्सटेनक्राफ्ट की 'स्त्री अधिकारों का संरक्षण' (A Vindication of the Rights of Women) प्रसिद्घ है। स्त्री-स्वतंत्रता के आंदोलन में अग्रणी रहने के बाद भी वह अंग्रेजी के प्रसिद्घ कवि शैली (Shelly) की पत्नी और इस रूप में एक कुशल तथा आदर्श गृहिणीं थी। स्त्री-स्वातंत्र्य के विरोधियों के इस तर्क का कि
'स्त्रियाँ स्वतंत्रता पाकर बिगड़ जाती हैं'

यह एक व्यावहारिक उत्तर था। वास्तव में उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदी के साहित्य ने इसे आकार और रूप-रंग दिया; पर दो शताब्दी बाद भी यह कार्य अधूरा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष १९७५ में मनाया। पर आज भी इस विषय में सामी सभ्यता की काली छाया संसार पर मँडरा रही है। भारतीय संविधान की उद्घोषणा के बाद भी, कि कानून में लिंग के आधार पर द्वेषपूर्ण विभेद नहीं होगा, इस प्रकार के घनघोर विभेद मुसलिम विधि के कुछ भाग में प्रचलित हैं। आश्चर्य है कि सुधार के पट बंद करने की कट्टरपंथियों (fundamentalists) की चीख-पुकार सभी विवेक को ग्रस लेती है और एक जन-वातोन्माद (mass hysteria) उत्पन्न करती है।

यही हाल नारी-मताधिकार के बारे में ईसाई और मुसलिम जगत का है। यह समस्या राष्ट्रीय एवं स्वायत्तशासी इकाइयों में भी पुरूषों के समान उसे मत देने के अधिकार की है। भारत के प्राचीन गणराज्यों में स्त्री-पुरूष दोनों को मत के और उस समय की सभा एवं समिति में भाग लेने के समान अधिकार थे। यह सभा एवं समिति सामाजिक (सांस्कृतिक) तथा धार्मिक अथवा दर्शन जैसे विषयों पर शास्त्रार्थ भी करती थीं। उसमें पुरूष एवं स्त्री दोनों ही भाग लेते थे। यहाँ तक कि खेल-कूद, अस्त्र-शस्त्र प्रतियोगिता में भी स्त्रियों के भाग लेने का वर्णन मिलता है। जब अंग्रेज भारत में आए तब भारतीयों को संपत्ति के अधिकार पर सीमित मताधिकार स्थानिक इकाइयों और विधानसभा के लिए मिले। उस समय भी भारत में स्त्री के साथ कोई भेदभाव न था और दोनों के समान अधिकार थे। यह गणतंत्र की स्त्री-पुरूष के लिए समान मताधिकार की परंपरा आदि काल से आज तक यहाँ चलती आई।

पर मुसलिम और ईसाई जगत में स्त्री को प्राचीन काल में किसी प्रकार का मताधिकार न था। मुसलिम जगत में कुछ देशों में (उदाहरणार्थ सऊदी अरब और फारस की खाड़ी के अरब देशों में) उन्हें आज भी मत देने का अधिकार नहीं है। एक शताब्दी के संघर्ष के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में मत देने का अधिकार नारी को सन् १९२० में मिला। इंग्लैंड में आंशिक/पूर्णरूप से सन् १९१८/१९२८ में। इसी प्रकार यूरोप के कुछ अन्य देशों में प्रथम महायुद्घ के आसपास ही मताधिकार मिला। पर फ्रांस, इटली, रूमानिया, यूगोस्लाविया में द्वितीय महायुद्घ के बाद ही नारी को मताधिकार प्राप्त हुए और स्विट्जरलैंड में सन् १९७१ में। आश्चर्य यही कि कभी-कभी भारत को, जहाँ प्राचीन काल से चली आई स्त्री-स्वातंत्र्य की परंपरा है, ऎसे देश जिनके द्वारा स्त्री के अधिकारों की सदा अवहेलनाहुई, इसी स्त्री-स्वातंत्र्य के नाम पर आँखें दिखाते हैं।

एक बार शिकागो नगर में एक भारतीय मूल के निवासी के घर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी पुत्री, जो स्नातक कक्षा में पढ़ती थी, ने कहा,
'मैं भारत कभी नहीं जाऊँगी। वहाँ लड़कियों पर अत्याचार करते हैं।'
इस भ्रामक जानकारी का स्त्रोत पूछने पर उसने बताया,
'यह अमेरिकी दूरदर्शन कहता है।'
मैंने पूछा,
'तुमने इंदिरा गांधी का नाम सुना है?'
उसके 'हाँ' कहने पर कि वह भारत की प्रधानमंत्री हैं, मैंने पूछा,
'क्या तुम उसकी तरह शक्तिशाली, दृढ़ इच्छा-शक्ति का कोई दूसरा प्रधानमंत्री बता सकती हो ?'
उत्तर था, 'नहीं।'
'तो फिर कैसे कहती हो कि भारत में स्त्री के साथ दुर्व्यवहार होता है ? जो देश इंदिरा सरीखी प्रधानमंत्री दे सकता है वहाँ नारी कभी पददलित होगी?'
मैंने कहा,
'मानव प्रकृति सब जगह समान है। हर जगह अच्छे और बुरे लोग हैं। पर भारत में स्त्री-स्वतंत्रता की गौरवशाली परंपरा रही है। बीच के सहस्त्र वर्षों का गुलामी और उसके विरूद्घ संघर्ष का काल आया, जिसमें विकृतियाँ उत्पन्न हुई। पर भारत एकमात्र ऎसी प्राचीन सभ्यता है जहाँ स्त्री की स्वतंत्रता का भाव साधारण रीति से संस्कृति में पगा।'

पर नारी को लेकर मनुस्मृति के बारे में अनेक विवाद खड़े किए जाते हैं। मनु ने मनुस्मृति में 'स्त्री' को मान-सम्मान का उच्च स्थान दिया है। उसे 'गृहलक्ष्मी', 'गृहशोभा' आदि कहकर पुकारा (अध्याय ९, श्लोक २५ व ९/२८) और पिता, भाई एवं पति को उनका समादर-सत्कार करने के लिए कहा (३/५५)। उनको सदा प्रसन्न रखने का आदेश दिया (३/५९)। कहा कि उनकी प्रसन्नता में कुटुंब का कल्याण है(३/६०) और उनकी अप्रसन्नता कुटुंब के विनाश का कारण बनती है(३/५७)। जहाँ उन्हें प्रसन्न रखा जाता है वहाँ सभी 'देवता' अर्थात दिव्य गुण निवास करते हैं। वे गृह-स्वामिनी हैं (९/११, ५/१५०)। स्त्रियों को कोई दमनपूर्वक नहीं रख सकता (९/१०)। वे स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं और उसी से सुरक्षित हैं (९/१२)। मनु ने पुरूष एवं स्त्री में कोई पक्षपात नहीं किया। कभी स्त्री को पुरूष की दासी या उसके अधीन नहीं माना। सदा कहा कि स्त्री-पुरूष मिलकर रहें (९/१०) और कभी न बिछुड़ें (९/१०२)। वेदों में साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पत्नी के साथ करने का विधान है (९/९६)। राम ने वनवासिनी सीता की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर यज्ञ किया था। स्त्री के लिए मार्ग छोड़ने को कहा (२/११३, १३८)। पत्नी पर झूठा दोषारोपण और अपशब्द कहना, उससे झगड़ा करना दंडनीय बताया (८/१८०)।

सभी धार्मिक कार्यों में स्त्री-पुरूष का समान अधिकार वेदों में माना गया है। संस्कारों के विधान स्त्री-पुरूष के लिए समान है। गुरूकुलवास, वेदाध्ययन एवं यज्ञोपवीत धारण करना आदि सभी स्त्री-पुरूष के लिए समान रीति से वेदसम्मत हैं। ऋग्वेद में लगभग तीस स्त्री ऋषियों का वर्णन आता है (अदिति, लोपामुद्रा आदि)। वैसे ही उपनिषदों में गार्गी, मैत्रेयी आदि ब्रम्हवादिनी स्त्रियों का वर्णन आता है। मनु ने धर्मशास्त्रों को वेद पर आधारित कहा है, इसलिए उसमें वेद के विरूद्घ कोई बात कहा जाना तर्कसम्मत नहीं है।

महर्षि दयानंद की प्रेरणा से आर्यसमाज द्वारा 'मनुस्मृति' पर शोध हुआ है। वे उन श्लोकों को प्रक्षिप्त, बाद में जोड़े गए तथा मनु की मूल धारणा के विपरीत कहते हैं जो स्त्रियों के प्रति संकीर्ण और निम्न दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं। ऎसे ही एक श्लोक में कहा गया--' न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति' (९/१३) है। यह श्लोक मनु की धारणाओं और अन्य श्लोकों से अंतर्विरोध होने के कारण शोध-संस्करण इसे प्रक्षिप्त मानते हैं। मनु ने कभी स्त्री की स्वतंत्रता हरने की बात नहीं की, वरन् पुरूष-स्त्री दोनों के लिए एक ही और समान व्यवस्था दी है।

फिर भी इतने क्षेपक कालांतर में मनुस्मृति में जोड़े गए, जिन्होंने समाज में स्त्री की दशा पर प्रश्नचिन्ह लगाना प्रारंभ किया। इसे मूल रूप में सामी सभ्यता का टकराव कह सकते हैं। (वैसे मनुस्मृति सार्वभौमिक विधि-संकलन होने के कारण उसमें स्वाभाविक ढंग से कुछ अन्य सभ्यताओं की रीतियों का वर्णन आ सकता है।) ऎसा प्रसंग बहुविवाह की प्रथा को लेकर है। किसी समय समझा जाता था कि शायद बहुपति की प्रथा कबीलों में साधारण व्यवहार रहा होगा; पर अब इस पर कोई समाजशास्त्री विश्वास नहीं करता। किंतु बहुपत्नी की प्रथा अनेक प्राचीन सभ्यताओं में मिलती है।

मनु ने सब स्थानों पर पत्नी के लिए सदा एकवचन का प्रयोग किया है, द्विवचन या बहुवचन का नहीं। जब यह बात एक वकील सम्मेलन में मैंने कही तो लोगों ने पूछा कि इसका निष्कर्ष? मैंने कहा कि संभवतया मनु ने कभी नहीं सोचा था कि एक पत्नी के रहते अन्य से विवाह हो सकता है। तब तो एक वकील ने कहा,
'वाह, राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं।'
मैंने कहा,
'कौन आदर्श हैं, दशरथ या राम ? आपने राम के एक-पत्नीव्रत की बात क्यों न सोची ?'
पर यह प्रश्न को टरकाना था। अत: मैंने बताया,
'प्राचीन भारतीय विधि में राजा के लिए भी विधि का पालन अनिवार्य था, वह अपने देश में एक ही कन्या से विवाह कर सकता था। पर विदेश में राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए दूसरे देश की कन्या से विवाह करने की छूट थी। राजा दशरथ की एक पत्नी कोशल प्रदेश की कन्या कौशल्या थी। उनका दूसरा विवाह सुमात्रा (पूर्वी हिंद द्वीप-समूह) की पुत्री सुमित्रा से हुआ था और तीसरा विवाह कैकय देश (Caucasus) की पुत्री कैकेयी से।'
पुराण में इसकी कथा वर्णित है।

फिर भी पुराणों में वर्णित अनेक गाथाओं में एक से अधिक पत्नियों का वर्णन आता है। इनमें से बहुत सी प्रतीक अथवा रूपक कथाएँ हैं, जो कल्पना-जगत में स्त्री-पुरूष की गाथा बन गई। कुछ अन्योक्ति भी हैं। जैसे द्रौपदी के पाँच पतियों की गाथा है। मेरे बाबाजी, जिन्होंने रामायण तथा महाभारत काल का इतिहास लिखने का प्रयत्न किया, ने एक बार महाभारत के मूल श्लोक दिखाकर कहा था कि वह अर्जुन की ही पत्नी थी। स्त्री कोई संपत्ति नहीं थी, जिसको माता कुंती बाँटने का आदेश दिया हो। यही बात द्रौपदी ने धृतराष्ट्र की सभा में कही,
'स्त्री या बहू किसी की संपत्ति नहीं है, जो दाँव पर लगाई जा सके।'
यह बात मान्य हुई।

स्त्री-स्वातंत्र्य की यदि छवि देखनी हो तो भारत के सुदूर पूर्व के राज्यों के पुराने मातृप्रधान समाज में अथवा ब्रम्हदेश (म्याँमार) के कुछ पहले के जीवन में देखें। कहा जाता है कि इतिहास में ब्रम्हदेश के बराबर स्त्रियों को स्वतंत्रता किसी अन्य देश में नहीं रही। इसकी कुछ झलक शरच्चंद चट्टोपाध्याय के उस देश से संबंधित उपन्यासों में देखी जा सकती ह। वहाँ जो बर्मी बौद्घ विधि (Burmese Budhist law) प्रचलित थी, उसमें विवाह और तलाक के नियम सरलतम थे; पर वैवाहिक विश्वासघात (marital infidelity) अनजाना था। बाद में जब अराकान में मुसलमान बसे और उन्होंने बर्मी स्त्रियों से विवाह किया तब समस्या उठी। बर्मी स्त्रियों ने पुरूषों के समान अधिकार चाहे। तब वहाँ दंगे प्रारंभ हुए। यह स्पष्ट है कि स्त्री-स्वातंत्र्य और वैवाहिक विश्वासघात में कोई संबंध नहीं है।

ऎसा दूसरा प्रसंग, जिसे विधि में 'स्त्री के सीमित अधिकार' कहा जाता है, को लेकर है। इसे अंग्रेजों के राज्यकाल में वोमेंस इस्टेट ( women's estate) अथवा विडोज़ इस्टेट ( widow's estate) कहा जाता था। इस परिसीमित अधिकार को व्यक्त करता संस्कृत में अथवा प्राचीन धर्मशास्त्र में कोई शब्द नहीं है। यह सत्य है कि दाय का अधिकार, जहाँ पुत्री दूसरे परिवार में जाती थी, उसे पुत्र एवं पत्नी के बाद मिलता था। पर मनु ने कहा,
'जैसी अपनी आत्मा है वैसा ही पुत्र होता है और पुत्र जैसी ही पुत्री। उस आत्मा रूप पुत्री के रहते कोई दूसरा धन को कैसे पा सकता है ?' (मनुस्मृति, ९/१३०)। '
निरूक्त' में कहा गया,
'धर्मानुसार पुत्र एवं पुत्री दोनों का समान भाव से दाय में अधिकार है, यह मान्यता सृष्टि के आदि में मनु ने व्यक्त की है।'
यही मिताक्षरा का वचन है।

इसी प्रकार मनु ने पत्नी को अर्द्घांगिनी कहा। बृहस्पति ने कहा,
'वेद, स्मृति और रीति, सभी कहते हैं कि पत्नी पति की अर्द्घांगिनी है। अत: जब तक अर्द्घ भाग जीवित है, दाय का अधिकारी दूसरा कोई नहीं हो सकता।'
मनु ने माता के रहते पिता की जायदाद का पुत्रों में बँटवारा अमान्य किया। स्त्री-धन की सदा से मान्यता थी। मनुस्मृति (९/१९४) में छह प्रकार की स्त्री-धन गिनाया गया है; पर सभी मानते हैं कि ये केवल उदाहरण मात्र हैं। इसमें पति और माता-पिता द्वारा प्रदत्त धन भी हैं। नारद स्मृति में पति से प्राप्त दाय को स्त्री-धन कहा गया। जो विधि में दाय की अधिकारिणी थी और पुत्र के न रहने पर एकमात्र वारिस, यह कैसे हुआ कि दाय में प्राप्त संपत्ति (जायदाद) की वह एक प्रकार से संरक्षिका रह गई और उसके हस्तांतरण के अधिकार छिन गए ?

डा. नरेशचंद्र सेनगुप्त ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारतीय विधि की विकास यात्रा (Evolution of Ancient Indian Law: Tagore Law Lectures) में पत्नी एवं पुत्री को वारिस घोषित करने का उल्लेख करने के बाद कहा,
'इन स्मृतिकारों के मस्तिष्क में इन वारिसों के बीच दाय में प्राप्त संपत्ति (जायदाद) में उनके अधिकारों को लेकर विभेद करने का विचार कभी उत्पन्न नहीं हुआ।'
मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने जोर देकर वकालत की कि
'स्त्री-धन में वह सब संपत्ति आती है जो स्त्री को किसी भी तरीके से प्राप्त हुई हो।'
डा. सेनगुप्त ने लिखा,
'इतिहास साक्षी है कि जब विधवा का दायाधिकार माना गया तब विधि-प्रणेताओं ने कभी न सोचा था कि विधवा के दायाधिकार पुरूष उत्तराधिकारियों (वारिस) से भिन्न होंगें।'

पर उन कारणों की कल्पना की जा सकती है जिनसे विधवा के ही नहीं, पुत्री के भी अधिकार सीमित हो गए। विदेशी आक्रमणों के कारण एक उथल-पुथल मची। महिलाओं पर पड़ती उनकी कुदृष्टि के प्रभाव का आंशिक निराकरण यह था। स्त्री तो लौटकर आने नहीं पाएगी, तब उस विदेशी राज्य के समय संपत्ति के प्रत्यावर्तन का सिद्घान्त आया। जो जायदाद उसे पति से मिली थी वह पतिकुल को और जो पिता से मिली थी वह पितृकुल को लौट जाएगी। यह व्यवस्था (जो मुसलिम शासकों के समय के बंगाल में की गयी) विदेशी आक्रमण तथा सामी सभ्यता के संघातों का परिणाम थी। अंग्रेजी राज्य के साथ आई उनकी नजीरों के अनुसार न्याय करने की परिपाटी। इससे कानून जीवाश्म बन गया और स्वाभाविक विकास अवरूद्घ हो गया। इस प्रकार हिंदू विधि में स्त्री के दाय में परिसीमित अधिकार (वीमेंस इस्टेट) की प्रस्तर-मूर्ति खड़ी हुयी, जो हटए न हटी। संघर्ष काल का यह नियम हमारे स्मृतिकारों की देन नहीं, न मनु की। यह प्रिवी काउंसिल की देन है। यह उनकी देन है जिनके यहाँ नारी कभी 'संपत्ति' समझी जाती थी, 'व्यक्ति' नहीं। इसके लिए श्री बी.एन.राउ की अध्यक्षता में जो समिति बनी उसने स्त्री को दाय में पूर्ण स्वामिनी होने की व्यवस्था रखी। उन्होंने आलोचकों को उत्तर देते हुए कहा,
'यही हमारे स्मृतिकारों की प्राचीन व्यवस्था थी।'
आज पुन: यह लागू हुई है।

अपवाद एवं विकृतियाँ, जो समाज में यदा-कदा अथवा व्यक्ति के जीवन में दिखती हैं, उनसे समाज का मूल्यांकन नहीं होता। इंग्लैंड के जीवन में एक समय था जब गाँव में प्लेग आया तो बड़ी-बूढ़ी औरत को ( कि उसने चुड़ैल बनकर प्लेग बुलाया) जीवित जला दिया। फ्रांस में जान (जिसको मरणोपरांत 'संत जान' की उपाधि दी) को उदार कहलाने वाले कैथोलिक पंथ के ठेकेदारों ने जीवित रहते खंभे से बाँधकर जला डाला। मुसलिम शासकों के अत्याचारों, जनसंहार की गाथाएँ भारत में बिखरी पड़ी हैं। चित्तौड़गढ़ की पद्मिनी और चौदह सहस्त्र (?) स्त्रियों के जीवित अग्नि में समर्पण सरीखी लोमहर्षक घटनाएँ कम हैं क्या (?) और आज भी दासी के रूप में घरों में काम करने के लिए गरीब माँ-बाप की पुत्रियों को भारत से अरब देशों में भेजने का धंधा नहीं चलता (?) अंग्रेजी मानसिकता के शिकार व्यक्ति भारत की शाश्वत मूल धारा को नहीं देख पाते। ये इस सौ करोड़ के देश में कहीं भी किसी अपवाद घटना को ले, अतिरंजित कर, संपूर्ण समाज को बदनाम करते हैं। जैसे उनका कार्य निर्मल धारा छोड़ केवल बगल की क्षुद्र एवं क्षणिक गंदी नाली की समीक्षा हो।


०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु
०३ - मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
०४ - समता और इसका सही अर्थ
०५ - सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है


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रविवार, जनवरी 04, 2009

समता और इसका सही अर्थ

कुछ आधारभूत अभिधारणाएं हैं जिनपर सभ्यता के प्रारंभिक चरण बढ़े। समाज के अंदर एक आंतरिक स्नेह-बंधन, घटकों को जोड़ने वाला सीमेंट, एक ढंग की परंपराएं, आस्थाएं एवं विश्वास, सामाजिक आदर्श, सब सुख-दु:ख के एक साथ मिलकर जीने अथवा विपत्तियों को झेलने के प्रसंग और एक प्रकार के शत्रु-मित्र का भाव और सबसे बढ़कर एकता की प्रतीति है। ( ऎसा समाज किसी भूखंड से जुड़ने पर राष्ट्र कहा जाता है। इसके लिए 'समता' की आधारभूत अभिधारणा है, जिसके बिना सामाजिक ढांचा संभव नहीं है।  जिस समाज में ऊंच-नीच की कृत्रिम भावनाएं उत्पन्न होती हैं वह समाज के रूप में अधिक दिनों तक नहीं टिकता, क्योंकि सहयोग अथवा स्पर्धा के स्थान पर संघर्ष पैदा होना विनाश की ओर बढ़ने की निशानी है। फिर भी व्यक्तिगत स्वार्थ एवं लालसाएं और आपस के काम, क्रोध, मद, लोभ टकराते ही हैं। इसके लिए एक न्याय पर टिकी समाज-व्यवस्था आवश्यक है। और न्यायपूर्ण समाज की नींव 'समता' पर आधारित है।

यह समता दुर्ग्राह्य है और पकड़ में न आने वाले छलावे की भांति मृगमरीचिका दिखती रहती है। इसकी खोज सदा मानव सभ्यता में रही है। भारतीय दर्शन में कहा गया, 

'पांचों अंगुलियां बराबर नहीं होतीं, पर उनमें एक ही रक्त प्रवाहित होता है।'
इसलिए समता एकरूपता में नहीं है, वह समरसता में है। इसी के द्वारा एकात्मता उत्पन्न होती है। समता वही है जिसकी परिणति एकता में हो ।

कालांतर में 'समता' का यह भारतीय आदर्श तिरोहित हो गया। उसका स्थान एकरूपता ने ले लिया। आज साम्यवाद और यूरोपीय समाजवाद के पिछलग्गू समरसताविहीन शुषक एकरूपता के कंकाल का गुणगान करते दिखते हैं और भारतीय व्यवस्थाओं को, आंतरिक एकता न देख सकने के कारण, समताविहीन समझते हैं। जब मैं विद्यार्थी था, सामूहिक जीवन का एक साम्यवादी आदर्श चींटियों, मधुमक्खियों का जीवन कहा जाता था। कैसे सहस्त्रों कीट एक साथ, एक लगन से रहते हैं। स्वचालित अंतर्मन और सहज वृत्ति से, उस समाज का एक यंत्र बनकर। पर हम जानते हैं कि ऎसे सामूहिक जीवन में व्यक्तिगत स्वाभाविक विकास रूक जाता है। सच्चा सामाजिक जीवन सहस्त्रों शाखाओं में अलग-अलग पल्लवित- पुष्पित होता है अगणित प्रकार का, पर एक रस से अनुप्राणित मानव जीवन है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अथवा घटक का विकास हो। अपनी विशिष्ट एवं अनंत संभावनाओं को ले एकरस समाज जीवन ही आदर्श रहा है। इसलिए सामाजिक जीवन का लक्ष्य एकरूपता नहीं, समरसता है। जिससे एकता पनपे उसी को 'समता' कहते हैं।

यह कैसा व्यंग्य है कि सच्ची समता के भक्त को आज  उसका भंजक कहें। इसका कारण है आज शब्दों के बदले हुए अर्थ का यूरोपीय चश्मा, जिसे आंखों से हटाने को लोग तैयार नहीं होते। यही बात मनु द्वारा वर्णित वर्ण-व्यवस्था विषय में है। इसे लेकर कभी-कभी विवाद खड़ा किया जाता है। यह वृत्ति के अनुसार वर्गीकरण उस वैज्ञानिक मनीषा का उदाहरण है जो संपूर्ण भौतिकी तथा मानविकी के क्षेत्र में छाई है। यही वृत्तिमूलक वर्गीकरण प्लातोन (Plato)  ने अपनी पुस्तक 'रिपब्लिक' (Republic : गणराज्य)  में किया था। यह एक व्यवस्था थी। इसके अंदर विभाजन अथवा द्वेष का भाव न था। मनु का समाज रूपी शरीर का उदाहरण ऊंच-नीच दर्शाने के लिए नहीं, वरन् एकरस समाज का चित्र खड़ा करने के लिए है। इससे इनकार करना भूल होगी कि कभी इस व्यवस्था के कारण समाज का संरक्षण हुआ था। परंतु इसमें आश्रम व्यवस्था, जहां विद्यार्थियों का वर्ण निर्धारण हो सके, नष्ट हो जाने से विकृति आई, और वर्ण जन्मना मानने लगे। भारतीय समाज रचना सभी व्यावसायिक संघों अथवा वर्गों को स्वायत्त शासन प्रदान करती थी। इसके कारण बाद में विकृत हो वर्ण ( अथवा जाति-पांत) में एक निहित स्वार्थ निर्मित हो सकता था। जिससे एक वर्ण से दूसरे में संचरण बंद हो गया। इस कारण आज यह वर्ण-व्यवस्था काल-बाह्य हो गई है और उसका कंकाल मात्र रह गया है। मनु ने स्वयं कहा कि नवीन रीतियां और सदाचरण ही विधि का स्त्रोत हैं, अर्थात काल-बाह्य रीतियां त्याज्य हैं।

मनु (Manu) ने मानवमात्र की समानता दिखाई है।सब मानव कर्मों के द्वारा श्रेष्ठता को, और जो वर्ण चाहें उसे प्राप्त कर सकते हैं। मनु ने वर्ण व्यवस्था को कर्मणा माना, 'जन्मना' नहीं। गुण कर्म के अनुसार ( जैसा 'गीता' में कृष्ण ने कहा, गुणकर्म विभागश:') वर्ण निश्चित होता है। कर्मों के अनुसार वर्ण प्राप्त करने की बात मनु ने कही ( अध्याय १०, श्लोक ६५) –'शूद्र ब्राम्हण हो जाता है तथा ब्राम्हण शूद्र हो जाता है।' मनु ने उसे शूद्र कहा, जो अन्य तीन वर्णों के योग्य कर्म न कर सके। यदि आश्रम में शूद्र के पुत्र में अन्य वर्ण के गुण पाए जाएं तो वैसा ही वर्ण उसे प्राप्त होता है। उसी वर्ण की शिक्षा प्राप्त युवती के साथ उसका विवाह होता है। शूद्र भी इस समाज रूपी विराट् पुरूष के अंग हैं। वे न घृणास्पद हैं, न अस्पृश्य। किसी को श्रेष्ठ कहने वाले, किसी को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं कहने वाले अथवा हीन प्रदर्शित करने वाले श्लोक, नवीन शोधग्रंथों के अनुसार बाद में जोड़े गये हैं। ये मनुस्मृति की मूल भावना के प्रतिकूल हैं। मनु के अनुसार संस्कारों से और धर्मपालन से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और उसके कर्मों के अनुसार वर्ण-परिवर्तन होता है।

'ब्राम्हणवादी संस्कृति' कहकर मजाक उड़ाना या समाज के कुछ वर्गों के प्रति वर्ण-व्यवस्थ को ले रोष उत्पन्न करने का कार्य गर्हित है। एक दिन रेल में यात्रा करते समय साथ के सज्जन मेरा खादी का कुरता-धोती देख राजनेता समझकर बोले,

'इन ब्राम्हणों ने देश का सत्यानाश कर दिया है।'
'कैसे ?' पूछने पर वह बोले,

'यही व्यवस्था देकर।'
मैंने पूछा,

'किस ब्राम्हण ने व्यवस्था दी?'
मेरी अनभिज्ञता पर आश्चर्य से बोले,

'यही मनु, याज्ञवल्क्य, शांडिल्य, पराशर आदि।'
इस पर मैंने कहा,

'हां, ये सब विद्वान् मनीषी ऋषि थे। पर इनमें से किसी का जन्म, जिसे आज ब्राम्हण कुल कहते हैं, में नहीं हुआ। मनु तथा  याज्ञवल्क्य के पिता क्षत्रिय थे , परंतु ये सब विद्वान ऋषि बने, इसलिए ब्राम्हण कहलाए।'
पूर्वाग्रह की रंगीनी ने उस सहयात्री को मनु के महान कार्य के प्रति अंधा बना दिया।

स्मृतिकारों ने कभी किसी कार्य को छोट या बड़ा नहीं कहा। सबमें भगवान का अंश माना। मध्ययुगीन संतों में से विरले ने ही, आज जिसे ब्राम्हण कुल कहेंगे, उसमें जन्म लिया थ। समर्थ गुरू रामदास का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। संत गोरोबा कुम्हारी करते थे। संत नामदेव दर्जी परिवार के थे। महाराष्ट्र के संत-शिरोमणि तुकाराम कुनबी परिवार के थे और कर्णावती (अहमदाबाद) के संत चांडाल परिवार के, जिनका पेशा मांस बेचना था। संत रैदास उस परिवार के थे जहां चर्मकारी होती थी। समाज के हित में अपना कार्य निपुणता एवं दक्षता से करने से भगवान की प्राप्ति होती है, यह स्मृतिकारों ने कहा।

बाह्य आक्रमणों से जब आश्रम शिक्षा पद्घति नष्ट हो गयी और गुण-कर्म के अनुसार विद्यार्थी का वर्ण-निर्धारण करने की प्रक्रिया न रही तब जिस कुल में जन्म लिया उसी का वर्ण मान लेने की परंपरा आई। जब गुण एवं शिक्षा के आधार पर वर्ण निश्चित होता था तब स्पष्ट ही 'वर्णसंकर' का कोई अर्थ न था। महाभारत में कितने उदाहरण हैं जहां स्त्री-पुरूष ने अन्य कर्म करने वाले परिवार के युवक-युवती के साथ विवाह किया। तब यह शब्द नहीं था। इस विषय में मनुस्मृति में जोड़े गये श्लोक मनु की धारणाओं के विरूद्घ प्रक्षिप्त हैं। कहा जाता है कि दशरथ के पुरोहित वसिष्ठ की माता वनवासी कन्या थीं। उनके पिता से विवाह का आग्रह होने पर उन्होंने एक वनवासी कन्या से विवाह की इच्छा की तो उनसे कहा गया,

'उसे वाणी (शिक्षा) दो, फिर विवाह कर सकते हो।'
पर शिक्षा कौन दे? गुरू बनकर तो उसके साथ विवाह न हो सकता था; शिष्या के साथ विवाह वर्जित है। तो अन्य आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर उनका विवाह हुआ।

वास्तव में समाज के दीर्घ जीवन के लिए बहिर्विवाह ( exogamy) की भारत की प्राचीन प्रथा थी। इसके अनुसार अपने कबीले या गांव अथवा गोत्र ( या जिस आश्रम में शिक्षा पाई) या समूह के बाहर विवाह। इनके अंदर सब भाई-बहन के समान समझे जाते थे। आज भी इसका स्मरण दिलाता सपिंड विवाह का निषेध है। वर्ण वृत्तिमूलक कल्पना थी, इसलिए उसी वर्ण में विवाह, पति-पत्नी का एक ही वृत्ति का होना अच्छा समझते थे। अंतर्विवाह (एक ही कबीले या निकट रक्त-संबंधियों में विवाहऋ के जीवशास्त्रीय तथा सामाजिक दुष्परिणामों से यहां अति प्राचीन काल से परिचय था। वैसे संसार के अनेक भागों, उदाहरणार्थ मिस्त्र में, रक्त -शुद्घता की विकृत कल्पना ले, भाई-बहन या निकट रक्त-संबंधियों के बीच विवाह प्रचलित थे जिससे रक्तस्त्राव की बीमारी या अन्य समस्याएं उत्पन्न हुई।

समता का लक्षण समान अवसर है। आज भी सारे संसार में समता की खोज समाज तथा न्याय प्रणाली में हो रही है। साम्यवादी अथवा यूरोपीय समाजवादी दर्शन में एकरूपता में समता खोजते हैं। उसके मर्म 'समरसता' को आज हम भूल गए और इसलिए भटक गए। इसका फल है संघर्ष, द्वेष और शतखंड-खंडित जीवन तथा उसकी परिणति है युद्घ, हिंसा और भय की काली छाया।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी
स्मृतिकार और समाज रचना 
०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु 
०३ - मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
०४ - समता और इसका सही अर्थ
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गुरुवार, दिसंबर 25, 2008

मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक

संसार में जितनी विधि-प्रणालियां हैं, वे एक विशेष कालखंड में एक विशिष्ट समाज के लिए बनीं थीं। मनु-प्रणीत विधि की इन सब प्रणालियों से तुलना नहीं हो सकती । यह विधि किसी एक समाज (या देश) के लिए न होकर संपूर्ण मानव समाज के लिए थी। मानव सभ्यता का सबसे साहसपूर्ण प्रथम चरण! अनगिनत रीतियों से विभूषित तथा विविधताओं से पूर्ण इस मानव समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों के बीच एक सभ्य, न्यायपूर्ण समाज के सिद्घांत खोजना कैसा दुस्तर कार्य था! इसे करने का साहस मनु ने किया।

इसी से मनुस्मृति (Manusmṛti) के कुछ प्रसंग निबंध सरीखे लगते हैं। उदाहरणार्थ मनु आठ प्रकार के 'विवाह' का वर्णन करते हैं जिनमें 'राक्षस' तथा 'पैशाच' विवाह भी हैं। ये बलात्कार और अपराध हैं। यह एक निबंध में संसार में फैले मानव समाज में स्त्री-पुरूष के यौन संबंधों का वर्गीकरण मात्र है। उनमें विधिसम्मत विवाह के रूप भी बताए। इसी प्रकार पुत्रों का वर्णन करते समय मनु ने बारह प्रकार के पुत्र बताए हैं। यह संसार में पुत्र संबंधी सभी प्रथाओं का निचोड़ है। उसमें जारज (व्यभिचार से उत्पन्न) संतान भी है। उन्होंने बताया कि कौन पुत्र नरक से त्राण दिलाने में सक्षम है। वही उत्तराधिकार पाने का अधिकारी है।

मानव समाज में रीति-रिवाजों की विविधता और भरमार सदा रही है। भारत में ही पितृप्रधान से लेकर मातृप्रधान समाज-व्यवस्थाएं रहीं, जैसी भारत के पूर्व तथा दक्षिण के कुछ क्षेत्रों में थीं। मानव समाज के असंख्य चेहरे उसकी रीति में प्रतिबिंबित हुए। उनके बीच सर्वमान्य विधि मनु ने प्रतिपादित की। इसी से कहते हैं, मनु का विवाह 'शतरूपा' से हुआ था, शत फलकयुक्त समाज से। अनेक रूप धारण किए इस मानव समाज के नियमन के लिए थी 'मनुस्मृति'। जिस प्रकार कहा जाता है कि वेदों में सारे संसार का ज्ञान संकलित हुआ, पुराणों में संसार के सुने हुए इतिहास का, उसी प्रकार मनु ने (और उसके बाद के स्मृतिकारों ने) संसार के धर्माचरण के नियमों का, विधि का, संहिता में रखने का कार्य किया। एक महान् प्रयोग 'वसुधैव कुटुंबकम्' को चरितार्थ करने, संपूर्ण मानव जाति को एक विधि के ताने-बाने में कसने का था। यह सभ्यता का सबसे बड़ा अस्त्र था।

सारी मानव जाति को आलोड़ित करती यह विधि-प्रणाली काल-बाह्य हो कई क्या ?आज की विस्मृति में क्या है इसका उत्तर ?

मनु- प्रणीत इस विधि में रीति सर्वोपरि है। इसी से अनेक स्थानिक रीतियां भी विधि का अंग बनीं। सभी को इस विधि ने आत्मसात् किया। इस प्रकार की रीति पर एक ही अंकुश था जिसे मनु ने धर्मशास्त्र के दूसरे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा, 'जिसे सत्पुरूष, राग-द्वेषरहित विद्वान् अपने हृदय से अनुकूल जानकर सेवन करते हैं, वही धर्म (विधि) है।'
समाज में सदा परिवर्तन होता रहा है, होता रहेगा। ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक उपलब्धियां बढ़ती है और जातियों का संघर्ष तीव्रतर होता है, नवीन परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। ये नई रीतियों एवं परंपराओं को जन्म देती हैं, नई परिस्थितियों से निपटने के लिए नयी रीति चाहिए। रीतियां भी बदलती हैं। अत: रीति के साथ विधि भी बदलती गई। समाज की रीतियां ही भिन्न-भिन्न संहिताओं में संगृहीत हुई। इसलिये जब समय बदला, युग बदला और नए प्रश्न उठे तब मानव के संबंधों का नए परिप्रेक्ष्य  में निर्धारण करने के लिए रीतियां बनीं, जो विधि का अंग हुईं। विधि भी इस प्रकार बदलती गई। नई चुनौतियों का सामना करने के लिए वह सक्षम बनी। इसमें अंतर्निहित है स्वयं को समयानुकूल, युगानुकूल तथा मानव-मूल्यों के अनुरूप बनाने की प्रक्रिया। इसी से यह कालजयी थी। इसे सार्वकालिक बनाया थ। कितना बड़ा कालखंड और कैसी विचित्र परिस्थितियां भी इसे पूर्णरूपेण विद्रूप न कर सकीं।

इसके इस सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक स्वरूप को न समझने के कारण अनेक भ्रम उत्पन्न हुए हैं। आज मनुस्मृति का जो रूप उपलव्ध है उसमें विषय के विरूद्घ अप्रांसगिक, परस्पर विरोधी क्षेपक त पुनरूक्तियां भी पाई जाती हैं। मूल शैली से भिन्न अनेक पक्षपातपूर्ण तर्कविहीन बातें सामान्य भाषा में जोड़ दी गई हैं। इन्हीं को लेकर भ्रमित आलोचना का बवंडर खड़ा किया गया । सभी भाष्यकारों ने न्यूनाधिक प्रक्षेप का अस्तित्व स्वीकार किया है। प्रारंभिक भाष्यकार कुल्लूक भट्ट ने १७० श्लोक प्रक्षिप्त माने थे। बाद के सभी पौराणिक पंडितों ने इन प्रक्षेपों को स्वीकार करने के साथ-साथ अन्य की ओर भी इंगित किया है। पाश्चात्य विद्वानों (वूलर, जौली आदि) ने और महर्षि दयानंद ने भी। एक शोधग्रंथ (देखें--मनुस्मृति: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, खारी बावली, दिल्ली) के अनुसार कुल् २६८५ श्लोकों में १४७१ प्रक्षिप्त हैं। इनमें १२१४ ही मौलिक हैं। सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक संहिता की भूमिका में मनु की आधारभूत मान्यताओं को समझना चाहिए।




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गुरुवार, दिसंबर 18, 2008

प्रथम विधि प्रणेता - मनु

आज संसार ने आदि विधि प्रणेता के रूप में मनु को जाना है। प्रथम विधि-संहिता मनु का 'धर्मशास्त्र' है, जिसे मनुस्मृतिसंस्कृत भाषा में मनुष्यमात्र अथवा समाज के संदर्भ में 'धर्म' शब्द का प्रयोग विधि (कानून) के अर्थ में होता था। आज 'धर्म' शब्द पंथ के स्थान पर अथवा उसके 'कर्मकांड' या पूजा-पद्घति या प्रथा के लिए प्रयुक्त होता है। 'धर्मशास्त्र' सामाजिक आचरण के नियम अर्थात् 'विधि' की पुस्तकें हैं। इसी प्रकार संस्कृत में 'न्यायशास्त्र' तर्कशास्त्र की पुस्तक है, न कि 'विधि' (justice)  अथवा इनसाफ करने की प्रक्रिया, जिसे आज न्याय कहते हैं। भी कहते हैं।


नई दुनिया के न्यूयार्क नगर में बार एसोसिएशन के बारी प्रांगण में तीन प्राचीन विधि प्रवर्तकों की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। एक हजरत मूसा (Moses) की, जिन्होंने मिश्र से वापस लौटते समय यहूदियों (Jews) को उनके दस नियम दिए; दूसरी हम्मूराबी, बाबुल (Babylonia) के शासक की, जिन्होंने दजला (Tigris) (संस्कृत : दृषद्वती) और फरात  (Euphrates) के दो-आबे में बसे समाज के लिए एक संहिता बनाई और तीसरी मूर्ति के नीचे अंकित हैं ये अमर शब्द-- 'मनु प्रथम विधि-प्रणेता' ('Manu the first law-giver)। यह मूर्ति सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक विधि के प्रणेता की है। फिलीपीन के नए लोकसभा भवन के सम्मुख जिनकी मूर्तियां स्थापित है, उनमें एक मनु हैं जिनका चिर-स्मरणीय योगदान दक्षिण-पूर्व एशिया की विधि-प्रणालियों में हुआ।


दक्षिण में कावेरी की एक सहायक नदी 'कृतमाला' के किनारे सत्यव्रत का जन्म हुआ था। शस्त्र एवं शास्त्र के अध्ययन की समाप्ति पर उस नवयुवक ने नदी-तट पर एक आश्रम स्थापित किया। उस आश्रम की ख्याति फैलने पर वहां के गणराज्य के लोगों ने आकर सत्यव्रत से प्रार्थना की कि वह गणराज्य के प्रमुख का कार्यभार संभालें। पहले तो सत्यव्रत ने नाहीं की, पर जब सभी वर्गों के लोगों ने निवेदन किया तब वह मान गए। उन्होंने शर्त रखी, 'जो मैं कहूंगा, व्यवस्था दूंगा, वह सब मानेंगे।' सबके शर्त मान लेने पर उन्होंने प्रमुख (राजा) बनना स्वीकार किया। सबसे पहला कार्य उन्होंने राजमहल में वहां के निम्नतम वर्ग, जिसका गण-चिन्ह 'मछली' था, को राजप्रासाद में संरक्षण दिया। उस वर्ग में मत्स्य न्याय ( कि ताकतवर कमजोर को खा जाते हैं) प्रचलित था। व्यवस्था देकर उसका निराकरण किया। किंवदंती है कि मछली एक-दो दिन में इतनी बढ़ गई कि वहां न समाई। अंत में ऎसे लोगों को नदी-तट पर और फिर निरापद सागर-तट पर बसाया। इन्हीं सत्यव्रत ने व्यवस्था, सामंजस्य स्थापित कर सभी की सम्मति से लागू की। इसी से वे 'मनु' और उनकी व्यवस्था का पालन तथा धर्माचरण करने वाले, अर्थात् नियमों के अनुसार चलने वाले, 'मानव' कहलाए। धर्माचरण अर्थात् विधि के अनुसान व्यवहार। यह मात्र किसी देश के नागरिक के लिए नहीं वरन् संसार में सभी के लिए सार्विक विधि है।


एक दिन एक छोटे झरने को पार कर हम लोग हिमालय की गोद में बसी मनाली (हिमाचल प्रदेश) की पुरानी बस्ती में पहुंचे। वहां थोड़ी सी समतल भूमि के कोने में एक छोटा सा मूर्तिरहित ( तीन फीट लंबा-चौड़ा और लगभग इतना ही ऊंचा) मंदिर है। परंपरा है कि उसमें कभी कोई देवता की मूर्ति नहीं रही। संभवतया प्राचीन काल में कभी वहां 'मनुस्मृति' रही होगी, वह कालांतर में लुप्त हो गई। आज उनकी कर्मभूमि में वह छोटा मंदिर ही संसार के प्रथम विधि-प्रणेता की स्मृति है। उनकी तपोभूमि 'मन्वालय' (मनु-आलय), जहां जल-प्लावन के बाद उन्होंने अपना स्थान बसाया, का नाम आज 'मनाली' हो गया। चमक-दमक युक्त आधुनिक मनाली के ऊपरी पार्श्व में अतीत के धुंधलेपन की चादर ओढ़े, विस्मृत गांव का यह छोटा सा मंदिर।


सृष्टि के आदिकाल में जिज्ञासु ऋषियों ने 'धर्म' (अर्थात् समाज की धारणा जिससे हो वह 'विधि') समझाने के लिए तत्वदृष्टा मनु को चुना। उनकी वाणी 'मनुस्मृति' में गूंजी। आज संसार की प्रथम विधि-संहिता और उसके प्रणेता को विवादों ने घेर लिया है। अनेक प्रक्षेपों के कारण कभी-कभी इसे 'स्वार्थी ब्राम्हणों का पोथा' कहकर अथवा उस पर 'स्त्री निंदा' या 'निम्न वर्ग के प्रति विद्वेष' के आरोप लगाए जाते हैं। इसका ठीक उल्टा मनु ने किया था। संसार जिसका सदा ऋणी है, उस विधि-प्रणाली को समझने के लिए उसकी मूल प्रकृति को पहचानना आवश्यक है।

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स्मृतिकार और समाज रचना 
०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु


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गुरुवार, दिसंबर 11, 2008

कुरितियां क्यों बनी

समाज की व्यवस्था का सही  मूल्यांकन होता है उसकी स्थायी अवस्था से। समाज के संघर्ष काल में अनेक प्रकार के नियम बनते हैं। परंतु वे उस समाज का स्थायी भाव नहीं दर्शाते। न विशेष परिस्थितिजन्य अवस्था पर समाज का सच्चा मूल्यांकन संभव है। संघर्ष की अवस्था में तो उस समाज की संघर्ष- क्षमता ही नापी जाती है।


हाल के द्वितीय जागतिक महायुद्घ के समय का उदाहरण लें। युद्घरत देशों में कैसी उथल-पुथल मची। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था। इसलिए सुदूर पूर्व मणिपुर में आजाद हिंद फौज के आक्रमण के अतिरिक्त कहीं प्रत्यक्ष युद्घ न होने पर भी, कितने प्रकार के विचित्र नियम बने। यहां भी तरह-तरह के 'कंट्रोल' आए, जिन्होंने समाज को हिला दिया। वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो गए। वहां भी जहां शासन के हस्तक्षेप की किसी को कल्पना न थी। उनमें से अनेक विचित्र नियम थे। सारे द्वार, खिड़कियां, रोशनदान और झरोखे, सबमें मोटा-काला परदा डालकर रखो; मोटरों की हेड लैंप के ऊपरी भाग में कालिख पोत दो। कहीं शत्रु का लड़ाकू वायुयान न आ जाय। यह वस्तु इस चीज की बनाओ, इसकी मत बनाओ; इतने से कम में मत बेचो, इससे अधिक में मत बेचो। 'राशन', पद्घति लागू हो गई। इंग्लैंड में सप्ताह में केवल एक मक्खन की टिकिया, वह भी मां बनने वाली को। यदि ऎसे समय में बाहर से कोई व्यक्ति आता, जिसे पता न हो कि यह देश युद्घरत है तो यही कहेगा कि यह पागलों का देश है जहां इस प्रकार के नियम बने। परंतु ये नियम समाज के संरक्षण के लिए आवश्यक थे।


युद्घ समाप्त होने के बाद भी ये नियम कुछ वर्षों तक ही सही, चलते रहे। समाज एकाएक उनको उखाड़कर फेंक नहीं पाता। ये अनेक प्रकार के 'कंट्रोल'- युद्घजन्य परिस्थिति से जूझने के लिए और लाइसेंस आदि। अभावग्रस्त तथा भयग्रस्त समाज का विकृत रूप दूर कर जर्जरित समाज-व्यवस्था को पुन: पटरी पर लाने में स्वाभाविक ही कठोर परिश्रम और समय की आवश्यकता पड़ती है।


भारत में एक सहस्त्र वर्षों का संघर्ष-काल रहा है। ऎसा संघर्ष-काल जिसमें आबालवृद्घ ने भाग लिया। इसे अंतरराष्ट्रीय विधि में सार्विक युद्घ-'टोटल वार' (total war)  कहते हैं, जहां सेनाएं ही नहीं लड़तीं, पूरा समाज युद्घरत होता है। ऎसे घनघोर संघर्ष में कुछ आपातकालीन नियम बने होंगे। संघर्ष समाप्त होने के बाद भी ये आपातकालीन नियम अथवा उनके अपभ्रंश कुरीतियां बनी रहीं। ये शाश्वत नहीं, न गुलामी के कारण हैं; वरन् संघर्ष-काल के बाद चलने वाली कुरीतियां मानसिक दासता के लक्षण, उसका परिणाम मात्र हैं। समाज का सच्चा मूल्यांकन तो उसकी शाश्वत धारा का मूल्यांकन है।स्मृतिकार और समाज रचना समाज की व्यवस्था का सही  मूल्यांकन होता है उसकी स्थायी अवस्था से। समाज के संघर्ष काल में अनेक प्रकार के नियम बनते हैं। परंतु वे उस समाज का स्थायी भाव नहीं दर्शाते। न विशेष परिस्थितिजन्य अवस्था पर समाज का सच्चा मूल्यांकन संभव है। संघर्ष की अवस्था में तो उस समाज की संघर्ष- क्षमता ही नाजी जाती है।


हाल के द्वितीय जागतिक महायुद्घ के समय का उदाहरण लें। युद्घरत देशों में कैसी उथल-पुथल मची। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था। इसलिए सुदूर पूर्व मणिपुर में आजाद हिंद फौज के आक्रमण के अतिरिक्त कहीं प्रत्यक्ष युद्घ न होने पर भी, कितने प्रकार के विचित्र नियम बने। यहां भी तरह-तरह के 'कंट्रोल' आए, जिन्होंने समाज को हिला दिया। वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो गए। वहां भी जहां शासन के हस्तक्षेप की किसी को कल्पना न थी। उनमें से अनेक विचित्र नियम थे। सारे द्वार, खिड़कियां, रोशनदान और झरोखे, सबमें मोटा-काला परदा डालकर रखो; मोटरों की हेड लैंप के ऊपरी भाग में कालिख पोत दो। कहीं शत्रु का लड़ाकू वायुयान न आ जाय। यह वस्तु इस चीज की बनाओ, इसकी मत बनाओ; इतने से कम में मत बेचो, इससे अधिक में मत बेचो। 'राशन', पद्घति लागू हो गई। इंग्लैंड में सप्ताह में केवल एक मक्खन की टिकिया, वह भी मां बनने वाली को। यदि ऎसे समय में बाहर से कोई व्यक्ति आता, जिसे पता न हो कि यह देश युद्घरत है तो यही कहेगा कि यह पागलों का देश है जहां इस प्रकार के नियम बने। परंतु ये नियम समाज के संरक्षण के लिए आवश्यक थे।


युद्घ समाप्त होने के बाद भी ये नियम कुछ वर्षों तक ही सही, चलते रहे। समाज एकाएक उनको उखाड़कर फेंक नहीं पाता। ये अनेक प्रकार के 'कंट्रोल'- युद्घजन्य परिस्थिति से जूझने के लिए और लाइसेंस आदि। अभावग्रस्त तथा भयग्रस्त समाज का विकृत रूप दूर कर जर्जरित समाज-व्यवस्था को पुन: पटरी पर लाने में स्वाभाविक ही कठोर परिश्रम और समय की आवश्यकता पड़ती है।


भारत में एक सहस्त्र वर्षों का संघर्ष-काल रहा है। ऎसा संघर्ष-काल जिसमें आबालवृद्घ ने भाग लिया। इसे अंतरराष्ट्रीय विधि में सार्विक युद्घ-'टोटल वार' (total war)  कहते हैं, जहां सेनाएं ही नहीं लड़तीं, पूरा समाज युद्घरत होता है। ऎसे घनघोर संघर्ष में कुछ आपातकालीन नियम बने होंगे। संघर्ष समाप्त होने के बाद भी ये आपातकालीन नियम अथवा उनके अपभ्रंश कुरीतियां बनी रहीं। ये शाश्वत नहीं, न गुलामी के कारण हैं; वरन् संघर्ष-काल के बाद चलने वाली कुरीतियां मानसिक दासता के लक्षण, उसका परिणाम मात्र हैं। समाज का सच्चा मूल्यांकन तो उसकी शाश्वत धारा का मूल्यांकन है।


विधि समाज का दर्पण है। उसमें समाज की दशा का प्रतिबिंबित चित्र देखा जा सकता है। इसलिए भिन्न प्राचीन समाजों की विधि-परंपराओं को समझना आवश्यक है। उनके लिए एक कसौटी चाहिए। यह कसौटी प्राचीन या आधुनिक नहीं हो सकती । प्राचीन या आधुनिक कसौटी तो किसी स्थिर विधि-प्रणाली के संदर्भ में हो सकती है, जो संसार के किसी भूभाग में और किसी विशिष्ट कालखंड के लिए बनाई गई। पर विधि की सार्थकता नवीन चुनौतियों का सामना करने, नित्य नई परिस्थितियों से जूझने तथा अपने अंदर युगानुकूल मानव-मूल्यों के अनुरूप परिवर्तन कर सकने की क्षमता में है। हमें शाश्वत कसौटी चाहिए। यह और भी आवश्यक मुसलिम और ईसाई समाज के परिप्रेक्ष्य में है जो स्थिर, एक काल के लिए बने पंथ हैं।


विधि समाज का दर्पण है। उसमें समाज की दशा का प्रतिबिंबित चित्र देखा जा सकता है। इसलिए भिन्न प्राचीन समाजों की विधि-परंपराओं को समझना आवश्यक है। उनके लिए एक कसौटी चाहिए। यह कसौटी प्राचीन या आधुनिक नहीं हो सकती । प्राचीन या आधुनिक कसौटी तो किसी स्थिर विधि-प्रणाली के संदर्भ में हो सकती है, जो संसार के किसी भूभाग में और किसी विशिष्ट कालखंड के लिए बनाई गई। पर विधि की सार्थकता नवीन चुनौतियों का सामना करने, नित्य नई परिस्थितियों से जूझने तथा अपने अंदर युगानुकूल मानव-मूल्यों के अनुरूप परिवर्तन कर सकने की क्षमता में है। हमें शाश्वत कसौटी चाहिए। यह और भी आवश्यक मुसलिम और ईसाई समाज के परिप्रेक्ष्य में है जो स्थिर, एक काल के लिए बने पंथ हैं।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
स्मृतिकार और समाज रचना 
 ०१- कुरितियां क्यों बनी