शनिवार, सितंबर 05, 2009

ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकंदर)

प्राचीन ईरान की ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख आवश्यक है। दक्षिण ईरान में 'पर्सु' नामक प्रांत था, जहाँ हखामनीषी वंश के लोगों का शासन था। इसी 'पर्सु' (संस्कृत परशु) से अंग्रेजी में 'पर्शिया' (Persia)  नाम पड़ा। इस वंश की कीर्ति शिखर पर पहुँचाने का श्रेय 'कुरू' को है। विक्रम संवत् पूर्व छठी शताब्दी में उसने तातारियों से ईरान को स्वतंत्र कराया। तब बाबुल पर आक्रमण कर ईरानी साम्राज्य का भूमध्य सागर तक विस्तार किया। बाबुल में पड़े निर्वासित अथवा बंदी यहूदी परिवारों (जिनमें कहा जाता है कि उनके आदि पुरूष या नबी, अब्राहम भी थे) को पुन: फिलिस्तीन भेजकर बसाने की व्यवस्था की। उनके येरूसलम के मंदिर का अपने व्यय से पुनर्निर्माण कराया। इसी प्रकार जब लीडिया के राजा क्रोयम ने कुरू के हाथों पराजय होने पर स्वयं को चिमा में जलाकर आत्महत्या करनी चाही तब कुरू ने उसे बचाकर अपनी राजसभा में उचित स्थान दिया। ये व्यवहार उसकी संस्कृति के अनुरूप सबका हृदय जीतने वाले थे। आसपास की सामी सभ्यताओं की नृशंसता के विपरीत उदात्त आचरण ! इसी वंश में प्रसिद्घ प्रतापी सक्राट् 'दारा' हुआ, जिकी समाधि के लेख में उसे 'आर्यों में आर्य' कहा गया।

फ्रांस के एक संग्रहालय में रखी सिकंदर की अर्धप्रतिमा का  चित्र

हखामनीषी वंश के शासन में, यूनान के सिकंदर (अलक्षेंद्र : Alexander) ने विक्रम संवत् पूर्व तीसरी सदी में, विश्व-विजय के स्वप्न सँजोए, भयंकर लूटपाट का अपना आक्रमण अभियान आरंभ किया। वह मिस्त्र को तथा पश्चिमी प्रदेश को रौंदकर ईरान की राजधानी परसीपुलिस ( Persepolis : पर्सु की नगरी) जा पहुँचा। वहाँ के लोगों ने यह देखकर कि यूनान में लोहारों की नगरी मखदूनिया (Macedonia) का राजपुत्र नए अच्छे अस्त्र बनाकर लाया है, जिससे लोहा लेना कठिन होगा, एक अफवाह फैलायी कि उस नगरी को वरदान है कि जब तक उससे १५ मील दूर एक मंदिर में रखी गाँठ (Gordian knot) आक्रमणकारी खोल नहीं देता तब तक उस नगर का बाल भी बाँका न होगा। यह सुनकर सिंकदर की सेना ने आक्रमण करने से इनकार कर दिया। सिकंदर तब उस मंदिर में गया। देखा कि कोई छोर पकड़ पाना कठिन है; गाँठ खोलने में कई सप्ताह लगेंगे। परसीपुलिस को आशा थी कि तब तक भारत से आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र तथा सहायता आ पहुँचेगी। पर सिकंदर ने कटार से गाँठ के दो टुकड़े कर दिए और दोनों छोर अपनी सेना को दिखा दिए कि
'मैंने गाँठ खोल दी है, अब युद्घ करो।'  
सिकंदर गांठ को काटते हुऐ 
सिकंदर की सेना ने एकाएक हमला किया और वहाँ की ईंट से ईंट बजा दी। भयानक नर-संहार हुआ, जिसमें स्त्री-पुरूष सभी मारे गए। सारा नगर जला दिया गया। कहते हैं कि अकेले सुसा नगरी की लूट में सिकंदर को ७,३९० मन सोना और ३२,८४५ मन चाँदी मिली। सर्वत्र लूटपाट के बाद उसने ईरानी कला के बहुमूल्य नमूने भी नष्ट कर दिए। नगरों के भग्नावशेष आज भी भयंकर त्रासदी की याद दिलाते हैं। महानाश उपस्थित करने के बाद घोड़ों पर सवार सिकंदर की सेना द्रुत गति से भारत के दरवाजे पर दस्तक देने पहुँच गयी।

इस चिट्ठी के चित्र - विकिपीडिया के सौजन्य से

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)

रविवार, अगस्त 30, 2009

आर्यान (ईरान)

प्राचीन काल में भारत और ईरान (प्राचीन नाम आर्यान : आर्य देश) की सभ्यताओं का सहोदर नामा रहा है। वहाँ के खुर्द (Kurd) लोगों में आज भी एक कहावत प्रचलित है-'खुर्दी हिंदी भ्रा' (खुर्दी हिंदी भाई) ये अपने आपको आर्यों की छोटी शाखा 'खुर्दी' कहते हैं। सात-साठ सौ वर्ष पहले ये मुसलमान हो गए; पर अग्नि को साक्षी मान विवाह-पद्घति बहुत दिनों तक चलती रही। ईरान भारत के पारसी समाज का भी मूल स्थान है। इसका उत्तरी भाग कैकेय प्रदेश है और दक्षिणी 'एलम', जहाँ की कभी राजधानी 'सुसा' नगरी थी (यहां देखें)। ईरान की इस प्राचीन आर्य सभ्यता का (जिसे इतिहासकार इंडो-यूरोपियन भी कहते हैं) भारत से ऐसा सादृश्य था कि कुछ पुरातत्वज्ञों ने अनुमान लगाया था कि आर्य कश्यप सागर तथा अरल सागर के बीच अथवा वक्षु नदी (Oxus) के आसपास के निवासी रहे होंगे, जहाँ से वे ईरान और भारत में फैले। बृहत्तर भारत, गांधार जिसका भाग था और जो उत्तर अरल सागर तक फैला था, की सीमा से लगा हुआ यह ईरान नाम का प्राचीन आर्य देश ही है। यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारत से लगे इस देश की सभ्यता एवं संस्कृति, उनके रीति-रिवाज, उनके आचार-व्यवहार और नैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक विचार सभी भारत से प्रभावित थे।

अमृत-मंथन की कथा के संदर्भ में 'सुर' और 'असुर' शब्दों की विवेचना (यहां देखें) की गयी है। ऋग्वेद में ये दोनों शब्द देवताओं के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। पहले प्राकृतिक शक्तियों (सूर्य, वायु, अग्नि, आकाश तथा इंद्र आदि) 'सुरों' से ऋद्घि-सिद्घि की याचना की है। बाद में अमूर्त देवताओं की कल्पना है, जिन्हें 'असुर' संज्ञा दी। कालांतर में देवों के उपासक और असुरों के उपासक- दो संप्रदाय हो गए। संभवतया असुरों के उपासक लौकिक उन्नति (और विज्ञान) की ओर अधिक ध्यान देते थे, जबकि देवों के उपासक आध्यात्मिक पहल (मानविकी) पर। यह 'असुर' ही फारसी में 'अहुर' है। उनके प्रमुख देवता 'अहुर-मज्दा' हैं। पारसी धार्मिक साहित्य 'जेंदावेस्ता' (संस्कृत : छंद-व्यवस्था) (Zenda-vesta)  के प्राचीन 'यष्ट' भाग ऋग्वैदिक मंत्रों की छाया समान हैं। मूल फारसी और संस्कृत मंत्रों को, उच्चारण और लिपि की भिन्नता दुर्लक्ष्य कर, देखा जा सकता है। फारसी और संस्कृत भाषाएँ एक ही कुटुंब की हैं। उच्चारण तथा अपूर्ण (अरबी) लिपि अपनाने से भाष्य में अंतर आया। इतिहास बताता है कि मूल 'जेंदावेस्ता' लोप होने पर उनके पैगंबर 'जरथ्रुष्ट्' (Zorathrusthra) ने उसका पुनर्निमाण अपने उपदेशों को मिलाकर किया। वह भी जल गया और अब कुछ अंश नई मिलावट लिये शेष हैं (यहां देखें)।

विक्रम संवत् पूर्व से ईरानी अपने को आर्य कहते चले आए हैं। उनकी पवित्र पुस्तक 'जेंदावेस्ता' में भी उन्हें आर्य कहा गया। उनके देवता, सामाजिक जीवन तथा जरथ्रुष्ट् के विचार भारत के वैदिक आर्यों के समान हैं। ऋग्वेद तथा अवेस्ता दोनों ही 'वरूण' को देवताओं में बड़ा मानते थे। दोनों में वरूण ने 'मित्र' (सूर्य) को, जिसे ईरान में 'मिथ्र' कहते थे, प्रतिनिधि बनाया। 'मागी' ( उस समय का पुजारी वर्ग) से ईरानियों ने अग्नि-पूजा सीखी। उसे वेदी पर सदा प्रज्वलित रखना और यज्ञ (यरन) प्रमुख धार्मिक कर्तव्य बना। ऎसे ही 'यिम' ('यम') उनका मृत्यु का देवता था जो कर्मों का लेखा-जोखा रखता और पापियों को दंड देता। उसी प्रकार जनेऊ (कस्सी) (जो वहाँ कमर में पहना जाता था) धारण करने की प्रथा थी।ईरान के नगरों का नियोजन भी सारस्वत सभ्यता के समान था। उनकी यह सभ्यता (और धर्म) सारस्वत अथवा वैदिक आर्यों की सभ्यता ही उन परिस्थितियों में थी।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)

रविवार, अगस्त 23, 2009

असुर जाति

लगातार एक हजार वर्षों तक सतत युद्घ के कारण युद्घ करना ही असुर जाति का पेशा बन गया और वे स्वयं क्रूर एवं अत्याचारी हो गए। जिन नगरों को उन्होंने जीता, उनका क्वचित् नागरिक ही सामूहिक हत्याकांड से बच पाया। प्रमुख लोगों के हाथ-पैर, नाक-कान काटकर, आँखें फोड़कर वे उन्हें मीनारों से नीचे फेंक देते, अथवा ऐसे विजितों को बच्चों सहित धीमी आग में जलाया जाता। उनके अंतिम शक्तिशाली 'सम्राट्' असुरबनिपाल (Ashurbanipal) ने एलम (Elam) को जीतने के बाद कैदियों को पीट-पीट कर मार डाला, एलम के सेनापति को जीवित जला दिया। वहाँ के राजा का सिर काटकर राजकीय भोज के अवसर पर वृक्ष से लटकाया गया। उसके भाई के टुकड़े-टुकड़े कर देश भर में बाँटे गए। अंत में स्वतंत्रता की कामना करने के कारण सुसा नगरी का ध्वस्त कर दिया। वहाँ की जनता को खदेड़ दिया गया। असुरबनिपाल ने स्वयं एक नगर को जीतने का वर्णन किया है कि कैसे उसने,
'तीन हजार शत्रु सैनिकों को मौत के घाट उतारा, कैसे बंदियों को जला दिया, अंग काट डाले, आँखे निकाल लीं और उनके सिरों को नकर में खंभों पर लटकाया तथा नगर के युवक-युवतियों को जला दिया।'
असुरबनिपाल रथ पर शेर के शिकार करते हुऐ - चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से


एक भित्तिचित्र में 'असुर' (उनका देवता) के सम्मुख शत्रुओं की बलि होते दिखाया गया है। इन नृशंस क्रूर अत्याचारों की विज्ञप्तियाँ, उनकी कथाएँ प्रचारित की गई कि राक्षसत्व भी लजा जाए। 'असुर' शब्द ही भयानक अत्याचारी का पर्याय बना।

अरब देश और संपूर्ण मध्य-पूर्व का जीवन इन विभीषिकाओं के भरा है। इतिहास अकथ्नीय अत्याचारों को वीरों की विजयगाथा कहकर, राक्षसत्व के पंक में डूबे इन साम्राज्यों की प्रशंसा करता है। इसी असीरियन सभ्यता में परदे की प्रथा का जन्म हुआ और पुरूष को चाहे जितनी पत्नियाँ रखने की छूट मिली। वहाँ मानव-मूल्य युद्घ के संघर्षों में खो गए और आई व्यक्तिगत जीवन में शान-शौकत की लालसा तथा नग्न वासना दर्शन। लोकतंत्र की कल्पना विलीन हो गयी। जनजीवन में सुमेर के समता भरे जीवन के स्थान पर विषमता आई और आई दास प्रथा की त्रासदी। मध्य-पूर्व की कथित सामी सभ्यताओं की लगभग यही कहानी है। पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बाबुल (Babylon) का विलासिता में डूबा, इंद्रिय-सुख को सर्वस्व मानने वाला जीवन पश्चिमी जगत और अंततोगत्वा यूरोप को सुमेर के जीवन की, कुछ सामी रंग से रँगी, भारतीय झलकियाँ पहुँचा सका।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति

शनिवार, अगस्त 15, 2009

कस्सी व मितन्नी आर्य

इसके बाद मध्य-पूर्व (दक्षिण-पश्चिम) में आया एक-दूसरे से संघर्षरत साम्राज्यों का युग। एक कस्सी (कसाइट) जाति ने बैबिलोनिया पर कब्ज़ा कर लिया। कस्सी (अथवा 'कश्यप') जाति, जिसके ऊपर 'कश्यप सागर' नाम पड़ा, उसकी तटवासिनी थी। कुछ पुरातत्वज्ञ इसे आर्य जाति की शाखा कहते हैं, जो ईरानी आर्यों के दबाव से बाबुल में आई, जैसे अनातोलिया (Anatolia) (तुर्की) में हित्ती (Hittites) और मितन्नी 'आर्य' (?) पहुँचे। इस कस्सी जाति के नाम, भाषा तथा धार्मिक क्रियाओं पर भारतीय परंपरा की छाप दिखती है। उनके प्रधान देवता 'सूर्यश' वैदिक 'सूर्य' ही हैं और 'मरूत्तश' 'मरूत'। उनके 'इंदबुगश' 'इंद्रदेव' हैं ('बुगश' का अर्थ देवता है)। उन्होंने व्यापारिक मार्ग सुरक्षित रखने और असुरों (Assyrians) से बचाने के लिए मिस्त्र तथा अन्य देशों से संधियँ कीं और पत्र-व्यवहार किया। इसी प्रकार हित्ती धार्मिक आख्यानों में 'सूर्य' को 'देवराज' कहा गया। उनकी यजिलीकय गैलरी में देवताओं की दो पंक्तियाँ हैं। एक के अग्र स्थान पर 'शिव' की मूर्ति जान पड़ती है तो दूसरी पंक्ति में प्रथम स्थान सिंहवाहिनी देवी 'हेवत' का है, जो दुर्गा का ही रूप है। हित्तियों की पूजा-विधि एवं कर्मकांड हिंदुओं से मिलते-जुलते हैं।

Çorum



हित्ती राज्य की राजधानी हत्तुसा (Hattusa) में शेर दरवाजा का चित्र विकिपीडिया से

ऎसा ही अनातोलिया की मितन्नी जाति का है। उनके देवताओं में मित्र (सूर्य), इंद्र, वरूण और अश्विनीकुमार (नासत्य-द्वय) हैं। उनके अंक भारत की याद दिलाते हैं। उनका अश्व-पालन पर ग्रंथ अब तक उपलब्ध है। अपने उत्कर्ष के समय उनके राजा दुश्रत्त (दशरथ) ने वंशजों के विवाह संबंध मिस्री राजाओं के साथ किए। समानता के आधार पर संधियाँ कीं। संभवतया हित्ती और मितन्नी शासक वर्ग 'आर्य' थे और उनमें सामी जातियों का सम्मिश्रण हो गया था। अनातोलिया के प्राचीन जीवन में स्पष्ट ही दो जातियाँ दिखती हैं। कम-से-कम उनमें एक जाति भारतीय जीवन-पद्घति से प्रभावित थी और भारतीय देवताओं, रीति-रिवाजों से भी। परंतु चाहे जो हो, हित्ती और मितन्नी जातियाँ बबिलोनिया के पूर्ण सामीकृत जीवन में कुछ बदल न ला सकीं। जैसा अनेक बार सामी राजघरानों में होता आया, दुश्रत्त को उसके पुत्रों ने ही मार डाला। अंत में असुर देश (Assyria) (आधुनिक सीरिया) स्वतंत्र हो गया।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य

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रविवार, अगस्त 09, 2009

बैबिलोनिया

लगभग ५०० वर्ष के पश्चात पश्चिमी सामी जाति, जिसे 'अमोरी' कहते हैं, ने काबुल से बढ़कर सुमेर और एलम तक अधिकार कर लिया। तभी बैबिलोनिया (Babylonia) साम्राज्य-निर्माता हम्मूराबी ने एक नवीन संहिता प्रतिपादित की। यह संहिता पुरानी सुमेरी संहिता का, सामी जाति के संदर्भ में उनकी परंपराओं को लेते हुए पुनर्लेखन है। इस संहिता ने रोमन साम्राज्य की जस्टिनियन संहिता अथवा आधुनिक यूरोपीय कानून की जननी नेपोलियन संहिता को मार्ग दिखाया। पर यह पुनर्लेखन सुमेरी विधान से अधिक कठोर दंड की व्यवस्था है। धीरे-धीरे सुमेरी साहित्य, देवी-देवता, पौराणिक आख्यान, सभी का समीकरण हो गया। सुमेरी संस्कृति का 'धार्मिक समाजवाद' अथवा समता की अवधारणा लुप्त हो गयी। वह सामी जातियों में, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के संघर्षों में डुब गयी। भारतीय जीवन में विद्यमान समता, स्त्री का सामाजिक जीवन में स्थान, मानव-मूल्य और गणराज्य, जिसके अंदर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का बीज निहित है, इन सबकी सुमेरी जीवन में प्रतिबिंबित धारणाएँ चली गयीं। और इसके बाद आई सामी जीवन के साम्राज्यों की चकाचौंध, युद्घ और नर-संहार; तज्जनित आई, वेतनभोगी सहकार्य के स्थान पर, दास प्रथा (जिसमें मानव को खरीदा-बेचा जा सकता था), बड़े राजमहल और गरीबों की कुटिया, सामाजिक तथा आर्थिक विषमताएँ, क्रूरता और पादशाही का राजनीतिक ढाँचा।

आज इन साम्राज्यों की, उनके निर्माताओं की विरूदावली से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। यह कितना बड़ा धोखा है। उदाहरणार्थ यहूदी राज्य के शासक सुलेमान (Soloman) की न्यायप्रियता, बुद्घिमानी तथा उदारता की कहानियाँ भरी पड़ी हैं पर बाइबिल कहती है कि राज्यारोहण के बाद उसने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को मरवा डाला। पूर्ववर्ती सम्राट के वैभवपूर्ण जीवन के स्वप्न देखते हुए उसने जनता पर करों और बेगार का बोझ लादा। व्यापार से कमाए धन को भोग-विलास में और अपने लिए राजमहल तथा 'य:वेह' का निजी मंदिर बनवाने में लगाया। कहते हैं कि उसकी ७०० पत्नियाँ और ३०० उपपत्नियाँ थीं। उसके राज्य में प्रतिमास हजारों श्रमिक बलात् 'हिराम' के जंगलों की खदानों में बेगार करने के लिए भेजे जाते थे।


राजा सुलेमान और शीबा की रानी चित्र विकिपीडिया से

विश्व-विजय का स्वप्न देखने वाले 'महान वीरों' की प्रशंसा की जो कहानियाँ मध्य-पूर्व के इतिहास में बेबिलोनिया (बाबुल) से रोमन साम्राज्य तक हैं, वे क्रूर व नृशंस साम्राज्यों के साये में पलीं और तुच्छ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और भोग-विलास के चारों ओर निर्मित हैं। ये कहानियाँ ऎसी मानवता को हिलाने वाली हैं कि उसको सभ्यता कहना उपहास है। जब कभी पादशाही आई और एक व्यक्ति के ऊपर आधारित जीवन-निर्माण हुआ, जैसा सामी सभ्यताओं में साधारणतया हुआ, और कोई नैतिक अंकुश न बना तो एक डाँवाँडोल, असंतुलित स्थिति आई, जहाँ भयाक्रांत शांति के अंदर युद्घ के बीज विद्यमान थे। बेबीलोनिया तथा मध्य-पूर्व विक्रम संवत् की तीसरी शताब्दी तक और उसके बाद भी ऎसे ही साम्राज्यों का रंगमंच रहा। उनकी उथल-पुथल की कहानी व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा से उलझी हुयी है।

The Tower of Babel in the background of a depi...बैबीलोन के हैंगिंग गार्डन का सोलवीं शाताब्दि का चित्र विकिपीडिया से



बैबिलोनिया साम्राज्य में समाज में वर्ग-भेद उत्पन्न हुआ और तीन वर्ग बने। उच्च वर्ग (अवीलम्), जिसमें उच्च सरकारी पदाधिकारी, जमींदार और व्यापारी आते थे। धीरे-धीरे उनका मापदंड पद अथवा धन न रहा, उसका आधार जन्मना हो गया, जो सुमेर में नहीं था। मध्यम वर्ग (मुस्केनम्) स्वतंत्र नागरिकों का था जिनका स्थान उच्च वर्ग से नीचे था। अधिकांश इसमें सुमेरी थे, जो स्वतंत्र और धनी होने पर भी उच्च वर्ग में सम्मिलित नहीं किए जाते थे। कानून में भी विभेद था। निम्नतम था मानवता का कलंक दास वर्ग, जो अपने स्वामी की संपत्ति थे और बेचे-खरीदे जा सकते थे। इस प्रकार का समाज कम-अधिक मात्रा में सभी साम्राज्यों के संघर्षों के मध्य चलता रहा। हम्मूराबी की प्रसिद्घ विधि-संहिता को पूर्ववर्ती सुमेरी विधि-संहिता का नए राजनीतिक वातावरण में रूपांतर कहा जाता है। पर उसके नियम और दंड कहीं अधिक कठोर हो गए। सामी सभ्यताओं में विवाह एक करार माना जाता था और बिना गवाहो के हस्ताक्षर युक्त अनुबंध के पत्नी को कोई अधिकार न मिलते थे; न ऐसा विवाह वैध ही था।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
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०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
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०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
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