सोमवार, फ़रवरी 12, 2007

भौतिक जगत और मानव-९

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
संक्षेप में
प्रस्तावना
भौतिक जगत और मानव-१
भौतिक जगत और मानव-२
भौतिक जगत और मानव-३
भौतिक जगत और मानव-४
भौतिक जगत और मानव-५
भौतिक जगत और मानव-६
भौतिक जगत और मानव-७
१० भौतिक जगत और मानव-८

जीवन के विकास के पद-चिन्ह प्रकृति ने पृथ्वी की पपड़ी के शैलखंडों पर छोड़े हैं। पर यह उस पुस्तक की तरह है जो अनजान भाषा में लिखी गई है, जिसके पन्ने फट गए हैं। कुछ उलट-पुलट कर गायब भी हो गए हैं। कुछ गल गए या जल गए हैं। अथवा क्रूर समय के हाथों ने जिनके भग्नावशेषों को इधर-उधर सभी दिशाओं में विसर्जित कर दिया है।

पर शैल चिन्ह छोड़ सकने के लिए भी जीव को लंबी विकास यात्रा करनी पड़ी। केन नदी के उदगम स्थान के पास एक सहायक नदी में पारभासी (translucent)पत्थर मिलते हैं, जिनमें तरह- तरह के पेड़ पौधे या अन्य चित्र हैं । ये काई के अवशेष लिये पारभासी स्फटिक हैं। अरबों वर्षो के महायुग में एक प्रकार का अध:जीवन ही इस पृथ्वी पर रहा। जब जीव में सीप-घोघें सरीखा कवच या हड्डी या ढांचा प्रारंभ हुआ, तभी से पुराजीवी चट्टानों(palaeozoic rocks) में जीवन की विविधता के संकेत मिलने लगे। पहले घोंघे, सीपी, और कीड़े (केकड़े, भीमकाय समुद्री बिच्छू और जलीय रंगनेवाले जीव) और समुद्री सेंवार आदि, ऊपरी परतों में मछलियॉ। इसके बाद आते हैं उभयचर (amphibian) जो जल, थल दोनों में रह सकते हैं और कार्बोनी युग (carboniferous age) के बड़े-बड़े पर्णांग (fern) के जंगल। इन जंगलों की लुगदी आज कोयले के रूप में पृथ्वी की परतों में विद्ययमान है।

जल के बिना जीवन असंभव है। निर्जल (dehydration)होने पर वनस्पति और जंतु मर जाते हैं। कहा गया है कि जल ही अमृत है। आदि जीव जल के बाहर फिंक जाने पर ‘बिना जल के मीन’सरीखे मर जाते थे। इसलिए उन अत्परिवर्तनों को, जिनके द्वारा सूखे में जीव अपने अंदर की नमी कुछ देर बनाए रख सके, प्रोत्साहन मिला। आदि-जैविक महाकल्प (proterozoic age) की विस्तीर्णता में प्रकृति के वे प्रयोग हुए जिनसे जीवन निरंतर जल में रहने की बाध्‍यता से मुक्‍त हो चला ।

अगला मध्यजीवी महाकल्प (mesozoic age) जीवन की प्रचुरता और विस्तार के नए चरण से प्रारंभ होता है। अब आए जल रेख के ऊपर नीची भू‍मि पर, सदाहरित वनस्पति और इनके साथ तरह-तरह के सरीसृप; इनकी दुनिया विवधिता से भरपूर थी । डायनासोर (dinosaur : दानवासुर) शरीर में तिमिंगल मछली (whale) के बराबर थे। अर्थर कैनन डायल का एक उपन्यास ‘वह खोई दुनिया’ (The Lost World) प्रसिद्ध है । यह एक अगम्य पठार की, जहॉ मध्यजीवी कल्प के भयानक जानवर थे, उनके बीच कुछ लोगों के जोखिम की कहानी है।

इस भरे-पूरे भीमकाय जंतुओं के कल्प का अंत बड़ा विचित्र है। एक दिन ये जंतु अपने आप मिट गए। जैसा पुराजीवी कल्प के अंत में एक लंबे समय का अंतरात आता है वैसा ही मध्यजीवी कल्प के अंत में हुआ। पर किसी अनजाने भाग्य ने इन भयानक, भीममाय सरीसृपों का सत्यानाश कर डाला। मनव के अवतरण के पहले सबसे विलक्षण घटना यही है। ये सरीसृप स्थिर ग्रीष्म जलवायु में रहने के आदी थे। यह तभी होगा जब पृथ्वी की घुरी उसकी कक्षा पर प्राय: लंबवत् (perpendicular) होगी। एकाएक कठोर शीतयुग आया। इस सर्दी को या तापमान के तात्कालिक बदल को सहन करने का सामर्थ्य उस कल्प के जीवन में न था और सरीसृप एवं वनस्पति संभ्वतया जलवायु की चंचलता के शिकार बने। संभवतया किसी अत्यंत प्रचंड खगोलीय शक्ति से या आकाशीय पिंडाघात से पृथ्वी की धुरी,जो उसकी कक्षा पर प्राय: लंबवत् थी, एक ओर झुक गई। तब ग्रीष्म-शीत ऋतुऍ प्रारंभ हुई । आज भी हम नहीं जानते कि अनिश्चित काल में पृथ्वी को आच्छादित करते ‘हिमयुग’ (ice age) क्यों आए।

भरतीय भूविज्ञान के अनुसार चतुर्युगी के बाद कृतयुग के बराबर संध्या है,प्रलय के कारण सुनसान तथा उजाड़ (देखें – खण्ड २)। इसके बाद विमोचन में पुन: सृष्टि खुलती है। जिस समय जीवन की गाथा मध्यजीवी महाकल्‍प के अंत में विध्वंस और सूने अंतराल के बाद पुन: अपनी विपुलता में खिली, तब नूतनजीवी कल्प (cainozoic age) आ चुका है। विलुप्त भीमकाय सरीसृपों का स्थान उनसे विकसित स्तनपायी जीवों तथा पक्षियों ने ले लिया हे। उनके साथ आधुनिक वृक्ष दिखाई देने लगे हैं । इनमें फूल लगने लगे हैं और इसके साथ आया है तितलियों का थिरकना तथा मधुमक्खियों का गुंजन । मध्यजीवी कल्प के अंत में आई घास ने अब मैदानों और नग्न पर्वतों को छा दिया और वह चट्टानों के नीचे से झांकने लगी।

रविवार, जनवरी 14, 2007

भौतिक जगत और मानव-८

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
संक्षेप में
प्रस्तावना
भौतिक जगत और मानव-१
भौतिक जगत और मानव-२
भौतिक जगत और मानव-३
भौतिक जगत और मानव-४
भौतिक जगत और मानव-५
भौतिक जगत और मानव-६
भौतिक जगत और मानव-७

जीव के स्ववर्धन, प्रवजन और मृत्यु रूपी चक्र (cycle)के आश्चर्यजनक परिणाम हुए। इस चक्र के कारण जीव के विकास का चमत्कार संभव हुआ। जो पैदा होता है, व‍ह ( कभी-कभी अन्य अवस्थाओं से गुजरकर) अपने जनक की तरह बनता है। पर वह ठीक जनक का प्रतिरूप नहीं होता, कुछ-न-कुछ अंतर रहता ही है, क्योंकि वह एक पृथक व्यक्तित्व है। आज का जीव- संसार अपने पूर्वजों की तरह है, जो काल-गर्त में चले गए, पर उनसे भिन्न है, क्योंकि यह अपनी प्रजाति की नई पीढ़ी है। यह सभी जीवधारियों के लिए, कीट- पतंगों से लेकर मानव तक, काई से लेकर आधुनिक वृक्षों तक; सत्य है कि जीव की एक पीढ़ी मरण को प्राप्त होती है तो पुन: उस जाति की नई पीढ़ी खड़ी हो जाती है।

सोचें कि नवजन्य पीढ़ी का क्या होगा? यह सच है कि कई दुर्घटना के शिकार बनेंगे या भाग्य उनसे आँखमिचौली खेलेगा, पर साधारणतया जो जीवन यात्रा के लिए अधिक उपयुक्त है, वे टिके रहेगें, प्रौढ़ बनेंगे और नई पीढ़ी को जन्म देंगे; जबकि कमजोर और अनुपयुक्त छँट जाऍंगे। इस प्रकार हर पीढ़ी में उपयुक्त का चयन और अनुपयुक्त की छँटनी सी होती रहती है। इसे हम ‘प्राकृतिक वरण’( natural selection) या ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’(survival of the fittest) कहते हैं। इसके द्वारा विभिन्न योनियाँ (species) अपने को प्रत्येक पीढ़ी में काल एवं परिस्थिति के अनुकूल बनाती चलती हैं।

परिस्थितियाँ एक-सी नहीं रहतीं और जलवायु में कभी-कभी आकस्मिक परिवर्तन भी होते हैं। नई पीढ़ी की अनुकूलनशीलता की एक सीमा है। नई पीढ़ी में इक्की-दुक्की संरचना की विलक्षणताऍं, जो पीढ़ी के अंदर की व्यक्तिगत विभिन्नताओं से परे हों, प्रकट होती हैं,जिन्हें जीव विज्ञान में ‘उत्परिवर्तन’ (mutation) कहते हैं। कभी-कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में बाधा बनकर खड़े होते हैं या बेतुका, अनर्गल उत्परिवर्तन हुआ तो प्राकृतिक वरण द्वारा ऐसे जीवों की छँटनी हो जाती है। कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में सहायक होते हैं तथा ऐसे जीवों को अपनी जाति में प्रोत्साहन मिलता है। और कभी-कभी ये उत्परिवर्तन उस जाति की जीवित रहने की शक्ति को प्रभावित नहीं करते, पर असंबद्ध होने पर भी फैल जाते हैं।


जब परिस्थिति या जलवायु में शीघ्रता से परिवर्तन होता है और कोई सहायक उत्परिवर्तन नहीं होते तो समूची योनि ( प्रजाति) नष्ट हो जाती है। पर जहां बदलती परिस्थिति के साथ अनुकूल उत्परिवर्तन होते हैं और उन्हें क्रमिक पीढियों द्वारा फैलने का समय मिलता है तो कठिन समय को पार कर वह प्रजाति पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने को जलवायु एवं परिस्थिति की चुनौती स्वीकार करने योग्य बनाती है। इसी को योनियों का रूपांतर (modification of species) कहते हैं। यदि एक भाग में परिवर्तन आया तो पूर्वजों से भिन्न एक नई प्रजाति खड़ी होगी। यही योनियों अथवा प्रजातियों का विभेदीकरण ( differentiation of species) है।

इस प्रकार जीवन सदा बदल रहा है। इस जन्म, वर्द्धन, प्रजनन और मृत्यु के चक्कर में फँसकर, प्राकृतिक उथल-पुथल के बीच, विकासपरक परिवर्तन उसकी मूल प्रवृत्ति है। पुरानी प्रजातियॉं लुप्त होती रहेंगी और नई, जो परिस्थितियों की चुनौती का सामना कर सकेंगी, प्रकट होंगी। यही इतिहास की प्रक्रिया है। जैसे यह जीव के लिए सच है वैसे ही मानव सभ्यता के लिए।

मेरे बचपन में एक चुटकुला कहा जाता था। दार्शनिक ने पूछा, ‘मुरगी पहले आई या मुरगी का अंडा।‘ आखिर मुरगी के पहले मुरगी का अंडा रहा होगा, जिससे मुरगी ने जन्म लिया, और अंडे के पहले मुरगी, जिसने वह अंडा दिया। पर यह स्पष्ट है कि यह मुरगी, जो अंडे से निकली, वह मुरगी नहीं है जिसने अंडा दिया था। यह उससे भिन्न सदा विकसित होती रही, अनगिनत सूक्ष्म परिवर्तनों से होकर। इसलिए उपर्युक्त प्रश्न उठता ही नहीं।

सोमवार, जनवरी 08, 2007

भौतिक जगत और मानव-७

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
संक्षेप में
प्रस्तावना
भौतिक जगत और मानव-१
भौतिक जगत और मानव-२
भौतिक जगत और मानव-३
भौतिक जगत और मानव-४
भौतिक जगत और मानव-५
भौतिक जगत और मानव-६

यह विश्वास अनेक सभ्यताओं में रहा है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की। भारतीय दर्शन में ईश्वर की अनेक कल्पनाऍं हैं। ऐसा समझना कि वे सारी कल्पनाऍं सृष्टिकर्ता ईश्वर की हैं, ठीक न होगा। ईश्वर के विश्वास के साथ जिसे अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं, यहॉं पनपता रहा। कणाद ऋषि ने कहा कि यह सारी सृष्टि परमाणु से बनी है।

सांख्य दर्शन को भी एक दृष्टि से अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं। सांख्य की मान्यता है कि पुरूष एवं प्रकृति दो अलग तत्व हैं और दोनों के संयोग से सृष्टि उत्पन्न हुई। पुरूष निष्क्रिय है और प्रकृति चंचल; वह माया है और हाव-भाव बदलती रहती है। पर बिना पुरूष के यह संसार, यह चराचर सृष्टि नहीं हो सकती। उपमा दी गई कि पुरूष सूर्य है तो प्रकृति चंद्रमा, अर्थात उसी के तेज से प्रकाशवान। मेरे एक मित्र इस अंतर को बताने के लिए एक रूपक सुनाते थे। उन्होंने कहा कि उनके बचपन में बिजली न थी और गैस लैंप, जिसके प्रकाश में सभा हो सके, अनिवार्य था। पर गैस लैंप निष्क्रिय था । न वह ताली बजाता था, न वाह-वाह करता था, न कार्यवाही में भाग लेता था, न प्रेरणा दे सकता था और न परामर्श। पर यदि सभा में मार-पीट भी करनी हो तो गैस लैंप की आवश्यकता थी, कहीं अपने समर्थक ही अँधेरे में न पिट जाऍं। यह गैस लैंप या प्रकाश सांख्य दर्शन का ‘पुरूष’ है। वह निष्क्रिय है,कुछ करता नहीं। पर उसके बिना सभा भी तो नहीं हो सकती थी।

इसी प्रकार प्रसिद्ध नौ उपनिषदों में पॉंच उपनिषदों को, जिस अर्थ में बाइबिल ने सृष्टिकर्ता ईश्वर की महिमा कही, उस अर्थ में अनीश्वरवादी कह सकते हैं। जो ग्रंथ ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में मानते हैं उनमें एक प्रसिद्ध वाक्य आता है, ‘एकोअहं बहुस्यामि’। ईश्वर के मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं एक हूँ, अनेक बनूँ, और इसलिए अपनी ही अनेक अनुकृतियॉं बनाई—ऐसा अर्थ उसमें लगाते हैं। पर एक से अनेक बनने का तो जीव का गुण है। यही नहीं, यह तो पदार्थ मात्र की भी स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

भारतीय दर्शन के अनुसार यह सृष्टि किसी की रचना नहीं है, जैसा कि ईसाई या मुसलिम विश्वास है। यदि ईश्वर ने यह ब्रम्हाण्ड रचा तो ईश्वर था ही, अर्थात कुछ सृष्टि थी। इसलिए ईश्वर स्वयं ही भौतिक तत्व अथवा पदार्थ था, ऐसा कहना पड़ेगा। ( उसे किसने बनाया?) इसी से कहा कि यह अखिल ब्रम्हांड केवल उसकी अभिव्यक्ति अथवा प्रकटीकरण (manifestation) है, रचना अथवा निर्मित (creation) नहीं। उसी प्रकार जैसे आभूषण स्वर्ण का आकार विशेष में प्रकटीकरण मात्र है। इसी रूप में भारतीय दर्शन ने सृष्टि को देखा।

धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को यह विचार कि जीवन इस पृथ्वी पर स्वाभाविक और अनिवार्य रासायनिक- भौतिक प्रक्रिया द्वारा बिना किसी चमत्कारी शक्ति के उत्पन्न हुआ, इसलिए प्रतिकूल पड़ता है कि वे जीव का संबंध आत्मा से जोड़ते हैं। उनका विश्वास है कि बिना आत्मा के जीवन संभव नहीं और इसलिए कोई परमात्मा है जिसमें अंततोगत्वा सब आत्माऍं विलीन हो जाती हैं। पर जड़ प्रकृति का स्वाभाविक सौंदर्य, वह स्फटिक (crystal), वह हिमालय की बर्फानी चोटियों पर स्वर्ण-किरीट रखता सूर्य, वह उष:काल की लालिमा या कन्याकुमारी का तीन महासागरों के संधि-स्थल का सूर्यास्त, अथवा झील के तरंगित जल पर खेलती प्रकाश-रश्मियॉं- ये सब कीड़े-मकोडों से या कैंसर की फफूँद से या अमरबेल या किसी क्षुद्र जानवर से निम्न स्तर की हैं क्या? पेड़-पौधे और उनमें उगे कुकुरमुत्ते में आत्मा है क्या ? एक बात जो मुसलमान या ईसाई नहीं मानते। सृष्टि में इस प्रकार के जीवित तथा जड़ वस्तुओं में भेदभाव भला क्यों ?

शायद हम सोचें, सभी जीवधारियों का अंत होता है। ‘केहि जग काल न खाय।‘ वनस्पति और जंतु सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं और उनका शरीर नष्ट हो जाता है। परंतु यदि एक-कोशिक जीव बड़ा होकर अपने ही प्रकार के दो या अधिक जीवों में बँट जाता है तो इस घटना को पहले जीव की मृत्यु कहेंगे क्या ? वैसे तो संतति भी माता-पिता के जीवन का विस्तार ही है, उनका जीवनांश एक नए शरीर में प्रवेश करता है।

जीवन और मृत्यु का रहस्य अपने प्राचीन चिंतन का बहुत बड़ा भाग रहा है। यह चिंतन आत्मा रूपी केंद्र से प्रारंभ होकर संपूर्ण जीव और जड़ सृष्टि तथा उनके नियमों को व्याप्त करता था। इस दर्शन में कालांतरजनित विकृति, क्षेपक, अंधविश्वास और मत-मतांतरों के तोड़-मरोड़ जुड़ गए। पर आज भी उसकी नैसर्गिक हृदयग्राही अपील देश तथा युगों के परे सनातन है। इसलिए यह हिंदु संस्कृति आध्यात्मिक कहलाई।

इसी से संबंधित पुनर्जन्म का विश्वास है। मेरे एक मामाजी का पुत्र तीन-चार वर्ष की अवस्था में युद्ध के आधुनिकतम शास्त्रास्त्रों की, जिन्हें कम आयु में समझना संभव न था, चर्चा करने लगा। उसने बताया कि कैसे लद्दाख के मोरचे पर खंदक में एकाएक प्रबल प्रकाश कौंध गया। उसी समय एक चीनी बम गिरने से वह आहत हो गया और अंत में सैनिक अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई; कि वह डोगरा है और उसके पत्नी और बच्चे हैं। इस तरह की अनेक घटनाऍं सुनने में आती हैं, जहॉं जीवन-मरण के उस पार से अचेतन मन को स्पर्श करता हुआ एक इंद्रियातीत स्मृति का झोंका आ रहा हो परा-मनोविज्ञान ( para psychology) के रहस्यों के इन किनारों की ओर,जिन्हें पहले कपोल कल्पना कहकर टाल देते थे, अब वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हो रहा है। फिर भी जिस ‘आत्मा’ की खोज में ऋषि-मुनियों ने इतनी पीढियॉं लगाई, उसका ज्ञान आज विलक्षण अनुभूमि के अतिरिक्त दिखता नहीं, न वैज्ञानिक जगत इसे समझता है।

इसी ‘आत्मा’ के साथ उलझा है जीवन-मरण का परम सत्य। वास्तव में जीवन और मृत्यु क्या है, यह निश्चित रूप से कहना कठिन है। और उनके बीच की विभाजन रेखा प्रारंभ में कहाँ थी, यह जानना तो और कठिन है। भारत में ‘आत्मा’ साधारणतया उस अनुभूति को मानते थे जो किसी शरीर को अनुप्राणित रखे और परमात्मा मन की उस चरम अनुभूमि को, जो सृष्टि में व्याप्त सामूहिक सत्ता का बोध कराए।

शनिवार, दिसंबर 30, 2006

भौतिक जगत और मानव-६

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
संक्षेप में
प्रस्तावना
भौतिक जगत और मानव-१
भौतिक जगत और मानव-२
भौतिक जगत और मानव-३
भौतिक जगत और मानव-४
भौतिक जगत और मानव-५

कहते हैं कि जीव के अंदर एक चेतना होती है। वह चैतन्य क्या है? यदि अँगुली में सुई चुभी तो अँगुली तुरंत पीछे खिंचती है, बाह्य उद्दीपन के समक्ष झुकती है। मान लो कि एक संतुलित तंत्र है। उसमें एक बाहरी बाधा आई तो एक इच्छा, एक चाह उत्पन्न हुई कि बाधा दूर हो। निराकरण करने के लिए किसी सीमा तक उस संतुलित तंत्र में परिवर्तन (बदल) भी होता है। यदि यही चैतन्य है तो यह मनुष्य एवं जंतुओं में है ही। कुछ कहेंगे, वनस्पतियों, पेड़-पौधों में भी है। पर एक परमाणु की सोचें—उसमें हैं नाभिक के चारों ओर घूमते विद्युत कण। पास के किसी शक्ति-क्षेत्र (fore-field) की छाया के रूप में कोई बाह्य बाधा आने पर यह अणु अपने अंदर कुछ परिवर्तन लाता है और आंशिक रूप में ही क्यों न हो, कभी-कभी उसे निराकृत कर लेता है। बाहरी दबाव को किसी सीमा तक निष्प्रभ करने की इच्छा एवं क्षमता—आखिर यही तो चैतन्य है। यह चैतन्य सर्वव्यापी है। महर्षि अरविंद के शब्दों में,
‘चराचर के जीव ( वनस्पति और जंतु) और जड़, सभी में निहित यही सर्वव्यापी चैतन्य ( cosmic consciousness) है।‘


पर जीवन जड़ता से भिन्न है, आज यह अंतर स्पष्ट दिखता है। सभी जीव उपापचय द्वारा अर्थात बाहर से योग्य आहार लेकर पचाते हुए शरीर का भाग बनाकर, स्ववर्धन करते तथा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। जड़ वस्तुओं में इस प्रकार अंदर से बढ़ने की प्रक्रिया नहीं दिखती। फिर मोटे तौर पर सभी जीव अपनी तरह के अन्य जीव पैदा करते हैं। निरा एक- कोशिक सूक्ष्मदर्शीय जीव भी; जैसे अमीबा (amoeba) बढ़ने के बाद दो या अनेक अपने ही तरह के एक-कोशिक जीवों में बँट जाता है। कभी-कभी अनेक अवस्थाओं से गुजरकर जीव प्रौढ़ता को प्राप्त होते हैं, और तभी प्रजनन से पुन: क्रम चलता है। किसी-न-किसी रूप में प्रजनन जीवन की वृत्ति है, मानो जीव-सृष्टि इसी के लिए हो। पर ये दोनों गुण‍ जीवाणु में भी हैं। यदि यही वृत्तिमूलक परिभाषा (functional definition) जीवन की लें तो जीवाणु उसकी प्राथमिक कड़ी है।

कोशिका में ये वृत्तियॉं क्यों उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर दर्शन, भौतिकी तथा रसायन के उस संधि-स्थल पर है जहां जीव विज्ञान प्रारंभ होता है। यहां सभी विज्ञान धुँधले होकर एक-दूसरे में मिलते हैं, मानों सब एकाकार हों। इसके लिये दो बुनियादी भारतीय अभिधारणाएँ हैं—(1) यह पदार्थ (matter) मात्र का गुण है कि उसकी टिकाऊ इकाई में अपनी पुनरावृत्ति करनेकी प्रवृत्ति है। पुरूष सूक्त ने पुनरावृत्ति को सृष्टि का नियम कहा है। (2) हर जीवित तंत्र में एक अनुकूलनशीलता है; जो बाधाऍं आती हैं उनका आंशिक रूप में निराकरण, अपने को परिस्थिति के अनुकूल बनाकर, वह कर सकता है। इन गुणों का एक दूरगामी परिणाम जीव की विकास-यात्रा है। चैतन्य सर्वव्यापी है और जीव तथा जड़ सबमें विद्यमान है,यह विशुद्ध भारतीय दर्शन साम्यवादियों को अखरता था। उपर्युक्त दोनों भारतय अभिधारणाओं ने, जो जीवाणु का व्यवहार एवं जीव की विकास-यात्रा का कारण बताती हैं, उन्हें झकझोर डाला।

रविवार, दिसंबर 24, 2006

भौतिक जगत और मानव-५

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
संक्षेप में
प्रस्तावना
भौतिक जगत और मानव-१
भौतिक जगत और मानव-२
भौतिक जगत और मानव-३
भौतिक जगत और मानव-४

अब कोशिका का नाभिकीय अम्ल ? इमली के बीज से इमली का ही पेड़ उत्पन्न होगा, पशु का बच्चा वैसा ही पशु बनेगा, यह नाभिकीय अम्ल की माया है। यही नाभिकीय अम्ल जीन (gene) के नाभिक को बनाता है, जिससे शरीर एवं मस्तिष्क की रचना तथा वंशानुक्रम में प्राप्त होनेवाले गुण—सभी पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को प्राप्त होते हैं। जब प्रजनन के क्रम में एक कोशिका दो कोशिका में विभक्त होती है तो दोनो कोशिकायें जनक कोशिका की भाँति होंगी, यह नाभिकीय अम्ल के कारण है। पाँच प्रकार के नाभिकीय अम्ल को लेकर सीढ़ी की तरह अणु संरचना से जितने प्रकार के नाभिकीय अम्ल चाहें, बना सकते हैं। नाभिकीय अम्ल में अंतर्निहित गुण है कि वह उचित परिस्थिति में अपने को विभक्त कर दो समान गुणधर्मी स्वतंत्र अस्तित्व धारणा करता है। दूसरे यह कि किस प्रकार का प्रोटीन बने, यह भी नाभिकीय अम्ल निर्धारित करता है। एक से उसी प्रकार के अनेक जीव बनने के जादू का रहस्य इसी में है।

क्या किसी दूरस्थ ग्रह के देवताओं ने, प्रबुद्ध जीवो ने ये पाँच नाभिकीय अम्ल के मूल यौगिक (compound) इस पृथ्वी पर बो दिए थे ?

एक कोशिका में लगभग नौ अरब (९x१०^९) परमाणु (atom) होते हैं। कैसे संभव हुआ कि इतने परमाणुओं ने एक साथ आकर एक जीवित कोशिका का निर्माण किया। विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोटीन या नाभिकीय अम्ल बनने के पश्चात भी यह प्रश्न शेष रहता है कि इन्होंने किस परिस्थिति में संयुक्त होकर जीवन संभव किया।

भारत में डॉ. कृष्ण बहादुर ने प्रकाश-रासायनिक प्रक्रिया (photo-chemical process) द्वारा जीवाणु बनाए। फॉरमैल्डिहाइड की उत्प्रेरक उपस्थिति में सूर्य की किरणों से प्रोटीन तथा नाभिकीय अम्ल एक कोशिकीय जीवाणु मे संयोजित हुए। ये जीवाणु अपने लिए पोषक आहार अंदर लेकर, उसे पचाकर और कोशिका का भाग बनाकर बढ़ते हैं। जीव विज्ञान (biology) में इस प्रकार स्ववर्धन की क्रिया को हम उपापचय (metabolism) कहते हैं। ये जीवाणु अंदर से बढ़ते हैं, रसायनशाला में घोल के अंदर टँगे हुए सुंदर कांतिमय रवा (crystal) की भॉंति बाहर से नहीं। जीवाणु बढ़कर एक से दो भी हो जाते हैं,अर्थात प्रजनन (reproduction) भी होता है। और ऐसे जीवाणु केवल कार्बन के ही नहीं, ताँबा, सिलिकन (silicon) आदि से भी निर्मित किए, जिनमें जीवन के उपर्युक्त गुण थे।