रविवार, मार्च 29, 2009

प्राचीन ग्रंथों में गणराज्य का महत्व और भारत में गणराज्य की पुन:स्थापना

महाभारत के शांतिपर्व (अध्याय १०७) में गणराज्यों की विशिष्टता और लक्षणों का वर्णन है। जो किसी के अधीन न थे, न उन्हें कोई पराजित कर सका। भीष्म ने उनके गुण-दोषों की चर्चा की है। युधिष्ठिर ने पूछा, 
'गण (राज्य) कैसे फलते-फूलते हैं? आपसी फूट एवं विच्छेद से कैसे बचते हैं? मुझे लगता है, कैसे इतनी बड़ी संख्या के कारण राज्य के संकल्प गोपनीय रख पाते होंगे?'

भीष्म ने तब गणों की समृद्घि और वैभव का रहस्य समझाया। उन्होंने कहा, 

'लोभ और ईर्ष्या ही गणों के अंदर, जैसे कुल में, दुश्मनी उत्पन्न  करते हैं। यह विनाश की जड़ है। भेद एवं द्वेष गण के पतन का कारण बनते हैं। जो अच्छे गण हैं वहाँ ज्ञानवृद्घ परस्पर सुख का संचार करते हैं। उन्होंने शास्त्रों के अनुसार धर्मनिष्ठायुक्त कानून की व्यवस्था की है। वे गण उन्नति करते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने पुत्रों और भाइयों (नागरिकों) को अनुशासन सिखाया है, उन्हें प्रशिक्षित किया है। वे कहते हैं, क्योंकि उनके यहाँ सदा सम्मेलन होते रहते हैं। उनमें जो धनवान, वीर, ज्ञानी हैं और शस्त्र-शास्त्र में प्रवीण हैं, वे अपने असहाय बंधुओं की सदा सहायता करते हैं। भय, क्रोध, विभेद, परस्पर विश्वास का अभाव, अत्याचार और आपस की हिंसा होने पर ही वे शत्रु के चंगुल में फँसते हैं। इनके लिए आंतरिक संकट ही सबसे बड़ा है। उसके सामने बाह्य संकट नगण्य है। गण में सर्वव्यापी समता (सदृशता) होती है, जन्म से तथा कुल से। इस कारण गण किसी प्रकार तोड़े नहीं जा सकते, न शौर्य से या चालाकी से, न रूप के जाल से। शत्रु केवल भेद उत्पन्न कर फूट डालने से जीत सकते हैं। इसलिए उनकी सुरक्षा राज्य संघों में है।'
शायद हम आज भूल गये हैं कि, 'समाज में गण की शक्ति आंतरिक समता में है।'
 

हिंदु समाज ने अपने जीवन के सर्वोदय में 'सभी सुखी हो' के सिद्घांत का गणतंत्रीय संविधान में साक्षात्कार किया था। जब कभी एक व्यक्ति के ध्वज-दंड के चारों ओर देश की आत्मा को बाँधने का प्रबंध हुआ, अंत में असफलता ही मिली। भारत की जीवन-प्रवृत्ति, उसकी प्रकृति तो विकेंद्रीकरण में थी, जिसका विकास गणराज्य के संघ में हुआ। यह गणतंत्र पद्घति संसार को भारत की देन है। अथर्ववेद का आदेश है-
'हे राजन् ! तुझको राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुनें तथा स्वीकारें।' (तृतीय कांड, सूक्त ४, श्लोक २) 
ऎसे चुने हुए व्यक्ति को वेदों ने 'राजा' कहा। इसके विस्मरण से समाज में, देश में विकृतियाँ उत्पन्न हुयी।

प्राचीन गणराज्यों का वर्णन भावपूर्ण भाषा में डा. काशी प्रसाद जायसवाल ने अपनी पुस्तक 'हिंदु राज्यतंत्र' ( Hindu Polity) में किया है। हिंदु राज्यतंत्र के पुनर्जीवन की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा, 

'पर जब हिंदु का पुनर्जागरण हुआ, शिवाजी व सिखों के समय, तो एक राज्यतंत्र के रूप में सिख विफल हुए। वे अतीत से अपना संबंध न जोड़ सके। उनके चारों ओर जो तंत्र था, उसी का अनुसरण उन्होंने किया और एक व्यक्ति का राज्य स्थापित किया। गुरू गोविंद ने उपाय करने की सोची, पर उनका प्रयत्न लाया अराजकता। वह पादशाही थी मुगल शासन की, सफलता में और विफलता में, उदय में और अस्त में। परंतु महाराष्ट्र की गतिविधियों का इतिहास दूसरा हुआ। उन्होंने अतीत की ओर देखा व संविधान बनाया। तंत्र खड़ा किया, उस पर जो उन्हें उपलब्ध था, पर जिसने उनका नाता अतीत से जोड़ा। उन्होंने महाभारत व शुक्रनीति से प्रेरणा ली। पाया कि एक राजा को जन-हृदय का राज्य चाहिए, शासन नहीं (a king should reign but not rule), कि सरकार अष्ट प्रधान ( आठ मंत्रियों) के हाथों सौंपी जानी चाहिए। उन्होंने राजनीतिक साहित्य से तकनीकी शब्द खोजे। उनका राजकोष निर्मित किया। परंतु उन्होंने जिस तंत्र का उपभोग किया वह हिंदु राजतंत्र का अर्द्घांग था। उनके पास परिषद् थी, पर 'पौर', 'जानपद' न थे। पर यह श्रेय तो उनका था ही कि आधुनिक काल में वे उनमें अग्रणी थे जिन्होंने जाना कि एक व्यक्ति के राज्य की उनके पूर्वजों की प्रज्ञा व अनुभव स्वीकृति नहीं देते कि वह शास्त्रों की प्रतिभा के समक्ष विदेशी है। उनकी कमिया। अपने देश के संवैधानिक इतिहास के बारे में अंधकार व अज्ञान की परिसीमाए। थीं। वह अंधकार, जिसे हम इन शताब्दियों बाद भी दूर नहीं कर सके।'

अपनी पुस्तक के उपसंहार में उन्होंने लिखा, 

'किसी भी राजतंत्र की कसौटी उसके जीवंत होने व विकसित हो सकने में है।--हिंदु ने जैसी संवैधानिक उन्नति की, उसे प्राचीन काल का कोई राज्यतंत्र न छू सका, न उससे आगे निकल सका और यह हिंदु का सौभाग्य है कि वह अब भी जीवाश्म नहीं बना। वह अब भी जीवंत है, उस संकल्प को ले जिसे एक इतिहास ने दृढ़ निष्ठा कहकर संबोधित किया, जो झुक सकती है पर टूटती नहीं। उसके राज्यतंत्र का स्वर्णयुग अतीत में नहीं,  वह भविष्य में है। हिंदु का आधुनिक इतिहास सत्रहवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब वैष्णव संप्रदाय ने मानव की समता का प्रचार किया और जब ब्राम्हण ने उसका स्वागत किया, उसे प्रेरित किया। जब हिंदु के भगवान की पूजा-अर्चना एक मुसलमान द्वारा रचित भजनों से हुई। जब समर्थ गुरू रामदास ने गर्जना की कि मानवमात्र स्वतंत्र है और जोर-जबरदस्ती से उसे पराधीन नहीं किया जा सकता ( 'नरदेह हा स्वाधीन, सहसा न ह्वे पराधीन') और जब ब्राम्हण ने शूद्र का नेतृत्व एक राज्य की नींव डालने के प्रयत्न में स्वीकार किया।'

कैसे हैं ये शब्द और वे गणराज्य के अपूर्व समता के प्रयोग, जिन्होंने प्राचीन विचारधारा को महिमा से मंडित किया था ! शायद सामी सभ्यता के संघातों के फलस्वरूप एक व्यक्त के राज्य के विचार ने अनेक कुभावनाओं को जन्म दिया। हम मानव संस्कृति के अनुरूप गण की भव्य विचारधारा का प्रकाश जगाएँ, उसकी कमजोरियों को सामाजिक जीवन से निकालें। यही विक्रम पूर्व सदा से चले आए गणराज्यों का संदेश है।

संवत् २००६ में भारत में गणराज्य की पुन:स्थापना हुयी है। प्रत्येक व्यक्ति को नेता चुनने का अधिकार मिला। उसको समिति या सभा में बोलने का, मन की बात कहने का अधिकार मिला। पर उस संस्कृति को वे भूल गए जिसमें ये अधिकार पल्लवित और पुष्पित हुए। आज तो एक घोर विदेशी विचारधारा भारत के प्राचीन कालखंड में स्वर्णाक्षरों से लिखे गए इतिहास से इनकार करने तथा उसे झुठलाने में लगी है। कहते हैं, अब पहले-पहल भारत में संविधान बना है। पर प्राचीनतम ग्रंथों में वर्णित अनेक प्रकार के गणतंत्रीय संविधान हम भूल गए और भूलते हैं शिवाजी के कालखंड में उनका पुनर्जीवन।


०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु
०३ - मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
०४ - समता और इसका सही अर्थ
०५ - सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है
०६ - अन्य देशों में मानवाधिकार और स्वत्व
०७ - भारतीय विधि ने दास प्रथा कभी नहीं मानी
०८ - विधि का विकास स्थिति (या पद) से संविदा की ओर हुआ है
०९ - गणतंत्र की प्रथा प्राचीन भारत से शुरू हुई
१० -  प्राचीन भारत में, संविधान, समिति, और सभा
११ -  प्राचीन भारत में समिति, सभा और गणतंत्र में सम्बन्ध
१२ - बुद्ध और  भिक्खु संघ
१३ - प्राचीन ग्रंथों में गणराज्य का  महत्व और भारत में गणराज्य की पुन:स्थापना

1 टिप्पणी:

  1. अच्छी जानकारी, इतने सुन्दर और सटीक लेखन के लिये। बहुत-बहुत बधाई

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