कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१ संक्षेप में
२ प्रस्तावना
३ भौतिक जगत और मानव-१
४ भौतिक जगत और मानव-२
५ भौतिक जगत और मानव-३
६ भौतिक जगत और मानव-४
७ भौतिक जगत और मानव-५
८ भौतिक जगत और मानव-६
९ भौतिक जगत और मानव-७
१० भौतिक जगत और मानव-८
११ भौतिक जगत और मानव-९
१२ भौतिक जगत और मानव-१०
१३ भौतिक जगत और मानव-११
कभी इस पृथ्वी पर कापियों से भिन्न मानव सदृश प्राणी था, यह हम इस कल्प के पत्थर के हथियारों से जानते हैं । ये चकमक के टुकड़े ऐसे अनगढ़ थे कि वर्षो यही विवाद चलता रहा कि ये प्राकृतिक हैं या कृत्रिम । पर आज पुरातत्वज्ञ (archaeologists) यह मानते हैं कि वे किसी प्राणी के द्वारा निर्मित हैं। नूतनजीवी कल्प के अतिनूतन युग में इनके प्रथम दर्शन होते हैं। इसके बाद ये हिमानी युग के प्रथम अंतरिम कालखंड (first inter-glacial period) में बराबर मिलते रहते हैं।
धीरे – धीरे यूरोप में पचास हजार वर्ष से कुछ पुरानी मानवसम खोपडियॉ और हड्डियाँ बड़े प्राणी की प्राप्त होती हैं। तब चौथा हिमाच्छादन पराकाष्ठा पर पहुंच रहा था और तत्कालिक मानव ने कंदराओं में शरण ली। इन्हें ‘नियंडरथल मानव’(Neanderthal man)कहते हैं। यह मानव की भिन्न जाति थी । इनके कुछ चिन्ह मिल सके; क्योंकि हिमयुग के शीत से बचने के लिए इन्होंने कंदराओं की शरण गही। उसके मुख के पास अग्नि प्रज्वलित की – शीत तथा जानवरों से त्राण पाने के लिए।
अग्नि, संसार का अद्वितीय आविष्कार, इसको सुलगाकर सदा प्रज्वलित रखना आदि मानव की चिंता का विषय था । यवन मिथक (Greek mythology)में वर्णित प्रोमीथियस (Prometheus)की एक कहानी है। वह स्वर्ग से अग्नि चुराकर पृथ्वी पर लाया। इसके लिए उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया। अंग्रेजी साहित्य में भी मानव जाति के इस महान उपकारी के काव्य लिखे गए हैं। पर ‘प्रोमीथियस’ तो ‘प्रमंथन’ का अपभ्रंश मात्र है। प्रमंथन से ,रगड़ से, यह अग्नि जो अदृश्य थी, प्रकट हुई। अंगिरा ऋषि ने दो सूखी लकड़ी के टुकड़ों के प्रमंथन से, या चकमक टुकड़ों की रगड़ द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की विधि बताई है।
नियंडरथल मानव के बारे में अनेक कल्पनाऍ पुरातत्वज्ञों ने की हैं। रूड्यार्ड किपलिंग (Rudyard Kipling) की बाल कहानी ‘द जंगल बुक’(The Jungle Book) आदि भेड़ियों की कहानियों पर आधारित है। पर नियंडरथल मानव उस समय की प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति थी। बहुत बड़ा मस्तिष्क एवं तीक्ष्ण इंद्रियाँ उन्हें मिली थीं, साथ ही विकासजनित सामाजिकता के भाव। पुरातत्वज्ञों ने कल्पना में ये सब ओझल कर दिए।
चतुर्थ हिमाच्छादन में बहुत सारा पानी हिम आवरणों में समाविष्ट हो गया और कुछ भूमि, जो पहले सागर तल थी, निकल आई। हो सकता है कि अफ्रीका का उत्तरी भाग यूरोप से मिला हो । भूमध्य सागर (Mediterranian Sea) के स्थान पर संभवतया बीच में एक या दो झीलें सागर तल से नीची भूमि पर थीं । उधर यूरोप और एशिया के बीच अपने अंदर काला सागर (Black Sea), कश्यप सागर (Caspian Sea) और अरल सागर (Aral Sea) को समाए सुदूर उत्तर तक एक मध्यवर्ती सागर लहराता था; जिसके कारण यूरोप (प्राचीन नाम योरोपा, संस्कृत ‘सुरूपा’ ) एक महाद्वीप कहलाया । उत्तरी ध्रुव प्रदेश से बढ़ते हिम – पुंज ने आल्पस पर्वत के पास तक मघ्य यूरोप ढ़क लिया और उक्त योरेशिया के मध्यवर्ती सागर को छूने लगा।
चतुर्थ हिमाच्छादन के बाद लगभग चालीस सहस्र वर्ष पूर्व ,जब पुन: शीतोष्ण जलवायु मध्य यूरोप में लौटी तब एक भिन्न मानव प्रजाति दक्षिण एवं पूर्व से यूरोप में आने लगी। धीरे- धीरे प्रत्येक शताब्दी में बर्फ उत्तर की ओर हटती गई। यूरोप की जलवायु सुधरी और घास के मैदान एवं वृक्ष भी उत्तर की ओर बढ़े । नवीन मानव प्रजाति उनके पीछे-पीछे नए स्थानों पर पहुंची। यह नई प्रस्तरयुगीन प्रजाति विशुद्ध मानव (Homo Sapiens) की थी, जो हम सब हैं।
कालांतर में नियंडरथल मानव भी नष्ट हो गए। संभ्वतया प्राकृतिक विकास क्रम में, या चतुर्थ हिमाच्छादन का भयंकर शीत न सह सकने के कारण । मानव की जो जाति नियंडरथल मानव के बाद आई, वह खुले में रहती थी, पर उसने नियंडरथल मानव की कंदराओं और स्थानों पर भी आधिपत्य जमाया। कुछ पुरातत्वज्ञ ऐसा विश्वास करते हैं कि शायद नियंडरथल मानव का नवीन मानव से भिन्न प्रजाति होने के कारण (जैसे कुत्ते और बिल्ली भिन्न हैं), उनका संकरण नहीं हुआ। पर नियंडरथल मानव चतुर्थ हिमाच्छादन में ही समाप्त हो गए।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१ संक्षेप में
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३ भौतिक जगत और मानव-१
४ भौतिक जगत और मानव-२
५ भौतिक जगत और मानव-३
६ भौतिक जगत और मानव-४
७ भौतिक जगत और मानव-५
८ भौतिक जगत और मानव-६
९ भौतिक जगत और मानव-७
१० भौतिक जगत और मानव-८
११ भौतिक जगत और मानव-९
१२ भौतिक जगत और मानव-१०
जीवन, जो सागर में कीट या काई की एक क्षीण लहरी-सा प्रारंभ हुआ, उसकी परिणति लाखों योनियों (प्रजातियों: species) से होकर प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ जीव मानव में हुई। पर डारविन (Darwin) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘प्रजातियों की उत्पत्ति’(Origin of Species) और ‘मानव का अवतरण’ (Descent of Man) में विकासवाद, और यह सिद्धान्त कि मानव जैविक विकास-क्रम की नवीनतम कड़ी है, प्रतिपादित किया तो उसके विरूद्ध एक बवंडर उठ खड़ा हुआ। कुछ स्थनों पर इसके पढ़ाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाइबिल पूर्व विधान (Old Testament) के उतपत्ति अध्याय (Genesis),जिसको ईसाई और मुसलमान दोनों ही मानते हैं, के विचारों से यह मेल नहीं खाता था। वहाँ वर्णित अदन वाटिका (Garden of Eden) की कहानी विदित है। ‘ईश्वर ने पहले आदम (Adem) का अपनी अनुकृति में निर्माण किया और फिर उसकी पसली से हव्वा (Eve) को। उसी वाटिका में सर्प के लुभाने से ज्ञानवृक्ष का वर्जित सेब खाने के कारण ईश्वर के शाप से पीड़ित हो मानव संतति प्रारम्भ हूई। जैसे यह मानव जाति विकास का वरदान न होकर शाप का परिणाम हो, जिसे नारी आज तक ढ़ो रही है। पश्चिमी जगत ने इन कथानकों का शाब्दिक अर्थ लेना छोड़ दिया, फिर भी कुछ लोगों ने मजाक उड़ाया- ‘डारविनपंथी समझें कि वे बंदर की संतान हैं। हम नहीं है’। यद्यपि डारविन ने ऐसा कुछ नहीं कहा था।
रामायण में कपियों का उल्लेख आता है । पर त्रेता युग के जिन ‘वानर’ एवं ‘ऋक्ष’ (रीछ) जातियों का वर्णन है, वे हमारी तरह मनुष्य थे। ऑस्ट्रेलिया के आदि निवासियों में अभी तक ऐसी जातियॉ हैं जो किसी प्राणी को पवित्र मानतीं, उसकी पूजा करतीं और उसी के नाम से जानी जाती हैं। इसी प्रकार वानर और ऋक्ष जातियों के गण – चिन्ह थे।
‘पर मानव का वंश – क्रम आदि जीवन से प्रारंभ होता है’ , यह तथ्य केवल रीढ़धारी जंतुओं (vertebrates या chordate) के अस्थि – पंजर एवं प्रजातियों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित नहीं है। उसके इस वंश – क्रम का सबसे बड़ा प्रमाण तो मानव – गर्भ की जन्म के पहले की विभिन्न अवस्थाऍ हैं। मानव – गर्भ प्रारंभ होता है जैसे वह मछली हो – वैसे गलफड़े और अंग – प्रत्यंग। वह उन सभी अवस्थाओं से गुजरता है जो हमको क्रमश: उभयचर,सरीसृप और स्तनपायी जीवों की याद दिलाते हैं । यहाँ तक कि कुछ समय के लिए उसके पूँछ भी होती है। जीवन के संपूर्ण विकास –क्रम को पार कर वह मानव – शिशु बनता है। यह आयुर्वेद को ज्ञात था।
पुराणों में कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों से होकर मानव जीवन प्राप्त होता है। आज भी वैज्ञानिक अस्सी लाख प्रकार के जंतुओं का अनुमान करते हैं। पहले कुछ प्रेत योनियों की कल्पना थी, अभी तक हम नहीं जानते कि वे क्या हैं। पतंजलि ने ‘योगदर्शन’ के एक सूत्र में कहा है कि प्रकृति धीरे – धीरे अपनी कमियों को पूरा करते चलती है, जिसके कारण एक प्रकार का जीव दूसरे में बदल जाता है । यह चौरासी लाख योनियों से होकर मानव शरीर प्राप्त करने की संकल्पना सभी जंतुओं को एक सूत्र में गूंथती है। उसके भी आगे, मानव के निम्नस्थ जंतु से विकास का संकेत करती है।
शायद हमें ‘रामचरितमानस’ की उक्ति याद आए – ‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।।‘ पर यह पदार्थ (द्रव्य) (matter) की भिन्न अवस्थाओं (state)या लक्षणों का वर्णन है। ‘क्षिति’ से अभिप्राय ठोस पदार्थ (solid) है, ‘जल’ से द्रव (liquid), ‘समीर’ से गैस, ‘पावक’ से ऊर्जा (energy) और ‘गगन’(space) से शून्यता । शरीर इन सभी से बना है। ये रासायनिक मूल तत्व (chemical elements) नहीं हैं।
जिस समय डारविन की पुस्तकें प्रकाशित हुई, लोग कपि और मानव के संसंध कडियों में जीवाश्म के विषय में पूछते थे। इस ‘अप्राप्त’ कड़ी (missing link) की बात को लेकर हँसी उड़ाई जाती थी। पर मानव जाति का संबंध सागर से बहुत पहले छूट चुका था। उसके मानव के निकटतम पूर्वज कभी बड़ी संख्या में न थे। वे अधिक होशियार भी थे। अत: आश्चर्य नहीं कि नूतनजीवी कल्प में अवमानव के अस्थि – चिन्ह दुर्लभ या अप्राप्य हैं । वैसे अभी शैल पुस्तिका का शोध प्रारंभिक है। भारत (या एशिया-अफ्रीका), जहाँ अवमानव के बारे में प्रकाश डालनेवाले सबसे मूल्यवान सूत्र दबे होंगे, लगभग अनखोजें हैं।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
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३ भौतिक जगत और मानव-१
४ भौतिक जगत और मानव-२
५ भौतिक जगत और मानव-३
६ भौतिक जगत और मानव-४
७ भौतिक जगत और मानव-५
८ भौतिक जगत और मानव-६
९ भौतिक जगत और मानव-७
१० भौतिक जगत और मानव-८
११ भौतिक जगत और मानव-९
स्तनपायी और पक्षी, जो उस महानाश से बच सके, उन सरीसृपों से, जो उसकी बलि चढ़े, कुछ बातों में भिन्न थे। प्रथम, ये तापमान के हेर-फेर सहने में अधिक समर्थ थे। स्तनपायी के शरीर पर रोएँ थे और पक्षी के पर। स्तनपायी को रोएँदार सरीसृप कह सकते हैं। इन बालों ने उसकी रक्षा की। दूसरे स्तनपायी गर्भ को शरीर के अंदर धारण कर और पक्षी अपने अंडे को सेकर उनका ठंडक से त्राण करते हैं और जन्म के बाद अपने बच्चों की, कुछ काल तक ही क्यों न हो, देखभाल करते हैं।
इस अंतिम विशेषता ने स्तनपायी और पक्षियों को एक पारिवारिक प्राणी बना दिया। माँ अपने बच्चे की चिंता करती है, इसलिए अपने कुछ अनुभव एवं शिक्षा अपनी संतति को दे जाती है। किशोरावस्था के पहले माता-पिता पर संतान की निर्भरता और उनका अनुकरण, इससे नई पीढ़ी को सीख देने का राजमार्ग खुला। इसके द्वारा इन प्रजातियों में पीढ़ी – दर – पीढ़ी व्यवहार एवं मनोवृत्ति का सातत्य स्थापित हो सका। एक छिपकली की जिन्दगी उसके स्वयं के अनुभवों की एक बंद दुनिया है। पर एक कुत्ते या बिल्ली को अपने व्यक्तित्व के विकास में वंशानुगत माता के द्वारा देखरेख, उदाहरण एवं दिशा सभी प्राप्त हुई हैं। माँ की ममता ने जीव की मूल अंत:प्रवृत्ति (instinct)में, जो पहले कुछ सीमा तक अपरिवर्तनीय थी, सामाजिक संसर्ग की एक कड़ी जोड़ दी वह शिक्षा तथा ज्ञान देने में सक्षम थी। इसके कारण तीव्र गति से मस्तिष्क का विकास संभव हुआ । आज सभी स्तनपायी जीवों के मस्तिष्क नूतनजीवी कल्प के प्रारंभ के अपने पूर्वजों से लगभग आठ-दस गुना बढ़ गए हैं।
यह नूतनजीवी कल्प का उष:काल था। उसके बाद धरती की कायापलट करनेवाला मध्य नूतन युग (miocene)आया, जो भूकंप काल था और जिसमें बड़ी पर्वत-श्रेणियों का निर्माण हुआ। हिमालय, आल्पस और एंडीज तभी बने। उस समय तापमान गिर रहा था। इसके बाद अतिनूतन युग (pliocene) में आज की तरह का जलवायु और पर्याप्त नवीन जीवन था। पीछे आया अत्यंत नूतन अथवा सद्य: नूतन युग (Pleistocene),जिसे हिमानी युग (glacial age) भी कहते हैं। इस युग में अनेक बार हिमनद ध्रुवों से विषुवत् रेखा की ओर बढ़े और आधी पृथ्वी बर्फ से ढक ली। ऐसे समय में सागरों का कुछ जल पृथ्वी के हिम के ढक्कनों ने समाविष्ट कर लिया और समुद्र से भूमि उघड़ आई। आज वह पुन: सागर तल है। ये हिमाच्छादन जीवन के लिए महान् संकट थे। अब पृथ्वी पुन: उतार – चढ़ाव के बीच धीरे-धीरे ग्रीष्मता की ओर सरक रही है, ऐसा वैज्ञानिक विश्वास है।
नूतनजीवी कल्प के हिमानी युग के घटते-बढ़ते हिम आवरण से मुक्त प्रदेश में अवमानव (sub-man) की झलक दिखाई पड़ती है। यह नूतनजीवी कल्प लाया हिमानी और तज्जनित भयानक विपत्तियाँ और मानव।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
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७ भौतिक जगत और मानव-५
८ भौतिक जगत और मानव-६
९ भौतिक जगत और मानव-७
१० भौतिक जगत और मानव-८
जीवन के विकास के पद-चिन्ह प्रकृति ने पृथ्वी की पपड़ी के शैलखंडों पर छोड़े हैं। पर यह उस पुस्तक की तरह है जो अनजान भाषा में लिखी गई है, जिसके पन्ने फट गए हैं। कुछ उलट-पुलट कर गायब भी हो गए हैं। कुछ गल गए या जल गए हैं। अथवा क्रूर समय के हाथों ने जिनके भग्नावशेषों को इधर-उधर सभी दिशाओं में विसर्जित कर दिया है।
पर शैल चिन्ह छोड़ सकने के लिए भी जीव को लंबी विकास यात्रा करनी पड़ी। केन नदी के उदगम स्थान के पास एक सहायक नदी में पारभासी (translucent)पत्थर मिलते हैं, जिनमें तरह- तरह के पेड़ पौधे या अन्य चित्र हैं । ये काई के अवशेष लिये पारभासी स्फटिक हैं। अरबों वर्षो के महायुग में एक प्रकार का अध:जीवन ही इस पृथ्वी पर रहा। जब जीव में सीप-घोघें सरीखा कवच या हड्डी या ढांचा प्रारंभ हुआ, तभी से पुराजीवी चट्टानों(palaeozoic rocks) में जीवन की विविधता के संकेत मिलने लगे। पहले घोंघे, सीपी, और कीड़े (केकड़े, भीमकाय समुद्री बिच्छू और जलीय रंगनेवाले जीव) और समुद्री सेंवार आदि, ऊपरी परतों में मछलियॉ। इसके बाद आते हैं उभयचर (amphibian) जो जल, थल दोनों में रह सकते हैं और कार्बोनी युग (carboniferous age) के बड़े-बड़े पर्णांग (fern) के जंगल। इन जंगलों की लुगदी आज कोयले के रूप में पृथ्वी की परतों में विद्ययमान है।
जल के बिना जीवन असंभव है। निर्जल (dehydration)होने पर वनस्पति और जंतु मर जाते हैं। कहा गया है कि जल ही अमृत है। आदि जीव जल के बाहर फिंक जाने पर ‘बिना जल के मीन’सरीखे मर जाते थे। इसलिए उन अत्परिवर्तनों को, जिनके द्वारा सूखे में जीव अपने अंदर की नमी कुछ देर बनाए रख सके, प्रोत्साहन मिला। आदि-जैविक महाकल्प (proterozoic age) की विस्तीर्णता में प्रकृति के वे प्रयोग हुए जिनसे जीवन निरंतर जल में रहने की बाध्यता से मुक्त हो चला ।
अगला मध्यजीवी महाकल्प (mesozoic age) जीवन की प्रचुरता और विस्तार के नए चरण से प्रारंभ होता है। अब आए जल रेख के ऊपर नीची भूमि पर, सदाहरित वनस्पति और इनके साथ तरह-तरह के सरीसृप; इनकी दुनिया विवधिता से भरपूर थी । डायनासोर (dinosaur : दानवासुर) शरीर में तिमिंगल मछली (whale) के बराबर थे। अर्थर कैनन डायल का एक उपन्यास ‘वह खोई दुनिया’ (The Lost World) प्रसिद्ध है । यह एक अगम्य पठार की, जहॉ मध्यजीवी कल्प के भयानक जानवर थे, उनके बीच कुछ लोगों के जोखिम की कहानी है।
इस भरे-पूरे भीमकाय जंतुओं के कल्प का अंत बड़ा विचित्र है। एक दिन ये जंतु अपने आप मिट गए। जैसा पुराजीवी कल्प के अंत में एक लंबे समय का अंतरात आता है वैसा ही मध्यजीवी कल्प के अंत में हुआ। पर किसी अनजाने भाग्य ने इन भयानक, भीममाय सरीसृपों का सत्यानाश कर डाला। मनव के अवतरण के पहले सबसे विलक्षण घटना यही है। ये सरीसृप स्थिर ग्रीष्म जलवायु में रहने के आदी थे। यह तभी होगा जब पृथ्वी की घुरी उसकी कक्षा पर प्राय: लंबवत् (perpendicular) होगी। एकाएक कठोर शीतयुग आया। इस सर्दी को या तापमान के तात्कालिक बदल को सहन करने का सामर्थ्य उस कल्प के जीवन में न था और सरीसृप एवं वनस्पति संभ्वतया जलवायु की चंचलता के शिकार बने। संभवतया किसी अत्यंत प्रचंड खगोलीय शक्ति से या आकाशीय पिंडाघात से पृथ्वी की धुरी,जो उसकी कक्षा पर प्राय: लंबवत् थी, एक ओर झुक गई। तब ग्रीष्म-शीत ऋतुऍ प्रारंभ हुई । आज भी हम नहीं जानते कि अनिश्चित काल में पृथ्वी को आच्छादित करते ‘हिमयुग’ (ice age) क्यों आए।
भरतीय भूविज्ञान के अनुसार चतुर्युगी के बाद कृतयुग के बराबर संध्या है,प्रलय के कारण सुनसान तथा उजाड़ (देखें – खण्ड २)। इसके बाद विमोचन में पुन: सृष्टि खुलती है। जिस समय जीवन की गाथा मध्यजीवी महाकल्प के अंत में विध्वंस और सूने अंतराल के बाद पुन: अपनी विपुलता में खिली, तब नूतनजीवी कल्प (cainozoic age) आ चुका है। विलुप्त भीमकाय सरीसृपों का स्थान उनसे विकसित स्तनपायी जीवों तथा पक्षियों ने ले लिया हे। उनके साथ आधुनिक वृक्ष दिखाई देने लगे हैं । इनमें फूल लगने लगे हैं और इसके साथ आया है तितलियों का थिरकना तथा मधुमक्खियों का गुंजन । मध्यजीवी कल्प के अंत में आई घास ने अब मैदानों और नग्न पर्वतों को छा दिया और वह चट्टानों के नीचे से झांकने लगी।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
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७ भौतिक जगत और मानव-५
८ भौतिक जगत और मानव-६
९ भौतिक जगत और मानव-७
जीव के स्ववर्धन, प्रवजन और मृत्यु रूपी चक्र (cycle)के आश्चर्यजनक परिणाम हुए। इस चक्र के कारण जीव के विकास का चमत्कार संभव हुआ। जो पैदा होता है, वह ( कभी-कभी अन्य अवस्थाओं से गुजरकर) अपने जनक की तरह बनता है। पर वह ठीक जनक का प्रतिरूप नहीं होता, कुछ-न-कुछ अंतर रहता ही है, क्योंकि वह एक पृथक व्यक्तित्व है। आज का जीव- संसार अपने पूर्वजों की तरह है, जो काल-गर्त में चले गए, पर उनसे भिन्न है, क्योंकि यह अपनी प्रजाति की नई पीढ़ी है। यह सभी जीवधारियों के लिए, कीट- पतंगों से लेकर मानव तक, काई से लेकर आधुनिक वृक्षों तक; सत्य है कि जीव की एक पीढ़ी मरण को प्राप्त होती है तो पुन: उस जाति की नई पीढ़ी खड़ी हो जाती है।
सोचें कि नवजन्य पीढ़ी का क्या होगा? यह सच है कि कई दुर्घटना के शिकार बनेंगे या भाग्य उनसे आँखमिचौली खेलेगा, पर साधारणतया जो जीवन यात्रा के लिए अधिक उपयुक्त है, वे टिके रहेगें, प्रौढ़ बनेंगे और नई पीढ़ी को जन्म देंगे; जबकि कमजोर और अनुपयुक्त छँट जाऍंगे। इस प्रकार हर पीढ़ी में उपयुक्त का चयन और अनुपयुक्त की छँटनी सी होती रहती है। इसे हम ‘प्राकृतिक वरण’( natural selection) या ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’(survival of the fittest) कहते हैं। इसके द्वारा विभिन्न योनियाँ (species) अपने को प्रत्येक पीढ़ी में काल एवं परिस्थिति के अनुकूल बनाती चलती हैं।
परिस्थितियाँ एक-सी नहीं रहतीं और जलवायु में कभी-कभी आकस्मिक परिवर्तन भी होते हैं। नई पीढ़ी की अनुकूलनशीलता की एक सीमा है। नई पीढ़ी में इक्की-दुक्की संरचना की विलक्षणताऍं, जो पीढ़ी के अंदर की व्यक्तिगत विभिन्नताओं से परे हों, प्रकट होती हैं,जिन्हें जीव विज्ञान में ‘उत्परिवर्तन’ (mutation) कहते हैं। कभी-कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में बाधा बनकर खड़े होते हैं या बेतुका, अनर्गल उत्परिवर्तन हुआ तो प्राकृतिक वरण द्वारा ऐसे जीवों की छँटनी हो जाती है। कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में सहायक होते हैं तथा ऐसे जीवों को अपनी जाति में प्रोत्साहन मिलता है। और कभी-कभी ये उत्परिवर्तन उस जाति की जीवित रहने की शक्ति को प्रभावित नहीं करते, पर असंबद्ध होने पर भी फैल जाते हैं।
जब परिस्थिति या जलवायु में शीघ्रता से परिवर्तन होता है और कोई सहायक उत्परिवर्तन नहीं होते तो समूची योनि ( प्रजाति) नष्ट हो जाती है। पर जहां बदलती परिस्थिति के साथ अनुकूल उत्परिवर्तन होते हैं और उन्हें क्रमिक पीढियों द्वारा फैलने का समय मिलता है तो कठिन समय को पार कर वह प्रजाति पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने को जलवायु एवं परिस्थिति की चुनौती स्वीकार करने योग्य बनाती है। इसी को योनियों का रूपांतर (modification of species) कहते हैं। यदि एक भाग में परिवर्तन आया तो पूर्वजों से भिन्न एक नई प्रजाति खड़ी होगी। यही योनियों अथवा प्रजातियों का विभेदीकरण ( differentiation of species) है।
इस प्रकार जीवन सदा बदल रहा है। इस जन्म, वर्द्धन, प्रजनन और मृत्यु के चक्कर में फँसकर, प्राकृतिक उथल-पुथल के बीच, विकासपरक परिवर्तन उसकी मूल प्रवृत्ति है। पुरानी प्रजातियॉं लुप्त होती रहेंगी और नई, जो परिस्थितियों की चुनौती का सामना कर सकेंगी, प्रकट होंगी। यही इतिहास की प्रक्रिया है। जैसे यह जीव के लिए सच है वैसे ही मानव सभ्यता के लिए।
मेरे बचपन में एक चुटकुला कहा जाता था। दार्शनिक ने पूछा, ‘मुरगी पहले आई या मुरगी का अंडा।‘ आखिर मुरगी के पहले मुरगी का अंडा रहा होगा, जिससे मुरगी ने जन्म लिया, और अंडे के पहले मुरगी, जिसने वह अंडा दिया। पर यह स्पष्ट है कि यह मुरगी, जो अंडे से निकली, वह मुरगी नहीं है जिसने अंडा दिया था। यह उससे भिन्न सदा विकसित होती रही, अनगिनत सूक्ष्म परिवर्तनों से होकर। इसलिए उपर्युक्त प्रश्न उठता ही नहीं।