लगभग दो लाख वर्ष का मानव का प्रारंभिक जीवन, जब हमें पत्थर के हथियार ही उसके अस्तित्व की याद दिलाते हैं, पाषाण युग (stone age) के नाम से विख्यात है। उस समय के जीवन का चित्ररू खड़ा करते समय मानव को जंगली कहकर कल्पनाऍं करते हैं। पर वह असमय में शरीर से वयस्क बने शिशु के समान था। पूर्व पाषाण युग में पीढियों के संचित अनुभव से प्राप्त ज्ञान ने उसे मन का स्थायित्व और बालावस्था दी। चतुर्थ हिमाच्छादन लगभग ५०,००० वर्ष ( हमारे पैमाने पर पॉंच सेंटीमीटर) पहले पराकाष्ठा पर था और उसके १०,००० वर्ष बाद संभवतया उसका प्रभाव घटने लगा। तब नव प्रस्तर युग का प्रारंभ कहा जाता है।
ऐसे समय ग्रीष्मोन्मुख जलवायु के कारण वनस्पति और जंतु के साथ मानव भी उत्तर की ओर बढ़े। यूरोपीय विचाराधारा के अनुसार इन्होंने स्पेन और फ्रांस की कंदराओं में रेनडियर और अन्य जानवरों के कलापूर्ण चित्र खींचे। उत्तरी अफ्रीका में भी ऐसे चित्र मिलते हैं। अंत में ये ज्यामितीय रेखाचित्ररू बन गए। सहस्त्राब्दियों में दूर हटते शीत ने रेनडियर को उत्तर की ओर भगा दिया। अब दक्षिण में बढ़े घास के मैदान, जंगल और पशु। शीघ्र ही रेनडियर मानव के बाद दूसरी लहरें श्यामल मानव की यूरोप में पहुँची। ये अपने साथ लाए धनुष-बाण, कृषि का प्रारंभिक ज्ञान एवं मिट्टी के बरतन, मृद्भांड।
हम भोपाल से रेल द्वारा होशंगाबाद की यात्रा करें तो दूर विंध्याचल की पहाडियों में गढ़ी भीमबेतका की खड़ी चट्टानें दिखेंगीं। यहॉं भित्ति चित्रों से युक्त कंदराऍं हैं, जहॉं संभवतया दो (बीस ?) लाख वर्ष से मानव निवास करते थे। और पूर्व पाषाण युग से लेकर कंदरा-कला का सिलसिलेवार दर्शन हो जाता है। वहॉं 40,000 वर्ष हुए विभिन्न रंगों के रेखाचित्र बनते थे, वे कालांतर में मांसल हो गए। ऐतिहासिक कालखंड आते-आते (तीस सहस्त्राब्दी संवत् पूर्व) उस प्रकार के सांकेतिक और ज्यामितीय रेखाचित्र भी आने लगे, जैसे वर्षा ऋतु में त्योहार के दिन देहात में लोग मुख्य द्वार के दोनों ओर बनाते हैं।
भारत में, जहॉं चतुर्थ हिमाच्छादन का प्रभाव हिमालय की रक्षा पंक्ति और मौसमी हवाओं के कारण नगण्य था, पुरातत्व के उक्त युगों का संक्रमण अगोचर ही था। लगभग 60,000 वर्ष पहले भी मिट्टी के बरतनस का प्रयोग यहॉं था और उसकी चित्रकारी की नकल पहाड़ी कंदराओं में मिलती है। यूरोपीय मध्य एवं नव प्रस्तर युग के पालिशदार तथा परिष्कृत हथियार, पतले धारदार फलक (blade) यहॉं पहले से थे। मानव ने ‘अमृत मंथन’ से प्राप्त धनुष-बाण धारण किया। प्रति वर्ष आती वर्षा ऋतु और उससे उत्पन्न हरियाली के अध्ययन से खेती और पशुओं से निकट संपर्क होने पर पशुपालन प्रारंभ हुआ। देखा कि मिट्टी से लिपी टोकरी जब आग में जल जाती है तब उसके आकार का पका मिट्टी का बरतन बचा रहता है। इससे मृद्भांड अनेक प्रकार के मिलते हैं-धूसर, लोहित, गेरूए तथा काले; वैसे ही पालिशदार, चमकदार या चित्रित। संभवतया फैशन के समान भिन्न प्रकार के मृद्भांड भिन्न समय में अपनाए गए। यूरोपीय पूर्व पाषाण युग के वल्कल और चमड़े (खाल) के वस्त्रों का स्थान भारत में ( जहॉं कपास पाई जाती थी) बुने वस्त्रां ने लिया। बिना खेती के ग्राम का गठन और उसके बाद नागरिक जीवन संभव न था। नगरों के प्रारंभ होने तक मानव सभ्यता के अधिकांश आधार जुट चुके थे।
प्राकृतिक संकट यातायात के साधनों के अभाव में उग्र हो जाते हैं। खेती और यातायात से संबंधित अनेक आविष्कार इसी काल में हुए। मानव ने खेती के लिए हल, बैलों को जोतने के लिए जुआ, पालदार नाव और दो या चार पहिए की गाड़ी का आविष्कार किया। इस युग का सबसे क्रांतिकारी आविष्कार था ‘पहिया’। गाड़ी का चलन भारत के मैदानों से प्रारंभ हुआ। प्रकृति ने जीव-सृष्टि में पहिए का उपयोग नहीं किया। हाथ-पैर के क्रिया-कलाप तो उत्तोलक ( lever) के सिद्धांत पर आधारित हैं। आज विरली ही मशीनें मिलेंगी जो पहिए का उपयोग नहीं करतीं। पहिए के आविष्कार ने कुम्हार के चाक को जन्म दिया, जिससे मिट्टी के सुडौल और अच्छे पात्र बनने लगे। नाव में पाल के उपयोग ने यातायात का सबसे सस्ता साधन उपलब्ध किया।कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१- समय का पैमाना
२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
३- सभ्यता का दोहरा कार्य
४- पाषाण युग