महाभारत युद्घ को लेकर ऎसा ही एक वितंडा है। कृष्ण ने कहा, 'धर्म की संस्थापना के लिए मैंने जन्म लिया है।' ('परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।')
इसलिए महाभारत युद्घ धर्मयुद्घ कहा जाता है। उसमें पांडवों का धर्म का पक्ष है और कौरवों का अधर्म का। पर सोचें -उसके विभिन्न प्रसंग, जिनके सूत्रधार बने उस युद्घ में हथियार का प्रयोग न करने का संकल्प लिये, कृष्ण।
कौरवों के प्रथम सेनापति भीष्म ने नौ दिन तक पांडवों की सेना में भयंकर संहार मचाया। भीष्म ने घोषणा की थी - 'पांडवों के रथी शिखंडी पर मैं हथियार नहीं चलाऊंगा; क्योंकि वह पूर्वजन्म में स्त्री था। किसी स्त्री के ऊपर अस्त्र चलाना वीर के लिए वर्जित है, अधर्म है।'
जब तक भीष्म के हाथ में अस्त्र-शस्त्र थे, उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। तो कृष्ण की मंत्रणा से दसवें दिन भीष्म के विरूद्घ शिखंडी को सामने किया गया। भीष्म ने यह देख अपने हथियार डाल दिए। तब महावीर अर्जुन ने मानो स्त्री के पीछे छिपकर अपने दृढ़प्रतिज्ञ पितामह को बाणों से बींध डाला। किसने किया धर्म का पालन ? भीष्म ने, जिन्होंने उसके पीछे प्रच्छन्न शत्रु होने पर भी प्रतिरोध नहीं किया, क्योंकि शिखंडी पर वार करना अधर्म था; या अर्जुन ने, जिसने कृष्ण के कहने पर नीति-विरूद्घ छिपकर पीछे से अपने पितामह को युद्घभूमि में शर-शय्या प्रदान की?
कौरवों के दूसरे सेनापति हुए द्रोणाचार्य। वह जानते थे कि उनका पुत्र चिरजीवी है। परंतु पांचवें दिन कृष्ण ने अफवाह फैलाई- 'अश्वत्थामा मारा गया।
' अश्वत्थामा नामक हाथी मारा गया था। तब द्रोण ने युधिष्ठिर से पूछा, 'क्या यह सच है?'
पूर्व मंत्रणा के अनुसार सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, 'अश्वत्थामा हतो (मारा गया)',
परंतु इसके पहले कि वे 'नरो वा कुंजरो वा' कह सकते, कृष्ण ने शंख बजा दिया। बाद का वाक्यांश उस नाद में खो गया। द्रोणाचार्य पुत्र-शोक में डूब गए और धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट लिया। अर्द्घ सत्य (अथवा झूठ कहें क्या?) पर आधारित घटना या सत्यवादी युधिष्ठिर की असत्य का आवरण ओढ़े प्रतिध्वनि।
अर्जुन को गीता का ज्ञान देते समय, कृष्ण अपने दिव्य रूप दिखाते हुऐतब कौरवों ने सेनापति के रूप में वरण किया कर्ण का। कृष्ण ने कुंती से युद्घ के पहले कर्ण को कहलवाया था, 'तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो।'
और उससे अर्जुन के अन्य भाइयों को न मारने का वचन लिया था। इसी से अवसर पाकर भी कर्ण ने दूसरे भाइयों को छोड़ दिया। ब्राम्हण का वेश धरकर इंद्र ने उससे कवच-कुंडल मांगे, जो जन्म से उसे मिले थे। सूर्य के मना करने पर भी, 'मैं दानवीर हूं',
इसलिये उसने वे कवच-कुंडल दे दिए। उसका सारथि शल्य ताने कसकर उसका उत्साह भंग करता रहा। अंत में कृष्ण कर्णार्जुन के घनघोर युद्घ को उस ओर घसीट ले गए जहां दलदल था। कर्ण के रथ का पहिया उसमें फंस गया। तब कर्ण ने धनुष-बाण त्याग कर युद्घ के नियमों का आह्वान करते हुए अर्जुन से कहा, 'मैं शस्त्र -त्याग करता हूं। धर्मानुसार कुछ छणों के लिए युद्घ बंद करो। मैं रथ का पहिया निकाल लूं।'
जब वह रथ का पहिया निकाल रहा था तब कृष्ण ने कहा, 'कर्ण, कहां था तुम्हारा धर्म का विचार जब तुम्हारे साथ दुर्योधन, दु:शासन और शकुनि द्रौपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए दरबार में लाए? तब धर्म था क्या जब तुम लोगों ने युधिष्ठिर को फुसलाकर जुए में छल-कपट किया? यह भी धर्म है, जब बारह वर्ष वनवास और तेरहवें वर्ष अज्ञातवास में रहने के बाद उनका राज्य उन्हें देने से इनकार करते हो? तुम्हारी धर्मबुद्घि तब कहां थी जब लाक्षागृह में सब भाइयों को जलाने का यत्न किया गया? अकेले और निहत्थे अभिमन्यु को जब तुम सबने मिलकर मार डाला तब कहां गया था तुम्हारा क्षात्रधर्म और न्याय-व्यवहार?'
कर्ण ने अमोघ अस्त्र का मंत्र दोहराना चाहा, पर उसकी स्मृति लुप्त हो गई। कृष्ण ने कहा, 'क्या देख रहे हो, अर्जुन? आततायी शत्रु के हनन का यही समय है।'
अनिच्छा से ही सही, पर कृष्ण की बात पर अर्जुन के बाण से कर्ण का सिर भू-लुंठित हो गया। महाभारत में उल्लेख है कि सभी ने अर्जुन के इस अन्यायपूर्ण कृत्य की निंदा की, पर कृष्ण ने उसकी जिम्मेदारी स्वयं ली।
दुर्योधन ने सुना तो उसे अपार दु:ख हुआ। उसके भाई, बड़े-बड़े योद्घा, भूपति मारे जा चुके थे। तब शल्य को कौरवों का सेनापति चुना गया। जब शल्य भी युद्घ में खेत रहा और दुर्योधन के शेष भाई मारे गए तब अपनी पराजित सेना की पुन: एकजुट न कर पाने पर विवश, वह अकेल मानो तप्त शरीर को ले व्यास ताल में छिप गया। पीछा करते पांडवों की ललकार पर वह बाहर आया।
दुर्योधन ने कहा, 'एक-एक कर आओ, मैं तुम सबको देख लूंगा। निश्चय ही तुम सब एक साथ आक्रमण न करोगे; क्योकि मैं एकाकी, कवचविहीन, थका और घायल हूं।'
युधिष्ठिर ने कहा, 'मिलकर अकेले को मारना यदि अधर्म था तो निहत्थे अभिमन्यु पर कैसे सभी महारथी मिलकर टूट पड़े? दुर्भाग्य के समय घर्म का पर-उपदेश लोग देने लगते हैं। पर तुम हममें से किसी को चुन लो और युद्घ करो। उसमें मृत्यु को पाकर स्वर्ग पाओ अथवा जीतकर राज्य लो।'
यदि दुर्योधन चाहता तो नकुल या सहदेव को चुनकर विजयी बनता; पर कृष्ण के ताने पर उसने अपने जोड़ीदार भीम को चुना। उस बराबरी के युद्घ में एकाएक कृष्ण ने अर्जुन से कहा, 'भीम दुर्योधन की जंघा विदारकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करेगा।'
तब भीम के मन:चक्षुओं में द्रौपदी का अपमान तथा धृतराष्ट्र के दरबार की प्रतिज्ञा पुन: कौंध गई। वह दुर्योधन पर टूट पड़ा और गदा से उसकी दोनो जांघें तोड़ डालीं। दुर्योधन पृथ्वी पर गिर पड़ा और भीम निपातित दुर्योधन के ऊपर बीभत्स नृत्य कर उठा।
युद्घ अवश्यंभावी देख एक बार गांधारी ने दुर्योधन को उस रूप में जैसा वह पैदा हुआ था, सायंकाल में आने को कहा। कृष्ण ने देखा तो दुर्योधन से कहा, 'अरे, तुम्हारी मां है तो क्या हुआ, ऎसे नंगे जाओगे?'
तब लज्जावश दुर्योधन ने कमर में वल्कल लपेट लिया। गांधारी ने आंखों से पट्टी क्षण भर के लिए खोली। शरीर के जितने भाग में गांधारी की दृष्टि पड़ी, वह भाग पत्थर-सा कठोर हो गया। पर वल्कल से ढका जांघ का भाग वैसा ही रह गया। यह कृष्ण को पता था।
पर गदायुद्घ में नाभि के नीचे प्रहार वर्जित था। जब दुर्योधन-भीम का युद्घ हो रहा था तभी तीर्थाटन कर बलराम वहां आए। बलराम ने क्रोध में कहा, 'धिक्कार है सबको, जो खड़े देख रहे हैं इस अधर्म को। मैं सहन नहीं कर सकता इसे।'
हलधर अपना हल उठाकर भीम की ओर बढ़े। तभी कृष्ण ने बीच में पड़कर कहा, 'भीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। पर विचारें वे अत्याचार और अधर्म, जो निर्दोष और निष्पाप पांडवों पर बरपे गए।'
सभी घटनाओं का स्मरण उन्हें मनवा न सका, पर उनका क्रोध शांत हो गया। यह प्रश्न शेष रहता है कि किसने किया धर्म का पालन? दुर्योधन ने, जिसने नकुल-सहदेव को छोड़ भीम को ही युद्घ के लिए चुना; अथवा भीम ने, जिसने गदायुद्घ के नियमों को तिलांजलि दे दुर्योधन की जांघ पर वार किया?
भीष्म के अन्त समय, पांडव उनसे ज्ञान प्राप्त करते हुऐ धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य- ये सनातन प्रश्न हैं। पर कृष्ण का एक उत्तर है। जिन्होंने व्यक्तिगत अहम्मन्यता के वश होकर, जिसके द्वारा समाज की धारणा हो, उस धर्म की अवहेलना की उन्होंने आचार-व्यवहार के एक छोटे व्यक्तिगत अंश का पालन किया होगा। भीष्म पितामह ने कहा, मैं स्त्री के विरूद्घ हाथ नहीं उठाऊंगा । द्रोणाचार्य, यह जानकर भी कि अश्वत्थामा चिरजीवी है, पुत्र-शोक में विह्वल वेशधारी इंद्र को कवच-कुंडल के दान से कैसे इनकार करते। दुर्योधन भीम से ही लड़ेगा, इस घमंड ने भीम को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया। युद्घ में अधर्म पनपता है। आततायी का हनन और धर्म पक्ष की विजय-कामना-यह समाज-धर्म है और यही शाश्वत है।
युद्घ के श्रीगणेश के समय कृष्ण ने कहा, 'जिधर धर्म है उधर मैं रहता हूं।'
पर अंत में जो करके दिखाया, 'जिधर मैं हूं (अर्थात् जिधर भगवान् का व्यक्त स्वरूप समाज की जीवनी शक्ति है) उधर धर्म है।'
कृष्ण ने बताया, 'जो व्यक्तिगत भावना के वश कार्य करते हैं, पर-समाज की हानि करते हैं वे अधर्म के राही हैं। पांडवों का पक्ष धर्म का था, क्योंकि वह मानव-कल्याण का मार्ग था।'
इस चिट्ठी के सारे चित्र विकिपीडिया से और उसी की शर्तो में कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों
१८ महाभारत में, कृष्ण की धर्म शिक्षा