शनिवार, अप्रैल 11, 2009

स्मृतिकार और समाज रचना

कुरितियां क्यों बनी
समाज की व्यवस्था का सही  मूल्यांकन होता है उसकी स्थायी अवस्था से। समाज के संघर्ष काल में अनेक प्रकार के नियम बनते हैं। परंतु वे उस समाज का स्थायी भाव नहीं दर्शाते। न विशेष परिस्थितिजन्य अवस्था पर समाज का सच्चा मूल्यांकन संभव है। संघर्ष की अवस्था में तो उस समाज की संघर्ष- क्षमता ही नापी जाती है।

हाल के द्वितीय जागतिक महायुद्घ के समय का उदाहरण लें। युद्घरत देशों में कैसी उथल-पुथल मची। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था। इसलिए सुदूर पूर्व मणिपुर में आजाद हिंद फौज के आक्रमण के अतिरिक्त कहीं प्रत्यक्ष युद्घ न होने पर भी, कितने प्रकार के विचित्र नियम बने। यहां भी तरह-तरह के 'कंट्रोल' आए, जिन्होंने समाज को हिला दिया। वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो गए। वहां भी जहां शासन के हस्तक्षेप की किसी को कल्पना न थी। उनमें से अनेक विचित्र नियम थे। सारे द्वार, खिड़कियां, रोशनदान और झरोखे, सबमें मोटा-काला परदा डालकर रखो; मोटरों की हेड लैंप के ऊपरी भाग में कालिख पोत दो। कहीं शत्रु का लड़ाकू वायुयान न आ जाय। यह वस्तु इस चीज की बनाओ, इसकी मत बनाओ; इतने से कम में मत बेचो, इससे अधिक में मत बेचो। 'राशन', पद्घति लागू हो गई। इंग्लैंड में सप्ताह में केवल एक मक्खन की टिकिया, वह भी मां बनने वाली को। यदि ऎसे समय में बाहर से कोई व्यक्ति आता, जिसे पता न हो कि यह देश युद्घरत है तो यही कहेगा कि यह पागलों का देश है जहां इस प्रकार के नियम बने। परंतु ये नियम समाज के संरक्षण के लिए आवश्यक थे।

युद्घ समाप्त होने के बाद भी ये नियम कुछ वर्षों तक ही सही, चलते रहे। समाज एकाएक उनको उखाड़कर फेंक नहीं पाता। ये अनेक प्रकार के 'कंट्रोल'- युद्घजन्य परिस्थिति से जूझने के लिए और लाइसेंस आदि। अभावग्रस्त तथा भयग्रस्त समाज का विकृत रूप दूर कर जर्जरित समाज-व्यवस्था को पुन: पटरी पर लाने में स्वाभाविक ही कठोर परिश्रम और समय की आवश्यकता पड़ती है।

भारत में एक सहस्त्र वर्षों का संघर्ष-काल रहा है। ऎसा संघर्ष-काल जिसमें आबालवृद्घ ने भाग लिया। इसे अंतरराष्ट्रीय विधि में सार्विक युद्घ-'टोटल वार' (total war)  कहते हैं, जहां सेनाएं ही नहीं लड़तीं, पूरा समाज युद्घरत होता है। ऎसे घनघोर संघर्ष में कुछ आपातकालीन नियम बने होंगे। संघर्ष समाप्त होने के बाद भी ये आपातकालीन नियम अथवा उनके अपभ्रंश कुरीतियां बनी रहीं। ये शाश्वत नहीं, न गुलामी के कारण हैं; वरन् संघर्ष-काल के बाद चलने वाली कुरीतियां मानसिक दासता के लक्षण, उसका परिणाम मात्र हैं। समाज का सच्चा मूल्यांकन तो उसकी शाश्वत धारा का मूल्यांकन है।स्मृतिकार और समाज रचना समाज की व्यवस्था का सही  मूल्यांकन होता है उसकी स्थायी अवस्था से। समाज के संघर्ष काल में अनेक प्रकार के नियम बनते हैं। परंतु वे उस समाज का स्थायी भाव नहीं दर्शाते। न विशेष परिस्थितिजन्य अवस्था पर समाज का सच्चा मूल्यांकन संभव है। संघर्ष की अवस्था में तो उस समाज की संघर्ष- क्षमता ही नाजी जाती है।

हाल के द्वितीय जागतिक महायुद्घ के समय का उदाहरण लें। युद्घरत देशों में कैसी उथल-पुथल मची। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था। इसलिए सुदूर पूर्व मणिपुर में आजाद हिंद फौज के आक्रमण के अतिरिक्त कहीं प्रत्यक्ष युद्घ न होने पर भी, कितने प्रकार के विचित्र नियम बने। यहां भी तरह-तरह के 'कंट्रोल' आए, जिन्होंने समाज को हिला दिया। वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो गए। वहां भी जहां शासन के हस्तक्षेप की किसी को कल्पना न थी। उनमें से अनेक विचित्र नियम थे। सारे द्वार, खिड़कियां, रोशनदान और झरोखे, सबमें मोटा-काला परदा डालकर रखो; मोटरों की हेड लैंप के ऊपरी भाग में कालिख पोत दो। कहीं शत्रु का लड़ाकू वायुयान न आ जाय। यह वस्तु इस चीज की बनाओ, इसकी मत बनाओ; इतने से कम में मत बेचो, इससे अधिक में मत बेचो। 'राशन', पद्घति लागू हो गई। इंग्लैंड में सप्ताह में केवल एक मक्खन की टिकिया, वह भी मां बनने वाली को। यदि ऎसे समय में बाहर से कोई व्यक्ति आता, जिसे पता न हो कि यह देश युद्घरत है तो यही कहेगा कि यह पागलों का देश है जहां इस प्रकार के नियम बने। परंतु ये नियम समाज के संरक्षण के लिए आवश्यक थे।

युद्घ समाप्त होने के बाद भी ये नियम कुछ वर्षों तक ही सही, चलते रहे। समाज एकाएक उनको उखाड़कर फेंक नहीं पाता। ये अनेक प्रकार के 'कंट्रोल'- युद्घजन्य परिस्थिति से जूझने के लिए और लाइसेंस आदि। अभावग्रस्त तथा भयग्रस्त समाज का विकृत रूप दूर कर जर्जरित समाज-व्यवस्था को पुन: पटरी पर लाने में स्वाभाविक ही कठोर परिश्रम और समय की आवश्यकता पड़ती है।

भारत में एक सहस्त्र वर्षों का संघर्ष-काल रहा है। ऎसा संघर्ष-काल जिसमें आबालवृद्घ ने भाग लिया। इसे अंतरराष्ट्रीय विधि में सार्विक युद्घ-'टोटल वार' (total war)  कहते हैं, जहां सेनाएं ही नहीं लड़तीं, पूरा समाज युद्घरत होता है। ऎसे घनघोर संघर्ष में कुछ आपातकालीन नियम बने होंगे। संघर्ष समाप्त होने के बाद भी ये आपातकालीन नियम अथवा उनके अपभ्रंश कुरीतियां बनी रहीं। ये शाश्वत नहीं, न गुलामी के कारण हैं; वरन् संघर्ष-काल के बाद चलने वाली कुरीतियां मानसिक दासता के लक्षण, उसका परिणाम मात्र हैं। समाज का सच्चा मूल्यांकन तो उसकी शाश्वत धारा का मूल्यांकन है।

विधि समाज का दर्पण है। उसमें समाज की दशा का प्रतिबिंबित चित्र देखा जा सकता है। इसलिए भिन्न प्राचीन समाजों की विधि-परंपराओं को समझना आवश्यक है। उनके लिए एक कसौटी चाहिए। यह कसौटी प्राचीन या आधुनिक नहीं हो सकती । प्राचीन या आधुनिक कसौटी तो किसी स्थिर विधि-प्रणाली के संदर्भ में हो सकती है, जो संसार के किसी भूभाग में और किसी विशिष्ट कालखंड के लिए बनाई गई। पर विधि की सार्थकता नवीन चुनौतियों का सामना करने, नित्य नई परिस्थितियों से जूझने तथा अपने अंदर युगानुकूल मानव-मूल्यों के अनुरूप परिवर्तन कर सकने की क्षमता में है। हमें शाश्वत कसौटी चाहिए। यह और भी आवश्यक मुसलिम और ईसाई समाज के परिप्रेक्ष्य में है जो स्थिर, एक काल के लिए बने पंथ हैं।

विधि समाज का दर्पण है। उसमें समाज की दशा का प्रतिबिंबित चित्र देखा जा सकता है। इसलिए भिन्न प्राचीन समाजों की विधि-परंपराओं को समझना आवश्यक है। उनके लिए एक कसौटी चाहिए। यह कसौटी प्राचीन या आधुनिक नहीं हो सकती । प्राचीन या आधुनिक कसौटी तो किसी स्थिर विधि-प्रणाली के संदर्भ में हो सकती है, जो संसार के किसी भूभाग में और किसी विशिष्ट कालखंड के लिए बनाई गई। पर विधि की सार्थकता नवीन चुनौतियों का सामना करने, नित्य नई परिस्थितियों से जूझने तथा अपने अंदर युगानुकूल मानव-मूल्यों के अनुरूप परिवर्तन कर सकने की क्षमता में है। हमें शाश्वत कसौटी चाहिए। यह और भी आवश्यक मुसलिम और ईसाई समाज के परिप्रेक्ष्य में है जो स्थिर, एक काल के लिए बने पंथ हैं।

प्रथम विधि प्रणेता - मनु
आज संसार ने आदि विधि प्रणेता के रूप में मनु को जाना है। प्रथम विधि-संहिता मनु का 'धर्मशास्त्र' है, जिसे मनुस्मृतिसंस्कृत भाषा में मनुष्यमात्र अथवा समाज के संदर्भ में 'धर्म' शब्द का प्रयोग विधि (कानून) के अर्थ में होता था। आज 'धर्म' शब्द पंथ के स्थान पर अथवा उसके 'कर्मकांड' या पूजा-पद्घति या प्रथा के लिए प्रयुक्त होता है। 'धर्मशास्त्र' सामाजिक आचरण के नियम अर्थात् 'विधि' की पुस्तकें हैं। इसी प्रकार संस्कृत में 'न्यायशास्त्र' तर्कशास्त्र की पुस्तक है, न कि 'विधि' (justice)  अथवा इनसाफ करने की प्रक्रिया, जिसे आज न्याय कहते हैं। भी कहते हैं।

नई दुनिया के न्यूयार्क नगर में बार एसोसिएशन के बारी प्रांगण में तीन प्राचीन विधि प्रवर्तकों की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। एक हजरत मूसा (Moses) की, जिन्होंने मिश्र से वापस लौटते समय यहूदियों (Jews) को उनके दस नियम दिए; दूसरी हम्मूराबी, बाबुल (Babylonia) के शासक की, जिन्होंने दजला (Tigris) (संस्कृत : दृषद्वती) और फरात  (Euphrates) के दो-आबे में बसे समाज के लिए एक संहिता बनाई और तीसरी मूर्ति के नीचे अंकित हैं ये अमर शब्द-- 'मनु प्रथम विधि-प्रणेता' ('Manu the first law-giver)। यह मूर्ति सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक विधि के प्रणेता की है। फिलीपीन के नए लोकसभा भवन के सम्मुख जिनकी मूर्तियां स्थापित है, उनमें एक मनु हैं जिनका चिर-स्मरणीय योगदान दक्षिण-पूर्व एशिया की विधि-प्रणालियों में हुआ।

दक्षिण में कावेरी की एक सहायक नदी 'कृतमाला' के किनारे सत्यव्रत का जन्म हुआ था। शस्त्र एवं शास्त्र के अध्ययन की समाप्ति पर उस नवयुवक ने नदी-तट पर एक आश्रम स्थापित किया। उस आश्रम की ख्याति फैलने पर वहां के गणराज्य के लोगों ने आकर सत्यव्रत से प्रार्थना की कि वह गणराज्य के प्रमुख का कार्यभार संभालें। पहले तो सत्यव्रत ने नाहीं की, पर जब सभी वर्गों के लोगों ने निवेदन किया तब वह मान गए। उन्होंने शर्त रखी, 'जो मैं कहूंगा, व्यवस्था दूंगा, वह सब मानेंगे।' सबके शर्त मान लेने पर उन्होंने प्रमुख (राजा) बनना स्वीकार किया। सबसे पहला कार्य उन्होंने राजमहल में वहां के निम्नतम वर्ग, जिसका गण-चिन्ह 'मछली' था, को राजप्रासाद में संरक्षण दिया। उस वर्ग में मत्स्य न्याय ( कि ताकतवर कमजोर को खा जाते हैं) प्रचलित था। व्यवस्था देकर उसका निराकरण किया। किंवदंती है कि मछली एक-दो दिन में इतनी बढ़ गई कि वहां न समाई। अंत में ऎसे लोगों को नदी-तट पर और फिर निरापद सागर-तट पर बसाया। इन्हीं सत्यव्रत ने व्यवस्था, सामंजस्य स्थापित कर सभी की सम्मति से लागू की। इसी से वे 'मनु' और उनकी व्यवस्था का पालन तथा धर्माचरण करने वाले, अर्थात् नियमों के अनुसार चलने वाले, 'मानव' कहलाए। धर्माचरण अर्थात् विधि के अनुसान व्यवहार। यह मात्र किसी देश के नागरिक के लिए नहीं वरन् संसार में सभी के लिए सार्विक विधि है।

एक दिन एक छोटे झरने को पार कर हम लोग हिमालय की गोद में बसी मनाली (हिमाचल प्रदेश) की पुरानी बस्ती में पहुंचे। वहां थोड़ी सी समतल भूमि के कोने में एक छोटा सा मूर्तिरहित ( तीन फीट लंबा-चौड़ा और लगभग इतना ही ऊंचा) मंदिर है। परंपरा है कि उसमें कभी कोई देवता की मूर्ति नहीं रही। संभवतया प्राचीन काल में कभी वहां 'मनुस्मृति' रही होगी, वह कालांतर में लुप्त हो गई। आज उनकी कर्मभूमि में वह छोटा मंदिर ही संसार के प्रथम विधि-प्रणेता की स्मृति है। उनकी तपोभूमि 'मन्वालय' (मनु-आलय), जहां जल-प्लावन के बाद उन्होंने अपना स्थान बसाया, का नाम आज 'मनाली' हो गया। चमक-दमक युक्त आधुनिक मनाली के ऊपरी पार्श्व में अतीत के धुंधलेपन की चादर ओढ़े, विस्मृत गांव का यह छोटा सा मंदिर।

सृष्टि के आदिकाल में जिज्ञासु ऋषियों ने 'धर्म' (अर्थात् समाज की धारणा जिससे हो वह 'विधि') समझाने के लिए तत्वदृष्टा मनु को चुना। उनकी वाणी 'मनुस्मृति' में गूंजी। आज संसार की प्रथम विधि-संहिता और उसके प्रणेता को विवादों ने घेर लिया है। अनेक प्रक्षेपों के कारण कभी-कभी इसे 'स्वार्थी ब्राम्हणों का पोथा' कहकर अथवा उस पर 'स्त्री निंदा' या 'निम्न वर्ग के प्रति विद्वेष' के आरोप लगाए जाते हैं। इसका ठीक उल्टा मनु ने किया था। संसार जिसका सदा ऋणी है, उस विधि-प्रणाली को समझने के लिए उसकी मूल प्रकृति को पहचानना आवश्यक है।

मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
संसार में जितनी विधि-प्रणालियां हैं, वे एक विशेष कालखंड में एक विशिष्ट समाज के लिए बनीं थीं। मनु-प्रणीत विधि की इन सब प्रणालियों से तुलना नहीं हो सकती । यह विधि किसी एक समाज (या देश) के लिए न होकर संपूर्ण मानव समाज के लिए थी। मानव सभ्यता का सबसे साहसपूर्ण प्रथम चरण! अनगिनत रीतियों से विभूषित तथा विविधताओं से पूर्ण इस मानव समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों के बीच एक सभ्य, न्यायपूर्ण समाज के सिद्घांत खोजना कैसा दुस्तर कार्य था! इसे करने का साहस मनु ने किया।

इसी से मनुस्मृति (Manusmṛti) के कुछ प्रसंग निबंध सरीखे लगते हैं। उदाहरणार्थ मनु आठ प्रकार के 'विवाह' का वर्णन करते हैं जिनमें 'राक्षस' तथा 'पैशाच' विवाह भी हैं। ये बलात्कार और अपराध हैं। यह एक निबंध में संसार में फैले मानव समाज में स्त्री-पुरूष के यौन संबंधों का वर्गीकरण मात्र है। उनमें विधिसम्मत विवाह के रूप भी बताए। इसी प्रकार पुत्रों का वर्णन करते समय मनु ने बारह प्रकार के पुत्र बताए हैं। यह संसार में पुत्र संबंधी सभी प्रथाओं का निचोड़ है। उसमें जारज (व्यभिचार से उत्पन्न) संतान भी है। उन्होंने बताया कि कौन पुत्र नरक से त्राण दिलाने में सक्षम है। वही उत्तराधिकार पाने का अधिकारी है।

मानव समाज में रीति-रिवाजों की विविधता और भरमार सदा रही है। भारत में ही पितृप्रधान से लेकर मातृप्रधान समाज-व्यवस्थाएं रहीं, जैसी भारत के पूर्व तथा दक्षिण के कुछ क्षेत्रों में थीं। मानव समाज के असंख्य चेहरे उसकी रीति में प्रतिबिंबित हुए। उनके बीच सर्वमान्य विधि मनु ने प्रतिपादित की। इसी से कहते हैं, मनु का विवाह 'शतरूपा' से हुआ था, शत फलकयुक्त समाज से। अनेक रूप धारण किए इस मानव समाज के नियमन के लिए थी 'मनुस्मृति'। जिस प्रकार कहा जाता है कि वेदों में सारे संसार का ज्ञान संकलित हुआ, पुराणों में संसार के सुने हुए इतिहास का, उसी प्रकार मनु ने (और उसके बाद के स्मृतिकारों ने) संसार के धर्माचरण के नियमों का, विधि का, संहिता में रखने का कार्य किया। एक महान् प्रयोग 'वसुधैव कुटुंबकम्' को चरितार्थ करने, संपूर्ण मानव जाति को एक विधि के ताने-बाने में कसने का था। यह सभ्यता का सबसे बड़ा अस्त्र था।

सारी मानव जाति को आलोड़ित करती यह विधि-प्रणाली काल-बाह्य हो कई क्या ?आज की विस्मृति में क्या है इसका उत्तर ?

मनु- प्रणीत इस विधि में रीति सर्वोपरि है। इसी से अनेक स्थानिक रीतियां भी विधि का अंग बनीं। सभी को इस विधि ने आत्मसात् किया। इस प्रकार की रीति पर एक ही अंकुश था जिसे मनु ने धर्मशास्त्र के दूसरे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा, 'जिसे सत्पुरूष, राग-द्वेषरहित विद्वान् अपने हृदय से अनुकूल जानकर सेवन करते हैं, वही धर्म (विधि) है।'
समाज में सदा परिवर्तन होता रहा है, होता रहेगा। ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक उपलब्धियां बढ़ती है और जातियों का संघर्ष तीव्रतर होता है, नवीन परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। ये नई रीतियों एवं परंपराओं को जन्म देती हैं, नई परिस्थितियों से निपटने के लिए नयी रीति चाहिए। रीतियां भी बदलती हैं। अत: रीति के साथ विधि भी बदलती गई। समाज की रीतियां ही भिन्न-भिन्न संहिताओं में संगृहीत हुई। इसलिये जब समय बदला, युग बदला और नए प्रश्न उठे तब मानव के संबंधों का नए परिप्रेक्ष्य  में निर्धारण करने के लिए रीतियां बनीं, जो विधि का अंग हुईं। विधि भी इस प्रकार बदलती गई। नई चुनौतियों का सामना करने के लिए वह सक्षम बनी। इसमें अंतर्निहित है स्वयं को समयानुकूल, युगानुकूल तथा मानव-मूल्यों के अनुरूप बनाने की प्रक्रिया। इसी से यह कालजयी थी। इसे सार्वकालिक बनाया थ। कितना बड़ा कालखंड और कैसी विचित्र परिस्थितियां भी इसे पूर्णरूपेण विद्रूप न कर सकीं।

इसके इस सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक स्वरूप को न समझने के कारण अनेक भ्रम उत्पन्न हुए हैं। आज मनुस्मृति का जो रूप उपलव्ध है उसमें विषय के विरूद्घ अप्रांसगिक, परस्पर विरोधी क्षेपक त पुनरूक्तियां भी पाई जाती हैं। मूल शैली से भिन्न अनेक पक्षपातपूर्ण तर्कविहीन बातें सामान्य भाषा में जोड़ दी गई हैं। इन्हीं को लेकर भ्रमित आलोचना का बवंडर खड़ा किया गया । सभी भाष्यकारों ने न्यूनाधिक प्रक्षेप का अस्तित्व स्वीकार किया है। प्रारंभिक भाष्यकार कुल्लूक भट्ट ने १७० श्लोक प्रक्षिप्त माने थे। बाद के सभी पौराणिक पंडितों ने इन प्रक्षेपों को स्वीकार करने के साथ-साथ अन्य की ओर भी इंगित किया है। पाश्चात्य विद्वानों (वूलर, जौली आदि) ने और महर्षि दयानंद ने भी। एक शोधग्रंथ (देखें--मनुस्मृति: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, खारी बावली, दिल्ली) के अनुसार कुल् २६८५ श्लोकों में १४७१ प्रक्षिप्त हैं। इनमें १२१४ ही मौलिक हैं। सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक संहिता की भूमिका में मनु की आधारभूत मान्यताओं को समझना चाहिए।

समता और इसका सही अर्थ
कुछ आधारभूत अभिधारणाएं हैं जिनपर सभ्यता के प्रारंभिक चरण बढ़े। समाज के अंदर एक आंतरिक स्नेह-बंधन, घटकों को जोड़ने वाला सीमेंट, एक ढंग की परंपराएं, आस्थाएं एवं विश्वास, सामाजिक आदर्श, सब सुख-दु:ख के एक साथ मिलकर जीने अथवा विपत्तियों को झेलने के प्रसंग और एक प्रकार के शत्रु-मित्र का भाव और सबसे बढ़कर एकता की प्रतीति है। ( ऎसा समाज किसी भूखंड से जुड़ने पर राष्ट्र कहा जाता है। इसके लिए 'समता' की आधारभूत अभिधारणा है, जिसके बिना सामाजिक ढांचा संभव नहीं है।  जिस समाज में ऊंच-नीच की कृत्रिम भावनाएं उत्पन्न होती हैं वह समाज के रूप में अधिक दिनों तक नहीं टिकता, क्योंकि सहयोग अथवा स्पर्धा के स्थान पर संघर्ष पैदा होना विनाश की ओर बढ़ने की निशानी है। फिर भी व्यक्तिगत स्वार्थ एवं लालसाएं और आपस के काम, क्रोध, मद, लोभ टकराते ही हैं। इसके लिए एक न्याय पर टिकी समाज-व्यवस्था आवश्यक है। और न्यायपूर्ण समाज की नींव 'समता' पर आधारित है।

यह समता दुर्ग्राह्य है और पकड़ में न आने वाले छलावे की भांति मृगमरीचिका दिखती रहती है। इसकी खोज सदा मानव सभ्यता में रही है। भारतीय दर्शन में कहा गया,

'पांचों अंगुलियां बराबर नहीं होतीं, पर उनमें एक ही रक्त प्रवाहित होता है।'
इसलिए समता एकरूपता में नहीं है, वह समरसता में है। इसी के द्वारा एकात्मता उत्पन्न होती है। समता वही है जिसकी परिणति एकता में हो ।

कालांतर में 'समता' का यह भारतीय आदर्श तिरोहित हो गया। उसका स्थान एकरूपता ने ले लिया। आज साम्यवाद और यूरोपीय समाजवाद के पिछलग्गू समरसताविहीन शुषक एकरूपता के कंकाल का गुणगान करते दिखते हैं और भारतीय व्यवस्थाओं को, आंतरिक एकता न देख सकने के कारण, समताविहीन समझते हैं। जब मैं विद्यार्थी था, सामूहिक जीवन का एक साम्यवादी आदर्श चींटियों, मधुमक्खियों का जीवन कहा जाता था। कैसे सहस्त्रों कीट एक साथ, एक लगन से रहते हैं। स्वचालित अंतर्मन और सहज वृत्ति से, उस समाज का एक यंत्र बनकर। पर हम जानते हैं कि ऎसे सामूहिक जीवन में व्यक्तिगत स्वाभाविक विकास रूक जाता है। सच्चा सामाजिक जीवन सहस्त्रों शाखाओं में अलग-अलग पल्लवित- पुष्पित होता है अगणित प्रकार का, पर एक रस से अनुप्राणित मानव जीवन है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अथवा घटक का विकास हो। अपनी विशिष्ट एवं अनंत संभावनाओं को ले एकरस समाज जीवन ही आदर्श रहा है। इसलिए सामाजिक जीवन का लक्ष्य एकरूपता नहीं, समरसता है। जिससे एकता पनपे उसी को 'समता' कहते हैं।

यह कैसा व्यंग्य है कि सच्ची समता के भक्त को आज  उसका भंजक कहें। इसका कारण है आज शब्दों के बदले हुए अर्थ का यूरोपीय चश्मा, जिसे आंखों से हटाने को लोग तैयार नहीं होते। यही बात मनु द्वारा वर्णित वर्ण-व्यवस्था विषय में है। इसे लेकर कभी-कभी विवाद खड़ा किया जाता है। यह वृत्ति के अनुसार वर्गीकरण उस वैज्ञानिक मनीषा का उदाहरण है जो संपूर्ण भौतिकी तथा मानविकी के क्षेत्र में छाई है। यही वृत्तिमूलक वर्गीकरण प्लातोन (Plato)  ने अपनी पुस्तक 'रिपब्लिक' (Republic : गणराज्य)  में किया था। यह एक व्यवस्था थी। इसके अंदर विभाजन अथवा द्वेष का भाव न था। मनु का समाज रूपी शरीर का उदाहरण ऊंच-नीच दर्शाने के लिए नहीं, वरन् एकरस समाज का चित्र खड़ा करने के लिए है। इससे इनकार करना भूल होगी कि कभी इस व्यवस्था के कारण समाज का संरक्षण हुआ था। परंतु इसमें आश्रम व्यवस्था, जहां विद्यार्थियों का वर्ण निर्धारण हो सके, नष्ट हो जाने से विकृति आई, और वर्ण जन्मना मानने लगे। भारतीय समाज रचना सभी व्यावसायिक संघों अथवा वर्गों को स्वायत्त शासन प्रदान करती थी। इसके कारण बाद में विकृत हो वर्ण ( अथवा जाति-पांत) में एक निहित स्वार्थ निर्मित हो सकता था। जिससे एक वर्ण से दूसरे में संचरण बंद हो गया। इस कारण आज यह वर्ण-व्यवस्था काल-बाह्य हो गई है और उसका कंकाल मात्र रह गया है। मनु ने स्वयं कहा कि नवीन रीतियां और सदाचरण ही विधि का स्त्रोत हैं, अर्थात काल-बाह्य रीतियां त्याज्य हैं।

मनु (Manu) ने मानवमात्र की समानता दिखाई है।सब मानव कर्मों के द्वारा श्रेष्ठता को, और जो वर्ण चाहें उसे प्राप्त कर सकते हैं। मनु ने वर्ण व्यवस्था को कर्मणा माना, 'जन्मना' नहीं। गुण कर्म के अनुसार ( जैसा 'गीता' में कृष्ण ने कहा, गुणकर्म विभागश:') वर्ण निश्चित होता है। कर्मों के अनुसार वर्ण प्राप्त करने की बात मनु ने कही ( अध्याय १०, श्लोक ६५) –'शूद्र ब्राम्हण हो जाता है तथा ब्राम्हण शूद्र हो जाता है।' मनु ने उसे शूद्र कहा, जो अन्य तीन वर्णों के योग्य कर्म न कर सके। यदि आश्रम में शूद्र के पुत्र में अन्य वर्ण के गुण पाए जाएं तो वैसा ही वर्ण उसे प्राप्त होता है। उसी वर्ण की शिक्षा प्राप्त युवती के साथ उसका विवाह होता है। शूद्र भी इस समाज रूपी विराट् पुरूष के अंग हैं। वे न घृणास्पद हैं, न अस्पृश्य। किसी को श्रेष्ठ कहने वाले, किसी को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं कहने वाले अथवा हीन प्रदर्शित करने वाले श्लोक, नवीन शोधग्रंथों के अनुसार बाद में जोड़े गये हैं। ये मनुस्मृति की मूल भावना के प्रतिकूल हैं। मनु के अनुसार संस्कारों से और धर्मपालन से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और उसके कर्मों के अनुसार वर्ण-परिवर्तन होता है।

'ब्राम्हणवादी संस्कृति' कहकर मजाक उड़ाना या समाज के कुछ वर्गों के प्रति वर्ण-व्यवस्थ को ले रोष उत्पन्न करने का कार्य गर्हित है। एक दिन रेल में यात्रा करते समय साथ के सज्जन मेरा खादी का कुरता-धोती देख राजनेता समझकर बोले,

'इन ब्राम्हणों ने देश का सत्यानाश कर दिया है।'
'कैसे ?' पूछने पर वह बोले,

'यही व्यवस्था देकर।'
मैंने पूछा,

'किस ब्राम्हण ने व्यवस्था दी?'
मेरी अनभिज्ञता पर आश्चर्य से बोले,

'यही मनु, याज्ञवल्क्य, शांडिल्य, पराशर आदि।'
इस पर मैंने कहा,

'हां, ये सब विद्वान् मनीषी ऋषि थे। पर इनमें से किसी का जन्म, जिसे आज ब्राम्हण कुल कहते हैं, में नहीं हुआ। मनु तथा  याज्ञवल्क्य के पिता क्षत्रिय थे , परंतु ये सब विद्वान ऋषि बने, इसलिए ब्राम्हण कहलाए।'
पूर्वाग्रह की रंगीनी ने उस सहयात्री को मनु के महान कार्य के प्रति अंधा बना दिया।

स्मृतिकारों ने कभी किसी कार्य को छोट या बड़ा नहीं कहा। सबमें भगवान का अंश माना। मध्ययुगीन संतों में से विरले ने ही, आज जिसे ब्राम्हण कुल कहेंगे, उसमें जन्म लिया थ। समर्थ गुरू रामदास का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। संत गोरोबा कुम्हारी करते थे। संत नामदेव दर्जी परिवार के थे। महाराष्ट्र के संत-शिरोमणि तुकाराम कुनबी परिवार के थे और कर्णावती (अहमदाबाद) के संत चांडाल परिवार के, जिनका पेशा मांस बेचना था। संत रैदास उस परिवार के थे जहां चर्मकारी होती थी। समाज के हित में अपना कार्य निपुणता एवं दक्षता से करने से भगवान की प्राप्ति होती है, यह स्मृतिकारों ने कहा।

बाह्य आक्रमणों से जब आश्रम शिक्षा पद्घति नष्ट हो गयी और गुण-कर्म के अनुसार विद्यार्थी का वर्ण-निर्धारण करने की प्रक्रिया न रही तब जिस कुल में जन्म लिया उसी का वर्ण मान लेने की परंपरा आई। जब गुण एवं शिक्षा के आधार पर वर्ण निश्चित होता था तब स्पष्ट ही 'वर्णसंकर' का कोई अर्थ न था। महाभारत में कितने उदाहरण हैं जहां स्त्री-पुरूष ने अन्य कर्म करने वाले परिवार के युवक-युवती के साथ विवाह किया। तब यह शब्द नहीं था। इस विषय में मनुस्मृति में जोड़े गये श्लोक मनु की धारणाओं के विरूद्घ प्रक्षिप्त हैं। कहा जाता है कि दशरथ के पुरोहित वसिष्ठ की माता वनवासी कन्या थीं। उनके पिता से विवाह का आग्रह होने पर उन्होंने एक वनवासी कन्या से विवाह की इच्छा की तो उनसे कहा गया,

'उसे वाणी (शिक्षा) दो, फिर विवाह कर सकते हो।'
पर शिक्षा कौन दे? गुरू बनकर तो उसके साथ विवाह न हो सकता था; शिष्या के साथ विवाह वर्जित है। तो अन्य आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर उनका विवाह हुआ।

वास्तव में समाज के दीर्घ जीवन के लिए बहिर्विवाह ( exogamy) की भारत की प्राचीन प्रथा थी। इसके अनुसार अपने कबीले या गांव अथवा गोत्र ( या जिस आश्रम में शिक्षा पाई) या समूह के बाहर विवाह। इनके अंदर सब भाई-बहन के समान समझे जाते थे। आज भी इसका स्मरण दिलाता सपिंड विवाह का निषेध है। वर्ण वृत्तिमूलक कल्पना थी, इसलिए उसी वर्ण में विवाह, पति-पत्नी का एक ही वृत्ति का होना अच्छा समझते थे। अंतर्विवाह (एक ही कबीले या निकट रक्त-संबंधियों में विवाहऋ के जीवशास्त्रीय तथा सामाजिक दुष्परिणामों से यहां अति प्राचीन काल से परिचय था। वैसे संसार के अनेक भागों, उदाहरणार्थ मिस्त्र में, रक्त -शुद्घता की विकृत कल्पना ले, भाई-बहन या निकट रक्त-संबंधियों के बीच विवाह प्रचलित थे जिससे रक्तस्त्राव की बीमारी या अन्य समस्याएं उत्पन्न हुई।

समता का लक्षण समान अवसर है। आज भी सारे संसार में समता की खोज समाज तथा न्याय प्रणाली में हो रही है। साम्यवादी अथवा यूरोपीय समाजवादी दर्शन में एकरूपता में समता खोजते हैं। उसके मर्म 'समरसता' को आज हम भूल गए और इसलिए भटक गए। इसका फल है संघर्ष, द्वेष और शतखंड-खंडित जीवन तथा उसकी परिणति है युद्घ, हिंसा और भय की काली छाया।

प्राचीन भारत एवं अन्य सभ्यताओं में महिला अधिकार
समाज में सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है। लगभग दो शताब्दियों से स्त्री-स्वतंत्रता की आवाज संसार में उठ रही है। पर भिन्न सामाजिक प्रणालियों में प्राचीन काल से उसकी दशा क्या चली आई?

अनेक पुरूषर-आक्रांत सभ्यताओं में लोग स्त्री को संपत्ति समझते थे। अफ्रीका के भागों में वधू की खरीद होती है और इसके लिए वरपक्ष को मूल्य चुकाना पड़ता है। सामी सभ्यताओं में उसे अनेक निर्योग्यताओं से जूझना पड़ता रहा है, जो आज तक हैं। यह आदम और हव्वा, सामी सभ्यताओं में प्रचलित कहानी की देन है जो नारी के जीवन को तथा प्रसूति को भगवान के आदेश की अवहेलना कर अर्जित सेब खाने को प्रेरित करने के कारण शापग्रस्त करार देती है। वरदान ही शाप बन गया।

विक्रमी संवत् की सातवीं शताब्दी में ईसाई जगत ने एक बृहत् सम्मेलन किया (मैकन : सन् ५८५)। प्रश्न था, नारी मनुष्य है अथवा पशु? बाइबिल के अनुसार उसकी निर्मित आदमी की पसली से हुई। इसलिए सभी ने कहा, उसे मनुष्य की श्रेणी में कैसे रख सकते हैं ? तब तक किसी ने याद दिलाई,

'तो फिर ईसा की माता मरियम को क्या (पशु) कहा जाय?'
तब यह सम्मेलन अनिर्णय में भंग हो गया। पर यह प्रश्न खलता रहा और अनेक सम्मेलन बुलाए गए। तब कहीं संवत् की उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के संधिकाल में इस पर ईसाइयों का पुन: बृहत् सम्मेलन हुआ। अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि

'ईसाई  नारी को मानव की श्रेणी में रख सकते हैं; पर अन्य सभी स्त्रियाँ पशु की श्रेणी में आती हैं, अर्थात वे मनुष्य की संपत्ति मात्र हैं।'
ईसाई जगत में इसके बाद ही नारी की मुक्ति का द्वार कुछ खुल पाया।

ईसाई विधि में विवाह होने पर स्त्री की कुल संपत्ति उसके पति की हो जाती थी, क्योंकि वह स्वयं पति की संपत्ति थी। यही कारण था कि ईसाई देशों में उन्नीसवीं सदी तक विवाहित स्त्री को उधार कोई वस्तु, बिना पति के कहे, बेचता न था; क्योंकि उससे दाम वसूल ही नहीं हो सकते थे । इंग्लैंड में विवाहित स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार पहले-पहल सन् १८७० में 'विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम' (Married Women's Property Act, 1870)  द्वारा प्राप्त हुए। नेपोलियन संहिता (Napoleonic Code) के अंतर्गत फ्रांस और यूरोप के उससे प्रभावित देशों में स्त्री का संपत्ति पर धारणाधिकार सीमित चला आता है। उसके अन्य अधिकार भी पुरूष की तुलना में सदा कम थे। तलाक के मामलों में समान अधिकार तो आज भी नहीं हैं। रोजगार, नियोजन, वेतन, मजदूरी, उद्योग-धंधा, व्यवसाय, वृत्ति और शासन-सभी में नारी की सहभागिता और हिस्सेदारी बहुत कम है। इस भूमिका में इंग्लैंड और अमेरिका में संवत् की बीसवीं सदी तक न्यायालयों ने स्त्री को 'व्यक्ति' मानने तथा वकील के रूप में पंजीकृत करने से इनकार किया।

पर मुसलिम जगत में स्त्री की दयनीय दशा का संसार में सानी नहीं है। यह सत्य है कि मुसलिम विधि में कुछ स्त्री संबंधियों को दायाधिकार मिलना अनिवार्य हो गया; पर पुरूष संबंधियों के सामने उसे आधे का अधिकार मिला और उसके जीवन में छा गया एक घोर आवरण, जिसने उसकी स्वतंत्रता हर ली। जीवन में मानो बेड़ियाँ पड़ गई और वह बुरके की कारा में आबद्घ हो गई। आंग्ल विश्वकोश (Encyclopedia Brittanica) के अनुसार, मुसलिम देशों में महिलाओं की श्रमिकों में, उद्योग-धंधों में, सार्वजनिक जीवन और कार्यों में, देश के निर्णयों में, कला-विज्ञान-दर्शन-शिक्षा आदि के विस्तृत क्षेत्रों में सहभागिता नगण्य है। उन्हें सामान्य नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं होते। इन देशों में अथवा जहाँ भी मुसलिम आबादी है, बच्चों की दर प्रति विवाहित स्त्री छह से आठ बच्चे हैं, जबकि अनेक देशों और दूसरे समाजों में यह दर एक या दो के आसपास है। जैसे केवल पुरूष के उपभोग अथवा घर के कामकाज के लिए दासी का जीवन उनका हो।

इस मुसलिम व्यक्तिगत विधि में उनकी दशा सबसे गई-गुजरी है। पति चाहे जितने विवाह करके (कुरान में वर्णित चार विवाह केवल लाक्षणिक हैं) पत्नी का घर में आबद्घ जीवन दूभर और अर्थहीन बना सकता है। जब चाहे बिना पत्नी के किसी कसूर के, बिना उसे बताए, अपनी स्वेच्छाचारिता में केवल तीन बार उस जादुई शब्द का प्रयोग कर अथवा एक बार ही कहकर कि तुझे तीन बार तलाक देता हूँ, उसे 'तलाक' दे समता है। तब बिना किसी गुजारे के बेसहारा उसे घर से निकलकर सड़क पर खड़ा होना पड़ता है। पति का कोई उत्तरदायित्व शेष नहीं रहता। ये कानून विवाहिता नारी की स्थिति साधारण दासी से भी बदतर बना देते हैं। इस सबने नारी जीवन में कितनी विडंबना भर दी है।

ऎसे ही विचार कार्ल मार्क्स के 'साम्यवादी घोषणापत्र' (Communist Manifesto)  में हैं। कौटुंबिक संबंधों को 'बुर्जुआ बकवास' बताकर वह घोषणा करता है कि 'नारी उत्पादन की मशीन समझी जाती है और पूँजीवादी समाज में 'संपत्ति', इसलिए जब सभी उत्पादन के साधन समाज के हो जाएँगे तब नारी का भी खुला साझा समूह बनेगा। इसलिए विवाह प्रथा त्याज्य है।'

यूरोप व संयुक्त राज्य अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में, जब ज्ञानोदय (enlightenment) का प्रारंभ कहा जाता है, स्त्री-स्वतंत्रता का आंदोलन फूट निकता उस समय अनेक विचारकों की रचनाएँ स्त्रियों के अधिकारों के बारे में लिखी गईं। उनमें मेरी वोज्सटेनक्राफ्ट की 'स्त्री अधिकारों का संरक्षण' ('A Vindication of the Rights of Women') प्रसिद्घ है। स्त्री-स्वतंत्रता के आंदोलन में अग्रणी रहने के बाद भी वह अंग्रेजी के प्रसिद्घ कवि शैली (Shelly) की पत्नी और इस रूप में एक कुशल तथा आदर्श गृहिणीं थी। स्त्री-स्वातंत्र्य के विरोधियों के इस तर्क का कि

'स्त्रियाँ स्वतंत्रता पाकर बिगड़ जाती हैं'
यह एक व्यावहारिक उत्तर था। वास्तव में उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदी के साहित्य ने इसे आकार और रूप-रंग दिया; पर दो शताब्दी बाद भी यह कार्य अधूरा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष १९७५ में मनाया। पर आज भी इस विषय में सामी सभ्यता की काली छाया संसार पर मँडरा रही है। भारतीय संविधान की उद्घोषणा के बाद भी, कि कानून में लिंग के आधार पर द्वेषपूर्ण विभेद नहीं होगा, इस प्रकार के घनघोर विभेद मुसलिम विधि के कुछ भाग में प्रचलित हैं। आश्चर्य है कि सुधार के पट बंद करने की कट्टरपंथियों (fundamentalists) की चीख-पुकार सभी विवेक को ग्रस लेती है और एक जन-वातोन्माद ( mass hysteria) उत्पन्न करती है।

यही हाल नारी-मताधिकार के बारे में ईसाई और मुसलिम जगत का है। यह समस्या राष्ट्रीय एवं स्वायत्तशासी इकाइयों में भी पुरूषों के समान उसे मत देने के अधिकार की है। भारत के प्राचीन गणराज्यों में स्त्री-पुरूष दोनों को मत के और उस समय की सभा एवं समिति में भाग लेने के समान अधिकार थे। यह सभा एवं समिति सामाजिक (सांस्कृतिक) तथा धार्मिक अथवा दर्शन जैसे विषयों पर शास्त्रार्थ भी करती थीं। उसमें पुरूष एवं स्त्री दोनों ही भाग लेते थे। यहाँ तक कि खेल-कूद, अस्त्र-शस्त्र प्रतियोगिता में भी स्त्रियों के भाग लेने का वर्णन मिलता है। जब अंग्रेज भारत में आए तब भारतीयों को संपत्ति के अधिकार पर सीमित मताधिकार स्थानिक इकाइयों और विधानसभा के लिए मिले। उस समय भी भारत में स्त्री के साथ कोई भेदभाव न था और दोनों के समान अधिकार थे। यह गणतंत्र की स्त्री-पुरूष के लिए समान मताधिकार की परंपरा आदि काल से आज तक यहाँ चलती आई।

पर मुसलिम और ईसाई जगत में स्त्री को प्राचीन काल में किसी प्रकार का मताधिकार न था। मुसलिम जगत में कुछ देशों में (उदाहरणार्थ सऊदी अरब और फारस की खाड़ी के अरब देशों में) उन्हें आज भी मत देने का अधिकार नहीं है। एक शताब्दी के संघर्ष के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में मत देने का अधिकार नारी को सन् १९२० में मिला। इंग्लैंड में आंशिक/पूर्णरूप से सन् १९१८/१९२८ में। इसी प्रकार यूरोप के कुछ अन्य देशों में प्रथम महायुद्घ के आसपास ही मताधिकार मिला। पर फ्रांस, इटली, रूमानिया, यूगोस्लाविया में द्वितीय महायुद्घ के बाद ही नारी को मताधिकार प्राप्त हुए और स्विट्जरलैंड में सन् १९७१ में। आश्चर्य यही कि कभी-कभी भारत को, जहाँ प्राचीन काल से चली आई स्त्री-स्वातंत्र्य की परंपरा है, ऎसे देश जिनके द्वारा स्त्री के अधिकारों की सदा अवहेलनाहुई, इसी स्त्री-स्वातंत्र्य के नाम पर आँखें दिखाते हैं।

एक बार शिकागो नगर में एक भारतीय मूल के निवासी के घर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी पुत्री, जो स्नातक कक्षा में पढ़ती थी, ने कहा,

'मैं भारत कभी नहीं जाऊँगी। वहाँ लड़कियों पर अत्याचार करते हैं।'
इस भ्रामक जानकारी का स्त्रोत पूछने पर उसने बताया,

'यह अमेरिकी दूरदर्शन कहता है।'
मैंने पूछा,

'तुमने इंदिरा गांधी का नाम सुना है?'
उसके 'हाँ' कहने पर कि वह भारत की प्रधानमंत्री हैं, मैंने पूछा,

'क्या तुम उसकी तरह शक्तिशाली, दृढ़ इच्छा-शक्ति का कोई दूसरा प्रधानमंत्री बता सकती हो?'
उत्तर था, 'नहीं।' तो फिर कैसे कहती हो कि भारत में स्त्री के साथ दुर्व्यवहार होता है ? जो देश इंदिरा सरीखी प्रधानमंत्री दे सकता है वहाँ नारी कभी पददलित होगी? मैंने कहा,

'मानव प्रकृति सब जगह समान है। हर जगह अच्छे और बुरे लोग हैं। पर भारत में स्त्री-स्वतंत्रता की गौरवशाली परंपरा रही है। बीच के सहस्त्र वर्षों का गुलामी और उसके विरूद्घ संघर्ष का काल आया, जिसमें विकृतियाँ उत्पन्न हुई। पर भारत एकमात्र ऎसी प्राचीन सभ्यता है जहाँ स्त्री की स्वतंत्रता का भाव साधारण रीति से संस्कृति में पगा।'

पर नारी को लेकर मनुस्मृति के बारे में अनेक विवाद खड़े किए जाते हैं। मनु ने मनुस्मृति में 'स्त्री' को मान-सम्मान का उच्च स्थान दिया है। उसे 'गृहलक्ष्मी', 'गृहशोभा' आदि कहकर पुकारा (अध्याय ९, श्लोक २५ व ९/२८) और पिता, भाई एवं पति को उनका समादर-सत्कार करने के लिए कहा (३/५५)। उनको सदा प्रसन्न रखने का आदेश दिया (३/५९)। कहा कि उनकी प्रसन्नता में कुटुंब का कल्याण है(३/६०) और उनकी अप्रसन्नता कुटुंब के विनाश का कारण बनती है(३/५७)। जहाँ उन्हें प्रसन्न रखा जाता है वहाँ सभी 'देवता' अर्थात दिव्य गुण निवास करते हैं। वे गृह-स्वामिनी हैं (९/११, ५/१५०)। स्त्रियों को कोई दमनपूर्वक नहीं रख सकता (९/१०)। वे स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं और उसी से सुरक्षित हैं (९/१२)। मनु ने पुरूष एवं स्त्री में कोई पक्षपात नहीं किया। कभी स्त्री को पुरूष की दासी या उसके अधीन नहीं माना। सदा कहा कि स्त्री-पुरूष मिलकर रहें (९/१०) और कभी न बिछुड़ें (९/१०२)। वेदों में साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पत्नी के साथ करने का विधान है (९/९६)। राम ने वनवासिनी सीता की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर यज्ञ किया था। स्त्री के लिए मार्ग छोड़ने को कहा (२/११३, १३८)। पत्नी पर झूठा दोषारोपण और अपशब्द कहना, उससे झगड़ा करना दंडनीय बताया (८/१८०)।

सभी धार्मिक कार्यों में स्त्री-पुरूष का समान अधिकार वेदों में माना गया है। संस्कारों के विधान स्त्री-पुरूष के लिए समान है। गुरूकुलवास, वेदाध्ययन एवं यज्ञोपवीत धारण करना आदि सभी स्त्री-पुरूष के लिए समान रीति से वेदसम्मत हैं। ऋग्वेद में लगभग तीस स्त्री ऋषियों का वर्णन आता है (अदिति, लोपामुद्रा आदि)। वैसे ही उपनिषदों में गार्गी, मैत्रेयी आदि ब्रम्हवादिनी स्त्रियों का वर्णन आता है। मनु ने धर्मशास्त्रों को वेद पर आधारित कहा है, इसलिए उसमें वेद के विरूद्घ कोई बात कहा जाना तर्कसम्मत नहीं है।

महर्षि दयानंद की प्रेरणा से आर्यसमाज द्वारा 'मनुस्मृति' पर शोध हुआ है। वे उन श्लोकों को प्रक्षिप्त, बाद में जोड़े गए तथा मनु की मूल धारणा के विपरीत कहते हैं जो स्त्रियों के प्रति संकीर्ण और निम्न दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं। ऎसे ही एक श्लोक में कहा गया--' न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति' (९/१३) है। यह श्लोक मनु की धारणाओं और अन्य श्लोकों से अंतर्विरोध होने के कारण शोध-संस्करण इसे प्रक्षिप्त मानते हैं। मनु ने कभी स्त्री की स्वतंत्रता हरने की बात नहीं की, वरन् पुरूष-स्त्री दोनों के लिए एक ही और समान व्यवस्था दी है।

फिर भी इतने क्षेपक कालांतर में मनुस्मृति में जोड़े गए, जिन्होंने समाज में स्त्री की दशा पर प्रश्नचिन्ह लगाना प्रारंभ किया। इसे मूल रूप में सामी सभ्यता का टकराव कह सकते हैं। (वैसे मनुस्मृति सार्वभौमिक विधि-संकलन होने के कारण उसमें स्वाभाविक ढंग से कुछ अन्य सभ्यताओं की रीतियों का वर्णन आ सकता है।) ऎसा प्रसंग बहुविवाह की प्रथा को लेकर है। किसी समय समझा जाता था कि शायद बहुपति की प्रथा कबीलों में साधारण व्यवहार रहा होगा; पर अब इस पर कोई समाजशास्त्री विश्वास नहीं करता। किंतु बहुपत्नी की प्रथा अनेक प्राचीन सभ्यताओं में मिलती है।

मनु ने सब स्थानों पर पत्नी के लिए सदा एकवचन का प्रयोग किया है, द्विवचन या बहुवचन का नहीं। जब यह बात एक वकील सम्मेलन में मैंने कही तो लोगों ने पूछा कि इसका निष्कर्ष? मैंने कहा कि संभवतया मनु ने कभी नहीं सोचा था कि एक पत्नी के रहते अन्य से विवाह हो सकता है। तब तो एक वकील ने कहा,

'वाह, राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं।'
मैंने कहा,

'कौन आदर्श हैं, दशरथ या राम ? आपने राम के एक-पत्नीव्रत की बात क्यों न सोची?'
पर यह प्रश्न को टरकाना था। अत: मैंने बताया,

'प्राचीन भारतीय विधि में राजा के लिए भी विधि का पालन अनिवार्य था, वह अपने देश में एक ही कन्या से विवाह कर सकता था। पर विदेश में राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए दूसरे देश की कन्या से विवाह करने की छूट थी। राजा दशरथ की एक पत्नी कोशल प्रदेश की कन्या कौशल्या थी। उनका दूसरा विवाह सुमात्रा (पूर्वी हिंद द्वीप-समूह) की पुत्री सुमित्रा से हुआ था और तीसरा विवाह कैकय देश (Caucasus)  की पुत्री कैकेयी से।'
पुराण में इसकी कथा वर्णित है।

फिर भी पुराणों में वर्णित अनेक गाथाओं में एक से अधिक पत्नियों का वर्णन आता है। इनमें से बहुत सी प्रतीक अथवा रूपक कथाएँ हैं, जो कल्पना-जगत में स्त्री-पुरूष की गाथा बन गई। कुछ अन्योक्ति भी हैं। जैसे द्रौपदी के पाँच पतियों की गाथा है। मेरे बाबाजी, जिन्होंने रामायण तथा महाभारत काल का इतिहास लिखने का प्रयत्न किया, ने एक बार महाभारत के मूल श्लोक दिखाकर कहा था कि वह अर्जुन की ही पत्नी थी। स्त्री कोई संपत्ति नहीं थी, जिसको माता कुंती बाँटने का आदेश दिया हो। यही बात द्रौपदी ने धृतराष्ट्र की सभा में कही,

'स्त्री या बहू किसी की संपत्ति नहीं है, जो दाँव पर लगाई जा सके।'
यह बात मान्य हुई।

स्त्री-स्वातंत्र्य की यदि छवि देखनी हो तो भारत के सुदूर पूर्व के राज्यों के पुराने मातृप्रधान समाज में अथवा ब्रम्हदेश (म्याँमार) के कुछ पहले के जीवन में देखें। कहा जाता है कि इतिहास में ब्रम्हदेश के बराबर स्त्रियों को स्वतंत्रता किसी अन्य देश में नहीं रही। इसकी कुछ झलक शरच्चंद चट्टोपाध्याय के उस देश से संबंधित उपन्यासों में देखी जा सकती ह। वहाँ जो बर्मी बौद्घ विधि (Burmese Budhist law) प्रचलित थी, उसमें विवाह और तलाक के नियम सरलतम थे; पर वैवाहिक विश्वासघात ( marital infidelity) अनजाना था। बाद में जब अराकान में मुसलमान बसे और उन्होंने बर्मी स्त्रियों से विवाह किया तब समस्या उठी। बर्मी स्त्रियों ने पुरूषों के समान अधिकार चाहे। तब वहाँ दंगे प्रारंभ हुए। यह स्पष्ट है कि स्त्री-स्वातंत्र्य और वैवाहिक विश्वासघात में कोई संबंध नहीं है।

ऎसा दूसरा प्रसंग, जिसे विधि में 'स्त्री के सीमित अधिकार' कहा जाता है, को लेकर है। इसे अंग्रेजों के राज्यकाल में वोमेंस इस्टेट ( women's estate) अथवा विडोज इस्टेट ( widow's estate) कहा जाता था। इस परिसीमित अधिकार को व्यक्त करता संस्कृत में अथवा प्राचीन धर्मशास्त्र में कोई शब्द नहीं है। यह सत्य है कि दाय का अधिकार, जहाँ पुत्री दूसरे परिवार में जाती थी, उसे पुत्र एवं पत्नी के बाद मिलता था। पर मनु ने कहा, 

'जैसी अपनी आत्मा है वैसा ही पुत्र होता है और पुत्र जैसी ही पुत्री। उस आत्मा रूप पुत्री के रहते कोई दूसरा धन को कैसे पा सकता है ?' (मनुस्मृति, ९/१३०)। 
'निरूक्त' में कहा गया, 
'धर्मानुसार पुत्र एवं पुत्री दोनों का समान भाव से दाय में अधिकार है, यह मान्यता सृष्टि के आदि में मनु ने व्यक्त की है।' 
यही मिताक्षरा का वचन है।

इसी प्रकार मनु ने पत्नी को अर्द्घांगिनी कहा। बृहस्पति ने कहा, 'वेद, स्मृति और रीति, सभी कहते हैं कि पत्नी पति की अर्द्घांगिनी है। अत: जब तक अर्द्घ भाग जीवित है, दाय का अधिकारी दूसरा कोई नहीं हो सकता।' मनु ने माता के रहते पिता की जायदाद का पुत्रों में बँटवारा अमान्य किया। स्त्री-धन की सदा से मान्यता थी। मनुस्मृति (९/१९४) में छह प्रकार की स्त्री-धन गिनाया गया है; पर सभी मानते हैं कि ये केवल उदाहरण मात्र हैं। इसमें पति और माता-पिता द्वारा प्रदत्त धन भी हैं। नारद स्मृति में पति से प्राप्त दाय को स्त्री-धन कहा गया। जो विधि में दाय की अधिकारिणी थी और पुत्र के न रहने पर एकमात्र वारिस, यह कैसे हुआ कि दाय में प्राप्त संपत्ति (जायदाद) की वह एक प्रकार से संरक्षिका रह गई और उसके हस्तांतरण के अधिकार छिन गए?

डा. नरेशचंद्र सेनगुप्त ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारतीय विधि की विकास यात्रा ( Evolution of Ancient Indian Law: Tagore Law Lectures) में पत्नी एवं पुत्री को वारिस घोषित करने का उल्लेख करने के बाद कहा,

'इन स्मृतिकारों के मस्तिष्क में इन वारिसों के बीच दाय में प्राप्त संपत्ति (जायदाद) में उनके अधिकारों को लेकर विभेद करने का विचार कभी उत्पन्न नहीं हुआ।'
मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने जोर देकर वकालत की कि

'स्त्री-धन में वह सब संपत्ति आती है जो स्त्री को किसी भी तरीके से प्राप्त हुई हो।'
डा. सेनगुप्त ने लिखा, 'इतिहास साक्षी है कि जब विधवा का दायाधिकार माना गया तब विधि-प्रणेताओं ने कभी न सोचा था कि विधवा के दायाधिकार पुरूष उत्तराधिकारियों (वारिस) से भिन्न होंगें।'

पर उन कारणों की कल्पना की जा सकती है जिनसे विधवा के ही नहीं, पुत्री के भी अधिकार सीमित हो गए। विदेशी आक्रमणों के कारण एक उथल-पुथल मची। महिलाओं पर पड़ती उनकी कुदृष्टि के प्रभाव का आंशिक निराकरण यह था। स्त्री तो लौटकर आने नहीं पाएगी, तब उस विदेशी राज्य के समय संपत्ति के प्रत्यावर्तन का सिद्घान्त आया। जो जायदाद उसे पति से मिली थी वह पतिकुल को और जो पिता से मिली थी वह पितृकुल को लौट जाएगी। यह व्यवस्था ( जो मुसलिम शासकों के समय के बंगाल में की गयी) विदेशी आक्रमण तथा सामी सभ्यता के संघातों का परिणाम थी। अंग्रेजी राज्य के साथ आई उनकी नजीरों के अनुसार न्याय करने की परिपाटी। इससे कानून जीवाश्म बन गया और स्वाभाविक विकास अवरूद्घ हो गया। इस प्रकार हिंदू विधि में स्त्री के दाय में परिसीमित अधिकार (वीमेंस इस्टेट) की प्रस्तर-मूर्ति खड़ी हुयी, जो हटए न हटी। संघर्ष काल का यह नियम हमारे स्मृतिकारों की देन नहीं, न मनु की। यह प्रिवी काउंसिल की देन है। यह उनकी देन है जिनके यहाँ नारी कभी 'संपत्ति' समझी जाती थी, 'व्यक्ति' नहीं। इसके लिए श्री बी.एन.राउ की अध्यक्षता में जो समिति बनी उसने स्त्री को दाय में पूर्ण स्वामिनी होने की व्यवस्था रखी। उन्होंने आलोचकों को उत्तर देते हुए कहा,

'यही हमारे स्मृतिकारों की प्राचीन व्यवस्था थी।'
आज पुन: यह लागू हुई है।

अपवाद एवं विकृतियाँ, जो समाज में यदा-कदा अथवा व्यक्ति के जीवन में दिखती हैं, उनसे समाज का मूल्यांकन नहीं होता। इंग्लैंड के जीवन में एक समय था जब गाँव में प्लेग आया तो बड़ी-बूढ़ी औरत को ( कि उसने चुड़ैल बनकर प्लेग बुलाया) जीवित जला दिया। फ्रांस में जान (जिसको मरणोपरांत 'संत जान' की उपाधि दी) को उदार कहलाने वाले कैथोलिक पंथ के ठेकेदारों ने जीवित रहते खंभे से बाँधकर जला डाला। मुसलिम शासकों के अत्याचारों, जनसंहार की गाथाएँ भारत में बिखरी पड़ी हैं। चित्तौड़गढ़ की पद्मिनी और चौदह सहस्त्र (?) स्त्रियों के जीवित अग्नि में समर्पण सरीखी लोमहर्षक घटनाएँ कम हैं क्या (?) और आज भी दासी  के रूप में घरों में काम करने के लिए गरीब माँ-बाप की पुत्रियों को भारत से अरब देशों में भेजने का धंधा नहीं चलता (?) अंग्रेजी मानसिकता के शिकार व्यक्ति भारत की शाश्वत मूल धारा को नहीं देख पाते। ये इस सौ करोड़ के देश में कहीं भी किसी अपवाद घटना को ले, अतिरंजित कर, संपूर्ण समाज को बदनाम करते हैं। जैसे उनका कार्य निर्मल धारा छोड़ केवल बगल की क्षुद्र एवं क्षणिक गंदी नाली की समीक्षा हो।

प्राचीन भारत में मानवाधिकार
तीसरी बुनियादी धारणा मानव-मूल्यों को लेकर है। आज सारे संसार में मानवाधिकार (human rights) को लेकर बतंगड़ खड़ा किया जाता है और इसकी होड़ में कुछ देश शायद जानबूझकर या अपप्रचार के शिकार बनकर अपनी स्वार्थ-पूर्ति में दादागिरी का दृश्य उपस्थित करते हैं। खोखले दावों की प्रतीति भी उन्हें नहीं होती। प्राणिमात्र के 'स्वत्व' की भारतीय विचारधारा के संदर्भ में इसे समझना आवश्यक है।

मानवाधिकारों के पश्चिमी विचारों के मूल में एक मनोग्रंथि है। वहाँ सभी अधिकारों की चर्चा करते हैं। कानून की आवश्यकता के बारे में उनकी साधारण मान्यता है कि मानवाधिकार और समूह अर्थात समाज के अधिकारों में कोई विरोध है, इसलिए कानून के मूल में ऎसी धारणा पर यूरोपीय समाजवाद या साम्यवादी विचार दर्शन खड़ा है। पर हिंदु विधि एवं दर्शन का मूलभूत विश्वास है कि व्यक्ति और समाज ( जिसका वह एक घटक है) के अधिकारों में कोई अंतर्निहित प्रतिकूलता नहीं है। दोनों परस्परावलंबी हैं। सामाजिक विकास का मूलाधार उसके घटकों का विकास है, और मानव जीवन के गुणों के विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता अनिवार्य है। पर दूसरी ओर मनुष्य की सार्थकता समाज में है।

इससे भी बढ़कर हिंदु जीवन एवं दर्शन का विश्वास है कि मानव-मूल्यों के अनुरूप प्राणिमात्र के स्वत्व की रक्षा होनी चाहिए। यही नहीं, सभी प्राणियों व मानव का प्रकृति के साथ सामंजस्य होना चाहिए। यह पर्यावरण के संरक्षण का मूल मंत्र है।

प्राचीन भारतीय विधि में 'स्वत्व' शब्द का प्रयोग होता है। साधारणतया इसे 'अधिकार' का समानार्थी मानते हैं। पर इस शब्द का जोड़ शायद संसार की किसी भाषा में नहीं है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसका अर्थ होता है, 'जो तुमको देय या तुम्हारा प्राप्य है' अर्थात वही तुम्हारा 'स्वत्व' है। यह तुम्हारा अधिकार नहीं, पर स्वत्व होने के नाते सभी को वह तुमको देना होगा। स्वत्व उन सबके कर्तव्य से, जो तुम्हारे संबंध में आएँ, जुड़ा दायित्व है। यह अधिकारों को दूसरी ओर से देखने का उपक्रम है; एक अनूठी भारतीय कल्पना।

प्राचीन विधि में मुक्त वायु, जल, धरती और आकाश प्राणिमात्र के 'स्वत्व' कहे गए हैं। यह प्रत्येक प्राणी को दिया जाता है, क्योंकि उसने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है। इसको 'ना' नहीं करेंगे। यह स्वत्व प्राणों से जुड़ा है; जीवन में व्याप्त है। उसे अलग नहीं किया जा सकता। पिंड जहाँ बना है वहाँ उसका स्वत्व है। यह किसी के द्वारा प्रदत्त नहीं, और इसलिए किसी के द्वारा छीना भी नहीं जा सकता । अधिकार राजसत्ता तथा अंतरराष्ट्रीय समझौते के द्वारा प्रतिबंधित किए जा सकते हैं; पर 'स्वत्व' न तो प्राधिकार (Privilege) है, न नैसर्गिक अधिकार, क्योंकि वह अहरणीय है।

'मुक्त वायु' दैहिक स्वतंत्रता की कल्पना है। मेरे बचपन में मेरी माँ गाय को दुहने के समय के अतिरिक्त बाँधकर रखना गर्हित समझती थीं। उसे बाड़े में, जिसके किनारे गोशाला का छप्परयुक्त कमरा था, छोड़ देते थे। केवल अपराधी को ही निरूद्घ किया जा सकता था। पालतू चिड़ियों और पशुओं को पिंजरे या कठघरे में बंद रखना नीच कर्म माना गया।

अन्य देशों में मानवाधिकार और स्वत्व
इस स्वत्व के साथ जुड़ा है व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न। पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप की सभी प्राचीन सभ्यताओं में मानव समाज के कलंक 'दासता' (slavery) की भयावह प्रथा प्रचलित थी। विशेष रीति से जो साम्राज्य एवं सभ्यताएँ तलवार के बल से कायम हुईं, टिकीं और बड़ी बनीं, उनमें इस अत्याचारी प्रथा का नंगा नाच देखा जा सकता है। दासों (गुलामों) के व्यापक  शोषण एवं उत्पीड़न से, उनके पसीने एवं रक्त से, कम-अधिक मात्रा में सने हैं इन सभ्यताओं के रंगमहल। उसी से बनी पश्चिमी जीवन की इमारत। अरब और मुसलिम जगत, यूनान, रोम, भूमध्य सागर के चारों ओर के अन्य देशों में और अंत में यूरोपीय देशों की उपनिवेश तथा साम्राज्य-लिप्सा द्वारा पश्चिमी एशिया, यूरोप, अफ्रीका और उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका में इस घोर गर्हित प्रथा की काली घटा छाई।

कबीलों का सादा जीवन (जैसा आस्ट्रेलिया और अमेरिका के आदिम निवासियों में पाया गया) दास प्रथा से अपरिचित था। पर पश्चिमी सभ्यता में संघर्ष तथा युद्घ आया और तज्जनित कृषि एवं उद्योंगों में श्रमिकों की आवश्यकता। तब युद्घबंदियों का मजदूर के रूप में उपयोग प्रारंभ हुआ। संभवतया उसी में इस निंदनीय प्रथा का जन्म उस समाज में हुआ जहाँ बर्बर अवस्था से उबरना न हो सका था, न सामाजिक जीवन-दर्शन उत्पन्न हुआ, न मानव-मूल्यों की कल्पना आई।

दास पाने का प्रमुख स्त्रोत युद्घबंदी थे। इसके अतिरिक्त दीन माता-पिता कभी नितांत विपत्ति अथवा संकट में अपनी संतान को, या ऋण चुका सकने में असमर्थ व्यक्ति अपने को दास के रूप में उपस्थित करता था। दासों का क्रय-विक्रय यूनान, साइप्रस, रोम, अरब और पश्चि के बाजारों में साधारण घटना थी। यहाँ एशियाई, अफ्रीकी तथा यूरोपीय दासों का सौदा होता था। यूनान में दास बहुत बड़ा संख्या में थे। कहते हैं, अकेले एथेंस में उनकी संख्या स्वतंत्र नागरिकों से अधिक थी। होमर के महाकाव्य 'इलियड' तथा 'ओडेसी' में उनका वर्णन आता है।

रोम साम्राज्य का प्रारंभ तथा प्रसार सैन्य बल पर हुआ था। वहाँ दास प्रथा पराकाष्ठा पर पहुँची। इस प्रथा के नियम रोमन विधि के विशिष्ट अंग थे। जिस कार्थेज (Carthage) को फणीशियों (Phoenicians) (संभवतया यह पुराणों में वर्णित पणि या नाग जाति है) ने उत्तरी अफ्रीका के सुरक्षित तट पर विक्रम पूर्व नौवीं-आठवीं शताब्दी में बसाया, उसके साथ युद्घ-श्रंखला के चलते रोम में श्रमिकों की कमी हो गई। तब युद्घबंदियों से दासों की भाँति काम करवाने से यह प्रथा निर्ममता के शिखर छूने लगी। कहते हैं, उस समय कुछ प्रमुख बाजारों में दस हजार दासों का प्रतिदिन सौदा होता था। मनोरंजन के लिए भी दासों को शस्त्रों से अथवा कठघरे में रखे बए हिंस्र पशु से युद्घ करना पड़ता था, जिनमें घायल होना एवं मृत्यु साधारण बात थी।

ऎसी दशा में विक्रम संवत् पूर्व प्रथम शताब्दी में रोम के विरूद्घ दास-विद्रोह प्रारंभ हुए। एक समय दक्षिण इटली दासों के हाथ में चला गया। इधर साम्राज्य का विस्तार और उसके लिए युद्घ बंद हो गए। तब दासों का मिलना कम हो गया। रोमन साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण यह दास प्रथा कही जाती है। दास का अपने उत्पीड़न के आधार पर खड़ी व्यवस्था से कोई लगाव न था। रोमन साम्राज्य के समाप्त होते ही दास प्राप्त करने के लिए छापे तथा आक्रमण कम हो गए और दास प्रथा में कमी आई।

पर यूरोप में यह दास प्रथा चौदहवीं शताब्दी तक सामान्यतया चलती रही। अब दास अधिकांशत: 'स्लाव' (Slav); देश से मिलते थे। इसी से अंग्रेजी में दासता के लिए 'स्लेवरी' शब्द प्रयोग होता है। चौदहवीं शताब्दी के समीप पश्चिमी एशिया तथा पूर्वी यूरोप में पुन: युद्घ की छाया मँडराई। इसके कारण पश्चिमी यूरोप को युद्घबंदी दास के रूप में प्राप्त होने लगे। ये बंदी 'यीशु के शत्रु' समझे जाते थे और निरंकुश अत्याचारों के शिकार बनते। पादरियों की सेवा के लिए गिरनाघर में जो दास रखे जाते थे उनकी सबसे बदतर दुर्दशा थी। अरब देश तो सदा से अफ्रीकी दासों का व्यापार करते थे। पैगंबर ने गुलामों के साथ सहृदयता दिखाने की सलाह दी। पर व्यवहार में घोर कट्टरपन ने उलटा उन्हें नारकीय जीवन बिताने पर विवश किया। अरब का यह इसलामी कालखंड अधिकांशत: युद्घ की भट्ठी में जलता रहा। उनके साम्राज्य-प्रसार ने दासता को हवा दी। दास व्यापार पुन: बड़ी मात्रा में चालू हुआ।

जब यूरोप निवासियों का औपनिवेशिक युग प्रारंभ हुआ तब दास प्रथा में और बढ़ोत्तरी हो गई। पुर्तगाली अफ्रीकी दासों के व्यापार में अरबों से लोहा लेने लगे। नई दुनिया की खोज के बाद पश्चिमी द्वीप समूह, मेक्सिको और मेक्सिको की खाड़ी के क्षेत्र तथा पूर्व-उत्तरी अमेरिका का पूर्व-दक्षिण तट, पूरू, ब्राजील तथा अन्य देशों में यूरोपवासियों ने बड़े-बड़े क्षेत्र अपने कब्जे में कर लिये। वहाँ गन्ना, कपास, तंबाकू आदि और खाद्यान्नों की विस्तृत खेती के लिए श्रमिक चाहिए थे। उसकी पूर्ति पहले छापा मारकर वहाँ के आदिम निवासियों को दास बनाकर की, जिनको उनके खेतों से अथवा प्रदेश से निकाल दिया; उनके स्त्री-बच्चों को बाजारों में बेचा। अनेक आदिम जातियों का नाम इस प्रक्रिया में मिट गया। इन ईसाई 'सभ्य' लोगों के लिए इन 'धर्मभ्रष्ट'  लोगों को 'सच्चा धर्म' दिखाने का एकमेव मार्ग इन्हें दास बनाना था। यूरोप निवासियों के अत्याचारों की कहानी अमेरिकी मूल जातियों के ह्रास तथा समूल वंश-नाश ने लिखी है।

सोलहवीं शताब्दी में अफ्रीकी दासों का अमेरिका में आयात प्रारंभ हुआ। इन हब्शियों को जहाजों में जानवरों की तरह ठूसकर समुद्र पार अमेरिका ले जाया जाता था। वहाँ उन्हें बेचकर वस्तुएँ और सोने से लदे जहाज यूरोत आते। मानव का क्रय ही यूरोप और अमेरिका की लौकिक समृद्घि की कहानी है। परंतु इससे इस भयानक अत्याचार का पूरा व्याप प्रकट नहीं होता। दासों के आवास से घुड़साल अच्छी; उनका आधा पेट भोजन और काम के समय पूरी टोली पर गोरे पर्यवेक्षक के कोड़े!
दास प्रथा का दु:ख-दर्द तो आंशिक रूप से

 श्रीमती हैरियट स्टोई की पुस्तक 'टाम काका की कुटिया' ('Uncle Tom's Cabin': Harriet Beecher Stowe)  पढ़कर समझ सकते हैं।  कहते हैं कि इसी पुस्तक के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका का गृहयुद्घ हुआ।  अब्राहम लिंकन ने (जो उस समय वहाँ के राज्याध्यक्ष थे) कहा, 'यदि दास प्रथा पाप नहीं है तो संसार में कुछ भी पाप नहीं।' फ्रांस की राज्यक्रांति के नारों के कारण भी यूरोप का वातावरण बदल रहा था। ऎसे समय में भीषण गृहयुद्घ में वह देश संयुक्त बच सका।



पर यूरोपीय साम्राज्यवाद दास प्रथा के नए रूप लेकर आया। भारत से बड़ी मात्रा में अनुबंध के अंतर्गत गिरमिटिया कहकर श्रमिकों को अनेक प्रकार के लालच दे, प्रशांत तथा हिंद महासागर के द्वीपों में और अफ्रीका में भेजना प्रारंभ हुआ। वहाँ उनके कोई अधिकार न थे। वे केवल उन अधिकारों का उपभोग कर सकते थे जो उनके स्वामी उन्हें देते थे। उनके रीति-रिवाज, यहाँ तक कि भारत में हुआ विवाह भी अमान्य था। पति पत्नी से, भाई भाई से, माता-पिता संतानों से अलग, करार के अंतर्गत स्वामी की इच्छानुसार रखे जा सकते थे। वेतन जब चाहा, फर्जी त्रुटि दिखाकर काटा जा सकता था। अपनी मातृभूमि से दूर गुलाम देश के इन निवासियों की दशा 'दास' के समान थी। तब वैसी ही एक नाटक की पुस्तक 'कुली प्रथा अथवा बीसवीं सदी की गुलामी' आई। यह पुस्तक हिंदी की प्रसिद्घ कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के पति श्री लक्ष्मणसिंह चौहान ने लिखी थी। प्रकाशित होने के कुछ दिन बाद वह जब्त हो गई। पर यह 'गिरमिटिया' नामक कुली प्रथा प्रथम महायुद्घ के समीप बंद हो गई।

भारतीय विधि ने दास प्रथा कभी नहीं मानी
द्वितीय महायुद्घ के बाद धीरे-धीरे एशिया-अफ्रीका के देश स्वतंत्र हुए और संसार के जीवन में बदलाव आया। मानव जाति मुसलिम और यूरोपीय साम्राज्यवाद के अवशिष्ट चिन्हों से अभी पूरी तौर पर उबर नहीं पाई है। आज भी शोषण तथा उत्पीड़न से मुक्ति का आंदोलन कुछ सीमा तक है। पर दास प्रथा (slavery) का नागपाश क्या कभी भारत की धरती पर था, जहाँ प्राणिमात्र के प्रथम स्वत्व 'मुक्त वायु' का उच्चरण हुआ ? जहाँ अरब या यूरोपीय जैसी साम्राज्य-लिप्सा नहीं रही?


युरोप में दास बाज़ार का एक चित्र 

यूरोपीय इतिहासकार इसके उत्तर में आर्यों का इस धरती पर उपनिवेश बसाना और जैसे पापकर्म यूरोप के लोगों ने किए थे उसी तरह के कर्म इस देश के लोगों पर थोपते हैं। पर यदि संपूर्ण सोच का आधार गलत है तो उसके निकाले गए अनुमान असत्य ही होंगे। यह आर्यों का बाहर से आना और तथाकथित आदिवासियों से युद्घ आदि को आज पुरातत्वज्ञ कपोल-कल्पित कहते हैं। इसी प्रकार जब वर्ण कर्मणा था, जन्मना नहीं और सब श्रेष्ठ गुण-कर्म द्वारा इच्छित वर्ण प्राप्त कर सकते थे तब दासता की प्रथा का प्रश्न ही नहीं उठता। मानव-मूल्यों की जहाँ प्रतिष्ठा हुई, ऎसी अकेली प्राचीन सभ्यता भारत में रही। संसार में यह अनूठी सभ्यता चली आई, जो दास प्रथा से अछूती थी।


१३वीं शताब्दी येमन में दास बाज़ार का एक दृश्य

चंद्रगुप्त के दरबार में यूनान के राजदूत मेगस्थनीज (Megasthenese) ने लिखा है कि भारत में सभी स्वतंत्र हैं और कोई दास नहीं। ऎसा ही चीनी यात्रियों ने वर्णन किया है। चाणक्य ने कहा,

'आर्य (यहाँ के नागरिकों का सामान्य संबोधन ) कभी दास नहीं होता।'

चंद्र गुप्त मौर्य के राज्य का एक दृश्य

'दास' शब्द दो अर्थों में प्रयोग किया जाता रहा है। इसका एक अर्थ भृत्य (नौकर) भी है। अर्थशास्त्र में चाणक्य ने इस प्रकार के लोगों के साथ उदारता बरतने के लिए कहा। अनेक ग्रंथों में भृत्य, जो उचित मूल्य लेकर किसी परिवार की सेवा करता है, के अर्थ में ही 'दास' शब्द का प्रयोग हुआ है, गुलाम के अर्थ में नहीं। द्यूत में हार जाने पर अथवा ऋण अदा करने के लिए अपनी सेवाएँ कुछ कालावधि के लिए समर्पित करने का उल्लेख प्राचीन साहित्य में है। पर कोई अपनी संतान बेच नहीं सकता था। न युद्घबंदी, न मनुष्य बिकते थे। उसके लिए कठोर दंड का विधान था। दास का कोई हीन, अधिकार-शून्य वर्ग न था, जो दूसरे की संपत्ति हो और इसलिए स्वयं संपत्ति न रख सकता हो, अथवा जिसे अन्य नागरिकों की भाँति स्वतंत्रता का पूर्ण अधिकार न हो। जातक तथा अन्य साहित्य में स्वयं की इच्छा से बने इस प्रकार के दास (भृत्य) का उल्लेख है। मनु ने इसी प्रकार के 'दास' (भृत्य) को अपने स्वामी, अर्थात नियोजक (employer) के परिवार का सदस्य माना और वैसा ही महत्व दिया है। इनके हित की रक्षा, इनकी तथा इनके बच्चों की उसी प्रकार की शिक्षा का प्रावधान किया जैसा परिवार के सदस्यों के लिए था। 'अमरकोश' में 'दास' और उसके पर्यायवाची शब्द सभी 'सेवक' के समानार्थी हैं, जो अपनी इच्छा से उचित मूल्य लेकर सेवाकार्य करते हैं। भारतीय जीवन में अरब और यूरोपीय देशों की गुलाम बनाने वाली दास प्रथा कभी नहीं आई। मनुष्मृति के अष्ट्म अध्याय के अंत में श्लोक ४१० से ४२० को विषय, प्रसंग-विरोध, भिन्न शैली तथा अंतर्विरोध के कारण अनुसंधानात्मक संस्करण प्रक्षिप्त मानते हैं।

ऎसा इस स्वतंत्रता का व्याप था, जो सारे भारतीय चिंतन पर छाया। पर जब आक्रमणकारी भारत में आए तब उन्होंने (अपनी दास प्रथा के समान ही), जिन लोगों ने धर्म-परिवर्तन से इनकार किया, उन्हें अपमानित करने के लिए गंदगी ढोने आदि के काम करवाए। इस प्रकार जिन्हें घृणास्पद कार्य करने के लिए विवश किया गया, बाद में उनका एक अलग वर्ग बना। जो आक्रमणकारी लुटेरे बनकर आए थे युद्घबंदी बनाकर ले गए, जिनका क्रय-विक्रय उनके देश के बाजारों में होता रहा। पर भारतीय विधि ने दास प्रथा कभी नहीं मानी।

इस प्राणिमात्र की दैहिक स्वतंत्रता के प्रथम स्वत्व के अंदर जो मानव-मूल्य प्रतिष्ठित हैं वे भारतीय सभ्यता की अमूल्य देन हैं।

विधि का विकास स्थिति (या पद) से संविदा की ओर हुआ है
इसी प्रकार 'जल' तो प्राणिमात्र को देना होगा। प्यासे को ना नहीं करेंगे, क्योंकि यह उसका स्वत्व है। यही कारण है कि जल का मूल्य अथवा प्रतिदान नहीं लिया जाता था। कोई नगरपालिका अथवा शासन जल-कर (water rate) नहीं लगा सकता था। इसीलिए कुएँ, बावली और पशुओं के लिए सड़कों के किनारे चरही आदि बनाना पुण्य का कार्य है।


इलाहाबाद संगम से जमुना पुल

इसी प्रकार यह 'धरती', रहने के लिए भूमि की घोंषणा है, और 'आकाश' एक छत या आश्रय की। प्राणिमात्र ने पृथ्वी पर जन्म पाया है, इसलिए उसे धरती, रहने का स्थान देना ही होगा। उसके प्राकृतिक वास को छीनेंगे नहीं। सभी वन्य पशुओं के लिए उनका प्राकृतिक वास मानव को छोड़ना होगा। यह सबके 
सह-अस्तित्व की कल्पना है। मानव ने भी जन्म लिया है, इसलिए उसे २ X३ मीटर धरती तो देनी ही होगी और एक छाजन से पूर्ण आश्रय-स्थान (आकाश)।


हैनरी मैन

उन्नीसवीं शताब्दी में विधिशास्त्र की एक पुस्तक आई जिसने यूरोपीय विचार में एक परिवर्तन का सूत्रपात किया। यह हेनरी मेन (Henry James Sumner Maine) की 'प्राचीन विधि' (Ancient law)  थी। आज उस पुस्तक की अनेक बातों को अर्द्घ-सत्य कहकर चुनौती दी गयी है। पर कभी उसके वाक्य कि 'विधि का विकास स्थिति (या पद) (status) से संविदा (contract) की ओर हुआ  है' ने यूरोपीय चिंतन को नई दिशा दी थी। शायद स्वत्व की अपूर्ण कल्पना ही 'स्टेटस' शब्द में प्रकट हुई।  पर भारत की प्राचीन विधि में कोरा 'स्टेटस' कोई अधिकार प्रदान नहीं करता। उसके साथ स्वत्व जुड़ा होने के कारण अनायास ही वे प्राप्त होते हैं।

जिस संस्कृति ने ऎसी उदात्त भावना उपजाई और प्रारंभ से जहाँ विधि में प्राणिमात्र के स्वत्व को  स्थान दिया और उसे अहरणीय बताया, उसी में मानव जाति का और फिर इस ग्रह का भविष्य सुरक्षित है। यह मानव को प्राणिमात्र से और फिर प्रकृति से जोड़ता है।

गणतंत्र की प्रथा प्राचीन भारत से शुरू हुई
सामाजिक जीवन की चौथी मूल धारणा उन राजनीतिक विचारों को लेकर है, जिन्हे 'प्रजातंत्र' (Democracy) के नाम से जाना जाता है। सामाजिक व्यवस्था का अनिवार्य अंग राजनीतिक ढाँचा भी है। मध्य युग में सामी सभ्यता सारे यूरोप, पश्चिम एशिया, पूर्वी तथा उत्तरी अफ्रीका में छा गयी। उनका राजनीतिक जीवन जिस पद्घति से परिचित था, अर्थात पादशाही या एक व्यक्ति के वंशानुवंश शासन (वही बादशाह तथा वही पंथगुरू, खलीफा) का बोलबाला रहा। और किसी प्रकार के प्रजातंत्र में स्वल्प संक्रमण ने विकृतियाँ उत्पन्न कीं, तानाशाहों का निर्माण किया और एक भ्रांत धारणा को जन्म दिया कि ये प्रजातंत्र की पद्घतियाँ किसी आधुनिक युग की देन हैं।



शकुंतला, दुष्यंत को पत्र लिखते हुऐ जिनके पुत्र भरत जिसके नाम पर अपने देश का नाम पड़ा। चित्र - राजा रवी वर्मा

परंतु भारतीय समाज प्राचीन काल में एक ही प्रकार की राजनीतिक रचना जानता था, जिसे 'गणतंत्र' कहते थे। व्यक्ति और उसके कुटुंब से लेकर मानवमात्र तक सभी बाड़ों को तोड़ता एक विशाल संगठन, 'वसुधैव कुटुंबकम्' का सपना भारत ने देखा था। उसे चरितार्थ करने का माध्यम यह गणतंत्र पद्घति थी। सुदूर अतीत, आज के विचारकों के अनुसार सामाजिक जीवन के प्रारंभ में ऎसी रचना उनके लिए आश्चर्य का विषय है।  इसके इतने प्रकार के प्रयोग हैं, जिनसे सर्वसाधारण का सीधा नाता शासन से ही नहीं, सामूहिक सांस्कृतिक जीवन से जुड़ता है, जिसमें वे सहभागी बनते हैं।

भारत में सदा से राज्य-व्यवस्था के अनेक प्रयोग होते आए। आज तक हिंदू के राज्य-संबंधी संवैधानिक विचारों का क्रमबद्घ इतिहास नहीं लिखा जा सका। पर प्राचीन हिंदू धर्मशास्त्रों में इस देश के विक्रम पूर्व के ३००० वर्षों में 'गणतंत्र' के सतत विकास का दृश्य देख सकते हैं। उस पर किसी आधुनिक देश को गर्व हो सकता है।

प्राचीन भारत में, संविधान, समिति, और सभा
अनेक प्रकार के संविधानों का वर्णन प्राचीन ग्रंथों में आता है। इनमें से कुछ का वर्णन किया जा सकता है; जैसे भौज्य संविधान, जहाँ गुणों पर चयनित अनेक नेता मिलकर राज्य की सर्वप्रभुता का उपभोग करते थे। ये सामूहिक नेतृत्व के प्रयोग थे। यह नेतृत्व वंशानुगत न था। ऎसे यादव थे जिनकी द्वारका थी। काठियावाड़ में अनेक भोज राज्य प्रसिद्घ थे। ऎसा ही 'राष्ट्रिका' का संविधान था। वहाँ नेता चुने जाते थे। चुनाव के बाद वे सामूहिक रूप में राज्य की सर्वोच्च सत्ता सँभालते थे। द्वैराज्य का अर्थ 'दो का शासन' है, जैसे महाभारत में 'अवंती' का वर्णन है। इस प्रकार का संविधान निराला था। पश्चिमी दार्शनिकों के अनुसार संप्रभुता अविभाज्य है। शायद भारत में जहाँ मिताक्षरा के सम्मिलित कुटुंब की कल्पना है, इस प्रकार दो शासकों का देश, जिनमें अधिकारों का बँटवारा न हो, चल सकता था। 'अराजक' राज्य अथवा 'वैराज्य' में कोई शासक न था। कुछ पश्चिमी विद्वान कहते हैं कि ऎसा राज्य आदर्श है, जहाँ शासक न हो, अर्थात धर्म (कानून) का राज्य हो। पर महाभारत ने इस तरह के राज्य की हँसी उड़ाई है। कहा,

'लोगों को अपनी गलती का पता चल गया कि कानून का पालन बिना शास्ति के नहीं हो सकता।'
युवराज द्वारा शासित राज्य भी थे। 'विरूद्घ-रज्जानि' वे थे, जहाँ एक दल का शासन था। परंतु इन सब संविधानों में व्याप्त था गणराज्य, जहाँ गण (मत गिनकर) शासन हो।

वैदिक समय के राज्य की संप्रभुता-संपन्न सभा को 'समिति' (सम् + इति= सम्मिलन) कहा जाता था। सभी नागरिकों की यह समिति एक निश्चित काल के लिए 'राजन्' का चयन करती थी। वह राज्य के मामलों में विचार-विमर्श ही नहीं वरन् विद्वत् परिषद् के समान सास्कृतिक या शास्त्रीय मसलों पर भी चर्चा करती थी तथा व्यवस्था देती थी। उस समय की संवैधानिक उन्नति का अनुमान समितियों में होने वाले वाद-विवाद के स्तर से लगाया जा सकता है और उसके ईशान (अध्यक्ष)  तथा प्रत्येक के वहाँ बोलने के, मुक्त अभिव्यक्ति के अधिकार से। कालांतर में राष्ट्र के सभी लोग समिति में बैठें, यह व्यावहारिक न रह गया। इसीलिए कहीं-कहीं 'ग्रामणी' (ग्राम अथवा नगर का नेता) का उल्लेख आता है। गाँव के संवैधानिक गठन की यह कुंजी थी और कभी गाँव उसी के नाम से पुकारा जाता था। धीरे-धीरे समिति के गठन का आधार ग्राम बन गया। यह चुनाव-क्षेत्र का पर्याय था।

परंतु बाद में जब एक अर्थ में राजतंत्र आया, उसे अब सीमित राजतंत्र कहेंगे, तब समिति का स्थान 'जानपद' (राज्य सभा) तथा 'पौर' (राजधानी की अथवा नगर सभा) ने ले लिया। इस राजतंत्र की भी विचित्र कहानी तथा गठन दिखता है। इस कालखंड में सम्राट् कोई रहा हो, पर उसकी राजधानी और उसके आसपास का क्षेत्र छोड़कर उसके अधिराज्य के प्राय: सभी प्रदेश स्वायत्तशासी गणराज्य थे। (जैसे दशरथ के सम्राट् होने पर भी उनका शासन अयोध्या तक सीमित था और राम के साथ शिक्षा प्राप्त चुने गये निषादराज भी थे।) इसी से जानपद तथा पौर का महत्व बढ़ गया।

प्राचीन भारत में समिति, सभा और गणतंत्र में सम्बन्ध
वेदों ने समिति को शाश्वत कहा है। उसे प्रजापति (ब्रम्हा) की पुत्री कहकर पुकारा। इसीलिए वह अमर है। इस समिति की छोटी बहन को 'सभा' कहा। अथर्ववेद में राज्य-प्रमुख की प्रार्थना है- 'समिति और सभा-प्रजापति की दोनों पुत्रियाँ मिलकर मेरी सहायता करें। जिनसे भी मेरी भेंट हो, मुझसे सहयोग करें। हे पितृगण ! मैं तथा यहाँ एकत्रित सभी सहमति के शब्द बोलें।'

आज हम समिति तथा सभा के पारस्परिक संबंध नहीं जानते। सभा में शायद प्रौढ़ या विशेषज्ञ (पितृगण) रहते थे। इसे 'नरिष्टा' कहा, अर्थात जिसके निर्णय का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, न उपेक्षा। 'सभा' का शाब्दिक अर्थ है 'वह निकाय जिसके लोग आभायुक्त हों।' यह राष्ट्रीय न्यायाधिकरण (सर्वोच्च न्यायालय ) के रूप में भी कार्य करती थी।

पाणिनि ने गणराज्यों के लिए 'गण' अथवा 'संघ' दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। 'गण' का शाब्दिक अर्थ है 'गिनना'। भगवान बुद्घ ने बौद्घ भिक्षुओं की संख्या के बारे में कहा,

'उन्हें गिनो, जैसे गण में मत गिने जाते हैं। अथवा शलाका (मतपत्र) लेकर गिनो।'
उस समय राज्य की सर्वोच्च सभा या संसद् को भी 'गण' कहकर पुकारने लगे। इसी से हुआ 'गणपूरक', वह व्यक्ति जिसका उत्तरदायित्स था गण की बैठक में कोरम (quorum)  पूरा करवाना और देखना। वह समिति का सचेतक भी था। इन गणों के विधान का भी विवरण जैन सूत्रों अथवा महाभारत में मिलता है। किन नियमों के द्वारा यहाँ विचार-विमर्श होता था और कैसे निर्णय लिये जाते थे। इसी प्रकार नागरिकता तथा मताधिकार के भी नियम थे।

पाणिनि ने अनेक गणराज्यों का वर्णन किया है-वृक, दामनि, त्रिगर्त्त-षट् (छह त्रिगर्त्त, अर्थात कौंडोपरथ, दांडकी, कौटकि, जालमानि, ब्राम्हगुप्त तथा जानकी का संघ), यौधेय, पर्श्व आदि। इनके अतिरिक्त मद्र, वृज्जि, राजन्य तथा अंधक-वृष्णि आदि अनेक गणराज्यों अथवा उनके संघों का नाम महाभारत में आता है। उनमें से कुछ का संविधान गणराज्यों का संघीय रूप था।

बुद्ध और भिक्खु संघ
बुद्घ का जन्म और लालन-पालन शाक्य गणराज्य में हुआ था। शाक्य गणराज्य के अध्यक्ष के पुत्र होने के नाते वह उस परंपरा में पगे थे।  इसलिए उन्होंने बौद्घ भिक्षुओं के संप्रदाय को 'भिक्खु संघ' (अर्थात भिक्षुओं का गणराज्य) की संज्ञा दी। वहाँ चुनाव की प्रथा थी। यही प्रथा पंचायती अखाड़ों ने अपनाई।


गौतम बुद्ध अपने पांच साथियों के साथ। इनके साथ पहले संघ की स्थापना हुई। 

बुद्घ का एक संस्मरण कहा जाता है। मगध के राजा ने जानना चाहा कि वृज्जि, लिच्छवि और विदेह गणराज्यों पर आक्रमण किया जा सकता है क्या ? तब उसके दूत को उत्तर न देकर उन्होंने अपने पट्ट शिष्य से कहा,

 'तुमने सुना, आनंद! बिज्जी (वृज्जि) सब लोगों की निरंतर सभाएँ करते रहते हैं?'
आनंद के 'हाँ' कहने पर तथागत ने दूत को सुनाकर सात प्रश्न वृज्जि गणराज्य के विधान के बारे में पूछे और निष्कर्ष निकाला - जब तक

  • बिज्जी (वृज्जि) सभी लोगों की बारंबार सभाएँ करते रहते हैं;
  • वे सामंजस्य में एक-दूसरे से मिलते हैं, मेल बढ़ाते हैं और राजकार्य मतैक्य जुटाकर करते हैं;
  • वे ऎसे नियम नहीं लागू करते जो पहले से स्थापित नहीं हैं, या परंपराओं को रद्द नहीं करते हैं तथा वृज्जि की प्राचीन संस्थाओं के अनुसार कार्य करते हैं;
  • वे वृज्जि गुरूजनों का सम्मान करते हैं, उन्हें श्रद्घा और आदर की दृष्टि से देखते हैं, उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं;
  • उनके यहाँ कोई स्त्री तथा बालिका बलपूर्वक निरूद्घ नहीं की जाती, न उसका अपहरण होता है- अर्थात जहाँ कानून का शासन है, न कि जोर-जबरदस्ती का;
  • वे वृज्जि -चैत्यों (देवालय, यज्ञशाला, समाधिस्थल आदि पवित्र स्थान) को पूज्य समझते हैं और उचित सम्मान देते हैं- अर्थात वे प्रस्थापित धर्म का पालन करते हैं;
  • जब तक वे अपने अंदर अर्हतों का संरक्षण, सहायता तथा सहारे का प्रबंध करते हैं
तब तक बिज्जी (वृज्जि) फूलेंगे-फलेंगे, उनका ह्रास न होगा।

यह सुनकर दूत ने कहा,

'वृज्जि पर मगध का राजा विजय प्राप्त नहीं कर सकता।'
गणराज्य जब तक संघ-जीवन के नियमों का पालन करते थे, अपराजेय थे। इन गणराज्यों के पास कोई सेना न थी, उनके नागरिक अस्त्र-शस्त्र की विद्या में निपुण थे। जनता ही उनकी सेना थी। परंतु उनके अजेय होने का रहस्य इसमें न था। वह था उनके बारंबार मिलने तथा सहमति से निर्णय लेने की क्षमता में, उनके लोक-जीवन के अनुशासन में। और सबसे बढ़कर उस संस्कृति में, जो उन्होंने उपजाई।

प्राचीन ग्रंथों में गणराज्य का महत्व और भारत में गणराज्य की पुन:स्थापना
महाभारत के शांतिपर्व (अध्याय १०७) में गणराज्यों की विशिष्टता और लक्षणों का वर्णन है। जो किसी के अधीन न थे, न उन्हें कोई पराजित कर सका। भीष्म ने उनके गुण-दोषों की चर्चा की है। युधिष्ठिर ने पूछा,

'गण (राज्य) कैसे फलते-फूलते हैं? आपसी फूट एवं विच्छेद से कैसे बचते हैं? मुझे लगता है, कैसे इतनी बड़ी संख्या के कारण राज्य के संकल्प गोपनीय रख पाते होंगे?'
भीष्म ने तब गणों की समृद्घि और वैभव का रहस्य समझाया। उन्होंने कहा,

'लोभ और ईर्ष्या ही गणों के अंदर, जैसे कुल में, दुश्मनी उत्पन्न  करते हैं। यह विनाश की जड़ है। भेद एवं द्वेष गण के पतन का कारण बनते हैं। जो अच्छे गण हैं वहाँ ज्ञानवृद्घ परस्पर सुख का संचार करते हैं। उन्होंने शास्त्रों के अनुसार धर्मनिष्ठायुक्त कानून की व्यवस्था की है। वे गण उन्नति करते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने पुत्रों और भाइयों (नागरिकों) को अनुशासन सिखाया है, उन्हें प्रशिक्षित किया है। वे कहते हैं, क्योंकि उनके यहाँ सदा सम्मेलन होते रहते हैं। उनमें जो धनवान, वीर, ज्ञानी हैं और शस्त्र-शास्त्र में प्रवीण हैं, वे अपने असहाय बंधुओं की सदा सहायता करते हैं। भय, क्रोध, विभेद, परस्पर विश्वास का अभाव, अत्याचार और आपस की हिंसा होने पर ही वे शत्रु के चंगुल में फँसते हैं। इनके लिए आंतरिक संकट ही सबसे बड़ा है। उसके सामने बाह्य संकट नगण्य है। गण में सर्वव्यापी समता (सदृशता) होती है, जन्म से तथा कुल से। इस कारण गण किसी प्रकार तोड़े नहीं जा सकते, न शौर्य से या चालाकी से, न रूप के जाल से। शत्रु केवल भेद उत्पन्न कर फूट डालने से जीत सकते हैं। इसलिए उनकी सुरक्षा राज्य संघों में है।'
शायद हम आज भूल गये हैं कि,

'समाज में गण की शक्ति आंतरिक समता में है।'

हिंदु समाज ने अपने जीवन के सर्वोदय में 'सभी सुखी हो' के सिद्घांत का गणतंत्रीय संविधान में साक्षात्कार किया था। जब कभी एक व्यक्ति के ध्वज-दंड के चारों ओर देश की आत्मा को बाँधने का प्रबंध हुआ, अंत में असफलता ही मिली। भारत की जीवन-प्रवृत्ति, उसकी प्रकृति तो विकेंद्रीकरण में थी, जिसका विकास गणराज्य के संघ में हुआ। यह गणतंत्र पद्घति संसार को भारत की देन है। अथर्ववेद का आदेश है-

'हे राजन् ! तुझको राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुनें तथा स्वीकारें।' (तृतीय कांड, सूक्त ४, श्लोक २)
ऎसे चुने हुए व्यक्ति को वेदों ने 'राजा' कहा। इसके विस्मरण से समाज में, देश में विकृतियाँ उत्पन्न हुयी।

प्राचीन गणराज्यों का वर्णन भावपूर्ण भाषा में डा. काशी प्रसाद जायसवाल ने अपनी पुस्तक 'हिंदु राज्यतंत्र' ( Hindu Polity) में किया है। हिंदु राज्यतंत्र के पुनर्जीवन की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा,

'पर जब हिंदु का पुनर्जागरण हुआ, शिवाजी व सिखों के समय, तो एक राज्यतंत्र के रूप में सिख विफल हुए। वे अतीत से अपना संबंध न जोड़ सके। उनके चारों ओर जो तंत्र था, उसी का अनुसरण उन्होंने किया और एक व्यक्ति का राज्य स्थापित किया। गुरू गोविंद ने उपाय करने की सोची, पर उनका प्रयत्न लाया अराजकता। वह पादशाही थी मुगल शासन की, सफलता में और विफलता में, उदय में और अस्त में। परंतु महाराष्ट्र की गतिविधियों का इतिहास दूसरा हुआ। उन्होंने अतीत की ओर देखा व संविधान बनाया। तंत्र खड़ा किया, उस पर जो उन्हें उपलब्ध था, पर जिसने उनका नाता अतीत से जोड़ा। उन्होंने महाभारत व शुक्रनीति से प्रेरणा ली। पाया कि एक राजा को जन-हृदय का राज्य चाहिए, शासन नहीं (a king should reign but not rule), कि सरकार अष्ट प्रधान ( आठ मंत्रियों) के हाथों सौंपी जानी चाहिए। उन्होंने राजनीतिक साहित्य से तकनीकी शब्द खोजे। उनका राजकोष निर्मित किया। परंतु उन्होंने जिस तंत्र का उपभोग किया वह हिंदु राजतंत्र का अर्द्घांग था। उनके पास परिषद् थी, पर 'पौर', 'जानपद' न थे। पर यह श्रेय तो उनका था ही कि आधुनिक काल में वे उनमें अग्रणी थे जिन्होंने जाना कि एक व्यक्ति के राज्य की उनके पूर्वजों की प्रज्ञा व अनुभव स्वीकृति नहीं देते कि वह शास्त्रों की प्रतिभा के समक्ष विदेशी है। उनकी कमिया। अपने देश के संवैधानिक इतिहास के बारे में अंधकार व अज्ञान की परिसीमाए। थीं। वह अंधकार, जिसे हम इन शताब्दियों बाद भी दूर नहीं कर सके।'

अपनी पुस्तक के उपसंहार में उन्होंने लिखा,

'किसी भी राजतंत्र की कसौटी उसके जीवंत होने व विकसित हो सकने में है।--हिंदु ने जैसी संवैधानिक उन्नति की, उसे प्राचीन काल का कोई राज्यतंत्र न छू सका, न उससे आगे निकल सका और यह हिंदु का सौभाग्य है कि वह अब भी जीवाश्म नहीं बना। वह अब भी जीवंत है, उस संकल्प को ले जिसे एक इतिहास ने दृढ़ निष्ठा कहकर संबोधित किया, जो झुक सकती है पर टूटती नहीं। उसके राज्यतंत्र का स्वर्णयुग अतीत में नहीं,  वह भविष्य में है। हिंदु का आधुनिक इतिहास सत्रहवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब वैष्णव संप्रदाय ने मानव की समता का प्रचार किया और जब ब्राम्हण ने उसका स्वागत किया, उसे प्रेरित किया। जब हिंदु के भगवान की पूजा-अर्चना एक मुसलमान द्वारा रचित भजनों से हुई। जब समर्थ गुरू रामदास ने गर्जना की कि मानवमात्र स्वतंत्र है और जोर-जबरदस्ती से उसे पराधीन नहीं किया जा सकता ( 'नरदेह हा स्वाधीन, सहसा न ह्वे पराधीन') और जब ब्राम्हण ने शूद्र का नेतृत्व एक राज्य की नींव डालने के प्रयत्न में स्वीकार किया।'

कैसे हैं ये शब्द और वे गणराज्य के अपूर्व समता के प्रयोग, जिन्होंने प्राचीन विचारधारा को महिमा से मंडित किया था ! शायद सामी सभ्यता के संघातों के फलस्वरूप एक व्यक्त के राज्य के विचार ने अनेक कुभावनाओं को जन्म दिया। हम मानव संस्कृति के अनुरूप गण की भव्य विचारधारा का प्रकाश जगाएँ, उसकी कमजोरियों को सामाजिक जीवन से निकालें। यही विक्रम पूर्व सदा से चले आए गणराज्यों का संदेश है।

संवत् २००६ में भारत में गणराज्य की पुन:स्थापना हुयी है। प्रत्येक व्यक्ति को नेता चुनने का अधिकार मिला। उसको समिति या सभा में बोलने का, मन की बात कहने का अधिकार मिला। पर उस संस्कृति को वे भूल गए जिसमें ये अधिकार पल्लवित और पुष्पित हुए। आज तो एक घोर विदेशी विचारधारा भारत के प्राचीन कालखंड में स्वर्णाक्षरों से लिखे गए इतिहास से इनकार करने तथा उसे झुठलाने में लगी है। कहते हैं, अब पहले-पहल भारत में संविधान बना है। पर प्राचीनतम ग्रंथों में वर्णित अनेक प्रकार के गणतंत्रीय संविधान हम भूल गए और भूलते हैं शिवाजी के कालखंड में उनका पुनर्जीवन।

यूरोप में गणतंत्र या फिर प्रजातंत्र
यूरोप के सद्य: युग में गणतंत्र ( उसे वे प्रजातंत्र कहते हैं) के कुछ प्रयोग हुए हैं। इंगलैंड में इसका जन्म हिंसा में और फ्रांस में भयंकर रक्त-क्रांति में हुआ। कहा जाता है, 'फ्रांस की राज्य-क्रांति ने अपने नेताओं को खा डाला।' और उसीसे नेपोलियन का जन्म हुआ, जिसने अपने को 'सम्राट' घोषित किया। और इसीमें हिटलर, मुसोलिनी एवं स्टालिन सरीखे तानाशाहों का जन्म हुआ। कैसे उत्पन्न हुआ यह प्रजातंत्र का विरोधाभास ?

आज प्रजातंत्र का अर्थ दो परस्पर विरोधी धारणाओं के बीच झूल रहा है। एक सामान्य अर्थ 'प्रशासनिक कार्यों में जनता का सहभागी होना' है। ऎसा तंत्र जिसमें राज्य के क्रिया-कलापों का संचालन वहाँ के नागरिकों द्वारा हो। इसका अर्थ ग्राम, नगर और छोटे-छोटे क्षेत्र- सभी को स्वायत्त शासन प्राप्त होना है। अर्थात राज्य के कार्य में सामान्य जन की सहभागिता। पर एक दूसरा अर्थ भी तथाकथित समाजवादी देश करते हैं। इस व्यवस्था में जनता को मताधिकार दिए जाने के राग अलापे जाते हैं कि उसे 'अधिकार' है कि निश्चित अवधि में एक बार मतदान करे। इसके बाद चुने गये जन-प्रतिनिधि शासन की सारी क्रिया संभालते हैं। मत देने के बाद जनता के अधिकारों की इतिश्री हो जाती है। जन-प्रतिनिधि हैं शासक और शेष हैं शासित समाज, उनकी प्रजा, जिसका मत देने के अतिरिक्त शासन में अधिकार या उससे संबंध नहीं। अनेक बार इस तरह के प्रजातंत्र में चुनाव की एक ही सूची 'शासक' चुनने की रहती है। मतदाता को सूची के लिए 'हाँ' अथवा 'ना' करना पड़ता है। न दूसरा प्रतियोगी, न विकल्प की सूची। वाह रे चुनाव !

इस प्रकार साम्यवादी अथवा यूरोपीय समाजवादी देशों में प्रजातंत्र का अर्थ उलट गया है। वहाँ उसका अर्थ है, 'सरकार का जनता के कार्यों में सहभागी होना।' 'राष्ट्रीयकरण' के शब्द-जाल के पीछे सरकारीकरण की धूम मच गयी। राज्य एक सर्वग्रासी दानव के समान उठ खड़ा हुआ। उसने नागरिक अधिकारों को लीला, जनता के कार्यों का अपहरण तथा स्वायत्त शासन का तिरस्कार किया। यह समाजवाद की यूरोपीय कल्पनाओं की देन है।

वहाँ समाजवाद का जन्म भौतिकवादी दर्शन में हुआ। इस दर्शन में यदि 'सुख' को किसी गणितीय सूत्र में रखना हो तो कहेंगे 'सुख = उपलब्धि + आवश्यकता।' संसार में उपलब्धियाँ कम हैं तथा आवश्यकताएँ अधिक और सुरसा की तरह मुँह फैलाए जा रही हैं।  इसलिए यदि सुख प्राप्त करना है तो (उपलब्धियों के) उत्पादन तथा वितरण पर समाज का और इसलिए सरकार का नियंत्रण हो। यह साधारणतया संभव नहीं तो फिर उसका एकाधिकार चाहिए। इस प्रकार यूरोपीय समाजवाद का अर्थ केवल उत्पादन और वितरण के साधनों पर अनंततोगत्वा सरकार का, और इस प्रकार जिस गुट की सरकार घटनावश बने, उसका एकाधिकार है।

इस प्रकार की व्यवस्था में वस्तुएँ कम तथा उपभोग की लालसा अधिक होने के कारण सभी की इच्छा-पूर्ति असंभव है। यह मानकर कि 'अधिक - से- अधिक लोगों का अधिक -से- अधिक भला' (Greatest good of the greatest number)  के रूप में प्रजातंत्र की परिभाषा आई। यह आधुनिक प्रजातंत्र का एक बोध वाक्य कहा जाता है। साबरमती आश्रम में गांधी जी का एक उद्घरण उत्कीर्ण है- 'मेरा (उक्त) सिद्घांत पर विश्वास नहीं है। नग्नता में इसका अर्थ है-इक्यावन प्रतिशत के कल्पित लक्ष्य को पाने के लिए उनचास प्रतिशत के हितों की बलि दी जा सकती है, दी जानी चाहिए। यह निर्दय सिद्घांत है, जिसने मानवता को चोट पहुँचाई है। सच्चा गौरवशाली मानवीय सिद्घांत है- सबका अधिकतम भला।' यही भारतीय समाज-दर्शन है, जिसका बोध वाक्य है-'सर्वेपि सन्तु सुखिन:'।


'प्रजातंत्र' की यूरोपीय पद्घतियों के दोष राजनीति की पुस्तकों में उल्लिखित हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में एक 'तम्मनी हाल संस्कृति' (Tammany Hall Culture)  का उदय हुआ। एक आदिवासी, बुद्घिमान तथा परोपकारी शासक 'तम्मनंद' के नाम पर यह न्यूयार्क का भवन कालांतर में राजनीतिक दादागिरी और भ्रष्टाचार का पर्याय बना। विशिष्ट पदों का सृजन, जिसमें अपने राजनीतिक छुटभैयों को स्थान मिले, अपने समर्थकों को अनुदान के नाम पर सरकारी खैरात, अपनों को कुरसी पर रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे और सरकारी शक्ति तथा धन का प्रयोग, अपराधियों का संरक्षण और उनका अपने दल के लिए दुरूपयोग, अपने को सत्ता में रखले के लिए समाज को शतखंड-खंडित करने और उनके छोटे-छोटे अंशों के स्वार्थ जगाने का उपक्रम, सत्ता का अपने स्वार्थ के लिए दुरूपयोग तथा अपना मत-बैंक (vote bank) बनाने के लिए छोटे समुदायों की अलग पहचान बनवाने का देशद्रोह, ये सब ऎसी 'राजनीतिक मशीन' के कारनामे हैं।

कहाँ यह और कहाँ वह संस्कृति, जो एकात्म मानववाद की शिला पर समरस जीवन का निर्माण करे; और उसके द्वारा उपजाया गणतंत्र, जहाँ छोटी-छोटी व्यावसायिक अथवा भिन्न वर्गों की स्वायत्तशासी इकाइयाँ और फिर 'पौर' एवं 'जानपद' शासन के कार्यों में जन-जन की सहभागिता लें ! बंधुत्व जिसमें रंग भरे। ऎसा व्यक्ति से लेकर समष्टि तक एक समाज-जीवन खड़ा करने में भारत के गणतंत्र के प्रयोग संसार को दिशा दे सकते हैं। कुटुंब की नींव पर खड़ा मानवता का जीवन शायद 'वसुधैव कुटुंबकम्' को चरितार्थ कर सके।


इस चिट्ठी में इलाहाबाद में संगम से जमुना के पुल के चित्र को छोड़ कर बाकी सारे चित्र विकिपीडिया से हैं।

रविवार, अप्रैल 05, 2009

यूरोप में गणतंत्र या फिर प्रजातंत्र

यूरोप के सद्य: युग में गणतंत्र (उसे वे प्रजातंत्र कहते हैं) के कुछ प्रयोग हुए हैं। इंगलैंड में इसका जन्म हिंसा में और फ्रांस में भयंकर रक्त-क्रांति में हुआ। कहा जाता है, 'फ्रांस की राज्य-क्रांति ने अपने नेताओं को खा डाला।' और उसीसे नेपोलियन का जन्म हुआ, जिसने अपने को 'सम्राट' घोषित किया। और इसीमें हिटलर, मुसोलिनी एवं स्टालिन सरीखे तानाशाहों का जन्म हुआ। कैसे उत्पन्न हुआ यह प्रजातंत्र का विरोधाभास ?

आज प्रजातंत्र का अर्थ दो परस्पर विरोधी धारणाओं के बीच झूल रहा है। एक सामान्य अर्थ 'प्रशासनिक कार्यों में जनता का सहभागी होना' है। ऎसा तंत्र जिसमें राज्य के क्रिया-कलापों का संचालन वहाँ के नागरिकों द्वारा हो। इसका अर्थ ग्राम, नगर और छोटे-छोटे क्षेत्र- सभी को स्वायत्त शासन प्राप्त होना है। अर्थात राज्य के कार्य में सामान्य जन की सहभागिता। पर एक दूसरा अर्थ भी तथाकथित समाजवादी देश करते हैं। इस व्यवस्था में जनता को मताधिकार दिए जाने के राग अलापे जाते हैं कि उसे 'अधिकार' है कि निश्चित अवधि में एक बार मतदान करे। इसके बाद चुने गये जन-प्रतिनिधि शासन की सारी क्रिया संभालते हैं। मत देने के बाद जनता के अधिकारों की इतिश्री हो जाती है। जन-प्रतिनिधि हैं शासक और शेष हैं शासित समाज, उनकी प्रजा, जिसका मत देने के अतिरिक्त शासन में अधिकार या उससे संबंध नहीं। अनेक बार इस तरह के प्रजातंत्र में चुनाव की एक ही सूची 'शासक' चुनने की रहती है। मतदाता को सूची के लिए 'हाँ' अथवा 'ना' करना पड़ता है। न दूसरा प्रतियोगी, न विकल्प की सूची। वाह रे चुनाव !

इस प्रकार साम्यवादी अथवा यूरोपीय समाजवादी देशों में प्रजातंत्र का अर्थ उलट गया है। वहाँ उसका अर्थ है, 'सरकार का जनता के कार्यों में सहभागी होना।' 'राष्ट्रीयकरण' के शब्द-जाल के पीछे सरकारीकरण की धूम मच गयी। राज्य एक सर्वग्रासी दानव के समान उठ खड़ा हुआ। उसने नागरिक अधिकारों को लीला, जनता के कार्यों का अपहरण तथा स्वायत्त शासन का तिरस्कार किया। यह समाजवाद की यूरोपीय कल्पनाओं की देन है।

वहाँ समाजवाद का जन्म भौतिकवादी दर्शन में हुआ। इस दर्शन में यदि 'सुख' को किसी गणितीय सूत्र में रखना हो तो कहेंगे 'सुख = उपलब्धि + आवश्यकता।' संसार में उपलब्धियाँ कम हैं तथा आवश्यकताएँ अधिक और सुरसा की तरह मुँह फैलाए जा रही हैं। इसलिए यदि सुख प्राप्त करना है तो (उपलब्धियों के) उत्पादन तथा वितरण पर समाज का और इसलिए सरकार का नियंत्रण हो। यह साधारणतया संभव नहीं तो फिर उसका एकाधिकार चाहिए। इस प्रकार यूरोपीय समाजवाद का अर्थ केवल उत्पादन और वितरण के साधनों पर अनंततोगत्वा सरकार का, और इस प्रकार जिस गुट की सरकार घटनावश बने, उसका एकाधिकार है।

इस प्रकार की व्यवस्था में वस्तुएँ कम तथा उपभोग की लालसा अधिक होने के कारण सभी की इच्छा-पूर्ति असंभव है। यह मानकर कि 'अधिक - से- अधिक लोगों का अधिक -से- अधिक भला' (Greatest good of the greatest number) के रूप में प्रजातंत्र की परिभाषा आई। यह आधुनिक प्रजातंत्र का एक बोध वाक्य कहा जाता है। साबरमती आश्रम में गांधी जी का एक उद्घरण उत्कीर्ण है- 'मेरा (उक्त) सिद्घांत पर विश्वास नहीं है। नग्नता में इसका अर्थ है-इक्यावन प्रतिशत के कल्पित लक्ष्य को पाने के लिए उनचास प्रतिशत के हितों की बलि दी जा सकती है, दी जानी चाहिए। यह निर्दय सिद्घांत है, जिसने मानवता को चोट पहुँचाई है। सच्चा गौरवशाली मानवीय सिद्घांत है- सबका अधिकतम भला।' यही भारतीय समाज-दर्शन है, जिसका बोध वाक्य है-'सर्वेपि सन्तु सुखिन:'।


Tammany Hall on East 14th Street, NYC, between...

'प्रजातंत्र' की यूरोपीय पद्घतियों के दोष राजनीति की पुस्तकों में उल्लिखित हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में एक 'तम्मनी हाल संस्कृति' (Tammany Hall Culture) का उदय हुआ। एक आदिवासी, बुद्घिमान तथा परोपकारी शासक 'तम्मनंद' के नाम पर यह न्यूयार्क का भवन कालांतर में राजनीतिक दादागिरी और भ्रष्टाचार का पर्याय बना। विशिष्ट पदों का सृजन, जिसमें अपने राजनीतिक छुटभैयों को स्थान मिले, अपने समर्थकों को अनुदान के नाम पर सरकारी खैरात, अपनों को कुरसी पर रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे और सरकारी शक्ति तथा धन का प्रयोग, अपराधियों का संरक्षण और उनका अपने दल के लिए दुरूपयोग, अपने को सत्ता में रखले के लिए समाज को शतखंड-खंडित करने और उनके छोटे-छोटे अंशों के स्वार्थ जगाने का उपक्रम, सत्ता का अपने स्वार्थ के लिए दुरूपयोग तथा अपना मत-बैंक (vote bank) बनाने के लिए छोटे समुदायों की अलग पहचान बनवाने का देशद्रोह, ये सब ऎसी 'राजनीतिक मशीन' के कारनामे हैं।

कहाँ यह और कहाँ वह संस्कृति, जो एकात्म मानववाद की शिला पर समरस जीवन का निर्माण करे; और उसके द्वारा उपजाया गणतंत्र, जहाँ छोटी-छोटी व्यावसायिक अथवा भिन्न वर्गों की स्वायत्तशासी इकाइयाँ और फिर 'पौर' एवं 'जानपद' शासन के कार्यों में जन-जन की सहभागिता लें! बंधुत्व जिसमें रंग भरे। ऎसा व्यक्ति से लेकर समष्टि तक एक समाज-जीवन खड़ा करने में भारत के गणतंत्र के प्रयोग संसार को दिशा दे सकते हैं। कुटुंब की नींव पर खड़ा मानवता का जीवन शायद 'वसुधैव कुटुंबकम्' को चरितार्थ कर सके।


०१ - कुरितियां क्यों बनी
०२ - प्रथम विधि प्रणेता - मनु
०३ - मनु स्मृति और बाद में जोड़े गये श्लोक
०४ - समता और इसका सही अर्थ
०५ - सभ्यता का एक मापदंड वहाँ नारी की दशा है
०६- प्राचीन भारत में मानवाधिकार
०७ - अन्य देशों में मानवाधिकार और स्वत्व
०८ - भारतीय विधि ने दास प्रथा कभी नहीं मानी
०९ - विधि का विकास स्थिति (या पद) से संविदा की ओर हुआ है
१० - गणतंत्र की प्रथा प्राचीन भारत से शुरू हुई
११ - प्राचीन भारत में, संविधान, समिति, और सभा
१२ - प्राचीन भारत में समिति, सभा और गणतंत्र में सम्बन्ध
१३ - बुद्ध और भिक्खु संघ
१४ - प्राचीन ग्रंथों में गणराज्य का महत्व और भारत में गणराज्य की पुन:स्थापना
१५- यूरोप में गणतंत्र या फिर प्रजातंत्र




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