कबीलों का सादा जीवन (जैसा आस्ट्रेलिया और अमेरिका के आदिम निवासियों में पाया गया) दास प्रथा से अपरिचित था। पर पश्चिमी सभ्यता में संघर्ष तथा युद्घ आया और तज्जनित कृषि एवं उद्योंगों में श्रमिकों की आवश्यकता। तब युद्घबंदियों का मजदूर के रूप में उपयोग प्रारंभ हुआ। संभवतया उसी में इस निंदनीय प्रथा का जन्म उस समाज में हुआ जहाँ बर्बर अवस्था से उबरना न हो सका था, न सामाजिक जीवन-दर्शन उत्पन्न हुआ, न मानव-मूल्यों की कल्पना आई।
दास पाने का प्रमुख स्त्रोत युद्घबंदी थे। इसके अतिरिक्त दीन माता-पिता कभी नितांत विपत्ति अथवा संकट में अपनी संतान को, या ऋण चुका सकने में असमर्थ व्यक्ति अपने को दास के रूप में उपस्थित करता था। दासों का क्रय-विक्रय यूनान, साइप्रस, रोम, अरब और पश्चि के बाजारों में साधारण घटना थी। यहाँ एशियाई, अफ्रीकी तथा यूरोपीय दासों का सौदा होता था। यूनान में दास बहुत बड़ा संख्या में थे। कहते हैं, अकेले एथेंस में उनकी संख्या स्वतंत्र नागरिकों से अधिक थी। होमर के महाकाव्य 'इलियड' तथा 'ओडेसी' में उनका वर्णन आता है।
रोम साम्राज्य का प्रारंभ तथा प्रसार सैन्य बल पर हुआ था। वहाँ दास प्रथा पराकाष्ठा पर पहुँची। इस प्रथा के नियम रोमन विधि के विशिष्ट अंग थे। जिस कार्थेज (Carthage) को फणीशियों ( Phoenicians) (संभवतया यह पुराणों में वर्णित पणि या नाग जाति है) ने उत्तरी अफ्रीका के सुरक्षित तट पर विक्रम पूर्व नौवीं-आठवीं शताब्दी में बसाया, उसके साथ युद्घ-श्रंखला के चलते रोम में श्रमिकों की कमी हो गई। तब युद्घबंदियों से दासों की भाँति काम करवाने से यह प्रथा निर्ममता के शिखर छूने लगी। कहते हैं, उस समय कुछ प्रमुख बाजारों में दस हजार दासों का प्रतिदिन सौदा होता था। मनोरंजन के लिए भी दासों को शस्त्रों से अथवा कठघरे में रखे बए हिंस्र पशु से युद्घ करना पड़ता था, जिनमें घायल होना एवं मृत्यु साधारण बात थी।
ऎसी दशा में विक्रम संवत् पूर्व प्रथम शताब्दी में रोम के विरूद्घ दास-विद्रोह प्रारंभ हुए। एक समय दक्षिण इटली दासों के हाथ में चला गया। इधर साम्राज्य का विस्तार और उसके लिए युद्घ बंद हो गए। तब दासों का मिलना कम हो गया। रोमन साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण यह दास प्रथा कही जाती है। दास का अपने उत्पीड़न के आधार पर खड़ी व्यवस्था से कोई लगाव न था। रोमन साम्राज्य के समाप्त होते ही दास प्राप्त करने के लिए छापे तथा आक्रमण कम हो गए और दास प्रथा में कमी आई।
पर यूरोप में यह दास प्रथा चौदहवीं शताब्दी तक सामान्यतया चलती रही। अब दास अधिकांशत: 'स्लाव' (Slav); देश से मिलते थे। इसी से अंग्रेजी में दासता के लिए 'स्लेवरी' शब्द प्रयोग होता है। चौदहवीं शताब्दी के समीप पश्चिमी एशिया तथा पूर्वी यूरोप में पुन: युद्घ की छाया मँडराई। इसके कारण पश्चिमी यूरोप को युद्घबंदी दास के रूप में प्राप्त होने लगे। ये बंदी 'यीशु के शत्रु' समझे जाते थे और निरंकुश अत्याचारों के शिकार बनते। पादरियों की सेवा के लिए गिरनाघर में जो दास रखे जाते थे उनकी सबसे बदतर दुर्दशा थी। अरब देश तो सदा से अफ्रीकी दासों का व्यापार करते थे। पैगंबर ने गुलामों के साथ सहृदयता दिखाने की सलाह दी। पर व्यवहार में घोर कट्टरपन ने उलटा उन्हें नारकीय जीवन बिताने पर विवश किया। अरब का यह इसलामी कालखंड अधिकांशत: युद्घ की भट्ठी में जलता रहा। उनके साम्राज्य-प्रसार ने दासता को हवा दी। दास व्यापार पुन: बड़ी मात्रा में चालू हुआ।
जब यूरोप निवासियों का औपनिवेशिक युग प्रारंभ हुआ तब दास प्रथा में और बढ़ोत्तरी हो गई। पुर्तगाली अफ्रीकी दासों के व्यापार में अरबों से लोहा लेने लगे। नई दुनिया की खोज के बाद पश्चिमी द्वीप समूह, मेक्सिको और मेक्सिको की खाड़ी के क्षेत्र तथा पूर्व-उत्तरी अमेरिका का पूर्व-दक्षिण तट, पूरू, ब्राजील तथा अन्य देशों में यूरोपवासियों ने बड़े-बड़े क्षेत्र अपने कब्जे में कर लिये। वहाँ गन्ना, कपास, तंबाकू आदि और खाद्यान्नों की विस्तृत खेती के लिए श्रमिक चाहिए थे। उसकी पूर्ति पहले छापा मारकर वहाँ के आदिम निवासियों को दास बनाकर की, जिनको उनके खेतों से अथवा प्रदेश से निकाल दिया; उनके स्त्री-बच्चों को बाजारों में बेचा। अनेक आदिम जातियों का नाम इस प्रक्रिया में मिट गया। इन ईसाई 'सभ्य' लोगों के लिए इन 'धर्मभ्रष्ट' लोगों को 'सच्चा धर्म' दिखाने का एकमेव मार्ग इन्हें दास बनाना था। यूरोप निवासियों के अत्याचारों की कहानी अमेरिकी मूल जातियों के ह्रास तथा समूल वंश-नाश ने लिखी है।
सोलहवीं शताब्दी में अफ्रीकी दासों का अमेरिका में आयात प्रारंभ हुआ। इन हब्शियों को जहाजों में जानवरों की तरह ठूसकर समुद्र पार अमेरिका ले जाया जाता था। वहाँ उन्हें बेचकर वस्तुएँ और सोने से लदे जहाज यूरोत आते। मानव का क्रय ही यूरोप और अमेरिका की लौकिक समृद्घि की कहानी है। परंतु इससे इस भयानक अत्याचार का पूरा व्याप प्रकट नहीं होता। दासों के आवास से घुड़साल अच्छी; उनका आधा पेट भोजन और काम के समय पूरी टोली पर गोरे पर्यवेक्षक के कोड़े! दास प्रथा का दु:ख-दर्द तो आंशिक रूप से श्रीमती हैरियट स्टोई की पुस्तक 'टाम काका की कुटिया' ('Uncle Tom's Cabin': Harriet Beecher Stowe) पढ़कर समझ सकते हैं। कहते हैं कि इसी पुस्तक के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका का गृहयुद्घ हुआ। अब्राहम लिंकन ने (जो उस समय वहाँ के राज्याध्यक्ष थे) कहा, 'यदि दास प्रथा पाप नहीं है तो संसार में कुछ भी पाप नहीं।' फ्रांस की राज्यक्रांति के नारों के कारण भी यूरोप का वातावरण बदल रहा था। ऎसे समय में भीषण गृहयुद्घ में वह देश संयुक्त बच सका।
पर यूरोपीय साम्राज्यवाद दास प्रथा के नए रूप लेकर आया। भारत से बड़ी मात्रा में अनुबंध के अंतर्गत गिरमिटिया कहकर श्रमिकों को अनेक प्रकार के लालच दे, प्रशांत तथा हिंद महासागर के द्वीपों में और अफ्रीका में भेजना प्रारंभ हुआ। वहाँ उनके कोई अधिकार न थे। वे केवल उन अधिकारों का उपभोग कर सकते थे जो उनके स्वामी उन्हें देते थे। उनके रीति-रिवाज, यहाँ तक कि भारत में हुआ विवाह भी अमान्य था। पति पत्नी से, भाई भाई से, माता-पिता संतानों से अलग, करार के अंतर्गत स्वामी की इच्छानुसार रखे जा सकते थे। वेतन जब चाहा, फर्जी त्रुटि दिखाकर काटा जा सकता था। अपनी मातृभूमि से दूर गुलाम देश के इन निवासियों की दशा 'दास' के समान थी। तब वैसी ही एक नाटक की पुस्तक 'कुली प्रथा अथवा बीसवीं सदी की गुलामी' आई। यह पुस्तक हिंदी की प्रसिद्घ कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के पति श्री लक्ष्मणसिंह चौहान ने लिखी थी। प्रकाशित होने के कुछ दिन बाद वह जब्त हो गई। पर यह 'गिरमिटिया' नामक कुली प्रथा प्रथम महायुद्घ के समीप बंद हो गई।
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