रविवार, दिसंबर 27, 2009

यूनान


यूनान के इतिहास में होमर युग 'मध्य काल' के नाम से जाना जाता है। यह बृहत्‌ प्रव्रजनों (great migrations) का भी कालखंड था। यवनों ने तब एजियन सागर के द्वीपों से होते हुए अनातोलिया के दक्षिण-पश्चिमी किनारों पर उपनिवेश बसाए। इसी से इसके प्रारंभिक काल को 'वीर काल' (heroic age)  भी कहते हैं। 

ब्रिटिश संग्रहालय में रखी होमर की अर्धप्रतिमा का चित्र

होमर (Homer) ने, जिसे यूनान का गूरू कहा जाता है, इस कालखंड का वर्णन किया है। सभ्यता व संस्कृति की दृष्टि से यह अत्यंत पिछड़ा युग था, जब आखेट और पशुपालन ही प्रमुख उद्यम था। प्राचीन सभ्यताओं की उपलब्धियां लिपि, कला, स्थापत्य आदि विस्मृत हो गयी थीं। आदिम राज्य-व्यवस्था, जहाँ विवाद युद्घ व हत्या द्वारा तय होते थे, सामंतों पर आधारित थी। सुंदर स्त्री के लिए संघर्ष की कथाएं सामान्य थीं। पर व्यवस्था के अभाव में राज्य की आय शासकों द्वारा लूटपाट अथवा उनको दी गयी भेंट थी। और पाप-पुण्य की धारणाएँ अथवा नैतिकता पर आधारित धर्म व आत्मा-परमात्मा की कल्पना न थी; जैसी पहले से भारतीय संस्कृति में है। ऐसी दशा से यूरोपीय इतिहास में कहा जाने वाला 'महान क्लासिकल यूनान' (Great Classical Greece) की सभ्यता की ओर संक्रमण विक्रम संवत पूर्व आठवीं शती में प्रारंभ हुआ। कुछ यूरोपीय विद्वान इसे यूनान के मध्यकाल में प्रव्रजन के कारण यवन कबीलों की एशियाई एवं प्राचीन मिनोयन और माइकीनी सभ्यताओं के साथ रक्त-सम्मिश्रण का सुफल मानते हैं। इस प्रकार सम्मिश्रण रूपी अमृत-मंथन से नयी चेतना, नवजीवन समाज को प्राप्त होता है।

यह वह समय था जब भारतीय सभ्यता के विचार पश्चिमी एशिया और यूरोप में फैल रहे थे। उसके पहले भी अंकुर के रूप में सुमेर द्वारा कुछ सामी रंगों में रँगे भारतीय विचार तथा सामाजिक रचना फणीश और यहूदी सभ्यताओं में गयी। सम्मिश्रण के कारण छनकर जो भारतीय विचार यूनान और उसके चारों ओर पहुँचे, उससे यूनान के जीवन में आमूल परिवर्तन स्वाभाविक था। उसके पहले सामंतशाही व्यवस्था में उथल-पुथल उत्पन्न हुयी। कुछ नेताओं ने शस्त्रबल से राजसत्ता हथिया ली। कालांतर में ये निरंकुश शासक (Tyrants) जनता ने हटा दिए और यूनान में नगर-राज्य आए। तब कुछ अपवाद छोड़कर सुमेर एवं फणीश सभ्यता द्वारा पहुँची भारतीय जनतंत्रात्मक प्रणाली लागू हो सकी।

प्राचीन यूनान में कुछ स्थलों के नाम 'शिव' से संबन्धित पाए जाते हैं। वहाँ 'त्रिशूल' उसी रूप का एक भूखंड है, वहीं 'सलोनिका' नगर है। कहते हैं, यहाँ शिव-पूजक रहते थे, जो कभी एशिया से यूरोप जाने वाले राजमार्ग में व्यापारियों से कर वसूलते थे। कभी अरब प्रायद्वीप से यूनान तक शिव के उपासक निवास करते थे। शिव सर्वसाधारण के आराध्य देवता सहज रूप में थे। इसके स्मृति चिन्ह सारे क्षेत्र में फैले हैं।

पर यूनान का इस कालखंड का जीवन ईरानी हखमनीषी आक्रमणों से ग्रस्त था। उससे छुटकारा विक्रम संवत् पूर्व पाँचवीं शती में हो सका, सलामी (Salamis) या प्लेटियाई के युद्घ में आक्रामकों की स्थल-सेना और माइकेल के युद्घ में ईरानी जल बेड़ा समूचा नष्ट हो गया। इसी से यवन सभ्यता एवं संस्कृति बच सकी। इसके बाद नगर-राज्यों के आपसी संघर्ष होते हुए भी अनेक चिंतक, विचारक, दार्शनिक, गणितज्ञ, वैज्ञानिक और साहित्यकार छोटे से कालखंड में हुए, तब ईरानी आक्रमण समाप्त हो गया था और मखदूनिया का अधिकार एथेंस (Athens) समेत यूनान पर न आया था। यूनान के जीवन में कुछ अपवाद छोड़ यह प्रजातंत्र का युग था। इस छोटे से कालखंड ने अंततोगत्वा सारे यूरोप को प्रभावित किया। यूरोप के पुनर्जागरण (renaissance) के युग में कला, दर्शन तथा विज्ञान को दिशा मिली। क्लासिकल युग के दर्शन, शासन और समाज-व्यवस्था के विचारों में भारत का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। परंतु मानवता अथवा मानव-मूल्यों का भारतीय पक्ष वहाँ पहुँच न सका, जिससे विसंगति उत्पन्न हुयी। तदुपरांत भविष्य में समूचे यूरोप के चिंतन को दिशा देना जिसके भाग्य में लिखा था, यूनान के उस स्वर्ण युग, जिसे पेरिक्लीस (Pericles) का युग भी कहते हैं, का अंत सिकंदर के महत्वाकांक्षी अभियान के दौरान प्रारंभ हो गया।

कितना छोटा यूनान का कालखंड और कैसा प्रभावी ! पर मुक्त विचारधारा के विकास के साथ-साथ मानव-मूल्यों के अनुरूप सांस्कृतिक जीवन बनना चाहिए। पेरिक्लीस (Pericles) (यूनानी स्वर्ण युग के कथित नायक) ने सार्वजनिक मताधिकार रूपी नए अस्त्र का प्रयोग सामंतशाही को समाप्त करने में किया; भारतीय गणतांत्रिक विचारधारा अपनाकर जनता के अधिकारों का समर्थन किया। इसी कालखंड के आसपास हर तरह का यवन साहित्य पनपा। विचारकों एवं दार्शनिकों के संवाद लिखे गए। उनमें भारतीय अध्यात्म तथा दर्शन की गहराई न होने के बाद भी मुक्त तार्किक विचारधाराएँ देखने को मिलती हैं। इन्हीं से यूरोपीय विज्ञान का जन्म हुआ। यवन साहित्य के सुखांत और दुखांत नाटक एवं काव्य, इन्होंने आधुनिक विज्ञान, मनोविज्ञान तथा मानविकी को पारिभाषिक शब्द और रूपक प्रदान किए। इसी कालखंड में गुलामों की नागरिक की मान्यता मिलना प्रारंभ हुआ। संपत्ति के सम वितरण के प्रयत्न हुए।

पर इसी क्रिया में बिना सर्वसाधारण के जीवन को सुसंस्कृत बनाए और उदात्त मूल तत्वों पर मानव की आस्था जगाए, जब न्याय-व्यवस्था भी प्रजातंत्र के नाम पर सभी नागरिकों के भीड़तंत्र को सौंप दी गयी तो कैसी विकृति फली ! मुक्त विचारों के कारण सुकरात के ऊपर नवयुवकों के मस्तिष्क को मान्यताओं से हटाकर दूषित करने का अभियोग लगाया गया और जनता-न्यायाधिकरण ने उसे मृत्युदंड दिया। अपनी वैचारिक स्वतंत्रता के कारण जेल में विष का प्याला, बाद में यूरोप के नवचैतन्यदाता कहलाने वाले, दार्शनिक को पीना पड़ा। उस तर्क के अनुसार सहस्त्रों गुना अपराध भारतीय मुक्त चिंतकों, श्रमण और अन्य विचारकों ने किया था, जिनको समाज ने सम्मान दिया और स्वयं गौतम बुद्घ ने भी किया, जो अवतार कहलाए। अरस्तू को भी इसी बात पर भागकर मृत्युदंड से अपनी जान बचानी पड़ी। अनेक पुरातत्वज्ञों ने यवन इतिहास के इस कालखंड को भारत के वैदिक काल के समान कहा है। पर उन्होंने इस मूलभूत अंतर को अनदेखा कर दिया। बिना वैचारिक स्वतंत्रता के, बिना एक-दूसरे की बात सुनने और आदर करने की समझ के सामाजिक जीवन पूर्णता की ओर नहीं बढ़ सकता। यही भारतीय संस्कृति की विलक्षणता है।

चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से। 


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान

रविवार, दिसंबर 20, 2009

ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश

ईसाई पंथ के प्रवर्तन के समय से इन 'द्रविड़ों' पर घनघोर अत्याचार हुए। ईसाई पादरियों की समझ में प्राचीन द्रविड़ 'अगम' (Ogham) लिपि नहीं आती थी (तुलना करें संस्कृत 'आगम' एवं 'निगम')। 'द्रविड़' जंगलों में आश्रम बनाकर पठन-पाठन का कार्य करते थे, जहाँ उनकी प्रथाएँ और परम्पराएं अखंड चलती रहें। जहाँ युवा होने तक बच्चे पढ़ते थे। वह साधारणतया स्मृति से होता था। पर जो कुछ भी लेख थे, वे ईसाइयों ने जादू-टोना समझकर नष्ट कर दिए। जनता को धर्मपरायण बनाने वाले गीत बंद हो गए। उनके आश्रम, गुरूकुल नष्ट किए गए। उनका समूल नाश करने का यत्न हुआ। रोम के ईसाई सम्राट अगस्त (Augustus) ने फरमान जारी किया कि रोमन लोग द्रविड़ों से कोई संबन्ध न रखें। बाद में गिरजाघर में या अन्यत्र ईसाई प्रवचन होते ही भीड़ औजार लेकर निकल पड़ती और द्रविड़ों के मंदिर व मूर्तियां तोड़ती तथा घरों एवं ग्रंथों को आग लगाती। यह ईसाई पंथ उसी प्रकार के निर्मम अत्याचारों, छल-कपट से और जबरदस्ती लादा गया जैसे 'तलवार के बल पर इसलाम'।


अगस्त की अर्ध-प्रतिमा



फलतः ये सेल्टिक सभ्यता के बचे-खुचे अवशेष आज छोटे-छोटे गुटों में विभाजित, छिपकर अपने को द्रविड़ (द्रुइड) कहते पाए जाते हैं। किसी एक स्थान पर इकट्ठा होकर अपनी प्राचीन भाषा में स्तुति कर वे एकाएक पुन: लुप्त हो जाएँगे, ऐसी परंपरा बन गयी। आज भी अपने को ऊपरी तौर पर ईसाई कहते हुए भी इन्होंने अपनी प्राचीन संस्कृति की स्मृति बचाए रखी है। श्री पी.एन.ओक का कहना है कि वे अपनी भाषा में अनूदित गायत्री मत्रं का उच्चारण और पंथ की छोटी-मोटी पुस्तिकाएं (जैसे 'सूर्यस्तुति' और 'शिवसंहिता' सरीखी शायद खंडित एवं त्रुटिपूर्ण और विकृत रूप में) आज भी रखते हैं। गुप्तता उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गयी है। कैसे सदियों अत्याचारों की सामूहिक स्मृति वंशानुवंश विद्यमान रहती है, उसका यह एक उदाहरण है।



जोन का एक चित्र

इसी प्रकार प्राचीन द्रविड़ों से प्रभावित इटली की एत्रुस्कन सभ्यता (Etruscan civilisation)  रोमन साम्राज्य में, और उससे बची-खुची बातें ईसाई पंथ को राजाश्रय मिलने पर नष्ट हो गयी। रोम नगर टाइबर नदी के तट पर कुछ गांवों को मिलाकर रामुलु (Romulus) (यह आंध्र प्रदेश में सामान्य नाम है) ने बसाया था। वहां एत्रुस्कन सभ्यता के कुछ पटिया, फूलदान एवं दर्पण में अंकित रहस्य बने, विक्रम संवत पूर्व सातवीं शताब्दी के अनेक चित्र मिले। इन चित्रों को रामायण के बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, लंकाकांड एवं उत्तरकांड के दृश्यों के रूप में पहचाना गया है। एत्रुस्कन लोगों को रामकथा की विस्तृत जानकारी थी। विक्रम संवत पूर्व सातवीं शताब्दी तक इस सभ्यता का कभी-कभी युत्र आच्छादित इतिहास मिलता है। पर कहते हैं कि ईसाई पंथ के फैलते  यह सभ्यता स्वतः नष्ट हुयी। ऐसा भयंकर सामूहिक समूल नाश वास्तव में ईसाई अत्याचारों का परिणाम है। ईसाई पंथ-गुरूओं के अत्याचारों से इतिहास के पन्ने रँगे हैं। उनके वे पंथाधिकरण (Inquisitions), जिनमें रोमहर्षक, पंथ के नाम पर, मानवता की हड्डियों पर दानवता का निष्ठुर नंगा नर्तन तथा अकथनीय अत्याचार की कहानियां हैं। फ्रांस की उस देहाती हलवाहे की लड़की 'जोन' की मन दहलाने वाली कथा, जिसे यह कहने पर कि उसे देवदूतों ने कहा है कि फ्रांस की धरती से अंग्रेजों को निकाल दो (और जिसने फ्रांसीसी सेना का सफल नेतृत्व कर विजय दिलायी), ईसाई पंथ के ठेकेदारों ने सूली से बाँधकर जीवित जला दिया। यह अन्य बात है कि सौ वर्ष पूरे होने के पहले ही उसे 'संत' की उपाधि देकर पुनः प्रतिष्ठित करना पड़ा।

इस चिट्ठी का चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से। 

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश


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रविवार, दिसंबर 13, 2009

योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'

इसी प्रकार प्राचीन सेल्टिक सभ्यता के दिशा-निर्देशकों को 'द्रविड' (Druids)  के नाम से जाना जाता है। भारत के ब्राम्हणों में एक वर्ग द्राविड़ कहलाता है (देखें- ब्राह्मणों का वर्गीकरण 'पंचगौड़'  एवं 'पंचद्राविड़', पृष्ठ ४३)। 'द्रविड़' (अथवा 'द्रुइड') का सेल्टिक भाषा में अर्थ है- 'बलूत वृक्ष का जाननहार' (Knowing the oak tree) । यह बलूत वृक्ष वहाँ ज्ञानवृक्ष है जैसे भारत में पीपल या बोधिवृक्ष। वैसे 'द्रविड़' (द्र= द्रष्टा, विद् अथवा विर्= जानकार) (द्रुइड) प्राचीन सेल्टिक सभ्यता का ज्ञानी वर्ग था। ये साधारणतया बलूत के जंगलों में घूमते और पुजारी एवं अध्यापक के रूप में कार्य करते थे। ये प्राचीन सेल्टिक सभ्यता के संरक्षक थे। जनता के सभी वर्ग उनका बड़ा सम्मान करते थे। वे ही सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत, सभी प्रकार के विवादों में न्यायकर्ता भी थे। वे अपराधियों को दंड भी दे सकते थे। वे युद्घ में भाग नहीं लेते थे, न सरकार को कोई कर देते थे।



न्यायधीश के कपड़ों में एक द्रविड़

वर्ष में एक बार ये द्रविड़ आल्पस पर्वत के उत्तर-पूर्व में किसी पवित्र स्थल पर इकट्ठा होते थे। ये वार्षिक सम्मेलन गाल (Gaul)  देश में होते, जहाँ अनातोलिया से लेकर आयरलैंड तक के द्रविड़ इकट्ठा होकर अपना प्रमुख चुनते। वहीं सब प्रतिनिधियों के बीच नीति विषयक बातें होती थीं। समस्त विवादों का, जो उन्हें सौंपे जाते, वे निर्णय करते थे। ये वैसे ही सम्मेलन थे जैसे भारत में कुंभ मेले के अवसर पर होते थे। वे साधारणतया अपने कर्मकांड एवं पठन-पाठन बस्ती से दूर निर्जन जंगल में करते। द्रविड़ आत्मा की अनश्वरता और पुनर्जन्म पर विश्वास करते थे और मानते थे कि आत्मा एक शरीर से नवीन कलेवर में प्रवेश करती है। 'ये 'त्रिमूर्ति' को मानते थे। एक, ब्रह्मा जिन्होंने विश्व का निर्माण किया; दूसरे, ब्रेश्चेन (Braschen) यानी विष्णु, जो विश्व के पालनकर्ता हैं और तीसरे, महदिया (Mahaddia) यानी  महादेव, जो संहारकर्ता हैं।' इन देवमूर्तियों का वे पूजन भी करते थे। आंग्ल विश्वकोश के अनुसार- 'बहुत से विद्वान यह विश्वास करते हैं कि भारत के हिंदु ब्राह्मण और पश्चिमी प्राचीन सभ्यता के सेल्टिक 'द्रविड़' एक ही हिंदु-यूरोपीय पुरोहित वर्ग के अवशेष हैं।'

सेल्टिक सभ्यता के द्रविड़ (द्रुइड) के बारे में विद्वानों ने प्रारंभिक खोजों में 'उनके समय, उनकी दंतकथाओं, मान्यताओं, धारणाओं आदि के अध्ययन से यही निष्कर्ष निकाला कि वे भारत से आए दार्शनिक पुरोहित थे। वे भारत के ब्राह्मण थे, जो उत्तर में साइबेरिया ('शिविर' देश) से लेकर सुदूर पश्चिम आयरलैंड तक पहुँचे, जिन्होंने भारतीय सभ्यता को पश्चिम के सुदूर छोर तक पहुँचाया।' श्री पुरूषोत्तम नागेश ओक ने अपनी पुस्तक 'वैदिक विश्व-राष्ट्र का इतिहास' (देखें- अध्याय २३ और २४), जहाँ से ऊपर के उद्घरण हैं, में सेल्टिक सभ्यता के 'द्रविड़' (द्रुइड) का बड़ा विशद वर्णन उस विषय के शोधग्रंथों के आधार पर किया है। उन्होंने 'द्रविड़' भारत के उन ज्ञानी तथा साहसी पुत्रों को कहा जो सारे संसार में 'आर्य संस्कृति के अधीक्षक' बनकर फैले।

उनके अनुसार-'सारे मानवों को सम्मिलित करने वाले वैदिक समाज के विश्व भर के अधीक्षक, निरीक्षक, व्यवस्थापक, जो ऋषि-मुनि वर्ग होता था, उसे 'द्रविड़' की संज्ञा मिली थी। वैदिक सामाजिक जीवन सुसंगठित रूप से चलता रहे, यह उनकी जिम्मेदारी थी। वे उस समाज के पुरोहित, अध्यापक, गुरू, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, पंचांगकर्ता, खगोल ज्योतिषी, भविष्यवेत्ता, मंत्रद्रष्टा, वंदपाठी, धार्मिक क्रियाओं की परिपाटी चलाने वाले; प्रयश्चित आदि का निर्णय लेने वाले गुरूजन थे।... यूरोप में उस शब्द का उच्चारण 'द्रुइड' रूढ़ है।'

इस चिट्ठी का चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से। 

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'

रविवार, दिसंबर 06, 2009

योरोप की सेल्टिक सभ्यता

यूनान तथा रोम की सभ्यताएँ पश्चिमी विचारधारा पर ऐसी छा गयी है कि यह दृष्टि से ओझल हो गया कि उसके पहले भी यूरोप में कोई (संस्कृत: सुरूपा) सभ्यता थी। और कौन थे वे जिन्होंने उस सभ्यता को दिशा दी, उसका नेतृत्व किया? यूरोप की उस सभ्यता को 'सेल्टिक' (Celtic या Keltic)  नाम से हम जानते हैं। उन्होंने पश्चिमी यूरोप में बड़े-बड़े स्मारक छोड़े, जो मिस्त्र के प्रथम राजवंश द्वारा निर्मित पिरामिडों से भी प्राचीन थे।


स्टोनहेंज  का स्मारक



इन महापाषाणों (Megalith) में मंदिर, वेधशाला तथा समाधियाँ हैं। ऐसा एक प्रसिद्घ स्मारक इंग्लैण्ड (England) में स्टोनहेंज (Stonehenge) है। इसमें सूर्य एवं चंद्रमा का भलीभाँति निरीक्षण हो सकता था। उत्तरी स्काटलैण्ड में ऎसे ही ग्राम 'स्काराबेयर' (Skara Brae) में भवन, मेज, बेंच, कुरसी आदि पत्थरों की बनायी गयी थीं। आल्पस पर्वत के उत्तर में भी ये महापाषाण हैं। इनके निर्माण की पद्घति पिरामिडों से भिन्न थी- दो पत्थर के स्तंभों पर एक पत्थर रखकर। ये निर्माण सरल थे।






 स्कारबेयर में रहने का स्थान 

सेल्टिक सभ्यता की धुरी जिनके चारों ओर घूमी, अब उन संप्रदायों की ओर दृष्टि डालें। प्रथम, पाइथागोरियन (Pythagorian) संप्रदाय। आज कुछ विद्वान समझते हैं कि यह संप्रदाय विक्रम संवत् पूर्व छठी शताब्दी के 'पाइथागोरस' (Pythagoras) नामक यवन दार्शनिक ने चलाया। पर वह स्वयं तो इसी 'पीठगुरू' संप्रदाय की देन था। आज भी मज़हबी कहलाने वाले इस संप्रदाय ने उन सिद्घांतों को प्रतिपादित किया जिन्होंने यवन सभ्यता के स्वर्णिम कहे जाने वाले युग के दर्शन को, अरस्तू व प्लातोन के विचारों को रूप-रंग दिया तथा आधुनिक पश्चिमी जगत को वैज्ञानिक भूमिका और इस प्रकार एक तर्कशुद्घ एवं विवेकपूर्ण जीवन देना प्रारंभ किया। यह समय था जब भारतीय सभ्यता के विचारों का विस्तार संपूर्ण पश्चिमी संसार में हो रहा था। इन विचारों के अग्रदूत ये 'पीठगुरू' संप्रदाय को जन्म दिया।





 रोम के संग्रहालय में रखी पाईथागोरस की अर्धप्रतिमा का चित्र

इस संप्रदान की प्रमुख मान्यताओं में भारतीय श्रमण एवं बौद्घ जीवन की छाप दिखती है। पीठगुरू संप्रदाय के लोग तर्कशुद्घ चिंतन पर विश्वास करते थे। वे कहते थे कि,
  1. यथार्थता की गणितीय प्रकृति है और इसलिए अंतिम सत्य गणित के समान है।
  2. ध्यान करने से आत्मिक शुद्घि प्राप्त होती है।
  3. आत्मा ऊपर उठकर परमात्मा  अथवा दैवी अंश में विलीन हो सकती है।
  4. कुछ प्रतीक आध्यात्मिक महत्व के होते हैं।
  5. जितने भी संप्रदाय के बंधु हैं उन्हें कठोरता के साथ एक-दूसरे के प्रति निष्ठा एवं विश्वसनीयता बरतनी चाहिए।
वे संगीत को आत्मा का उन्नायक मानते थे। दफनाने के स्थान पर शवदाह करते थे। वे निवृत्ति मार्ग के समर्थक थे। उनके विश्वासों ने उस युग में वैज्ञानिक मनोवृत्ति को बढ़ावा और बाद में उनकी शिक्षा यवन दार्शनिकों तथा आधुनिक विज्ञान का पथ प्रशस्त करने वाली बनी। यही भारतीय संस्कृति की देन यूरोपीय सभ्यता को है। पर बीच के कालखंउ में एक बहुत बड़ा, अनेक शताब्दियों का, ईसाई और मुसलिम विचारों का ग्रहण लगने वाला था।

इन्हीं पीठगुरू का संदेश कि तर्क के आधार पर जीवन और विश्वासों की रचना हो (जैसे सनातन अथवा श्रमण एवं बौद्घ विचार थे), यवन इतिहास के स्वर्णिम काल के दार्शनिकों (वैज्ञानिकों) का पथ-प्रदर्शक बना। अपने ढंग से उन्होंने क्रमबद्घ विचार प्रारंभ किए। यवन चिंतक टालमी (Ptolemy), सुकरात (Socrates), प्लातोन व अरस्तू-सभी ऎसी परंपरा के मुक्त चिंतक थे। ये यूरोप की आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा के जनक कहलाए।

इस चिट्ठी के चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से 

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता