रविवार, अगस्त 29, 2010

उपसंहार: कालचक्र - सभ्यता की कहानी

साम्राज्य और सभ्यताओं का एक विचित्र संबंध रहा है। उसकी तथा साम्राज्य से अलिप्त एवं अलौकिक भारतीय संस्कृति की कहानी ऊपर कही गई है। इस अंतर को इतिहास से संबंधित कहावतें तथा वाक्-प्रयोग प्रदर्शित करते हैं।

भला हिटलर के जर्मनी ने क्यों अपने को 'आर्य' कहा? भारत के साथ यूरोपवासी,  ईरानी, अफगानी, तुर्क, कुर्द, और एक विस्तृत भूभाग के रहनेवाले क्यों अपने को 'आर्य' कहते आए हैं? वास्तव में 'आर्य' कोई प्रजाति न थी, न ये किसी एक जाति के थे। हिन्दु पद्घति का जीवन  बिताने वाले 'आर्य' कहलाते थे। महर्षि दयानन्द ने 'आर्य' की मीमांसा सांस्कृतिक दृष्टि से 'श्रेष्ठ' के अर्थ में की है। यूरेशिया की अनेक जातियों ने अपने को प्राचीन काल से आर्य कहना सीखा। यह 'आर्य' हिन्दु के सांस्कृतिक विस्तार और उस जीवन-पद्घति के अनुयायी होने की उदघोषणा है। इसी को दिखाता वेद का आदेश है,

'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।'
यदि आर्य कोई प्रजाति होती अथवा जाति के अर्थ में प्रयोग होता तो समूचे विश्व को आर्य बनाने की आकांक्षा उदित न होती। सभी मनुष्यों को श्रेष्ठ बनाने का विचार उसी के मन में आ सकता है जिसका उस श्रेष्ठत्व से साक्षात्कार हुआ हो।

इसी प्रकार इस संस्कृति का बोधपूर्ण वाक्यांश 'वसुधैव कुटुंबकम्' है। भारतीय जहाँ कहीं गए, मानव में भ्रातत्व का संचार किया, उसे एक संस्कृति से जोड़ा। समूचे विश्व को इसका बोध कराया।

इस सांस्कृतिक साम्राज्य के अवशिष्ट चिन्ह सारे संसार में विद्यमान हैं। इतिहास की भयंकर भूलों ने उसे तिमिराच्छादित कर रखा है। इतिहासज्ञ पुरूषोत्तम नागेश ओक ने अपनी पुस्तक 'विश्व इतिहास के कुछ विलुप्त अध्याय' में लिखा है,

'जब हम ईसाई मत और इसलाम द्वारा नष्ट किए गए इतिहास को खोदते हैं तो हम पाते हैं कि यहाँ कभी एक विश्वव्यापी हिंदु साम्राज्य विद्यमान था। एक-एक अंश से उस साम्राज्य की कथा की पुनर्रचना करने से हमें ऎसे शब्दों व वाक्याशों की उपलब्धि होती है जो अपने उस विलुप्त हिंदु साम्राज्य के बारे में ग्रंथों से परिपूर्ण चर्चा करते हैं।'  
 इसका एक सूत्र संसार की बोलियों में संस्कृत के अपभ्रंश हैं।

'संस्कृति' संस्कारों के समुच्चय को कहते हैं और 'संस्कार' का अर्थ है-- जो 'सम' करे, 'समता' लाए। सच्ची समता समरसता में है। समरसता उत्पन्न करना ही संस्कृति है। मानव जीवन में विश्व-बंधुत्व का आदर्श समरसता से प्राप्त होता है। कभी इस विश्व-वंद्य संस्कृति को फैलाने का महान कार्य भारतीयों ने किया।

एक सदा उठने वाला प्रश्न है, किस दृष्टिकोण से प्राचीन सभ्यताओं की उपलब्धियों का मुल्यांकन करें? युद्घ एवं संघर्षों की गड़गड़ाहट के बीच लोगों के शौर्य, धैर्य एवं निष्ठा की परीक्षा हो सकती है, विज्ञान के महासंहारकारी यंत्रों का निर्माण हो सकता है; पर घोर यातनाएँ, मनुष्य की कलंकस्वरूप प्रवृत्तियाँ और राक्षसता का भी जन्म होता है। मानवता की घोर त्रासदी के समय जनमे फुफकारते विष को कौन पिएगा? वह कौन सभ्यता है, जिसने 'विषपायी' (महादेव) बनकर लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया? साम्राज्यों की हलचलों से दूर, शांतिकाल की सर्वकल्याणमयी,सबके मन-हृदय पर राज्य करने वाली संस्कृति, जिसने श्रेष्ठ जीवन-पद्घति के साथ हर छोटे भाग की निजी प्रतिभा विकसित करते हुए स्थानिक स्वायत्तता दी, स्वशासन दिया और एक समरसता से भरे मानव जीवन का निर्माण किया। जिसने आपस में बैठकर, भेदभाव मिटाकर समस्याएँ हल करने का नवीन दर्शन दिया, सबको नर से नारायण बनाने का यत्न किया वह संस्कृति धन्य है।


प्राचीन काल से चले आए भारतीय संस्कृति के इस प्रवार ने सारे संसार को स्नात किया था। पर जब इस प्रवाह का आदि स्त्रोत सूख गया या दुर्बल पड़ा तो विपथगामी प्रवृत्तियाँ हावी होना स्वाभाविक है। फिर भी यह कैसे हो सका कि विश्व को मानवता का संदेश देती, शांति की राह अपनाती, मन-हृदय को छूती यह संस्कृति बर्बर दरिंदों का शिकार बनी? यह विचारना शेष है। यदि सभ्यता से अनजान इतिहासकारों द्वारा जनित पूर्व धारणाएँ और पूर्व कल्पित मत ढहाना होगा और भारतीय सभ्यता की गंगा में स्नान करना होगा।
इस चिट्ठी के चित्र विकीपीडिया से

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ - पताल देश व मय देश
४५ - अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत
४६ - दक्षिण अमेरिका व इन्का
४७ - स्पेन निवासियों का आगमन
४८ - अंध महाद्वीप, अफ्रीका
उपसंहार: कालचक्र - सभ्यता की कहानी

रविवार, अगस्त 22, 2010

अंध महाद्वीप, अफ्रीका

एक महाद्वीप है अफ्रीका, जिसे यूरोप सदा 'अंध महाद्वीप' (The dark continent) कहता रहा। उस समय के यूरोप के लिए भूमध्य सागर के देशों के अतिरिक्त अफ्रीका एक अनजान प्रदेश था, जहाँ रास्ते में भयांकित करती सहारा मरूभूमि प्रेत बनकर खड़ी थी। पर भारत के लिए वह अँधियारा न था। अति प्राचीन काल से भारतवासी अफ्रीका का पूर्वी तट जानते थे। वहाँ के निवासियों को अनेक नामों  से पुराणों एवं महाभारत में पुकारा गया है। परन्तु  उसके अन्दर का भाग शेष दुनिया के लिए अनजान ही रहा। वहाँ कभी कोई बड़ी सभ्यता पनपी होगी, ऎसी किंदवंती अथवा परम्परा नहीं है। केवल 'जिंबाब्वे' (शाब्दिक अर्थ 'पत्थर के घर') में  'म्तिलिक्वे' (Mtilikwe या  Mutirikwe) नदी के प्रारंभिक चरणों पर पुरानी, पत्थर की छतरहित दीवारें और उन्हें जोड़ते गलियारे तथा सीढ़ियाँ पाई गईं, जो आज भी रहस्य बनी हैं। दंतकथाओं एवं लिपि के अभाव में अफ्रीका का अंतररहस्य आच्छादित रहेगा। आज पुरातत्वज्ञ विश्वास करते हैं कि वहाँ कोई तेजस्वी सभ्यता का जीवन शायद उत्पन्न नहीं हुआ। वैसे अरब निवासियों और मुसलमानों के आक्रमण होते रहे। वहाँ से वे लूटपाट कर गुलाम लाते और भूमध्य सागर तथा यूरोप के बाजारों में बेचते। इस प्रकार के बहुत हब्शी गुलाम मुगल सेना में थे।पर भारत ने कभी ऎसा जघन्य कार्य नहीं किया। उनके व्यापारिक संबंध अफ्रीका के पूर्वी तट से थे। भरतीयों ने उनको कभी गुलाम नहीं बनाया, वरन् उनकी स्वतंत्र प्रतिभा को प्रोत्साहन दिया। 


Cape of good hope चित्र विकिपीडिया से
भारत के संबंध का साक्षी कोणार्क (उत्कल : उड़ीसा) के प्रसिद्घ सूर्य मंदिर में दीवारों पर उत्कीर्ण 'जिराफ' (giraffe) है। कहा जाता है कि उत्कल के साहसी नाविकों द्वारा, अफ्रीका के कबीलों की, उत्कल के राजा को दी गई कृतज्ञतापूर्ण भेंट, जिराफ का जोड़ा वहाँ लाकर उद्यान में कभी रखा गया था। कोणार्क के मंदिर में जब संपूर्ण पृथ्वी का ज्ञान उत्कीर्ण किया गया तो जिराफ के चित्र ने प्राणिशास्त्र के विभाग में स्थान पाया। इतिहास बताता है कि जब 'वास्को दि गामा' (Vasco de Gama) ने अफ्रीका के आशा अंतद्वीप (Cape of Good Hope) का चक्कर काटकर भारत पहुँचाना चाहा तो डरबन (Durban) से दक्षिण अफ्रीका में व्यापार के निमित्त गए एक भारतीय ने उसे भारत की राह दिखाई।

कालांतर में मुसलिम और फिर ईसाई धर्मांधता ने अफ्रीका की स्थानिक सभयता को, जो कुछ भी थी, नष्ट कर दिया। इनपर किए गए अत्याचारों की कहानी लंबी है।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ - पताल देश व मय देश
४५ - अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत
४६ - दक्षिण अमेरिका व इन्का
४७ - स्पेन निवासियों का आगमन
४८ - अंध महाद्वीप, अफ्रीका

रविवार, अगस्त 15, 2010

स्पेन निवासियों का आगमन

विक्रम संवत् की नौवीं शताब्दी से मध्य अमेरिका का दृश्य बदलने लगा। उत्तरी मेक्सिको से एक बर्बर जाति ने आक्रमण किया। वे देवताओं को रक्त एवं बलि चढ़ाते थे। दंतकथाएँ कहती हैं कि
'सर्वहितकारी पंखधारी सर्प (benevolent Quetzalcoatl) भाग गया और मध्य मेक्सिको ने आकाश और युद्घ के देवताओं के उन क्रूर पांथिक कृत्यों व अनुष्ठानों के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया, जो मानव रक्त व बलि के प्यासे थे।'
उस समय से अपना रक्त तथा पशुबलि देवता को चढ़ाना पुण्य कर्म  और त्याग का लक्षण माना जाने लगा (जैसा मुसलमान कहते हैं)। इन्हीं को देखकर कुछ पुरातत्वज्ञ इन्हें क्रूर सभ्यताएँ कहते हैं। पर इस तरह का भटकाव उनके जीवन का स्थायी भाव न था। ये शांति काल की सभ्यताएँ कही जा सकती हैं। देवताओं को रक्त एवं बलि (विशेषकर मानवबलि) तो युद्घ की छाया में प्रकट होती है। अपना रक्त देवता की संतुष्टि के लिए चढ़ाना और बलि देना त्याग भाव का दुरूपयोग है। धीरे-धीरे यह प्रथा दक्षिण अमेरिका की सभ्यता में फैली। संस्कृति के प्रेरणा केंद्र भारत एवं दक्षिण-पूर्व एशिया से इस मध्य तथा दक्षिण अमेरिका की संस्कृति का संबंध टूट चुका था। ऎसे समय इन शांतिकालीन सभ्यताओं में भी विकृति उत्पन्न हुयी।

स्पेनी इंका के आखरी राजा ट्यूपैक आमरू का वध करते हुऐ
पर ये सभ्यताएँ यूरोपीय साम्राज्यवाद की दानवता और बीभत्सता, उसकी विभीषिका से कैसी अनभिज्ञ थीं और उसका शिकार बनीं, इतिहास के पन्ने इसी को रोते हैं। स्पेन का आक्रमण विक्रम संवत् की सोलहवीं शताब्दी में प्रारंभ हुआ। आसुरी लुटेरों ने कैसे अत्याचार किए, स्वर्ण-मोती-माणिक्य लूटे, उसके लिए नारकीय यातनाएँ दीं, मंदिर, भवन और कलाकृतियाँ तोड़ीं, ज्ञान-विज्ञान की धरोहर जहाँ थी वे अमूल्य पुस्तकें जलाईं तथा शिलालेख ध्वस्त किए। आंग्ल विश्वकोश ने लिखा है,
'इन्का की धार्मिक संस्थाएँ मूर्तिपूजा के विरूद्घ युद्घ घोषित कर निष्ठुरता से कुचली गयी। इन्का को गुलाम बनाकर खदानों में व बलात् श्रम में लगाया गया।'
 
स्पेनी सेनापति हरनान कोर्टेस ने लिखा है कि जब क्षत-विक्षत बंदी अवस्थ में मय लोगों को पकड़कर उसके समक्ष लाया गया तो राजा की गर्वोक्ति थी,
'तुम मुझे राजा समझते हो, पर मैं राजा नहीं हूँ। मैं उनका प्रतिनिधि हूँ। वे जब सुनेंगे कि तुमने मेरे साथ ऎसा व्यवहार किया है तो वे रोष में तृतीय नेत्र खोलकर तुम्हें भस्म कर देंगे।'
पर उसे क्या पता था कि उसके कुछ शताब्दी पहले ही तृतीय नेत्र खोलनेवाले देवता के देश का एक भाग स्वयं पददलित हो स्वतंत्रता खो बैठा था।

सम्राट अतहुल्य को धोका देकर काज़ामारका की लड़ाई में पकड़ते हुऐ स्पेनी
शरद हेबालकर ने अपनी पुस्तक में इन सभ्यताओं के साथ निर्मम बलात्कार का वर्णन 'मानव जाति के इतिहास का काला पृष्ठ' कहकर किया है-
'उस समय इन्का सम्राट् 'अतहुल्य'  राजपद पर था। स्पेनी प्रतिनिधियों ने उसे मिलने एवं भोजन हेतु आमंत्रित किया। मनुष्य के कपट और दुष्ट हृदय की कल्पना से अनजान वह निष्कपट सम्राट् शुद्घ मैत्री भाव से निर्भयतापूर्वक गिने-चुने सैनिकों के साथ पालकी में बैठकर स्पेनिश आमंत्रण का सम्मान करने गया।--और, वह वापस न लौट पाया।--स्पेनिश लोगों ने अकारण विश्वासघात से उस सम्राट् की हत्या की और फिर—ये आसुरी आक्रामक असावधान इन्का सैनिकों पर टूट पड़े।-- सबका नाश हुआ। उन्होंने इन्का राजधानी में जो प्रवेश किया, वह भी भयंकर। जो मार्ग में आए उनका संहार किया। बड़े-बड़े प्रासाद जलाकर नष्ट किए। इन्काओं के सूर्य मंदिर में जब ये स्पेनिश आक्रामक घुसे तो आश्चर्य व प्रसन्नता से मानो पागल हो गए। स्वर्ण की भूमि, स्वर्ण की दीवारें, स्वर्ण की छत, स्वर्ण और रजत के झूमर, रत्नदीप। इतना स्वर्ण ! मात्र राजधानी के एक मंदिर में ! उन्होंने कभी इतना स्वर्ण देखा न था। वे लोभी लुटेरे टूट पड़े उसपर । यह तो थी भौतिक संपदा; पर वास्तविक संपदा दूसरी थी। इस नगरी में शब्दश: सहस्त्रावधि प्राचीन अमूल्य ग्रंथ थे। ईसा मसीह के इन स्पेनी लालों (?) ने, जंगलीपन की परिसीमा कर, इन्काओं की इस साक्षात् विद्या देवी की भी भरे बाजार में होली जलाई।'
आगे वे लिखते हैं,
'मय संस्कृति, इन्का अथवा 'आस्तिक' संस्कृति को लगभग ४०० वर्षों तक बहुत सहना पड़ा। उन संस्कृतियों को नष्ट करने का बृहत् प्रयास ईसाई मिशनरियों ने किया। उनके धर्म-ग्रंथ, विज्ञान-ग्रंथ नष्ट किए। उनके आचारों, रूढ़ियों, परंपराओं पर बंधन लगाए। इन दुष्ट असुरों ने इन्का माता-बहनों को भी भ्रष्ट किया। इतनी विशाल, महाभयंकर विपत्तियों का सामना कर आज भी टिकी हुयी उनकी जो समाज-जीवन की रचना है, उसका दर्शन करते हुए पग-पग पर उसकी श्रेष्ठता का भान होता है, ये समाज भारतीय हैं।'
प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ - पताल देश व मय देश
४५ - अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत
४६ - दक्षिण अमेरिका व इन्का
४७ - स्पेन निवासियों का आगमन

रविवार, अगस्त 08, 2010

दक्षिण अमेरिका व इन्का

दक्षिण अमेरिका की इन्का सभ्यता, जिसका पालना एंडीज पर्वत और पश्चिम सागर-तट रहा, और इनके मंदिर। कहते हैं, कहीं-कहीं अंदर से मंदिर की दीवारेंऔर गुंबज स्वर्ण-मंडित थे। एक ओर सूर्य चक्र, दूसरी ओर चंद्र का रजत वृत्त और बीच में तारों को चिन्हित करते जड़े रत्न। आज का तारागृह (Planetarium) मानो बीज रूप में है। वे प्रमंथन द्वारा अग्नि को अरणी से प्रज्वलित करते थे, जैसा वेदों में वर्णित है। शरद हेबालकर ने अपने पुस्तक 'भारतीय संस्कृति का विश्व-संचार' में इनकी सामाजिक रीतियों के बारे में लिखा है, 
'इन्का संस्कृति में रूढ़ शिक्षा-प्रणाली प्राचीन भारतीय गुरूकुल प्रणाली जैसी थी। छात्र गुरू के यहाँ रहकर अध्ययन करता था। अध्ययन पूर्ण होने तक उसे गूरू की आज्ञा में रहना होता था। इन्का अग्नि की भी पूजा करते थे। अग्नि के साक्ष्य में उपनयन संस्कार होता था। इन्काओं की वर्तमान रूढ़ियाँ देखने पर जन्म से मृत्यु तक की सभी प्रथाओं और संस्कारों में भारतीय परंपरा से विलक्षण समानता पायी जाती है।--ऋग्वेद की अनेक प्रार्थनाओं से मिलती-जुलती प्रार्थनाएँ उनके यहाँ रूढ़ हैं इन्का भाषा ('किजुआ' या 'किशुआ') भी अति प्राचीन है। उसकी जननी है संस्कृत।'
मध्य एवं दक्षिण अमेरिका की इन प्राचीन सभ्यताओं की लिपि (पंचांग और गणित अंश को छोड़कर) पढ़ी नहीं जा सकी। इसका एक कारण आक्रमणकारी बनकर आए स्पेनवासियों द्वारा इन्हें बलपूर्वक ईसाई बनाने की प्रक्रिया में किए गए विध्वंस हैं। मय लोगों का ज्ञान-विज्ञान पत्थर की पाटियों, लकड़ी और मिट्टी के बरतनों तथा रेशे से बनी पुस्तकों में निहित था। स्पेन के बिशप ने सभी आलेख ईसाई पंथ की रक्षा के नाम पर जलवा दिए। उनकी बहुमूल्य पुस्तकें अग्नि की भेंट चढ़ीं। आलेख नष्ट किए गए। आज भी, शोधकर्ताओं का भारतीय जीवन से अनजान होने और पूर्वाग्रह एवं धर्मांधता के कारण, खोज पूर्ण नहीं हुयी। पर आज शिल्डमैन सरीखे जर्मन भाषाविद् कहते हैं कि मध्य अमेरिका और पेरू की गुफाओं के शिलालेख संस्कृत से ज्यों-के-त्यों मिलते हैं और उनकी लिपि सिंधु घाटी में प्रचलित लिपि की भाँति संस्कृत पर आधारित है।


'इन्का' राज्य-व्यवस्था देखकर आधुनिक कल्याण राज्य (Welfare State) का स्मरण हो आता है। अपनी राजधानी से पश्चिमी सागर-तट के नीचे (आधुनिक क्यिटो Quito से लेकर सैंटियागो Santiago तक) ५,००० किलोमीटर से भी लंबा, पक्का, एंडीज पर्वत की घाटियों को लाँघता, विषुवतीय उफनती नदियों को पत्थर के पुलों द्वारा पार करता, कहीं पर्वत पर चढ़ता, कहीं सीढ़ियों तथा कहीं गुफाओं और कंदराओं से गुजरता शासकीय मार्ग था, जिसपर हरकारे दौड़ते थे। उस पर लगभग प्रति १५ किलोमीटर पर विश्रामगृह और लगभग ३० किलोमीटर पर भोजनालय थे। आधुनिक राज्यों की तरह अपनी निश्चित जनसंख्या उन्हें पता थी। उसकी गणना होती थी और जन्म-मरण का लेखा रखा जाता था। हर कुटुंब अन्न-वस्त्र में आत्मनिर्भर था। वह खेती करता था और कताई-बुनाई भी। पर छोटी बस्तियाँ भी स्वशासित होने के साथ स्वावलंबी थीं। उनके अय्यर राजाओं को तो 'सूर्य देवता' ने ही भेजा था। उन अय्यर राजाओं के चित्र उपलब्ध हैं। सिर पर पगड़ी और उसका अलंकरण है हाथ में राजदंड, जिसके ऊपरी छोर पर कतल का सोने का फूल है। यही कमल उनके मंदिरों तथा प्रासाद से लगे तालाबों और पोखरों की शोभा बढ़ाता है, जो भारत का राष्ट्रीय पुष्प है।

क्वेत्सलकोट्ल (पंखधारी सर्प) चित्र विकिपीडिया से

भारत के देहात की तरह देव-मंदिर के चारों ओर घूमता जीवन। ये मंदिर प्राथमिक विद्यालय भी थे। त्रिमूर्ति-अर्थात सृष्टि, पालन और संहार के देवताओं की उन्हें कल्पना थी। सभी प्राचीन सभ्यताओं के समान सूर्य-पूजा एवं नाग-पूजा यहाँ प्रचलित थी। 'आस्तिक' सभ्यता के प्रमुख देवता क्वेत्सलकोट्ल (Quetzalcoatl) (शाब्दिक अर्थ पंखधारी सर्प: dragon) हैं। क्वेत्सल (Quetzal) मध्य अमेरिका का एक सुंदर पक्षी है। उसी के पंख धारण किए हुए है यह नाग। वैसा ही जैसा भारत के कुछ भागों में, अथवा चीन और जापान पूजित है। सूर्य के मंदिर हैं, जिनमें पंचांग भी अंकित है। पेरू के इन्का सूर्य मंदिर तो कोणार्क की छोटी प्रतिकृति कहे जाते हैं। स्पेन के आक्रमण के समय मेक्सिको नगर में गोपुरम् शैली का एक विशाल शिव मंदिर था। उनको युद्घ (संहार) का देवता कहते थे। मूर्ति के चारों ओर स्वर्ण के सर्प लिपटे थे। स्पेन के लोभी लुटेरों ने स्वर्ण के लालच में उसका विध्वंस कर डाला। मदुरा के मंदिर की झलक भी वहाँ देखने को मिल सकती है। मंदिर में पत्ररू-पुष्प अर्पित कर, धूप जलाकर सुगंध से हिंदु की भाँति देवता की पूजा होती थी। स्पेन के वृत्त कहते हैं कि पुजारी अविवाहित ब्रम्हचारी थे। उनका पवित्ररू और शुचितापूर्ण कठोर जीवन था। वे त्याग-तपस्या की मूर्ति कहे जाते थे। किन्हीं मंदिरों में देवदासी भी थीं। स्वर्ण, रजत और रत्नों से जटित ये मंदिर सदा स्वच्छ रहते थे।

भिक्षु चमनलाल ने अपने विलक्षण पुस्तक 'हिंदु अमेरिका: अलगाववादियों को एक चुनौती' (Hindu America: A challenge  to Isolationists) में अध्यवसायपूर्वक उन तथ्यों को उजागर किया है जो निर्विवाद रूप से अमेरिका की विक्रम संवत् पूर्व तेरहवीं शताब्दी से चली आई प्राचनी सभ्यताओं को भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य का पुरातन अंग बताते हैं और हिंदु के अदम्य साहस की कहानी कहते हैं। अमेरिका की इन प्राचीन सभ्यताओं का रहन-सहन, उनकी महिलाओं का साड़ी का पल्ला डालने का ढंग, उनके विचार, परंपराएँ, रीतियाँ, आचार-व्यवहार, उनके देवता एवं आस्थाएँ, उनका विज्ञान तथा पंचांग, उनका 'पचीसी' का खेल- सभी पर भारतीय संस्कृति की छाप देखी जा सकती है। उस पर मुहर लगाता 'आस्तिकों' का 'राम-सिया' त्योहार है। उसी प्रकार जैसे दक्षिण-पूर्व एशिया को कभी 'लघु भारत' कहा जाता था, अमेरिका के आदि निवासियों को अज्ञान में दिया गया 'इंडियन' (Indian: भारतीय) नाम उनकी प्राचीन सभ्यता को देखकर सार्थक हो उठता है।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ - पताल देश व मय देश
४५ - अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत
४६ - दक्षिण अमेरिका व इन्का

रविवार, अगस्त 01, 2010

अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत

आस्तिक सभ्यता का चिन्ह
स्पेनी आक्रमणकारियों के वृत्त मध्य एवं दक्षिण की आस्तिक (Aztec), 'मय' (Maya) और इन्का (Inca) नामक प्राचीन सभ्यताओं के भारतीय आदर्शों के अनुरूप, सदाचारी जीवन का गुण कीर्तन करते हैं। बर्नार्डिनो (Bernardino de Sahagún) ने उस समय लिखित पुस्तक 'नव स्पेन की वस्तुओं का सामान्य इतिहास' (General History of Things in New Spain) में इन प्राचीन सभ्यताओं के लोगों में नैतिकता के उच्च मानदंड, उनके पुजारियों के सद्गुणों, राजाओं के उच्चादर्शों और विचारकों के ज्ञान-भंडार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ये वृत्त लोगों के सहज सच बोलने के स्वभाव के साक्षी हैं और अटूट वैवाहिक निष्ठा के भी, जैसी स्पेनवासियों ने कभी जानी न थी। इन प्राचीन सभ्यताओं में भारत की भाँति विवाह एक संस्कार था, वह कोई संविदा या करार (contract) न था। अंतिम इन्का राजा का शव जब स्पेनवासी गिरजाघर ले गए तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही, जब रानियों ने शव के साथ चिता पर बैठने का हठ किया। इन प्राचीन सभ्यताओं  में शवदाह प्रचलित था।

इन सभ्यताओं के सामाजिक, राजनीतिक जीवन के ताने-बाने में धार्मिकता बसी थी। हिंदु जीवन की तरह व्यवसाय के अनुसार समाज में वर्ग थे। व्यवसाय और शिल्प की विशेषज्ञता के साथ उनका अलग संघ (guild) था। ऎसी पंचायत को भारत में 'श्रेणी' कहते हैं। वह आपसी झगड़ों का निपटारा भी करती हैं। ये वर्ग स्वायत्तशासी थे। कहीं-कहीं बड़े नगरों में उनका टोला भी अलग था, जिसके वे अधिकारी थे। व्यवसाय एवं शिल्प के अधिष्ठाता देवता भी थे और उनके अनुरूप उत्सव। पेशेवर कारीगर और व्यापारी का समाज में बड़ा आदर था। उनके माल की मंडी थी और दूर जाकर हाट भी लगाते थे। स्वयं के उनके न्यायाधिकरण थे। यह मंडी अथवा हाट लगाना भारतीय प्रथा थी, जो भारत से संसार में फैली।

ये खेतिहर सभ्यताएँ थीं। आंग्ल विश्वकोश के अनुसार, 

'जब यूरोप नव-प्रस्तर युग की बर्बरता में जीवन बिता रहा था तब यहाँ एक कांस्य युग से आगे उन्नत सभ्यता उभर चुकी थी।'
उनकों दलदलों का उद्घार कर भूमि बनाना और नहरों की योजना आती थी। एक कुल के लोग कुटुंब के रूप में साथ-साथ रहते थे। ऎसे बीसियों (अथवा सौ भी) कुटुंब मिलकर एक इकाई 'कलपुल्ली' (Calculi)  बनाते थे। कलपुल्ली की भूमि पंचायती थी, जो सभी घटक कुटुंबों में बाँट दी जाती थी। यह कलपुल्ली प्रशासन की इकाई थी। इसका शासन सभी कुटुंब के मुखियों की परिषद् के हाथ में था, जो अपना प्रमुख या राजा चुनती थी। यही प्राचीन काल से चली आई स्वायत्तता की भारतीय परिपाटी है। यह कर-निर्धारण की भी इकाई थी तथा श्रमदान एवं सैनिक आवश्यकताओं के लिए भी। बच्चों की शिक्षा का प्रबंध भी यही करती थी। पर विशेष शिक्षा के लिए बच्चों को आश्रम में जाना पड़ता था, जहाँ वे कड़े अनुशासन में रहना सीखते थे। एक सांस्कृतिक प्रवाह के अंदर पनपता उसका सामाजिक-राजनीतिक ढाँचा भारत के स्वायत्त शासित जीवन की याद दिलाता है।

वहाँ के निवासियों में प्रचलित नाम 'मेक्सिका' या 'मत्सलियापान' (शाब्दिक अर्थ रहस्यवादी अथवा आध्यात्मिक 'चंद्र झील') पर मध्य अमेरिका (Meso America)को मेक्सिको कहते हैं। स्पेनिश आक्रमण के समय यहाँ 'मय' लोग निवास करते थे। ये प्राचीन 'टोल्टेक' (Toltec) (शाब्दिक अर्थ 'दक्ष कारीगर') और उसके बाद की विस्तृत 'आस्तिक'  (Aztec) सभ्यता के उत्तराधिकारी थे। सारस्वत सभ्यता के समान ही इन सभ्यताओं के योजनापूर्वक ज्यामितीय नमूने पर बने नगरों के खंडहर आज भी मिलते हैं।

मेक्सिको के बीच पठार की विशाल झीलों के द्वीप एवं तट पर संभवतया प्राचीन सभ्यता का सबसे बड़ा नगर विद्यमान था। इन्हीं झीलों में द्वीप अथवा खेत 'तैरते हुए खेत' कहे जाते हैं। आसपास की (कुछ हिमाच्छादित) चोटियों से नाली, प्रपात और सुरंग से पीने का स्वच्छ जल यहाँ आता था। सीधी रेखा में निर्मित एक ही प्रकार के भवन, लंबवत् सड़कें, बीच में स्तूप के शिखर पर मंदिर। ऎसा मेक्सिको पठार पर अवस्थित एक प्राचीन नगर रहा है 'तियोतिहुआकान' (Teotihuacan), जिसका शाब्दिक अर्थ है 'जहाँ मनुष्य देवता बन जाते हैं' अथवा 'जहाँ ईश्वर की पूजा होती है'। तियो (Teo or Deo) (संस्कृत: देव) का अर्थ है 'ईश्वर'। ऎसा ही दक्षिण अमेरिका में टिटकाका (Titicaca) झील के बोलीविया (Bolivia) तट पर प्राचीन 'तायहुआनको' नामक 'इन्का' का पवित्र नगर कहा जाता था, जो पानी में डूब गया। नगरों में मिलते हैं एक प्रकार के पंक्तिबद्घ आवासीय गृह, जिनमें आँगन का द्वार मुख्य सड़क पर और आँगन के बाकी तीन ओर बनी हैं कोठरियाँ। ऎसे ही पास में हैं कारीगरों के गृह एवं कर्मशाला। मानो सारस्वत सभ्यता के नगरों की और घरों की प्रतिकृति हों। ऎसे ही हैं प्रत्येक नगर में देवता के मंदिर। उसमें कमल-नाल एवं स्वस्तिक चिन्ह के बेलबूटे। ये दोनों भारतीय प्रतीक हैं। नगरों को जोड़ने वाली बजरी कुटी पक्की सड़कें बनी हैं, जिनके दोनों ओर हाथ भर ऊँची पत्थर की दीवारें आज ढाई हजार वर्ष बाद भी वैसी ही हैं। मध्य अमेरिका का प्राचीन 'तेनोसितिलम' नामक नगर अंदर होने पर भी चौड़ी नहर के जलमार्ग द्वारा सागर से जुड़ा हुआ था।

तियोतिहुआकान शहर का विहंगम दृश्य
मध्य एवं दक्षिण अमेरिका की इन सभ्यताओं का अद्भुत स्थापत्य-शिल्प था। एक दूसरे के ऊपर भिन्न-भिन्न आकार के गढ़े पत्थर बिना चूने एवं गारे के कितनी शताब्दियों से भूकंप-प्रभावित प्रदेशों में टिके रहे और धक्के सहन करते रहे ! वेधशाला के रूप में प्रयोग होनेवाले चौकोर ऊँचे बुर्ज और मंदिर थे, जहाँ से तारों, चंद्र, सूर्य एवं ग्रहों का, उनकी गति का अध्ययन हो सके। फूस छाए कच्चे मकानों में पलता उनका ज्ञान-विज्ञान, कृषि के तरीके और उनके पंचांग, सभी स्पेनवासियों को चकित करने वाले थे। आंग्ल विश्वकोश का यह कहना कि 'जब यूरोप नव-प्रस्तर युग की बर्बरता व क्रूरता से उबर न पाया था तब यहाँ की सभ्यताएँ कांस्य युग से आगे बढ़ चुकी थीं', केवल ऊपरी लक्षणों का अनुमान है। इनको अंकगणित में 'शून्य' का और दशमलव पद्घति का पता था। इसी से वे बहुत बड़े अंकों की बात कर सके। वे 'समय' को एक देवता समझते थे, जैसे भारत में 'काल' की महिमा कहते हैं। भारत की तरह 'इन्का' विश्वास है कि अनेक बार प्रलय हुयी और पुन: सृष्टि प्रारंभ हुयी, और वैसी ही है चतुर्युगी की कल्पना। उनका सतयुग हिंदु के सतयुग के बराबर उतने ही वर्ष का है। प्राचीन भारत की तरह वे जानते थे कि सौर वर्ष में ३६५ दिन हैं। मध्य अमेरिका में पांडवों के वर्ष की तरह २० दिन के १८ माह और ५ अतिरिक्त पतित दिवस थे, जब तप से अपने को उबारना होता था। इन्का के वर्ष में ३० दिन के १२ माह होते थे और पड़ने वाले अंतर को भारतीय संवत् की भाँति अधिक मास या मलमास से पूरा करते थे। वे चंद्र और शुक्र ग्रह की गति जानते थे और ग्रहण की भविष्यवाणी कर सकते थे। यदि उन्होंने यह भारत से पाया तो क्या आश्चर्य?

इस चिट्ठी के चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ - पताल देश व मय देश
४५ - अमेरिका की प्राचीन सभ्याताएं और भारत

रविवार, जुलाई 25, 2010

पताल देश व मय देश

सागर की उत्ताल तरंगों पर महाकाल से भी खेलते भारतीय संस्कृति के पुजारियों ने चंपा देश से और आगे कदम बढ़ाया। कालांतर में सबसे विशाल और तूफानी महासागर (यह व्यंग्योक्ति है कि धोखे से उसे आज प्रशांत महासागर ( Pacific Ocean) कहते हैं) को सहस्त्रों किलोमीटर चीरकर पाताल देश (मध्य एवं दक्षिणी अमेरिका) जा पहुँचे ये हिंदु संस्कृति के संदेशवाहक। यह यूरोप का मिथ्याभिमान है कि कोलंबस ने अमेरिका की खोज की, अथवा हालैंड के वाइकिंग (Vikings) ने उस भूमि पर प्रथम पग रखा। यह 'पाताल देश' भारत के लिए नयी दुनिया कभी न था।


जब पहले-पहल यूरोपीय मध्य एवं दक्षिण अमेरिका पहुँचे तो हाथी के सिर और सूँड़ की मूर्ति देखकर चकित हो गए।  कारण, हाथी अमेरिका में नहीं पाया जाता। ऎसा ही एक उकेरा चित्र पेरू के संग्रहालय में है, जिसमें गले में सर्प धारण किए जटाजूटधारी देवता एक सूँड़धारी युवक को आशीर्वाद दे रहा है। शिव से आशीर्वाद प्राप्त करते गणेश के इस चित्र को 'प्रेरणा प्राप्त करता हुआ इन्का (Inca, Inga)' कहा गया। इसी प्रकार ग्वाटेमाला (Guatemala) के पूर्व एक हाथी पर बैठे देवता की मूर्ति है। यह ऎरावत पर आसीन इंद्र यहाँ कैसे प्रकट हुए ? शिव एवं गणेश जी और इंद्र इस अनजानी नई दुनिया में कैसे अवतरित हुए? यह उन स्वर्ण-लोभी, दंभी और बर्बर यूरोपवासियों की समझ में न आया जो लूट-खसोट करने अमेरिका पहुँचे थे।

महाभारत में पाताल देश के राजा का युद्घ में भाग लेने का उल्लेख है और वर्णन है 'मय ' दावन का, जिसने इंद्रप्रस्थ में अपने पाताल देश से लाए रत्नों से जटित पांडवों के अभूतपूर्व राजप्रासाद का निर्माण किया। जब स्पेनवासी मध्य तथा दक्षिण अमेरिका पहुँचे तो उनके रत्नजटित एवं स्वर्णमंडित मंदिर देखकर दंग रह गए। विष्णुपुराण में पृथ्वी के दूसरी ओर के सात क्षेत्रों का वर्णन है- अतल, वितल, नितल, गर्भास्तमत (भारत के एक खंड को भी कहते हैं), महातल, सुतल और पाताल। उसके अनुसार वहाँ दैत्य, दानव, यक्ष, नागों और देवताओं का निवास है। नारद मुनि वहाँ से लौटकर देवताओं से वर्णन करते हैं 'इंद्र की अमरावती से भी सुंदर पाताल देश' का। आज हम नहीं जानते कि पूथ्वी के दूसरी ओर के अन्य क्षेत्र कौन हैं, पर मध्य अमेरिका एवं दक्षिण अमेरिका का उत्तरी-पश्चिमी भाग (जिसमें आज उत्तर-पश्चिम कोलंबिया, इक्वाडोर, पेरू तथा उत्तरी चायल के आसपास का क्षेत्र है) की प्राचीन सभ्यता के भारतीय लक्षणों को देखते हुए उसकी पहचान संस्कृत वाङ्मय में वर्णित 'पाताल' से हो जाती है।

मध्य अमेरिका का परंपरागत विश्वास है कि उनके पूर्वज एक दूरस्थ प्राची देश (Orient), जिससे बृहत्तर भारत अर्थात भारत सहित दक्षिण-पूर्व एशिया का बोध होता है, से आए। स्पेनवासियों के मेक्सिको पहुँचने पर उनके राजा (Monetzuma) ने कहा था कि उनके गोरे पूर्वज ('पीत' नहीं) जलमार्ग से महासागर पार कर आए। इसी प्रकार इन्का किंवदंती है कि उनके 'अय्यर' (Ayer) राजा, जिन्होंने सहस्त्राब्दि से अधिक राज्य किया, मध्य अमेरिका से सूर्य देवता की कृपा से अवतरित हुए। 'अय्यर' राजा, अर्थात दक्षिण भारत के 'अय्यर ब्राम्हण', जिन्होंने अमेरिका को जीवन-पद्घति दी, छोटे-छोटे नगर, खंड और समाज के हर वर्ग को स्वायत्त शासन दिया, विज्ञान तथा पंचांग दिया और दिया गणित में स्थानिक मान एवं शून्य की कल्पना।

स्पेन निवासियों ने मध्य अमेरिका के कैरीबियन (Caribbean Sea) तट पर घास-फूस से छाए मिट्टी से निर्मित 'मय' (Maya) लोगों के मकान देखे, वैसे ही जैसे आज भी दक्षिण भारत के सागर-तट पर छोटी-छोटी बस्तियों में देख सकते हैं। उन्होंने उस सुसंस्कृत समाज को आदिम, अविकसित और जंगली समझा। इसीलिए वे उच्च भूमि पर बने सुनियोजित वर्गाकार नगर, जिनकी चौड़ी वीथिकाएँ एक-दूसरे को लंब रूप में काटती हैं और जिनमें अर्द्घ-पिरामिड सदृश चबूतरों के ऊपर देवताओं की आकृतियाँ और मंदिर थे, जो वेधशाला के रूप में भी काम आते थे, और बड़े सभ्यता के अंग हैं। इन सभ्यताओं की जीवन-पद्घति में भारत की झलक है।

शरद हेबालकर ने अपनी पुस्तक में इन मिट्टी से बनी दीवारों और घास-फूस के छप्परों के बीच पलते जीवन का वर्णन किया है,

'आदर्श भारतीय गृहिणी का आतिथ्य मेक्सिको की इन झोंपड़ियों में देखने को मिलेगा। यदि भोजन करने बैठे तो मेज-कुरसी छोड़ चटाई पर बैठकर थाली रखी जाएगी।-- उसमें होगी बेलन से चकले पर बेली और व्यवस्थित सेंकी गोल रोटी (खमीरी नहीं) और साथ में खाने के लिए बढ़िया छौंकी हुयी दाल।' 
उनका भोजन है चकला-बेलन पर बनी मक्का की रोटी, दाल, सेम आदि का साग और चटनी- जैसे भारत में लेते हैं। आगे कहा है, 
'ये मेक्सिकोवासी स्वभास व चाल-चलन से पूर्ण भारतीय हैं। अमेरिका का सच्चा वैभव है मेक्सिको, ग्वाटेमाला (Guatemala= गौतमालय), पेरू और बोलीविया प्रदेशों की प्राचीन संस्कृतियाँ; और ये अपना नाता भारतीय संस्कृति से बताती हैं।' 
अमेरिका के प्राचीन सांस्कृतिक जीवन में भारत की झलक दिखती है, जैसे हिंदुओं ने उन्हें संस्कृति के प्रथम दर्शन कराए हों।

भारतीय संस्कृति के दूतों से उन्होंने खेती करना सीखा।आज पुरातत्वज्ञ यह विश्वास करते हैं कि कपास की खेती और उपयोग भारत ने सारे संसार को दिया। अमेरिका निवासियों ने भी इन भारतीय पथ-प्रदर्शकों से वस्त्र पहनना सीखा। और उन्हें मिला एक समाज के रूप में सामूहिक जीवन और टोलियों में रहनेवाले तथा अनजान भाषाएँ बोलनेवालों को एकता में आबद्घ करती जीवन-पद्घति। यह चमत्कार भारतीय संस्कृति के दूतों ने विक्रम संवत् के लगभग पंद्रह सौ वर्ष पूर्व अथवा उसके भी पहले करके दिखाया।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण
४४ - पताल देश व मय देश

रविवार, जुलाई 11, 2010

इस्लाम व ईसाई आक्रमण

परन्तु यह सब कालांतर में नष्ट हो गया। यह सत्य है कि जहाँ मंगोल (मुगल) आक्रमण भारत में बाद में आया वहाँ कुबलई खाँ के  आक्रमण ने पहले ही दक्षिण-पूर्व एशिया में ध्वंस बरपा। उत्तरी चंपा पर चीन का कुछ काल तक अधिकार चलने पर भी इन हिंदु राज्यों की जनता ने पुन: कुछ सीमा तक उसका निराकरण किया। और दक्षिण-पूर्व के हिन्द द्वीप समूह ने तो चीन की नौसेना के एक बड़े अंश को जावा के पास जल-समाधि दिला दी। इसके बाद अरब के आक्रमण का भयानक खतरा आया इसलाम के रूप में। सरल और निष्कपट लोग छल के शिकार बने। पर भारत की सर्व कल्याण की इच्छा रखने वाली और हर प्रकार के विचारों की आश्रय-प्रदात्री संस्कृति ने उसे भी मानवता का एक रूप समझकर स्थान दिया। उन्हें अपनी श्रद्घा के अनुकूल रहने की, अपने पंथ की रीति का पालन करने की स्वतंत्रता दी। परंतु अनेक स्थानों पर वे विदेशी हस्तक बने। प्रदत्त स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया। बाह्य निष्ठाएँ जगाईं और धीरे-धीरे मलयेशिया एवं पूर्वी हिंद द्वीप समूह मुसलिम बहुल हो गए।


कंबोडिया के राजा: नोरोदम - चित्र विकिपीडिया से
उनके पीछे अनेक देशों से आए ईसाई। जहाँ-जहाँ यूरोपीय (ईसाई) बए, उनके आगे चले पादरी। सबसे पहले क्रूरकर्मा पुर्तगाली कंबुज एवं लव देश पहुँचे। लव देश में पुर्तगालियों ने भयंकर अत्याचार किए। उसके बाद सोलहवीं सदी में भिन्न-भिन्न यूरोपीय देशों से, व्यापार करने के बहाने, नौसेना सहित वहाँ पहुँचे अंग्रेज, डच और फ्रांसीसी। उनके साथ मानवता की खाल ओढ़े आया ईसाई चर्च और तथाकथित लोकोपकार कार्य। 'स्याम' (थाईलैंड) को छोड़कर सभी देश उनकी सर्वग्रासी साम्राज्यवादी भूख के ग्रास बने। राजा नोरोदम (नरोत्तम) के समय फ्रांसीसी साम्राज्य पूर्ण हो गया।

इनके अत्याचारों से तंग हो जनता साम्यवाद की ओर आकर्षित हूयी। तब जो कुछ बचा था उसको कंबुज, लव देश और चंपा (वियतनाम) में आए साम्यवाद के आक्रमण ने नष्ट कर दिया। साम्यवादी सरकारों ने वहाँ की भारतीय संस्कृति के अवशेषों को कुचला। मनमाने आदेशों से उनके प्राचीन काल से चलते आए जीवन के समूल विनाश का यत्न किया। मंदिर एवं विहार, अमूल्य शिल्प और कलाकृतियाँ नष्ट कर पुजारियों और बौद्घ भिक्षुओं को बलात् श्रम में जोता। साहित्य, परंपराएँ एवं संस्कृति- सभी उनके कोपभाजन बने।

मानव सभ्यता के हतभाग्य के ये सब निमित्त मात्र थे। मूल कारण शरद हेबालकर ने निम्न शब्दों में वर्णित किया है,

'सैकड़ों  वर्षों से भरत-भूमि के पुत्र इन हिंदु राज्यों में जाते रहते थे। वे ज्ञान, विज्ञान, पराक्रम लेकर जाते थे। पर दसवीं सदी के बाद स्वयं भारत इसलाम के आक्रमण का प्रतिकार करने में व्यस्त हो गया। धर्म, संस्कृति, भूमि, समाज आदि पर सर्वकष आक्रमणों से भारत ही घायल व व्याकुल था। एक भयंकर ग्लानि से वह ग्रस्त था।-- और जब चैतन्य का यह स्त्रोत ही बंद हो गया तो नहरों में चैतन्य का प्रवाह कहाँ से आता ? और उस चैतन्य के अभाव में यदि उन नहरों के आसपास के प्रदेश सूख बए तो क्या आश्चर्य ?' 
मानव सभ्यता की सबसे बड़ी त्रासदी थी भारत में विदेशी शासन।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया
३८ - लघु भारत 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण
४३ - इस्लाम व ईसाई आक्रमण

रविवार, जुलाई 04, 2010

चीन का आक्रमण और निराकरण

मंगोलिया में कुबलई खां की मूर्ति
विक्रम संवत् की ग्यारहवीं शताब्दी से उत्तरी चीन का दबाव दक्षिण-पूर्व एशिया पर बढ़ा। चीनी प्रव्रजन की लहरें ब्रम्ह देश, कंबुज, चंपा, मलय में आई और द्वीपों तक पहुँचीं। इन हलचलों ने उथल-पुथल मचायी, सबको त्रस्त किया। तब आए चीन के मंगोल सम्राट् कुबलई खाँ के आक्रमण। इन्होंने मंदिर, बस्तियाँ नष्ट कीं; उससे बढ़कर जन-संस्थाए, स्वायत्त शासन और सार्वजनिक जीवन उद्ध्वस्त किया। चंपा पर चीन ने कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया। ब्रम्ह देश एवं कंबुज के अंदर विनाश-लीला की। कुबलई खाँ की जलसेना का प्रबल आक्रमण हुआ, एक-एक द्वीप को अकेला कर जीतने की लालसा से। ऎसे समय में विक्रम संवत् की तेरहवीं शताब्दी में उसका समुचित उत्तर दिया यव द्वीप के सम्राट् कृतनगर के नेतृत्व में हिंदु राज्यों की संगठित शक्त ने। चंपा से लेकर कलिंग, कालीमंथन तथा बाली, मदुरा, यव द्वीप, सुमात्रा एवं मलय तक हिंदु राज्यों की मालिका खड़ी हुयी। अंत में उसके दामाद और बाली के राजपुत्र विजय ने चतुराई से मंगोल-नौदल का सर्वनाश किया। जावा में चीनी जलसेना नष्ट हो गयी। जनता ने विजय को 'कीर्तिराज जयवर्धन' के नाम से विभूषित किया।


मजपहित स्वर्णिम युग को दर्शाती अप्सरा की सवर्ण मूर्ति
'कृतनगर' और 'जयवर्धन' द्वारा इस क्षेत्र के स्वर्ण युग का पदार्पण हुआ। यह साम्राज्य 'मजपहित' कहलाता है। यहाँ के एक संस्कृत काव्य में इसका वर्णन 'यव द्वीप की प्रजा के जीवन का सर्वश्रेष्ठ कालखंड' कहकर है। श्री शरद हेबालकर ने मजपहित साम्राज्य को 'हिंदु संस्कृति के वैभव का परमोच्च शिखर' कहा है। इसी वंश में 'त्रिभुवना' सम्राज्ञी हुयी, जिसका काल एक आदर्श शासन-व्यवस्था लागू करने के लिए प्रसिद्घ हुआ। श्री शरद हेबालकर ने लिखा है,
'उसकी शासन-व्यवस्था चाणक्य के अर्थशास्त्र और कामंदक के राजनीतिशास्त्र पर आधारित थी। अर्थशास्त्र में वर्णित सप्तांग राज्य-कल्पना प्रत्यक्ष व्यवहार में आई। राज्य-शासन के विधि, नियम और न्याय-व्यवस्था मनुस्मृति पर आधारित थी। इसी समय जनगणना और भू-मापन संपन्न हुआ, जिससे राष्ट्र-समृद्घि की अनेक योजनाएँ बन सकीं। श्रमिक एवं भृत्य वर्ग का वेतन शासन द्वारा निश्चित किया गया। भ्रष्टाचार से मुक्त जीवन बनाने की दृष्टि से आर्थिक तंत्र के अधिकारी नियुक्त करते समय जाँच-पड़ताल और कुल-शील देखकर नियुक्तियाँ की जाती थीं। प्रजा के लिए देय कर न्यूनतम थे। कर-संग्रह तथा समुचित लेखा-जोखा रखा जाता था। साम्राज्य में सरदारों तथा वरिष्ठ वर्ग पर भेंट, उपहार आदि लेने के विषय में कठोर प्रतिबंध थे।' 
यह साम्राज्य विक्रम संवत् की सोलहवीं शताब्दी तक बना रहा। यह किसी आधुनिक कल्याण राज्य का वर्णन नहीं है क्या?

कैसे वैभव-संपन्न ये भारतीय संस्कृति से अनुप्राणित राज्य निर्मित हुए। इसके साक्षी उस क्षेत्र में आए चीनी प्रतिनिधियों और यात्रियों के वर्णन, वहाँ के शिलालेख,उनके साहित्य तथा आज प्राप्य सरकारी अभिलेखों में प्रयुक्त भारतीय वर्णमाला एवं लिपि,उनकी भाषा,जिसपर संस्कृत की अमिट छाप है, उनका शिल्प और कला-वैभव तथा उनमें अंकित हिंदु पवित्र चिन्ह हैं। रामायण और महाभारत, जातक, पंचतंत्र एवं पुराणों से लिये संदर्भ उनके जीवन की कहानी बने। स्वायत्तता एवं सामाजिक रचना हिंदु जीवन से ओतप्रोत  बनी। वैष्णव,शैव, शाक्त और बौद्घ-सभी मतों का अद्भुत समन्वय संस्कृति की सिद्घि थी। सभी विचारो का समादर और मानवता के अनुकूल वृत्ति।


इस चिट्ठी के दोनो चित्र विकिपीडिया से

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३९ - अंग्कोर थोम व जन-जीवन
४० - श्याम और लव देश
४१ - मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह
४२ - चीन का आक्रमण और निराकरण

रविवार, जून 27, 2010

मलय देश और पूर्वी हिन्दु द्वीप समूह

ऎसे ही मलय देश (Malayasia) और हिंदु महासागर के द्वीप, जिन्हें पूर्वी हिंद द्वीप समूह (East Indies) भी कहते हैं, जिनमें सुमात्रा, जावा (प्राचीन यव द्वीप) से लेकर मदुरा, बाली आदि, पूर्व में प्रशांत महासागर की ओर बढ़ते लघु द्वीप तथा कालीमंथन, जिसे अब बोर्निओ (Borneo) भी कहते हैं और जहाँ शरद हेबालकर के अनुसार, गणेश एवं बुद्घ की मूर्तियाँ तथा कमल, सूर्य, चंद्र, कूर्म और नाग की स्वर्ण-प्रतिमाएँ खंडहरों में मिली हैं।

गुरुवार, जून 17, 2010

श्याम और लव देश

विक्रम संवत् की दसवीं-ग्यारहवीं शती में 'थाई' (ताई : Tai) लोग चीन के नानचाओ प्रदेश से इस दक्षिण-पूर्व एशिया में आए। पश्चिम में ब्रम्ह देश से लगे प्रदेश में अपने को तेलंगी कहने वाले 'मान' लोग (हरिपुंजय राज्य) प्रभावशाली थे और कंबोज के विस्तृत राज्य में ख्मेर। ये दोनों ही भारतीय जीवन से ओतप्रोत थे। ऎसे समय में थाई भी, जिनका नानचाओ प्रदेश भारतीय संस्कृति से परिचित था, उसी में रँगते गए। अंत में कंबुज राज्य का पश्चिमी भाग 'थाई' लोगों का स्याम देश (Thailand) बना, जहाँ के राजा 'राम' की पदवी धारण करते थे।

रविवार, जून 13, 2010

अंग्कोर थोम व जन-जीवन

विक्रम संवत् की नौवीं शताब्दी में जयवर्मन द्वितीय के द्वारा कंबुज की पुन: प्रतिष्ठा हुयी। तब 'अंग्कोर युग' का प्रारंभ हुआ, जो कंबुज के इतिहास में 'स्वर्ण युग' कहा जाता है। इसी युग में इंद्रवर्मन ने अनेक मंदिरों एवं झीलों का निर्माण कराया। यशोवर्मन (दशम शताब्दी) ने, जो स्वयं संस्कृत का विद्वान और हिंदु शास्त्रों का मर्मज्ञ था, 'यशोधरपुर' राजधानी बसायी। वह 'अंग्कोर थोम' ('थोम' का अर्थ है राजधानी) के नाम से प्रसिद्घ है और थोड़ी दूर पर है 'अंग्कोर (ओंकार) वात' नामक प्रसिद्घ विष्णु मंदिर।

शनिवार, जून 05, 2010

लघु भारत

कौंडिन्य के वंशजों में फूनान साम्राज्य के प्रतापी सोमवंशी राजा चंद्रवर्मा, जयवर्मा, रूद्रवर्मा आदि हुए जिन्होंने हिंदु संस्कृति की दुंदुभि बजायी। अन्य राज्यों को दूत भेजकर संबंध स्थापित किए। हिंदु जीवन के प्रचारक एवं बौद्घ भिक्षु चीन तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में और सुदूर द्वीपों में भेजे। कहते हैं कि विक्रम संवत् की चौथी शताब्दी के अंत में द्वितीय हिंदुकरण का प्रवाह 'चंदन' नामक एक भारतीय के फूनान क्षितिज में प्रकट होने से प्रारंभ होता है।

सोमवार, अप्रैल 26, 2010

दक्षिण-पूर्व एशिया

दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का प्रकाश जिन्होंने फैलाया, उनकी चार लहरों की चर्चा शरद हेबालकर ने अपने पुस्तक 'भारतीय संस्कृति का विश्व-संचार' (Indian Culture over the World by Sharad Hebalkar) में की है। प्रथम, भारतीय अन्वेषक तथा व्यापारी के रूप में हिंदु संस्कृति के प्रचारक वहाँ पहुँचे।

रविवार, अप्रैल 18, 2010

ब्रम्ह देश

बौद्ध मन्दिर - चित्र विकिपीडिया से
ब्रम्ह देश के बीच से बहती भारत की नौ पवित्र नदियों में से एक है इरावती नदी (Ayeyarwady)। इसी के पूर्वी तट पर मांडले के दक्षिण-पश्चिम में बसा पैगन नगर तथा पास में है प्राचीन विष्णु मंदिर के खंडहर। भग्न मूर्तियों के बीच गर्भगृह में मानव मुखाकृतिवाले गरूड़ पर आरूढ़ कमलासन पर बैठे विष्णु की सुंदर मूर्ति। उनके चारों ओर दशावतारों की खंडित मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। इसी के पास नवम अवतार बुद्घ का मंदिर है, जिसमें हिंदुओं के शुभ चिन्ह अंकित हैं। इस मंदिर के खडहर में संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है एक शिलालेख, जिसे केरल से आए एक व्यापारी ने भगवान की प्रार्थना में खुदवाया था। वहाँ सभामंडप एवं सिंहद्वार भी बनवाया। जनश्रुतियों के अनुसार कभी जगन्नाथपुरी से गरूड़ पर विष्णु भगवान ने ब्रम्ह देश आकर इरावती के किनारे 'श्रीक्षेत्र' नगरी स्थापित की। एक अन्य कथा के अनुसासर यह विष्णु नामक एक महान ऋषि थे। यह 'श्रीक्षेत्र' इतिहास में ब्रम्ह देश की राजधानी थी। इसी से इसका आधुनिक नाम 'प्यै' (Pye) (शाब्दिक अर्थ- राजधानी) पड़ गया; 'प्रोम' (Prome या Pyay) इसी का अंग्रेजी अपभ्रंश है। कहते हैं कि तीन सहस्त्र वर्ष पूर्व प्रथम हिंदु राज्य का निर्माण अराकान तट पर वाराणसी से आए चंद्रवंशीय राजा ने किया था और श्रीक्षेत्र राजधानी बनायी थी।

भारत एवं ब्रम्ह देश का गहन सांस्कृतिक नाता रहा है। यह नाता उस देश के स्थलों के पुराने नामों में, वहाँ की पुरानी परंपराओं एवं मान्यताओं में, साहित्य, रीति-रिवाजों तथा सामाजिक धारणाओं में दिखता है। यहाँ का जीवन वैष्णव एवं बौद्घ मतों का अद्भुत समन्वय है। प्राचीन काल में विष्णु और बुद्घ एक ही मंदिर में स्थापित रहते थे।

चीनी यात्रियों ने उस समय के हिंदु राज्य के वैभव का वर्णन किया है। परंपरा के अनुसार उत्तर भारत में वैशाली से और दक्षिण भारत में पल्लव राजाओं की प्रेरणा से संस्कृति का संदेश लेकर भारतीय यहाँ आए। ऎसे ही ब्रम्ह देश के 'वर्मा' या 'वर्मन' राजा दक्षिण भारत के मूल निवासी थे। यहीं 'हरिविक्रम' ने विक्रम वंश की नींव डाली, जिसमें प्रतापी राजा हुए। उन्होंने 'श्रीक्षेत्र' नगर को अपनी राजधानी बनाया और 'शक' नाम से एक संवत् भी चलाया। उनका तथा जन साधारण का वैष्णव जीवन था। रीति और शिक्षा में हिंदु परंपराएँ आईं। भारतीय शासन प्रणाली और मनुस्मृति पर आधारित विधि स्थानिक परिस्थितियों को ध्यान में रख अपनायी गयी। इसी से देश में स्वायत्तता आई और भारतीय संस्कृति की भूमिका में वहाँ की मूल प्रकृति का विकास हुआ। सामाजिक जीवन, कला, स्थापत्य- सभी में भारतीय ढंग होते हुए भी स्वतंत्र प्रतिभा विकसित हुयी।बौद्घ मंदिरों में उत्तरी भारत के समान शिखर थे और दक्षिण भारतीय गर्भगृह। बौद्घ मत में भी वैदिक पूजा-पद्घति। वैसे ही उपासना, उत्सव, अभिषेक, समारोह वैदिक पद्घति से करने की रीति बनी। सभी उत्सवों के प्रारंभ में भगवान की प्रार्थना होती। संवत् की बारहवीं शताब्दी में 'अनव्रत' नामक राजा हुआ, जिसने 'पैगन' को राजधानी बनाया। पाली वहाँ की राजभाषा बनी। उस समय अनेक 'स्मृतियों' के पाली भाषा में अनुवाद हुए। ऎसे ही 'मान' (Mon)  लोगों ने, जो अपने को 'तेलंगी' कहते थे, दक्षिण में अपनी राजधानी 'हंसावती' (आधुनिक पेगू : Pegu)  बसायी। उन्हीं का 'रमम्गो' नगर आज रंगून (Rangoon ) बन गया।

पर यह जीवन आगे टिकने वाला न था। दसवीं शती में चीन की उथल-पुथल के कारण विस्थापितों की लहरें ब्रम्ह देश एवं स्याम (आधुनिक थाईलैंड) में आईं। इन्होंने ब्रम्ह देश के जीवन को हिला दिया। पर विक्रम संवत् की तेरहवीं शताब्दी में चीन के मंगोल सम्राट कुबलई खाँ के आक्रमण ने पैगन एवं श्रीक्षेत्र के मंदिर तथा प्रासाद नष्ट कर दिए।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश