गुरुवार, सितंबर 20, 2007

मानव का आदि देश-६

एक घटना याद आती है। मेरे छोटे बाबाजी को पुरातत्‍व से लगाव था। एक दिन उन्‍होंने मुझसे कहा,
अंग्रेजी में हमारी ठेठ भाषा के ठेठ देहाती शब्‍द हैं। उन बेचारों को उच्‍चारण नहीं आता, इससे दूसरी भाषा बन गई।
मैं तब नौवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे चेहरे पर संदेह देखकर उन्‍होंने कहा,
‘पूछो तुम शब्‍द।
तब मैं अंग्रेजी शब्‍द कहता और वह उसीसे मिलते-जुलते हिंदी के पर्याय शब्‍द बताते चलते। हम एक कस्‍बे में रहते थे। तंग आकर मैंने पूंछा,
‘टाउन ( town)?
उन्‍होंने हँसकर कहा,
‘अब तुम ठेठ देहाती शब्‍द पर उतर आए हो। बुंदेलखंडी में पूछते हैं, "तुहार ठॉंव कवन आय ?" यह ‘ठॉंव’ ही ‘टाउन’ है।
जब मुझे विश्‍वास नहीं हुआ तो मुझसे आंग्‍ल विश्‍वकोश (Encyclopedia Brittanica) दिखवाया। उसमें ‘टाउन’ शब्‍द के विवेचन के बाद लिखा था, ‘तुलना करें, संस्‍कृत ‘स्‍थान’। संस्‍कृत ‘स्‍थान’ से ही ‘ठॉंव’ और ‘टाउन’ दोनों बने। उन्‍होंने हजारों अंग्रेजी शब्‍दों के उसी से मिलते-जुलते हिंदी पर्याय लिखे थे।

भाषा के आश्‍चर्यजनक साम्‍य से यह निष्‍कर्ष भी निकलता है कि आर्य किसी एक स्‍थान, जैसे भारत से पश्चिमी एशिया और यूरोप में फैले। संस्‍कृत संसार की प्राचीनतम और समृद्धतम भाषा है। हर प्रकार के साहित्‍य का, जिनमें वेद-पुराण प्रमुख हैं, बहुत बड़ा भंडार उसके पास है और है शब्‍द बनाने तथा भाव व्‍यक्‍त करने का सरल एवं अनुपम ढंग तथा विश्‍व भाषा बनने की क्षमता। ऐसी दशा में संस्‍कृत यदि आर्य सभ्‍यता की मूल भाषा (या उसके निकट-पूर्व की प्रचलित भाषा) रही हो तो क्‍या आश्‍चर्य।

आर्य भाषाओं साम्‍य का एक और कारण अनुमान कर सकते हैं। कल्‍पना करें कि यह विस्‍मरण हो जाए कि भारत में कभी अंग्रेजी राज्‍य था। अंग्रेजी के बहुत से शब्‍द हिंदी में और हिंदी के अनेक शब्‍द अंग्रेजी में प्रतिदिन के व्‍यवहार में आते हैं। इसे देखकर यदि कोई कहे कि अंग्रेज और भारतीय कहीं बीच के निवासी थे, कुछ इंग्‍लैंड चले गए और कुछ भारत आए तो कितनी हास्‍यास्‍पद बात होगी! कभी भारतीय सभ्‍यता का प्रभाव सारे संसार में फैला; उसने अखिल मानव जीवन को दिशा दी। इसी से आदि भारती के शब्‍दो को लोगों ने सिर-माथे लगाया। पर इतनी बड़ी मात्रा में आर्य भाषाओं में अद्भुत साम्‍य है कि आर्य प्रजाति का भारत से जाना भी युक्तिसंगत है।

आखिर पुरातत्‍व से भाषाशास्‍त्र में वे क्‍यों घुसे ? इसकी कहानी बाबाजी (चौ. धनराज सिंह) ने बताई थी। एक रात गांव में लेटे हुए बाहर सियारों का ‘हुआना’ ( हुआ-हुआ) सुनते रहे। उनको लगा कि संसार में एक जाति के जानवर एक प्रकार से बोलते हैं, फिर मानव की अनेक भाषाऍं क्‍यो हैं ? इसके बारे में बाबुल (Babul) की एक दंतकथा है। कहते हैं कि पहले मानव की एक ही भाषा थी। तब पृथ्‍वी के लोगों ने स्‍वर्ग तक ऊँची मीनार उठाने का विचार किया, जिससे सशरीर स्‍वर्ग पहुँच सकें। जब मीनार बननी प्रारंभ हुई तो देवताओं को भय लगा। उन्‍होंने शाप दिया कि आगे से एक-दूसरे की भाषा मनुष्‍य समझ न पाऍंगे। इस पर मीनार का निर्माण कार्य ठप्‍प हो गया। आज भी फारस की खाड़ी में, जहॉं की यह दंतकथा है, बाबुलमंदप नामक स्‍थान देखा जा सकता है। पर मानव की कभी एक भाषा रही होगी,ऐसा विश्‍वास भाषाशास्त्रियों का नहीं है।

अनुमान है कि प्रस्‍तरयुगीन मानव के पास बहुत कम शब्‍द होंगे—भय, क्रोध, प्रेम आदि की चिल्‍लाहट या वस्‍तुओं की नकल से प्राप्‍त ध्‍वनि। आपस में बात करने के लिए संकेतों का भी प्रयोग होता होगा, जैसा अमेरिका के भिन्‍न भाषा वाले आदि निवासी करते थे। लाखों वर्षो के जीवन के बाद कहीं विचारों के लिए शब्‍दों का निर्माण हो पाया। भारत की प्राचीन भाषा, जिसके अवशिष्‍ट अंश चहुँओर सभी आर्य सभ्‍यताओं में बिखरे, कैसी महान उपलब्धि थी।

प्रजाति के विभाग या वर्गीकरण से मेल खाते हैं संसार की भाषाओं के वर्ग। एक वर्ग के अंदर धातुऍं एवं शब्‍द गढ़ने का तरीका, वाक्‍य-विन्‍यास, अभिव्‍यक्ति की पद्धति तथा व्‍याकरण एक-सा मिलता है। सबसे बड़ा विभाग आर्य भाषाओं का है जिनमें मूल संस्‍कृत एवं पाली है और हैं भारत की सभी भाषाऍं, फारसी, अरमीनी तथा यूरोपीय। दूसरा बड़ा वर्ग सामी (Semitic) भाषाओं का है जिसमें अरबी, इब्रानी (Hebrew), एबीसीनी (Abyssinian) और उस क्षेत्र की प्राचीन भाषाऍं हैं। इसी प्रकार एक अन्‍य बड़ा वर्ग पूर्वी एशिया की भाषाओं का है जहॉं कुछ प्रारंभिक ध्‍वनियों से बोली बनती है। उनका स्‍वर तथा उतार-चढ़ाव उनको भिन्‍न अर्थ देता है। यह चीनी भाषाओं का वर्ग है। आर्य भाषा रूपकों में स्‍पष्‍ट चित्र खड़ा करती है; वहॉं चीनी भाषा सार मात्र देती है, जिसके भिन्‍न संदर्भ में भिन्‍न-भिन्‍न अर्थ होते हैं। इनकी व्‍याकरण की कल्‍पना भिन्‍न है-या जैसा कुछ भाषाशास्‍त्री कहते हैं, व्‍याकरण है ही नहीं। इसलिए चीनी भाषा से आर्य भाषा में शब्‍दानुवाद संभव नहीं।

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६ मानव का आदि देश

बुधवार, सितंबर 12, 2007

मानव का आदि देश-५

प्रमाण में कि आर्य भारत में बाहर से आए, दो बातें कही जाती हैं। प्रथम, भारत में सभी प्रकार के लोग पाए जाते हैं-गोरे, काले तथा उत्‍तर-पूर्व में मंगोल लक्षण लिये हुए भी। इससे कहते हैं कि गोरे आर्यों तथा काले अनार्यों के सम्मिश्रण से आज के गेहुँए भारतीय पैदा हुए। मंगोल लक्षणों के लिए वे कहते हैं कि कुछ मंगोल भी उत्‍तर-पूर्व में बस गए होंगे। ये आधारविहीन कल्‍पनाऍं हैं। संसार में पिंगल प्रजाति भी है और भारत में उस चेहरे-मोहरे के लोग हैं। यदि संसार में गोर-काले ही होते तभी केवल जलवायु के प्रभाव से यह भेद उत्‍पन्‍न होना कहा जा सकता था। भारत सभी प्रजातियों का संगम स्‍थल है, जहॉं से मानव भिन्‍न दिशाओं में, अन्‍य परिस्थितियों एवं जलवायु में गए। इन प्रवासियों में नई विशिष्‍टताऍं एवं लक्षण उत्‍पन्‍न हुए और नई प्रजातियॉं बनीं। इसी प्रकार जो यूरोपवासी अमेरिका जाकर बसे उनकी संतति, चेहरे-मोहरे में शताब्दियों में परिवर्तन आया। यूरोपीय इतिहासज्ञ भूलते हैं कि चतुर्थ हिमाच्‍छादन के बाद यूरोप में दक्षिण-पूर्व से जब विशुद्ध मानव पहुँचे तो वे गेहुँए या श्‍यामल वर्ण के थे, जैसे अधिकांश भारतीय आज हैं।

इस ऐतिहासिक भ्रम ने कैसा विष उत्‍पन्‍न किया, इसकी छाया तमिलनाडु के हिंदी-विरोधी आंदोलनों में देखी जा सकती है। एक बार विचित्र अनुभव हुआ। तब यह आंदोलन प्रारंभ हुआ था। इटारसी से नागपुर जाते समय मैं रेल के छोटे डिब्‍बे में कोने में बैठा पुस्‍तक पढ़ रहा था। इतने में देखा कि एक श्‍याम तमिल सज्‍जन अंग्रेजी में उत्‍तरी भारत के विरूद्ध, उत्‍तर के गोरे लोगों के विरूद्ध और हिंदी के विरूद्ध बक रहे थे और‍ डिब्‍बे में सबसे हुँकारी भरा रहे थे। सब उनसे त्रस्‍त थे, पर उनका ‘उत्‍तरी भारत’, ‘गोरे आर्य’ तथा ‘हिंदी’ के ‘साम्राज्‍यवाद’ के विरूद्ध प्रस्‍ताव चालू था। अंत में मेरी ओर घूमकर उन्‍होंने कहा,
‘क्‍यों साहब, आप कुछ नहीं बोल रहे ?’
मैंने कहा,
‘मैं तो उलटा ही जानता हूँ। यदि दक्षिण के साम्राज्‍यवाद से छुटकारा मिल जाए तो हम लोगों का बड़ा भला हो।
उनकी त्‍योरियॉं चढ़ गई,
‘यह कैसे ?’
मैंने कहा,
‘एक शंकराचार्य दक्षिण में केरल के कालडी ग्राम में पैदा हुआ। कहते हैं, उसने उत्‍तर भारत आकर दिग्विजय की। तब से कैसे नियम बना गए—गंगा का जल ले जाकर रामेश्‍वरम में चढ़ाओ। भारत के चार कोनों में स्‍थापित चारों धाम की यात्रा करो। हम उत्‍तरी भारत में बेवकूफ बने उसकी कही करते रहते हैं। -- और तो और, इतिहासज्ञ कहते हैं कि आर्य जब भारत में आए तो वे गोरे थे, पर द्रविड़ों ने अपने देवी-देवता उन्‍हें दे दिए। हमारे राम भी सॉंवले, कृष्‍ण का नाम ही कृष्‍ण है। ‘काली’ को देखते भय लगता है। और देवों के देवता ‘महादेव’ भी सॉंवले। अब हम उत्‍तर में इन सॉंवले देवी- देवताओं की पूजा करते फिरते हैं।– इससे भी बढ़कर सीता जगन्‍माता हैं, इसलिए उनके सौंदर्य का वर्णन कहीं नहीं है। पर जिसे महाभारत में अनिंद्य सुंदरी कहकर पुकारा, वह द्रौपदी भी काली। इसी से कृष्‍ण की बहन कहलाई। जिसके कारण चित्‍तौड़गढ़ में जौहर हुआ, भारत के संघर्ष काल की अद्वितीय सुंदरी पदिमनी, वह भी सॉंवली। सॉंवलों से तथा उनके देवी-देवताओं से पीछा छूटे तो हम उबर जाऍं।
क्रोध के मारे उन सज्‍जन की आवा न निकली। डिब्‍बे के लोग हँस पड़े और चैन सॉंस ली। जब दृष्टि भ्रमवश संकुचित हो जाती है तो कैसा विकार उत्‍पन्‍न होता है।

दूसरा भाषा का प्रमाण देते हैं। मैक्‍समूलर का प्रसिद्ध उदाहरण है-कैसे संस्‍कृत का ‘पितृ’ शब्‍द (हिंदी ‘पिता’), देहाती अपभ्रंश में ‘पितर’ बनता है, वही फारसी में ‘पिदर’, लैटिन तथा जर्मन भाषा में ‘पेटर’ (pater) और अंग्रेजी में ‘फादर’ (father) बन जाता है। इस प्रकार के सहस्‍त्रों उदाहरण मिलते हैं। हिंद-यूरोपीय (Indo-European) भाषाओं के अद्भुत साम्‍य के कारण कुछ इतिहासज्ञ कहने लगे-‘भारत के आर्य और यूरोपीय किसी एक ही प्रदेश में जनमें हैं। एक शाखा निकली, यह यूरोप में बस गई। दूसरी भारत आई। बीच में कश्‍यप सागर के आसपास का क्षेत्र है। इसलिए ये दोनों शाखाऍं वहीं से निकती होंगी। वही आर्यों का आदि देश है।‘ भाषा के साम्‍य को इस बात का प्रमाण मान सकते हैं कि आर्यों का आदि देश एक था, जिससे शब्‍द –ध्‍वनियों की बानगी उनके पास बनी रही।

आज जो ‘जिप्‍सी’ (Gypsy) मध्‍य यूरोप में घुमक्‍कड़ जिंदगी व्‍यतीत करते हैं उनकी भाषा ‘रामणी’ (Romany) में बहुत से भारत के देहाती शब्‍द हैं। इन जिप्सियों के परंपरागत विश्‍वास, उनकी दंतकथाऍं और रीति-रिवाज बताते हैं कि वे संवत͉ पूर्व पंजाब से मिस्‍त्र (Egypt) ( इसी से जिप्‍सी कहलाए) तथा अनेक मंजिलें पार कर मध्‍य यूरोप पहुँचे।

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५ मानव का आदि देश

बुधवार, सितंबर 05, 2007

मानव का आदि देश-४

इस भ्रांति का कि आर्य नाम की कोई एक प्रजाति है, जो भारत की मूल निवासिनी न थी वरन बाहर से आई, संसार के इतिहास में सानी नहीं है। पहले-पहल इस भ्रांत मत का उच्‍चतर संवत १८९८ ( सन १८४०) में हुआ। तब जॉन शोर ने, जो ईस्‍ट इंडिया कंपनी के विदेश विभाग में था तथा विलियम बेंटिंक के बाद कुछ काल के लिए गवर्नर जनरल बना, अपनी पुस्‍तक में इसे प्रतिपादित किया। इसके पहले यह किसी की कल्‍पना में भी न था। यह समय था जब भारत के सांस्‍कृतिक जीवन को समाप्‍त कर अंग्रेजीकरण की नीति बनाई गई।

जब अंग्रेज भारत में व्‍यापार करने और प्रारब्‍ध ने उन्‍हें इस देश का स्‍वामी बनाया, तब अपनी साम्राज्‍य- लिप्‍सा के समर्थन में उन्‍होंने यह कहना प्रारंभ किया कि ‘अंग्रेजों ने यह देश हथियारों के बल पर जीता, वैसे ही जैसे मुगलों ने कभी जीता था। उसी प्रकार यहॉं के आर्य भी बाहर से आए थे और यहॉं के अनार्यों को जीतकर उनका सब छीन लिया। इस भूमि पर जितना अधिकार आर्यों का है उतना ही मुगलों का था और उतना ही अंग्रेजों का है।‘ यह कहकर उन्‍होंने यहॉं के निवासियों को झुठलाने का यत्‍न किया। पहले उन्‍होंने ‘द्रविड़’ को एक अलग प्रजाति कहकर यहॉं का मूल निवासी बताया। बाद में पादरियों ने एक नया दावा प्रारंभ किया कि ये द्रविड़ भी कहीं बाहर से आए-
'शायद भूमध्‍य सागर के "बर्बर" थे। भारत के मूल निवासी यहॉं के वनवासी, कोल, भील, संथाल आदि हैं।' (इतिहास उलटा जानता है कि बर्बर दक्षिण-पूर्व से यूरोप में गए।)
पहले इन्‍हीं को ‘विंध्‍याचल पर्वत के अवशिष्‍ट द्रविड़’ कहते थे, अब इन्‍हें ‘आदिवासी’ की एक अलग संज्ञा दे दी। नृवंशीय दृष्टि से इन द्रविड़ या आदिवासीजन का आकार, बनावट, चेहरा-मोहरा भारत के अन्‍य निवासियों से मिलता-जुलता है और ऊपरी रूपांतर सम्मिश्रण या सहस्‍त्राब्दियों के भिन्‍न प्राकृतिक वातावरण तथा उत्‍परिवर्तन का परिणाम है।

‘आर्य’ का शाब्दिक अर्थ है ‘श्रेष्‍ठ’। यह कोई जाति न थी। पर ‘आर्य’ शब्‍द का प्रयोग कभी-कभार गेहुँए रंग की भारत-यूरोपीय प्रजाति (Indo-European Race) का बोध, पिंगल तथा नीग्रो प्रजातियों से वैषम्‍य दिखाने के लिए होता है। आर्य भारत की प्राचीन हिंदु सभ्‍यता है, जिसने कभी संसार की सभी प्रुख प्राचीन सभ्‍यताओं को प्रभावित किया।

आर्यो के अस्तित्‍व तथा आदि निवास के बारे में आज भी पश्चिमी इतिहासज्ञ अनिश्चित हैं। पहले कहा जाता था कि आर्य मध्‍य एशिया से—कश्‍यप सागर तथा अरल सागर के बीच के भूभाग-या प्राचीन कैकय प्रदेश ( काकेशिया: Caucasus) से, जहॉं की दशरथ की रानी कैकई थी, आए। पर चतुर्थ हिमाच्‍छादन के समय कश्‍यप सागर और अरल सागर का मध्‍यवर्ती प्रदेश सागर तल था और कैकय प्रदेश हिमाच्‍छादित। अतएव डेन्‍यूब (Danube) नदीतल में कुछ प्राचीन घरों के अवशेष मिलने पर एक नया मत चल निकलाकि आर्य डेन्‍यूब घाटी के निवासी थे और वहॉं से निकलकर चारों ओर फैले। शायद इस कल्‍पना के पीछे एक मनोग्रंथि (complex) हावी थी, जिसने पिछली तीन-चार शताब्दियों से यूरोपवासियों को स्‍वप्रदत्‍त ‘गोरों’ का कर्तव्‍य-भार (white man’s burden)—संसासर को सभ्‍य बनाना है’ के नाम पर घोर अत्‍याचार, उत्‍पीड़न और जाति-संहार करने की छूट दी। आखिर यह महिमामय आर्य प्रजाति यूरोप के किसी कोने केअतिरिक्‍त और कहॉं पैदा हो सकती है ?

एक चुटकुला है। एक बार एक पादरी ने सब कामनाओं की पूर्ति करने वाला,सब सुखों से पूर्ण स्‍वर्ग का चित्र खींचा और एक देहाती से पूछा,
‘क्‍या तुम स्‍वर्ग नहीं जाना चाहते ?’
बेचारे देहाती ने सिर हिलाया,
'नहीं।'
देहाती ने इतना ही कहा,
'यदि वह कोई अच्‍छी जगह होती तो गोरों ( यूरोपवासियों) ने उसे पहले ही हथिया लिया होता।'
यूरोपवासियों के दंभ ने पहले एटलांटिस नामक एक काल्‍पनिक महाद्वीप की सृष्टि की जो प्रलय के समय अटलांटिक महासागर में डूब गया। वहॉं के निवासी बड़ीउन्‍नत सभ्‍यता के धनी कहे गए। पर इसका जब कोई प्रमाण न मिला तो यूरोप में मानव सभ्‍यता के आदि चिन्‍ह ढूँढ़ना प्रारंभ किया। डेन्‍यूब घाटी या कश्‍यपसागर के पास की भूमि में चतुर्थ हिमाच्‍छादन के बर्फानी तूफानों को तथा वहॉं के विपत्ति भरे जीवन की दृष्टि-ओट कर दिया और जब पिल्‍टडाउन (इंग्‍लैंड) में अस्थि-अवशेष प्राप्‍त हुए तो उसे पॉंच लाख वर्ष पुराना ‘उषा-मानव’ (dawn-man) कहा। बाद में पता चला किरासायनिक प्रक्रिया द्वारा इसे प्राचीन बनाया गया था।

इस कल्‍पना ने कि आर्य कहीं बाहर से आए, भारतीय इतिहास का एक विकृत अध्‍याय रचा। भ्रमित कल्‍पना कहती है कि संवत् से एक हजार वर्ष पूर्व आर्य हिंदुकुश पर्वत के दर्रों से होकर भारत आए और पहले पंजाब में बसे। वहॉं से वे नदियों के किनारे सिंधु-सागर तक और पूर्व में गंगा के किनारे बंगाल तक फैल गए। यहॉं के मूल, जंगली एवं गिरि-कंदराओं में रहने वाले अनार्यों से उनका युद्ध हुआ होगा। आर्यो ने उनकी संपूर्ण भूमि छीनकर दक्षिण में भगा दिया। फिर दक्षिण में भी आक्रमण कर इनको जीतकर आत्‍मसात कर लिया। इस तरह कल्‍पना बेलगाम दौड़ती है।

परंतु अपने प्राचीन ग्रंथों में आर्यों के कहीं बाहर से आने का उल्‍लेख या किंवदंती नहीं मिलती। आर्यों-अनार्यों के युद्ध का वर्णन उक्‍त ग्रंथों में नहीं है। केवल देवासुर संग्राम का वर्णन आता है, जिसे कुछ पुरातत्‍वज्ञ प्रतीकात्‍मक (allegorical) मानते हैं। ‘देव’ तथा ‘असुर’ आर्यों की ही दो शाखाऍं थीं। आर्य-अनार्यों के तथाकथित संघर्ष की कोई झलक हमें ऐतिहासिक सामग्री में नहीं मिलती। इसके विरूद्ध महाभारत में भारत को मानव का आदि देश कहा गया है। अपनी सभी दंतकथाओं, पौराणिक आख्‍यानों, परंपराओं एवं मान्‍यताओं में यह अंतर्निहित है कि आर्यों का आदि देश भारत है। ब्राम्‍हणों की प्रमुख शाखाऍं पंच-गौड़ (उत्‍तरी भारत की) एवं पंच- द्रविड़ ( दक्षिण भारत की) कहलाती हैं। संसार का सांस्‍कृतिक ( विशेषकर प्राचीन बृहत्‍तर भारत के पूर्वी भाग तथा दक्षिण-पूर्व एशिया का) इतिहास बताता है कि जिन्‍होंने वहॉं से आगे बढ़कर सुदूर मध्‍य तथा दक्षिण अमेरिका तक भारतीय आर्य सभ्‍यता का प्रसार किया, वे द्रविड़ (द्रृ = द्रष्‍टा; विद अथवा विर = ज्ञानी) कहाते थे। वे दिग्दिगंत में आर्य सभ्‍यता के अधीक्षक थे।

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