कालचक्र: सभ्यता की कहानी
रूपक कथाऍं,वेद एवं उपनिषद् का अर्थ समझाने के लिए सारे संसार में जनश्रुतियॉं मिलती हैं। भारत को छोड़ अन्य सभ्यताओं में ये पहले प्रकट हुईं और बाद में लिखे गए शास्त्र, दर्शन और विज्ञान। लेकिन भारत में पहले उस समय का संपूर्ण ज्ञान वेद ग्रंथों में संकलित हुआ, बाद में पुराण लिखे गए। पाश्चात्य पुरातत्वज्ञों को यह बात समझ में न आती थी, इसलिये उन्होंने उलटा ही सोचा। कहना चाहा कि पुराणों की रचना पहले हुई, या फिर ‘वेद ग्रंथ गड़रियों के गीत हैं’ या फिर ये यवन दर्शन अथवा पारसी धार्मिक साहित्य ‘जेंदावेस्ता’ (Zenda-vesta) (‘छंद व्यवस्था’ का अपभ्रंश ? ) की नकल मात्र है। पर यवन सभ्यता के पाइथागोरीय संप्रदाय –ज्यामिति में ‘पाइथागोरस का प्रमेय’ है ( जिसको भारत में पहले से बौधायन सूत्र कहते थे) का दर्शन, उनका कर्मवाद, पुनर्जन्म का विश्वास और शवदाह की पद्धति देखकर स्पष्ट है कि यवन दर्शन की प्रेरणा भारत से मिली। ‘पाइथागोरस’ शब्द ‘पीठ-गुरू:’ का अपभ्रंश है। इसी प्रकार इतिहास बताता है कि मूल ‘अवेस्ता’ लुप्त हो गया और जरथ्रुष्ट (Zorathrusthra) ने अपने उपदेशों को मिलाकर उसका पुनर्निर्माण किया। वह भी जल गया और आज नई मिलावट लिये छोटा सा अंश विद्यमान है। अब माना जाता है कि ‘अवेस्ता’ (व्यवस्था) का प्राचीन ‘यष्ट’ भाग ऋग्वैदिक मंत्रों की छाया है।
पहले ज्ञान लिपिबद्ध न होने के कारण कुछ रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं। ऐसी कथा शक्ति की देवी दुर्गा की है। देवासुर संग्राम में एक बार देव हार गए। उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया। दीन-हीन दशा में वे भगवान् के पास पहुँचे। भगवान् के सुझावपर सबने अपनी सभी शक्तियॉं ( शस्त्र) एक स्थान पर रखीं। शक्ति के सामूहिक एकीकरण से दुर्गा उत्पन्न हुई। पुराणों में उसका वर्णन है—उसके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं। प्रत्येक हाथ में वह अस्त्र-शस्त्र धारण किए हैं। सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उसका वाहन है। देवी दुर्गा संघटन का रूपक है। उसके घटकों के सिर संघटक के सहस्त्रों सिर हैं, सबके हाथ संघटन के असंख्य हाथ हैं। ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर को मार डाला। राम ने लंका पर आक्रमण के समय दुर्गा की आराधना की थी। शक्ति की देवी के विभिन्न रूपों की दशहरे के पहले नवरात्रों में पूजा होती है। शास्त्र ने कहा है – ‘संघे शक्ति: कलौ युगे’।
सभी सभ्यताओं में प्रतीकात्मक कथाऍं कही गई हैं। कुछ बातें कहने की मनाही के कारण या अप्रिय होने के कारण या मानसिक निषेध के कारण प्रतीकों में फूट निकलती हैं। जॉन बनियन (John Bunyan) को इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट मत के विरूद्ध उपदेश देने के कारण कैद कर लिया गया। वह कम पढ़ा-लिखा, सीधा-सादा व्यक्ति था। उसने अपने कैदी जीवन में एक धार्मिक प्रतीकात्मक कहानी ‘तीर्थयात्री की प्रगति’(Pilgrim’s Progress) लिखी। यह बाइबिल के बाद अंग्रेजी की सबसे अधिक पढ़ी गई पुस्तक है। इससे प्रतीकात्मक शैली की लोकप्रियता का अनुमान लगा सकते हैं।
सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
पुराणों का अर्थ समझने के लिए पहले सृष्टि की दार्शनिक भूमिका समझनी होगी। कहते हैं, प्रारंभ में एक ही मूल तत्व था, जिसे आदि द्रव्य (पदार्थ) कह सकते हैं। उसमें कुछ हलचल या गति उत्पन्न होने के लिए जो ऊर्जा तत्व आवश्यक है और जिसके कारण सृष्टि संभव हुई, यह ईश्वर तत्व है। इसी को ‘विष्णु’ कहा गया। बाद में सृजन, पालन और विकास तथा संहार के कालचक्र ने त्रिमूर्ति देवताओं की कल्पना दी। बीज ‘ब्रम्ह’ है। अंकुर फूटकर वह वृक्ष बनता है। यह सृष्टि की पालनकारिणी तथा विकासपरक शक्ति ‘विष्णु’ है। अंत में यह वृक्ष नष्ट हो जाता है, यह संहारक शक्ति ‘महेश’ है। इसी से ‘ब्रम्हा, विष्णु, महेश’ की कल्पना का उदय हुआ। यह स्पष्ट है कि उस शक्ति के रूप में ईश्वर तत्व, जो पालनकर्ता है, जिसके द्वारा सृष्टि में सब विकसित होकर फूलते-फलते हैं, भिन्न युगों में, भिन्न रूपों एवं प्रतीकों में प्रकट हुआ। सृजन शक्ति ने सृजन कर अपना कार्य किया और संहारक शक्ति ‘रूद्र’ तो संहार करेगी। इसीलिए सभी अवतार ‘विष्णु’ के हैं।
पुराणों में अवतारों की कथाऍं, जनश्रुतियॉं संकलित हैं। सारी चराचर सृष्टि ईश्वर का स्वरूप है। उसके छोटे-छोटे अंशों से विविध योनियों (species) की सृष्टि हुई, ऐसा पुराणों का कथन है। पर जब ईश्वर का अधिक अंश लेकर कोई इस पृथ्वी पर पैदा हुआ तो उसे ईश्वर का अवतार कहा। कुल चौबीस अवतार कहे गए हैं, पर प्रमुखतया दस अवतारों की कथा कही जाती है। इन अवतारों में प्रथम चार-अर्थात वाराह, मत्स्य, कच्छप और नृसिंह-मानव नहीं हैं। पॉंचवें अवतार वामन अर्थात् बौने हैं। छठे अवतार परशुराम हैं। बाकी अवतार राम, कृष्ण और बुद्ध ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, और कलियुग के अंत में जन्म लेंगे ‘कल्कि’।
इन अवतारों की कहानी में एक विशेष बात दिखाई पड़ती है। इनमें से प्रत्येक के द्वारा मानव समाज का कोई-न-कोई महत् कार्य संपन्न हुआ। इसी से ये ‘अवतार’ कहलाए। संसार में तो जिन्होंने नया ‘पंथ’ चलाया और शिष्य परंपरा निर्मित की, उन्हें उस पंथ के अनुयायियों ने अवतार कहा। मुहम्मदको मुसलमानों ने ईश्वर का दूत कहा, ईसा को ईसाइयों ने ईश्वर का पुत्र। ऐसा ही भारत के कुछ पंथों ने भी किया। पर पुराणों में वर्णित इन अवतारी महापुरूषों ने संपूर्ण मानव समाज के लिए कोई-न-कोई महान कार्य किया। गौतम बुद्ध को छोड़कर उनमें से किसी ने शिष्य परंपरा नहीं चलाई, न किसी मत के प्रवर्तक बने। यहॉं तक कि जिन लोगों ने राम और कृष्ण को अवतारी पुरूष बनाया ऐसे उनके गुरू-विश्वामित्र और सांदीपनि ऋषि-को अवतार नहीं कहा। चौबीसों अवतारों में प्रत्येक के द्वारा मानव मात्र के लिए कोई-न-कोई वंदनीय कार्य हुआ।
वाराह अवतार
दशावतारों में प्रथम अवतार वाराह का है। श्रीमद्भागवत में उसका वर्णन इस प्रकार है-‘ब्रम्हा ने मनु और उनकी पत्नी शतरूपा से प्रजापालन के लिए कहा। तब मनु ने उनसे अपने तथा प्रजा के रहने के लिए स्थान मॉंगा। जब ब्रम्हा जी विचार कर रहे थे तब उनकी नाक से एक छोटा वाराह शिशु प्रकट हुआ। देखते-ही-देखते वह पर्वताकार हो गरजने लगा। सभी निवासी एवं मुनिगण पवित्र मंत्रों से उसकी स्तुति करने लगे। वाराह बड़े वेग से आकाश में उछला और खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगा। इसके बाद उसने जल में प्रवेश किया। जिस समय उसका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा तब उस वेग से समुद्र का पेट फट गया और बादलों की गड़गडाहट के समान भीषण शब्द हुआ। संपूर्ण प्राणी भय से मल-मूत्र त्याग क्रंदन करने लगे। फिर वह जल में डूबी पृथ्वी को अपने बड़े दॉंतों पर लेकर रसातल से ऊपर आया। रास्ते में दैत्य के रक्त से उसकी थूथनी व कनपटी सन गई, मानों लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मारकर आया हो।‘ इस प्रकार पर्वतों से मंडित पृथ्वी समुद्र से निकालकर जल के ऊपर स्थापित की और मानव को बसने के लिए दी।
यह सारा वर्णन मध्य-नूतन युग में ज्वालामुखी के क्रिया-कलापों का है, जब बसने योग्य धरती का निर्माण हुआ। यह सारा ब्रम्हांड ब्रम्ह है। उसी से ज्वालामुखी पर्वत उत्पन्न हुआ। इसका आकार भी सूँड़ की तरह है, इसी से यह कल्पना की गई है।
एक विचित्र कथा वाराह अवतार के बारे में कही जाती है। मानव के बसने योग्य धरती समुद्र से निकालने के बाद वाराह प्रजापति बना। स्पष्ट ही आदि मानव ने इस समाज के लिए आधार रूप धरती प्रदान करने के महान कल्याणकारी कार्य के बाद ज्वालामुखी की देवता के रूप में पूजा प्रारंभ की। दक्षिण भारत के पठार पर सर्वत्र ज्वालामुखी के लावा से निर्मित कपास उत्पन्न करने वाली काली मिट्टी (black cotton soil) पाई जाती है। उत्तरी भारत में यह मिट्टी नदी निर्मित मैदानों से बह गई। बुंदेलखंड में नदी-नालों से दूर कहीं-कहीं काली मिट्टी की मोटी परत आज भी विद्यमान है। कहते हैं कि प्रजापति होकर वाराह अत्याचारी हो गया। तब प्रजा ने एक दिन उसका मूलोच्छेद कर दिया, अर्थात् सिर काट लिया। उस स्थान को आज वाराहमूल (बारामूला, कश्मीर) कहते हैं। स्पष्ट है कि ज्वालामुखी द्वारा निर्मित पृथ्वी पर उसके आश्रय में मानव बस गए। तब एक दिन उनका वह देवता ज्वालामुखी पुन: फूट निकला-सारी बस्ती में अग्नि, लावा तथा पिघले पत्थरों की, विनाश की वर्षा करता हुआ। अंत में उसका शमन हुआ। आज भारत में कोई ज्वालामुखी नही है। ‘ज्वालामुखी’ तीर्थ में भी नहीं।
भूमध्य सागर के सिसली द्वीप के विसूवियस (Vesuvius) ज्वालामुखी और उसके किनारे बसे पंपा (Pompei) नगरी की कहानी प्रसिद्ध है। विक्रम संवत् के आरंभ से आरंभ से कुछ पहले यह विसूवियस फूट निकला। उसका बहता हुआ लावा संपन्न नगर में एकाएक भर गया। लोग जैसा कर रहे थे वैसे ही रह गए और संपूर्ण नगर विशाल पिघले पत्थर की नदी में दब गया। अब खुदाई होने पर वह नगर प्रकट हुआ। आज विसूवियस शांत है, पर कभी-कभी घरघराहट सुनाई पड़ती है।
जल-प्लावन की गाथा
जल-प्लावन की गाथा संसार की सभी सभ्यताओं में पाई जाती है। मनु की यह घटना सामी सभ्यताओं में ‘हजरत नू की नौका’ (Noah’s Ark) कहकर वर्णित है। प्रत्येक मन्वंतर में, जो चल रहा है, के वैवस्वत मनु की है।
द्रविड़ देश के राजर्षि सत्यव्रत ने एक दिन तर्पण के लिए कृतमाला नदी से जल निकाला तो अंजलि में एक छोटी मछली आ गई। उसे जल में डालने पर मछली के बड़ी करूणा से कहा, ‘आप जानते हैं, जलजंतु अपनी जातिवालों को खा जाते हैं। आप मेरी रक्षा करें।‘ तब सत्यव्रत ने उसे अपने कमंडलु में छोड़ दिया। वह रात भर में इतनी बड़ी हो गई कि उसे पानी भरे मटके में डालना पड़ा। वहॉं वह दो घड़ी में तीन हाथ बढ़ गई। तब उसे सरोवर में डाला गया। कुछ देर में लंबा-चौड़ा सरोवर घिर गया तो उसे सागर में ले गए। वहॉं मत्स्य ने कहा, ‘आज के सातवें दिन भूमि प्रलय के समुद्र में डूब जाएगी। तब तक एक नौका बनवा लो। समस्त प्राणियों के सूक्ष्म शरीर तथा सब प्रकार के बीज लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नौका पर चढ़ जाना। उस समय चारों ओर महासागर लहराता होगा। तब अँधेरा छा जाएगा। सप्तर्षियों की ज्योति के सहारे चारों ओर विचरण करना होगा। प्रचंड ऑंधी के कारण जब नाव डगमगाने लगेगी तब मैं मत्स्य रूप में आऊँगा। तुम लोग नाव को मेरे सींग से बॉंध देना। तब प्रलय-पर्यंत मैं तुम्हारी नाव खींचता रहूँगा। उस समय मैं उपदेश दूँगा।‘ वैसा ही हुआ। जो उपदेश दिया वह मत्स्य पुराण है। उस समय मत्स्य ने नौका को हिमालय की चोटी ‘नौकाबंध’ से बॉंध दिया। प्रलय समाप्त होने पर वेद का ज्ञान वापस दिया। राजा सत्यव्रत ज्ञान-विज्ञान से युक्त हो वैवस्वत मनु बने।
‘मनु’ से संबंधित एक समानांतर कहानी है ‘मनुस्मृति’ के रचयिता की। उससे इस कहानी का अन्य अध्याय में वर्णित एक दूसरा रूपक भी निखरता है, सभ्यता के एक यंत्र, विधि (law) के परिप्रेक्ष्य में। पर जिस प्रकार ये दोनों कहानियॉं गुँथकर एकाकार हो गईं (कुछ पुरातत्वज्ञों का मत है कि ये दो मनु की भिन्न कहानियॉं हैं), इन्हें सुलझाने या अलग करने का कोई उपाय नहीं है।
हमने देखा कि संभवतया किस प्रकार जल-प्लावन से भूमध्य सागर बना। उस समय हिमाच्छादन के बाद खगोलीय कारणों से पिघलते हिम ने और किसी आकाशीय पिंड के पृथ्वी के निकट आने के कारण भयंकर ज्वार ने जल-प्रलय का दृश्य उपस्थित किया। सचमुच आदि मानव ने उसको दुनिया का अंत समझा। ऐसे जल-प्रलय के समय जिसने मार्ग-निर्देशन किया, स्वाभाविक ही उसका नाम ‘मत्स्य’ (मछली) पड़ा। प्रलय के अंधकार में सप्तर्षियों का प्रकाश, जिसके कारण दिशाऍं जानी गईं, एक मात्र पथ-प्रदर्शक था। इस संहारकारी भयानक विपत्ति के बाद पुन: सभ्यता का बीज उगा।
हो सकता है कि कुछ वर्गों में ‘मत्स्य न्याय’ प्रचलित रहा हो, अर्थात बड़ी छोटी को खा जाती है। ऐसे कबीले को मनु ने संरक्षण दिया। यह कबीला अपने गण-चिन्ह (totem) ‘मछली’ के द्वारा जाना जाता था। सागर या जल के किनारे रहने तथा जल से आजीविका चलने के कारण उन्हें सागर की गतिविधियॉं और नौका का विशेष ज्ञान था। उस मत्स्य जाति ने मनु को नौका दी। ऐसी मत्स्य जाति या उसके किसी व्यक्ति ने महाप्रलय के समय सृष्टि-संरक्षण के कार्य की अगुआई की और मानव को जल-प्लावन की विपत्ति से उबारा।
देवासुर संग्राम की भूमिका
आगे अमृत-मंथन की कथा को समझने के लिए देवासुर संग्राम की भूमिका जानना आवश्यक है। आर्यों के मूल धर्म में सर्वशक्तिमान् भगवान के अंशस्वरूप प्राकृतिक शक्तियों की उपासना होती थी। ऋग्वेद में सूर्य, वायु, अग्नि, आकाश, और इंद्र से ऋद्धि-सिद्धियॉं मॉंगी हैं। यही देवता हैं। बाद में अमूर्त देवताओं की कल्पना हुई जिन्हें ‘असुर’ कहा। ‘देव’ तथा ‘असुर’ ये दोनों शब्द पहले देवताओं के अर्थ में प्रयोग होते थे। ऋग्वेद के प्राचीनतम अंशों में ‘असुर’ इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वेदों में ‘वरूण’ को ‘असुर’ कहा गया और सबके जीवनदाता ‘सूर्य’ की गणना ‘सुर’ तथा ‘असुर’ दोनों में है। बाद में देवों के उपासक ‘देव’ शब्द को देवता के लिए प्रयुक्त करने लगे और ‘असुर’ का अर्थ ‘राक्षस’ करने लगे। पुराणों में सर्वत्र ‘असुर’ राक्षस के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार ईरानी आर्य ‘असुर’ (जो वहॉं ‘अहुर’ बना) से देवता समझते तथा ‘देव’ शब्द से राक्षस। फारसी से आया यह शब्द आज तक इसी अर्थ में प्रयोग होता है। ‘देव’ से अर्थ उर्दू में भयानक, बड़े डील-डौल के राक्षस से लेते हैं। जरथ्रुष्ट के पंथ में इंद्र ‘देव’ (राक्षस) है, जो शैतार ‘अग्रमैन्यु’ की सहायता करता है।
इन दोनों संप्रदायों-देवों के उपासक तथा असुरों के उपासक-के बीच इस प्रकार एक सांस्कृतिक विषमता खड़ी हुई। पुराणों में असुरों को देवों के अग्रज कहा गया है। असुरों के उपासकों ने लौकिक उन्नति की ओर ध्यान दिया और भौतिक समृद्धि प्राप्त की। कहा जाता है कि भौतिकता में पलकर उन्होंने दूसरे संप्रदाय के ईश्वर के विश्वासों को चुनौती दी। इसलिये उन्हें रजोगुण एवं तमोगुण-प्रधान कहा गया। देवों के उपासक इस भौतिक समृद्धि को आश्चर्य तथा संदेह की दृष्टि से देखते थे। वे मानते थे कि असुरों के उपासकों ने इसे माया से प्राप्त किया है। मय नामक असुर देवताओं का अभियंता (engineer) कहा जाता है। देव संस्कृति सत्व गुण पर आधारित थी। उसकी प्रेरणा आध्यात्मिक थी और दृष्टिकोण भौतिकवादी न था।
इस प्रकार कालांतर में देवों और असुरों के उपासकों में धार्मिक एवं सांस्कृतिक मतभेद उत्पन्न हुए। इसने संघर्ष का रूप धारण किया। असुर संप्रदाय के कुछ लोग प्रमुखतया ईरान में बसे। संभवतया इस कारण से भी आर्य आपने आदि देश भारत को छोड़कर ईरान और यूरोप में फैले हों। वैसे यह आर्यों के साहसिक उत्साही जीवन की कहानी है। इतिहास में अनेक संप्रदाय अपने धार्मिक एवं सांस्कृतिक विचारों के कारण स्वदेश छोड़ नए देशों में बसे। इंग्लैंड से बैपटिस्ट आदि ने अपनी धार्मिक स्वतंत्रता बचाने के लिए अमेरिका की शरण ली। पर भारत में असुरों के उपासक इन मतांतरों के बाद भी चक्रवर्ती सम्राट हुए। अमृत-मंथन की गाथा इन दो संप्रदायों में समन्वय की कहानी है।
अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
एक बार असुरों ने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित किया। अनेक देवता रणभूमि में गिरकर उठ न सके। स्वयं इंद्र श्रीहीन हो गए। तब ब्रम्हा ने यह देखकर कि सभी देवताओं की दुर्दशा हो रही है तथा उनकी परिस्थिति विकट एवं संकटग्रस्त हो गई है, जबकि असुर फल-फूल रहे हैं, कहा, ‘मैं, देवता तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष, कीट आदि समस्त प्राणी, जिनके विराट् रूप के अत्यंत छोटे-से-छोटे अंश से रचे गये हैं, उन शंकर की शरण में चलें।‘ तब सबने भगवान के विराट स्वरूप, अर्थात् जड़-जीव से युक्त समूची सृष्टि की उपासना की। भगवान ने सलाह दी, ‘असुरों से संधि कर लो। फिर क्षीर सागर में सब प्रकार के घास-तिनके, लताऍं और औषधियॉं डालकर मंदराचल की मथानी बनाकर वासुकि नाग की रस्सी से मेरी सहायता से समुद्र-मंथन करो। असुर लोग जो कहें सब स्वीकार कर लो। पहले कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। किसी वस्तु का लोभ न करना। इस प्रकार बिना विलंब अमृत निकालने का प्रयत्न करो। इसे पी लेने पर मरने वाला प्राणी भी अमर हो जाता है।‘
तब देवताओं ने असुरों से संधि कर समुद्र-मंथन के लिए सम्मिलित उद्योग प्रारंभ किया। दैत्य सेनापतियों ने कहा, ‘पूँछ तो सॉंप का अशुभ अंग है, हम उसे न पकड़ेंगे। हमने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया है। ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और हमने वीरता के कार्य किए हैं। हम देवताओं से किस बात में कम हैं।‘ अंत में देवताओं ने वासुकि नाग की पूँछ पकड़ी और असुरों ने उसका फन। इस प्रकार स्वर्ण पर्वत मंदराचल की मथानी से मंथन प्रारंभ हुआ। पर नीचे कोई आधार न होने के कारण मंदराचल डूबने लगा। तब भगवान ने कच्छप अवतार के रूप में प्रकट हो जंबूद्वीप के समान फैली अपनी पीठ पर मंदराचल को धारण किया।
सागर-मंथन में पहले कालकूट विष निकला। यह चारों ओर फैलने लगा। तब संपूर्ण प्रजा तथा प्रजापति कहीं त्राण न मिलने पर शिव की शरण में गए। शिव ने वह तीक्ष्ण हलाहल पी लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया। जो थोड़ा विष टपक पड़ा उसे विषैले जीवों एवं वनस्पतियों ग्रहण कर लिया।
इसके बाद सागर-मंथन से अनेक वस्तुऍं निकलीं। कामधेनु को, जो यज्ञ के लिए घी-दूध देती थी, ऋषियों ने ग्रहण किया। इसी प्रकार उच्चै:श्रवा नामक श्वेत वर्ण घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष-जो याचकों को इच्छित वस्तु देता था-और संगीत- प्रवण अप्सराऍं प्रकट हुई। इसके बाद नित्यशक्ति लक्ष्मी प्रकट हुई जो सृष्टि रूपी भगवान के वक्षस्थल पर निवास करले लगीं। इसके बाद वारूणी-शराब-निकली, जिसे असुरों ने ले लिया। अंत में भगवान के अंशावतार तथा आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्वंतरि हाथ में अमृत कलश लिये प्रकट हुए। तब असुरों ने उस अमृत कलश को छीन लिया। उनमें आपस में झगड़ा होने लगा कि पहले कौन पिए। कुछ दुर्बल दैत्य ही बलवान दैत्यों का ईर्ष्यावश विरोध करने तथा न्याय की दुहाई देने लगे-‘देवताओं ने हमारे बराबर परिश्रम किया, इसलिए उनको यज्ञ-भाग समान रूप से मिलना चाहिए।‘
इस पर भगवान ने अत्यंत सुंदर स्त्री मोहिनी का रूप धारण किया। असुरों ने मोहित हो मोहिनी को ही वारूणी तथा अमृत सबमें बॉंटने के लिए दे दिए। मोहिनी ने असुरों तथा देवताओं को अलग-अलग पंक्ति में बैठाकर पिलाना प्रारंभ किया। असुरों की बारी में वारूणी तथा देवताओं की बारी में अमृत पिलाया। नशा उतरने पर असुरों ने देखा कि उनके साथ धोखा हुआ। तब उन्होंने देवताओं पर धावा बोल दिया। पुन: देवासुर संग्राम हुआ। अबकी बार असुरराज बेहोश हो गए, पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उन्हें फिर ठीक कर दिया। नारदजी के आग्रह पर, कि देवताओं को अभीष्ट प्राप्त हो चुका है, युद्ध बंद हुआ। देवता और असुर अपने-अपने लोक को पधारे।
यदि समझें कि क्षीर सागर मानव समूह का रूपक मात्र है तो अमृत-मंथन की कथा सार्थक हो उठती है। भिन्न-भिन्न रूप-रंग, आचार-व्यवहार, मत-कतांतर और परंपरा के लोग इस पृथ्वी पर निवास करते हैं। इन सबको मथकर एकरस जीवन उत्पन्न किया-यही अमृत-मंथन है। आखिर उत्कृष्ट जीवनी शक्ति से अनुप्राणित एकरस समाज अमर है। असुरों और देवों, दोनों के उपासकों ने इसमें भाग लिया।
इस प्रकार मथकर एक राष्ट्रीय जीवन उत्पन्न करने की प्रक्रिया में प्रारंभ में विष मिलता है। आपसी संदेह, अपनेपन के झूठे आग्रह, काम, क्रोध, अभिमान तथा लोभ से भरे जीवन में, असामाजिक प्रवृत्तियों के नियंत्रण और एकीकरण के प्रयत्नों में प्रारंभ में कालकूट विष निकलता है। इसे किसीको पीना पड़ता है। इसके लिए संहारक शक्ति के अधिष्ठातृ देव ‘शिव’ उपयुक्त थे। कालकूट पीकर वह महादेव बने।
कच्छप अवतार की गाथा
ज्यों-ज्यों एकरस समाज-जीवन के निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ी, पृथ्वी का ऐश्वर्य, संपदा और सामूहिक शक्ति समाज के हाथ पड़ी। कामधेनु, अश्व, हाथी,मणि, कल्पतरू, अप्सराऍं और उनका संगीत, वारूणी, महाभारत के अनुसार प्राप्त शंख एवं धनुष और फिर साक्षात् लक्ष्मी-यह सब संपदा, ऐश्वर्य तथा अनंत पालन-शक्ति के प्रतीक हैं। परस्पर सहयोग तथा एकजुट प्रयत्न से एक राष्ट्रीय जीवन की खोज हुई। पशुपालन भी समाज ने सीखा और खेती व्यापक बनी। धनुष-बाण तथा शंख भी, जो समाज की सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे, मानव को मिले। इस प्रकार एक ओर जहॉं सामाजिकता के सर्वश्रेष्ठ भावों का निर्माण हुआ दूसरी ओर वहॉं लौकिक उन्नति भी हुई। यह सभ्यता के दोहरे कार्य की ओर पहला प्रयत्नपूर्वक उठाया गया कदम था। सबका समन्वय करता हुआ, सहिष्णु,एकरस सामाजिक जीवन के निर्माण से समाज मे स्थायित्व एवं अमरत्व आया।
इस समाज-मंथन से ऐश्वर्य तथा संपदा के साथ मानव को वारूणी भी प्राप्त हुई। असुरों के उपासक, जो प्राकृतिक शक्तियों के ज्ञान में आगे थे, पर रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान थे, वारूणी पीकर मदहोश हो गए। इसलिए उनके पल्ले अमृत नहीं पड़ा। वे एकरस सांस्कृतिक जीवन के अंग न बन बसे। पर एक विशाल प्रयत्न सभी प्रकार के लोगों को मिलाकर साथ चलने का अध्यवसाय हुआ और इसी से प्रारंभिक समृद्धि, सामर्थ्य और लौकिक संपदा एकरस सामाजिक जीवन की खोज में मिलीं।
भारत आर्यों का आदि देश है; इसके विभिन्न भागों में आर्यों की भिन्न उपजातियॉं निवास करती थीं। कुछ अन्य उपजातियों के लोग भी आ बसे। सबके भावात्मक मिश्रण से एकात्म सामाजिक जीवन के निर्माण का श्रीगणेश जंबूद्वीप (बृहत्तर भारत) में हुआ। आज भी सभी विभिन्नताओं के बीच पिरोई भारत की मौलिक एकता दिखती है और जिस महामना व्यक्ति या जिस जाति के लोगों के द्वारा मानव के प्रारंभिक काल में यह चमत्कार संभव हुआ उसे अवतार कहा। सागर-मंथन के रूपक को लेकर उसे सागर के प्रारंभिक जीव कछुआ की संज्ञा दी गई। यही कच्छप अवतार की गाथा है।
इस कथा से जुड़ी ब्रम्हांड संबंधी दो अन्योक्तियॉं हैं। महाभारत के अनुसार, मंथन के समय सागर से चंद्रमा भी मिला। अभी तक कुछ भूशास्त्री कहते थे कि पृथ्वी का जो भाग टूटकर चंद्रमा बन गया, वहॉं पर आज प्रशांत महासागर है। इसी प्रकार कहते हैं कि अमृत बॉंटने के समय ‘राहु’ नामक असुर, जो वारूणी न पीता था, देवताओं का वेष बनाकर उनकी पंक्ति में आ बैठा। देवताओं के साथ उसे भी अमृत मिला। पर चंद्र एवं सूर्य ने उसकी पोल खोल दी। अभी अमृत उसके मुख में ही था कि भगवान ने सिर ‘राहु’ (dragons head) धड़ ‘केतु’ (dragons tail) से अलग कर दिया। सिर अमर हो गया और उसे आकाशीय ग्रह मान लिया गया। इसलिए राहु एवं चंद्र को पर्व (अमावस्या तथा पूर्णिमा) के दिन ग्रसने का प्रयत्न करता है। यह सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण का वर्णन मात्र है।
शिव पुराण - कथा
सागर-मंथन की कथा से शिव (shiva) का रूप निखरता है। ऋग्वेद में जहॉ सूर्य, वरूण,वायु, अग्नि, इंद्र आदि प्राकृतिक शक्तियों की उपासना है वहीं ‘रूद्र’ का भी उल्लेख है। पर विनाशकारी शक्तियों के प्रतीक ‘रूद्र’ गौण देवता थे। सागर- मंथन के बाद शायद ‘रूद्र’ नए रूप में ‘शिव’ बने। ‘शिव’ तथा ‘शंकर’ दोनों का अर्थ कल्याणकारी होता है। अंतिम विश्लेषण में विध्वंसक शक्ति कल्याणकारी भी होती है – यदि वह न हो तो जिंदगी भार बन जाय और दुनिया बसने के योग्य न रहे। आखिर कालकूट पीनेवाले ने समाज का महान् कल्याण किया।
बैंगलोर में शिव मूर्ति का चित्र विकिपीडिया से है और उसी की शर्तों के अन्दर प्रकाशित है।
शिव का रूप विचित्र अमंगल है। नंग – धड़ंग, शरीर पर राख मले, जटाजूटधारी, सर्प लपेटे, गले में हडिडयों एवं नरमूंडों की माला और जिसके भूत – प्रेत, पिशाच आदि गण हैं। ये औघड़दानी सभी के लिए सुगम्य थे। देव तथ असुर सभी को बिना सोचे – समझे वरदान दे बैठते। एक बार भस्मासुर ने वरदान प्राप्त कर लिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखे वह भस्म हो जाय। तब यह सोचकर कि शिव कहीं दूसरे को ऐसा वरदान न दें, वह उन्हीं पर हाथ रखने दौड़ा । शिव सारे संसार में भागते फिरे। अंत में भगवान् सुंदरी ‘तिलोत्तमा’ का रूप धरकर नृत्य करने लगे। भस्मासुर मोहित होकर साथ में उसी प्रकार नाचने लगा। तिलोत्तमा ने नृत्य की मुद्रा में अपने सिर पर हाथ रखा, दूसरा हाथ कटि पर रखना नृत्य की साधारण प्रारंभिक मुद्रा है। भस्मासुर ने नकल करते हुए जैसे ही हाथ अपने सिर पर रख, वह स्वयं वरदान के अनुसार भस्म हो गया। शायद किसी असुर ने अग्नि के ऊपर यांत्रिक सिद्धि प्राप्त की और उससे संहारक शक्ति को नष्ट करने की सोची। पर संहारक शक्ति को नष्ट करने की सोची। पर संहारक शक्ति को इस प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता और वह स्वयं नष्ट हो गया। शिव का उक्त रूप उस समय के सभी अंधविश्वासों से युक्त सामान्य लोगों का प्रतीक है। असुर भी शिव के उपासक थे। संभ्वतया समाज – मंथन के समय साधारण लोगों को तुष्ट करने के लिए उनके रूप में ढले ‘रूद्र’ को ‘महादेव’ तथा ‘महेश’ कहकर पुकारने लगे। इस प्रकार ‘महा’ उपसर्ग लगाकर संतुष्ट करने का एक एंग है। कुछ पुरातत्वज्ञ यह मानते हैं कि शंकर दक्षिण के देवता थे, इसीलिए घोषित किया गया कि वह कैलास पर रम रहे। पार्वती उत्तर हिमालय की कन्या थी। उसने शिव की प्राप्ति के लिए कन्याकुमारी जाकर तपस्या की। आज भी कुमारी अंतरीप में, जहॉ सागर की ओर मुंह करके खड़े होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, उनकी मूर्ति उत्तर की, अपने आराध्य देव कैलास आसीन शिव की ओर मुंह करके खड़ी है। यह भरत की एकता का प्रतीक है। मानो शिव – पार्वती की विवाह से दक्षिण – उत्तर भारत एक हो गया।
शिव का चिन्ह मानकर शिवलिंग की पूजा बुद्ध के कालखंड के पूर्व आई । वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिन्ह की पूजा कर सकें,उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिन्ह माना। विक्रम संवत् के कुछ सहस्राब्दी पूर्व उक्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रूद्र का आविर्भाव दिखा। शिव पुरण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया । यही उल्का पिंड बारह ज्योतिर्लिंग कहलाए। इसी कारण उल्का पिंड से आकार में मिलती बटिया रूद्र या शिव का प्रतीक बनी।
किंवदंती है कि शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था। प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष ने घमंड में शाप दिया, 'अब इंद्रादि देवताओं के साथ इसे यज्ञ का भाग न मिले।'
और क्रोध में चले गये। तब नंदी (शिव के वाहन) ने दक्ष को शाप देने के साथ-साथ यज्ञकर्ता ब्राम्हणों को, जो दक्ष की बातें सुनकर हँसे थे, शाप दिया, 'जो कर्मकांडी ब्राम्हण दक्ष के पीछे चलने वाले हैं वे केवल पेट पालने के लिए विद्या, तप, व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इंद्रिय-सुख को ही सुख मानकर इन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख मांगते भटकें।'
इस पर भृगु ने शाप दिया,
'जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्वि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हों वे ही शैव संप्रदाय में दीक्षित हों, जिनमें सुरा और आसव देवता समान आदरणीय हों। तुम पाखंड मार्ग में जाओ, जिनमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं।'
जैसे कर्मकांडी ब्राम्हण या जैसी तांत्रिक क्रियाएँ शैव संप्रदाय में बाद में आई, ये शाप उनका संकेत करते है।
अधिक समय बीतने पर दक्ष ने महायज्ञ किया। उसमें सभी को बुवाया, पर अपनी प्रिय पुत्री सती एवं शिव को नहीं। सती का स्त्री-सुलभ मन न माना और मना करने पर भी अपने पिता दक्ष के यहाँ गई। पर पिता द्वारा शिव की अवहेलना से दु:खित होकर सती ने प्राण त्याग दिए। जब शिव ने यह सुना तो एक जटा से अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हजारों भुजाओं वाले रूद्र के अंश-वीरभद्र –को जन्म दिया। उसने दक्ष का महायक्ष विध्वंस कर डाला। शिव ने अपनी प्रिया सती के शव को लेकर भयंकर संहारक तांडव किया। जब संसार जलने लगा और किसी का कुछ कहने का साहस न हुआ तब भगवान ने सुदर्शन चक्र से शव का एक-एक अंश काट दिया। शव विहीन होकर शिव शांत हुए। जहाँ भिन्न-भिन्न अंक कटकर गिरे वहाँ शक्तिपीठ बने। ये १०८ शक्तिपीठ, जो गांधार (आधुनिक कंधार और बलूचिस्तान) से लेकर ब्रम्हदेश (आधुनिक म्याँमार) तक फैले हैं, देवी की उपासना के केंद्र हैं।
सती के शरीर के टुकड़े मानो इस मिटटी से एकाकार हो गए-सती मातृरूपा भरतभूमि है। यही सती अगले जन्म में हिमालय की पुत्री पार्वती हुई (हिमालय की गोद में बसी यह भरतभूमि मानो उसकी पुत्री है)। शिव के उपासक शैव, विष्णु के उपासक वैष्णव तथा शक्ति (देवी) के उपासक शाक्त कहलाए। शिव और सती को लोग पुसत्व एवं मातृशक्ति के प्रतीक के रूप में भी देख्ते हैं। इस प्रकार का अलंकार प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में आता है। यह शिव-सती की कहानी शैव एवं शाक्त मतों का समन्वय भी करती है। शैव एवं वैष्णव मतों के भेद भारत के ऎतिहासिक काल में उठे हैं। इसकी झलक रामचरितमानस में मिलती है। शिव ने पार्वती को राम का परिचय 'भगवान' कहकर दिया,राम के द्वारा रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना हई। दोनों ने कहा कि उनका भक्त दूसरे का द्रोही नहीं हो सकता। यह शैव एवं वैष्णव संप्रदायों के मतभेद (यदि रहे हों) की समाप्ति की घोषणा है।
शिव को तंत्र का अधिष्ठाता कहा गया है। इसी से शैव एवं शाक्त संप्रदायों में तांत्रिक क्रियाऍं आईं। तंत्र का शाब्दिक अर्थ ‘तन को त्राण देने वाला’ है, जिसके द्वारा शरीर को राहत मिले। वैसे तो योगासन भी मन और शरीर दोनों को शांति पहुँचाने की क्रिया है। तंत्र का उद्देश्य भय, घृणा, लज्जा आदि शरीर के सभी प्रारंभिक भावों पर विजय प्राप्त करना है। मृत्यु का भय सबसे बड़ा है। इसी से श्मशान में अथवा शव के ऊपर बैठकर साधना करना, भूत-प्रेत सिद्ध करना, अघोरपंथीपन, जटाजूट, राख मला हुआ नंग-धड़ंग, नरमुंड तथा हडिड्ओं का हार आदि कल्पनाऍं आईं। तांत्रिक यह समझते थे कि वे इससे चमत्कार करने की सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। देखें – बंकिमचंद्र का उपन्यास ‘कपाल-कुंडला’। यह विकृति ‘वामपंथ’ में प्रकट हुई जिसमें मांस-मदिरा, व्यसन और भोग को ही संपूर्ण सुख माना। ययाति की कहानी भूल गए कि भोग से तृष्णा बढ़ती है, कभी शांत नहीं होती। जब कभी ऐसा जीवन उत्पन्न हुआ तो सभ्यता मर गई। शिव का रूप विरोधी विचारों के दो छोर लिये है।
हिरण्यकशिपु और प्रहलाद
अमृत-मंथन से अंकुरित, विभिन्नताओं के बीच अनेक उपासना पद्धतियों का समन्वय करते हुए, सभी प्रकार के मत-मतांतरों को समेटकर एक सहिष्णु सामाजिक जीवन देवों के उपासकों के देश में प्रारंभ हुआ। पर असुरों के उपासक भारत से गए नहीं। अगली कहानी असुर राजा हिरण्यकशिपु की है।
‘हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष दो जुड़वॉं भाई थे। जिस समय वे पैदा हुए, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष में अनेक उत्पात होने लगे। पृथ्वी और पर्वत कॉंपने लगे, सब दिशाओं में दाह होने लगा। उल्कापात होने लगा और बिजलियॉं गिरने लगीं। घटाऍं छा गईं। समुद्र कोलाहल करने लगा। बिना बादलों के गरजने का शब्द होने लगा तथा गुफाओं से रथ की घरघराहट-सा शब्द निकलने लगा। पशु अमंगल शब्द करते, रेंकते, पागल होकर इधर-उधर दौड़ने लगे और मल-मूत्र त्याग करने लगे। ये दोनों दैत्य सहसा अपने फौलाद के समान कठोर शरीर से पर्वताकार हो गए। उनका हेमकिरीट स्वर्ग को छूता था। जब वे कदम रखते तब भूकंप आता।‘
श्रीमद्भागवत का यह वर्णन ज्वालामुखी पर्वतों के जन्म का है। हिरण्याक्ष तो वाराह के समय नष्ट हो गया, हिरण्यकशिपु सहस्त्रों शताब्दियों तक जीवित रहा। हिरण्यकशिपु का शाब्दिक अर्थ ‘स्वर्ण कछुआ’ या ‘स्वर्ण पर्वत’ है। कालांतर में एक असुर राजा हुआ जो ‘हिरण्यकशिपु’ अर्थात् उस ज्वालामुखी का पुजारी या प्रवक्ता बना। इसी से वह स्वयं हिरण्यकशिपु कहलाया। असुरों को इस प्रकार शक्ति दिखाने की माया आती थी। कहते हैं, हिरण्यकशिपु राजा ने तप किया। (ज्वालामुखी का आगे वर्णन चलता है) जब बहुत दिनों तक तपस्या करते वह मिट्टी के ढेर में छिप गया तब उसके सिर से अग्नि धुऍं के साथ निकलने लगी और लोगों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप एवं पर्वतों सहित पृथ्वी डगमगाने लगी। दसों दिशाओं में आग लग गई। तब ब्रम्हा वहॉं गये । हिरण्यकशिपु ने वर मॉंगा—
'आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्य, पशु, देवता, दैत्य, नागादि किसी से मेरी मृत्यु न हो। मैं समस्त प्राणियों पर राज्य करूं।‘
ब्रम्हा से वरदान पाकर दैत्यराज ने समस्त प्राणियों को जीतकर अपने वश में कर लिया। पृथ्वी के सातों द्वीपों पर उसका अखंड राज्य था। ऐश्वर्य के मद में मतवाला और घमंड में चूर होकर उसने अपने को ‘भगवान’ प्रसिद्ध किया और अत्याचारी बना।
जब हिरण्यकशिपु तप के द्वारा शक्ति बटोर रहा था, उसकी रानी ने नारद के आश्रम में शरण ली। वहॉं प्रहलाद नामक पुत्र पैदा हुआ। आश्रम के संस्कारों के कारण वह समस्त प्राणियों के साथ समता का बरताव करने वाला, सबका प्रिय, हितैषी एवं गुणी हुआ। हिरण्यकशिपु के लौटने पर प्रहलाद ने कहा,
‘अपने-पराए का भेदभाव झूठा है। इसे अज्ञानी करते हैं। भगवान सबके अन्दर, सब जगह है।‘
प्रहलाद ने अपने पिता को भगवान मानने से इनकार किया और समझाने में न आया। अपने साथियों को भी आसुरी प्रवृत्ति और विषयों में आसक्ति त्याग सबकी भलाई करने की सलाह दी। हिरण्यकशिपु ने पहले ताड़ना दी, फिर उसके मरवाने के यत्न किए। उसे मतवाले हाथी के सामने डाला गया, पर हाथी ने उठा लिया। विषधर सॉंपों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। पहाड़ की चोटी से नीचे गिराने तथा चट्टान से दबाने पर भी वह बच गया।
हिरण्यकशिपु को चिंतित देख उसकी बहन होलिका ने प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करने का प्रस्ताव रखा। होलिका को वर प्राप्त था कि वह स्वयं अग्नि में न जलेगी। पर जब होलिका प्रहलाद को गोद में ले चिता पर बैठी तो एक चमत्कार हुआ। होलिका जल गई—दूसरे के साथ, हृदय में पाप लेकर जो बैठी थी। पर प्रहलाद को अग्नि ने छुआ भी नहीं। प्रहलाद रूपी संस्कृति बच गई। तभी फाल्गुन की पूर्णिमा को इसी स्मृति में प्रति वर्ष पतझड़ के पत्ते और डाल इकट्ठा कर होली जलाते हैं। और अगले दिन प्रहलाद के जीवित निकलने के उपलक्ष्य में रंग और गुलाल डालकर तथा गले मिलकर बधाई देते और खुशियॉं मनाते हैं। हृदय का कल्मष जलाकर, बुराई को त्यागकर और पुराने अप्रिय प्रसंगों को भूलकर पुन: संस्कृति में पगें।
तब हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद से पूछा,
‘किसके बलबूते पर तू मेरी आज्ञा के विरूद्ध कार्य करता है ?’
प्रहलाद ने कहा,
‘आप अपना असुरभाव छोड़ दें । सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की पूजा है।‘
हिरण्यकशिपु क्रोध में कहा,
'तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्वामी बताता है। कहॉं है वह तेरा जगदीश्वर ? क्या इस खंभे में है जिससे तू बँधा है ?’
कह कर खंभे में घूँसा मारा। तभी खंभा भयंकर शब्द के साथ फट गया और उसमें से एक डरावना रूप प्रकट हुआ। सिर सिंह का और धड़ मनुष्य का, पीली ऑंखें, जम्हाई लेते समय लहराती अयाल, विकराल डाढ़ें, तलवार-सी लपलपाती जीभ। सिंह का भयानक मुख और अनेक बड़े नखों से युक्त हाथ कँपकँपी पैदा करते थ। यही ‘नृसिंह अवतार’ है। वेग से नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया और द्वाभा की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जॉंघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्त्र से, न शास्त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला। हजारों सैनिक जो प्रहार करने आए, उन्हें नृसिंह ने हजारों भुजाओं और नख रूपा शस्त्रों से खदेड़कर मार डाला।
फिर क्रोध से उद्दीप्त नृसिंह सिंहासन पर जा बैठा। किसी को पास जाने का साहस न हुआ। तब प्रहलाद ने दंडवत हो उसकी प्रार्थना की। प्रहलाद का राजतिलक करने के बाद नृसिंह चला गया।
नृसिंह अपने सहस्त्रों हाथों सहित समाज का क्रोधित अर्द्ध जंगली स्वरूप है। उस समय समाज पशुभाव से पूर्णरूपेण उठ नहीं पाया था। प्रहलाद रूपी संस्कृति ने समता का – सभी वस्तुओं में भगवान के दर्शन का-संदेश दिया। उसकी रक्षा समाज ने सत्ता के विरूद्ध विद्रोह करके और अपना क्रोध दिखाकर की। उस अत्याचारी का, जो लगता था कि अमर है, हनन किया। संस्कृति की रक्षा हुई और समाज का कार्य संपन्न हुआ।
वामन अवतार और बलि
अगली कथा प्रहलाद के पौत्र बलि की है। बलि ने शुक्राचार्य आदि भृगुवंशियों की सेवा कर एवं विश्वजित यज्ञ कर सोने की चादर से मढ़ा दिव्य रथ तथा धनुष, दो अक्षय तूणीर और कवच प्राप्त किए थे। इनसे युक्त होकर बलि ने इंद्र की नगरी अमरावती और सारे विश्व को जीत लिया। तब उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किए।
अंतिम यज्ञ के समय एक नन्हें ब्रम्हचारी ने यज्ञ- मंडप में प्रवेश किया। बलि ने अवसर के अनुसार स्वागत कर जो चाहे मॉंगने को कहा। वामन ने कुल परपरा एवं धर्माचरण की प्रशंसा करते हुए और उसकी दानवीरता की दुहाई देकर केवल तीन पग पृथ्वी मॉंगी। बलि ने पूरा द्वीप मॉंगने को कहा। पर वामन अपने आग्रह पर डटा रहा, ‘चक्रवर्ती नरेश भी धन और भोग की सामग्री प्राप्त होने पर तृष्णा का पार न पा सके। संतोषी, इंद्रियोंको वश में रखने वाला व्यक्ति ही सुखी रहता है। इसलिए जितने से मेरा काम बने, वह तीन पग मॉंगता हूँ।‘ बलि हँस पड़ा, ‘जितनी इच्छा हो, ले लो।‘
कहकर संकल्प को उद्यत हुआ। इस पर शुक्राचार्य ने मना किया ‘यह तीन पग में सारे लोक नाप लेगा। जब तुम सर्वस्व दे दोगे तब निर्वाह कैसे होगा? अपनी जीविका की रक्षा के लिए, प्राण संकट पर या किसी को मृत्यु से बचाने के लिए असत्य भाषण उतना निंदनीय नहीं है।‘
पर बलि न माना और पत्नी से जल ले संकल्प किया।
तब एक अद्भुत घटना घटी । वामन का रूप बढ़कर संसार-व्यापी हो गया। दो पगों में ही उसने तीनों लोकों को नाप लिया। तब बलि से कहा, ‘तुमने मुझे तीन पग पृथ्वी देने का दंभ किया था। अब तीसरे पग का स्थान कहॉं ?’
इस पर बलि ने अपना सिर दिखा दिया। वामन ने उसे पाताल लोक में राज्य करने भेज दिया। कहा, ‘जो तुम्हारा असुर भाव होगा वह मेरे संसर्ग से नष्ट हो जाएगा।‘
इस प्रकार वामन ने बलि से पृथ्वी की भिक्षा मांग कर देवताओं को स्वर्ग लौटा दिया। बाद में बलि इंद्र बना। इसी कथा से प्रेरित हो कर जयंत विष्णु नार्लीकर ने एक विज्ञान कहानी द रिटर्न ऑफ वामन (The Return of Vaman) लिखी
यह समाज की अगली सभ्य अवस्था का चित्र है। वामन शिशु रूप समाज है। तब हिंसा अथवा ‘जंगल के नियम’ की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह शिशु रूपी समाज सब जगह फैल गया। इसके मॉंगने मात्र से अधिकार मिल गए। इस कथा से स्पष्ट है कि असुर को भी आसुरी भाव नष्ट होने पर देवताओं का राज्य एवं इंद्र पद मिल सकता है।
राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
इस कालखंड में पहुँचकर ‘क्षत्रिय’ और ‘राजा’ की उत्पत्ति पर विचार करना पड़ेगा। कहते हैं कि आपस में लड़ाई-झगड़ों से तंग आकर सब ब्रम्हा के पास गए। ब्रम्हा न स्वायंभुव मनु से प्रजापालन हेतु कहा। पहले मनु ने इनकार किया। जब प्रजा ने आश्वासन दिया कि हम छठा भाग राज्य-संचालन के लिए देंगे तथा सत्कर्म का भी छठा भाग देंगे और आपकी बात मानेंगे, तब मनु प्रजापति बने। उस समय की अत्यंत विरल जनसंख्या में शासन का विधिसंगत प्रारंभ बताने के लिए इस प्रकार की कथा प्रतिपादित की गई। यही रूसी (Rousseau) के सामाजिक अनुबंध (Social Contract) के सिद्धांत की पूर्व पीठिका है।
दूसरी कथा है कि पहले धर्म का शासन था। उसका ह्रास होने पर नीति शास्त्र की रचना की गई और विरज शासक हुआ। इस विरज के दो पीढ़ी बाद वेन, जिसे मृत्यु का नाती बताया गया है, अगुआ बना। यह राग-द्वेष के वशीभूत हो प्रजा को धर्म से च्युत करने लगा तो ऋषियों ने मंत्रपूत कुशाओं से उसे मार डाला। अराजकता बढ़ने पर शव के दाहिने हाथ को मथकर पृथु को उत्पन्न किया। इसे भगवान् का अंशावतार कहते हैं। ऋषियों ने पृथु से कहा कि वह स्वयं दुर्गुणों से रहित होकर धर्म की रक्षा करे और अधर्मियों को दंड दे। पृथु ने यह मान लिया। वह प्रजा का रंजन करने के कारण ‘राजा’ कहलाया और क्षतों से त्राण करने के कारण ‘क्षत्रिय’ । पृथु के नाम पर ही यह वसुंधरा ‘पृथ्वी’ कहलाई।
पृथु के अभिषेक के पहले वेन के अनाचार से और कोई प्रजापालक न रहने के कारण पृथ्वी अन्नहीन हो गई थी और प्रजाजनों के शरीर सूखकर कॉंटे। इस पर पृथु ने गौ रूपिणी पृथ्वी से कहा, ‘तू यज्ञ में देवता रूप में भाग तो लेती है, किन्तु बदले में हमें अन्न नही देती।‘
तब पृथ्वी ने कहा, ‘राजा लोगों ने मेरा पालन तथा आदर करना छोड़ दिया है। दुष्ट और चोर सर्वरूत्र फैले हैं। इसलिए धान्य और औषध को मैंने छिपा रखा है। अब आप मुझे समतल करें, जिससे इंद्र का बरसाया जल सदैव बना रहे। फिर मेरे योग्य बछड़े की व्यवस्था कर इच्छित वस्तु दुह लें।‘
पृथु ने पर्वतों को फोड़ भूमि समतल की। यथायोग्य निवास स्थान बनाकर प्रजा के पालन-पोषण की व्यवस्था की। गॉंव, कस्बे, नगर, दुर्ग, पशुओं के स्थान, छावनियॉं, खानें आदि बसाईं। पहले इस प्रकार के ग्राम, नगर आदि का विभाजन न था। फिर पृथु ने धान्य, औषध तथा खनिज आवश्यकतानुसार और बछड़े का ध्यान रखकर दुहा। इस प्रकार पृथु के समय कृषि और धातु उद्योग मानव समाज को प्राप्त हुए तथा ग्राम-नगर से युक्त सभ्यता आई। पर साथ-साथ उठा पर्यावरण और वनस्पति एवं प्राणिमात्र के संरक्षण का विचार, उसकी नितांत आवश्यकता तथा प्रकृति के प्रति भक्ति।
गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कथा
भारत के पौराणिक राजवंशों में सबसे प्रसिद्ध इक्ष्वाकु कुल है। इस कुल की अट्ठाईसवीं पीढ़ी में राजा हरिश्चंद्र हुए, जिन्होंने सत्य की रक्षा के लिए सब कुछ दे दिया। इसी कुल की छत्तीसवीं पीढ़ी में सगर नामक राजा हुए। ‘गर’ (विष ) के साथ पैदा होने के कारण वह ‘सगर’ कहलाए। सगर चक्रवर्ती सम्राट बने। अपने गुरूदेव और्व की आज्ञा मानकर उन्होंने तालजंघ, यवन, शक, हैडय और बर्बर जाति के लोगों का वध न कर उन्हें विरूप बना दिया। कुछ के सिर मुँड़वा दिए, कुछ की मूँछ या दाढ़ी रखवा दी। कुछ को खुले बालों वाला रखा तो कुछ का आधा सिर मुँड़वा दिया। किसी को वस्त्र ओढ़ने की अनुमति दी, पहनने की नहीं और कुछ को केवल लँगोटी पहनने को कहा। संसार के अनेक देशों में इस प्रकार के प्राचीन काल में रिवाज थे। इनकी झलक कहीं-कहीं आज भी दिखती है। भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कथा गंगावतरण, जिसके द्वारा भारत की धरती पवित्र हुई, इन राजा सगर से संबंधित है।
गंगा-यमुना संगम, प्रयाग
उनके राज्य में एक बार बारह वर्ष तक अकाल पड़ा। भयंकर सूखा और गरमी के कारण हाहाकार मच गया। तब राजा सगर से यज्ञ करने को कहा गया एक उद्देश्य से एकजुट होना ही यज्ञ है। राजा सगर ने सौवें यज्ञ का घोड़ा छोड़ा। वह एक स्थान पर एकाएक लुप्त हो गया। जब हताश हो लोग राजा के पास आए तो उसने उसी स्थान के पास खोदने की आज्ञा दी। प्रजाजनों ने वहॉं खोदना प्रारंभ किया। पर न कहीं अश्व मिला, न जल निकला। खोदते हुए वे पूर्व दिशा में कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे। कपिल मुनि सांख्य दर्शन के प्रणेता और भगवान् के अंशावतार माने गए हैं। ऐसा उनके दर्शन का माहात्म्य है। उन्हीं के आश्रम में कपिला गाय कामधेनु थी, जो मनचाही वस्तु प्रदान कर सकती थी। वहीं पर वह यज्ञ का अश्व बँधा दिखा। तब लोग बिना सोचे-समझे कि किसने बॉंधा, कपिल मुनि को ‘चोर’ आदि शब्दों से संबोधित कर तिरस्कृत करने लगे। मुनि की समाधि भंग हो गई और लोग उनकी दृष्टि से भस्म हो गए।
राजा सगर की आज्ञा से उनका पौत्र अंशुमान घोड़ा ढूँढ़ने निकला और खोजते हुए प्रदेश के किनारे चलकर कपिल मुनि के आश्रम में साठ हजार प्रजाजनों की भस्म के पास घोड़े को देखा। अंशुमान की स्तुति से कपिल मुनि ने वह यज्ञ-पशु उसे दे दिया, जिससे सगर के यज्ञ की शेष क्रिया पूर्ण हुई। कपिल मुनि ने कहा,
‘स्वर्ग की गंगा यहॉं आएगी तब भस्म हुए साठ हजार लोग तरेंगे।‘
तब अंशुमान ने स्वर्ग की गंगा को भरतभूमि में लाने की कामना से घोर तपस्या की। उनका और उनके पुत्र दिलीप का संपूर्ण जीवन इसमें लग गया, पर सफलता न मिली। तब दिलीप के पुत्ररू भगीरथ ने यह बीड़ा उठाया।
यह हिमालय पर्वत (कैलास) शिव का निवास है, और मानो शिव का फैला जटाजूट उसकी पर्वत-श्रेणियॉं हैं। त्रिविष्टप ( आधुनिक तिब्बत) को उस समय स्वर्ग, अपवर्ग आदि नामों से पुकारते थे। उनके बीच है मानसरोवर झील, जिसकी यात्रा महाभारत काल में पांडवों ने सशरीर स्वर्गारोहण के लिए की। इस झील से प्रत्यक्ष तीन नदियॉं निकलती हैं। ब्रम्हपुत्र पूर्व की ओर बहती है, सिंधु उत्तर-पश्चिम और सतलुज (शतद्रु) दक्षिण-पश्चिम की ओर। यह स्वर्ग का जल उत्तराखंड की प्यासी धरती को देना अभियंत्रण (इंजीनियरी) का अभूतपूर्व कमाल होना था। इसके लिए पूर्व की अलकनंदा की घाटी अपर्याप्त थी।
यह साहसिक कार्य अंशुमान के पौत्र भगीरथ के समय में पूर्ण हुआ, जब हिमालय के गर्भ से होता हुआ मानसरोवर (स्वर्ग) का जल गोमुख से फूट निकला। गंगोत्री के प्रपात द्वारा भागीरथी एक गहरे खड्ड में बहती है, जिसके दोनों ओर सीधी दीवार सरीखी चट्टानें खड़ी हैं। किंवदंती है कि गंगा का वेग शिव की जटाजूट ने सँभाला। गंगा उसमें खो गई, उसका प्रवाह कम हो गया। जब वहॉं से समतल भूमि पर निकली तो भगीरथ आगे-आगे चले। गंगा उनके दिखाए मार्ग से उनके पीछे चलीं। आज भी गंगा को प्रयाग तक देखो तो उसके तट पर कोई बड़े कगार न मिलेंगे। मानो यह मनुष्य निर्मित नगर है। ऐसा उसका मार्ग यम की पुत्री यमुना की नील, गहरे कगारों के बीच बहती धारा से वैषम्य उपस्थित करता है। प्रयाग में यमुना से मिलकर गंगा की धारा अंत में गंगासागर ( महोदधि) में मिल गई। राजा सगर का स्वप्न साकार हुआ। उनके द्वारा खुदवाया गया ‘सागर’ भर गया और उत्तरी भारत में पुन: खुशहाली आई। आज का भारत गंगा की देन है।
पूर्वजों द्वारा लाई गई यह नदी पावन है। इसे ‘गंगा मैया’ कहकर पुकारा जाता है। इसके जल को बहुत दिनों तक रखने के बाद भी उसमें कीड़े नहीं पड़ते । संभवतया हिमालय के गर्भ, जहॉं से होकर गंगा का जल आता है, की रेडियो-धर्मिता के कारण ऐसा होता है। प्राचीन काल में, इसकी धारा अपवित्र न हो, इसका बड़ा ध्यान रखा जाता था। बढ़ती जनसंख्या और अनास्था के कारण इसमें कमी आई होगी। पर गंगा की धारा भारतीय भारतीय संस्कृति की प्रतीक बनी। कवि ने गाया –
'यह कल-कल छल-छल बहती क्या कहती गंगा-धारा,
युग-युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा।‘
परशुराम अवतार
कालांतर में कुछ क्षत्रिरूय स्वेच्छाचारी हो गए। उन्होंने धार्मिक कृत्य करना और ऋषियों के परामर्श के अनुसार चलना छोड़ दिया। ऐसे क्षत्रियों की कई जातियॉं, जिनमें मनुस्मृति के अनुसार चोल, द्रविड़, यवन (ग्रीक), कांबोज ( आधुनिक कंबोडिया निवासी), शक, चीन, किरात ( गिरिवासी) और खस ( असम पहाडियों के निवासी) भी हैं, संसार में ‘वृषल’ ( शूद्र) के समान हो गए। बाकी क्षत्रिय भी प्राण के स्थान पर अत्याचार करने लगे। तब परशुराम का अवतार हुआ। उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी नि:क्षत्रिय की। पर कहते हैं, हर बार कहीं-न-कहीं बीज रह गया। उनसे पुन: वैसे ही लोग उत्पन्न हुए। हर बार परशुराम ने अत्याचारियों को मारकर समाज की रक्षा की।
परशुराम का स्थान है ‘गोमांतक’ (आधुनिक गोवा)। किंवदंती में कहा गया कि परशुराम ने अपने फरसे द्वारा सागर से यह सुंदर वनस्थली प्राप्त की। आज प्राचीनता का स्मरण दिलाते कुछ प्रस्तरयुगीन फलक वहॉं के पुरातत्व संग्रहालय में रखे हैं। परशुराम के अवतारी कार्य के अवशिष्ट चिन्ह क्रूर पुर्तगाली नृशंस अत्याचारियों ने मिटा दिए हैं। उनका स्थान ले लिया है ईसाई अंधविश्वासों, टोटकों और अवशेषों ने, जिनके बचाने की दुहाई मानवता के नाम पर दी जाती है । केवल एक ‘मंगेश’ का मंदिर पुर्तगाली मजहबी उन्माद से उस प्रदेश में बच सका। उनकी दानवता तथा नृशंस अत्याचारों की एक झलक हमें वीर सावरकर लिखित खंड-काव्य ‘गोमांतक’ में मिलती है।
यदि वामन समाज की शिशु अवस्था का प्रतीक है तो परशुराम किशोरावस्था का। इस अवस्था में मन के अंदर अत्याचार के विरूद्ध स्वाभाविक रोष रहता है। शक्ति के मद में जो दुराचारी बने, उनसे परशुराम ने समाज को उबारा। यह सभ्यता की एक प्रक्रिया है। पर इस प्रक्रिया से जब समाज दुर्बल हो गया और क्षात्र शक्ति की पुन: आवश्यकता प्रतीत हुई तब एक बालक के मुख से परशुराम को चुनौती मिली। जनकपुरी में सीता स्वयंवर के अवसर पर लक्ष्मण ने दर्प भरी वाणी में परशुराम से कहा, ‘इहॉं कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं।‘ राम ने परशुराम का तेज हर लिया। मानो कहा कि उनका अवतारी कार्य समाप्त हो गया। एक नए अवतार का उदय हुआ। इस प्रकार परशुराम, किशोरावस्था के समाज की, अत्याचारी के दमन और सभ्य बनाने तथा व्यवस्था लागू करने की प्रक्रिया सहस्त्राब्दियों तक चली।
त्रेता युग
त्रेता युग में उस अवतार का जन्म हुआ जिसका नाम भारत और हिंदु समाज से एकाकार हो गया है। देश में सहज अभिवादन ‘सीताराम’, ‘जय रामजी की’ या ‘जय श्रीराम’ बने। पुत्र का जन्म हुआ तो कहा, ‘हमारे घर राम आए हैं।‘ विवाह के अवसर पर लोकगीतबने-‘आज राम-सीता का विवाह है।‘ मानव जीवन की चरम आकांक्षाओं का केंद्र – राम। हिंदु जीवन में क्षण-क्षण के साथी बने-राम। रामराज्य आदर्श बना और ‘राम' का नामोच्चारण सब संकटों से त्राण करने वाला। हिदु के लिए सृष्टि राममय बनी।
राम की यशोगाथा भारत एवं दक्षिण- पूर्व एशिया की सभी भाषाओं ने गाई है। वह धीरे-धीरे संसार में फैली। आदि कवि वाल्मीकि की वाणी में मर्यादा पुरूषोत्तम राम की छंदबद्ध कथा फूट निकली। यही मर्यादा पुरूषोत्तम राम कंबन की तमिल भाषा में लिखी ‘कंब रामायण’ से लेकर गोस्वामी तुलसीदास की अवधी बोली की ‘रामचरितमानस’ तक के भगवान् राम बने। यह ‘रामचरितमानस’ संसार के साहित्य में एक अद्वितीय और अनुपम ग्रंथ है। जिस समय भारत के भाग्याकाश में घोर निराशा के बादल छाए थे और यह धरा आक्रमणकारियों से पददलित थी, तब इसने राम का स्मरण दिलाकर समाज को जीवंत बनाया। यह कहानी दंतकथा के रूप में बड़े-बूढ़ों द्वारा घर-घर में कही गई। मेरे बचपन में ग्रीष्मावकाश के समय प्रति सायं काल का ग्रामीण अंचल मनौती माने विद्यार्थियों द्वारा इसके पाठ से मुखरित हो उठता था।
नव दुर्गा के त्योहार के समय ग्राम-नगर राम की लीला खेलते। इसकी परिणति विजयादशमी के रावण वध में अथवा दीपावली के दिन राम के राजतिलक में होती है। बृहत्तर भारत में मंचित ये गीतनृत्य-नाटिकाऍं भारत के अतिरिक्त दक्षिण- पूर्व एशिया के अनेक देशों में देखी जा सकती हैं। भारत में पूर्वी हिंद द्वीप समूह (इंडोनेशिया) (जो मुस्लिम बहुल देश है) के प्रथम राजदूत अपनी दोनों पुत्रियों ‘जावित्री’ और ‘सावित्री’ के साथ दिल्ली की रामलीला देखने आए। तब बताया कि दोनों पुत्रियॉं किस प्रकार जावा (यव द्वीप) की रामलीला में ऩत्य- अभिनय करती थीं। स्याम (आधुनिक थाईलैंड) के राजाओं की पदवी सदा से ‘राम’ चली आई है। कंबोज (आधुनिक कंबोडिया) के राजघराने यह पदवी धारण करते थे।
दक्षिण-पश्चिम एशिया (middle east) की सभ्यताओं में भी कभी-कभी यह नाम (राम) दिखता है; किंवदंतियों में इस कहानी की छाया और संसार के अनेक रीति-रिवाजों में इसकी अभिव्यक्ति है।
राम कथा
उत्तरी भारत में सरयू नदी के तट पर बसी अयोध्या,जहॉं त्रेता युग में दशरथ के पुत्र राम का जन्म हुआ था। अयोध्या, अर्थात् जहॉं कभी युद्ध नहीं होता। एक दिन विश्वामित्र आए और अपने आश्रम के संरक्षण हेतु दो राजकुमार - राम और लक्ष्मण - मॉंगे। विश्वामित्र और दशरथ के गुरू वसिष्ठ का पुराना मनमुटाव प्रसिद्ध है। कहते हैं, विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे और वसिष्ठ उन्हें ‘राजर्षि’ कहते थे। विश्वामित्र की इच्छा ‘ब्रम्हर्षि’ कहाने की थी। अंत में विश्वामित्र क्रोध पर विजय प्राप्त कर सचमुच में ब्रम्हर्षि बने। पर जब विश्वामित्र ने इन बालकों की जोड़ी को अपने आश्रम की रक्षा के लिए मॉंगा तो वसिष्ठ ने सहर्ष आज्ञा दिलवा दी। मानवता का और समाज का कार्य राम के द्वारा संपन्न होना था। राम ने आश्रम के पास पड़ी ऋषि-मुनियों की हडिड्यॉं देखीं,
‘तब करौं नि शाचरहीन महि भुज उठाय प्रन कीन्ह।’
विश्वामित्र के आश्रम में राम-लक्ष्मण ने शस्त्रास्त्रों की विद्या और उनके प्रयोग में दक्षता प्राप्त की।
जनकपुरी में सीता स्वयंवर रचा जा रहा था। राजा जनक ने प्रण किया था, जो शिव-धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी से सीता का विवाह होगा। विश्वामित्र भी आश्रमवासियों के वेश में दोनों कुमारों सहित उस स्वयंवर में पधारे। जनकपुरी और अयोध्या राज्यों में स्पर्धा थी - राजा दशरथ को संभवतया निमंत्रण भी न था।
उस विशाल स्वयंवर में रावण आदि महाबली राजा भी धनुष न हिला सके। तब राजा जनक ने दु:खित होकर कहा,
‘वीर विहीन मही मैं जानी।’
शिव धनुष तोड़ने का चित्र रवी वर्मा का है और विकिपीडिया से लिया गया है।
इस पर लक्ष्मण को क्रोध आ गया। उन्होंने भाई की ओर ताका । विश्वामित्र का इशारा पाकर राम ने धनुष उठा लिया; पर प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। सीता ने स्वयंवर की वरमाला राम के गले में डाल दी। अपने इष्टदेव के धनुष टूटने पर परशुराम जनक के दरबार में पहुँचे पर मानव जीवन में पुन: मर्यादाऍं स्थापित करने के लिए एक नए अवतार की आवश्यकता थी। इस प्रकार भारत के दो शक्तिशाली घराने और राज्य एक बने। वसिष्ठ-विश्वामित्र की अभिसंधि सफल हुई। पुराना परशुराम युग गया और राम के नवयुग का सूत्रपात हुआ।
धनुष-यज्ञ प्रकरण के अनेक अर्थ लगाने का प्रयत्न हुआ है। मेरे छोटे बाबाजी इसको अनातोलिया (अब एशियाई तुर्की) की कथा बताकर एक विचित्र अर्थ लगाते थे। पुराने एशिया से यूरोप के व्यापार मार्ग बासपोरस (Bosporus) तथा दानियाल (Dardnelles) जलसंधियों को पार करके जाते थे। उसके उत्तर में फैला था काला सागर, कश्यप सागर और अरब सागर को संभवतया समेटता महासागर, जिसके कारण यूरोप (प्राचीन योरोपा, संस्कृत ‘सुरूपा’) एक महाद्वीप कहलाया। इन्हीं के पास यूनान के त्रिशूल प्रदेश में जहॉं सलोनिका नगर है) से लेकर मरमरा सागर (Sea of Marmara) तक शिव के उपासक रहते थे। किंवदंती है कि ये व्यापारियों को लूटते-खसोटते और कर वसूलते थे। अनातोलिया का यह भाग धनुषाकार है। सीता स्वयंवर के समय इसी को निरापद करने का कार्य शिव के धनुष का घेरा तोड़ना कहलाया। बदले में किए गए रावण द्वारा सीता-हरण की ध्वनि इलियड में ‘हेलेन’ व ‘ट्रॉय’ की कहानी में मिलती है। संसार की अनेक दंत-कथाऍं इसी प्रकार उलझी हुई हैं और उनके अनेक अर्थ लगाए जा सकते हैं।
विश्वामित्र के आश्रम में उनके जीवन का लक्ष्य निश्चित हो चुका था। पर अयोध्या आने पर दशरथ ने उनका राज्याभिषेक करने की सोची। किंवदंती है कि इस पर देवताओं ने मंथरा दासी की मति फेर दी। युद्धस्थल में कैकेयी के अपूर्व साहस दिखाने पर दशरथ ने दो वर देने का वचन दिया था। मंथरा के उकसाने पर कैकेयी ने वे दोनों वर मॉंग लिये—भरत को राज्य और राम को चौदह वर्ष का वनवास। इसने इतिहास ही मोड़ दिया।
वन-गमन के मार्ग में राम के आश्रम के सहपाठी निषादराज का वृत्तांत आता है। उनकी नगरी श्रंगवेरपुर में उन्हीं की नौका से राम, लक्ष्मण और सीता ने गगा पार की। तब उन दिनों के सबसे विख्यात विश्वविद्यालय भरद्वाज मुनि के आश्रम में गए और उनके इंगित पर चित्रकूट। भरत और कैकेयी के अनुनय के बाद भी जब राम पिता का वचन पूरा किये बिना लौटने को राजी न हुए तो भरत उनकी पादुकाऍं ले आए। बाहर नंदि ग्राम में रहकर उन्होंने अयोध्या का शासन किया—राम की पादुकाओं को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर, उनके प्रतिनिधि के रूप में।
राम वहॉं से पंचवटी गए। बाद की घटनाओं में दो संस्कृतियों के संघर्ष के दर्शन होते हैं। षड्रस व्यंजन त्याग जंगली कंद-मूल-फल खाए। ब्रम्हचारी वनवासी जीवन अपनाया। रावण की बहन शूर्पणखा को राम का नाहीं करना और अंत में सीता-हरण। राम ने स्नेह का आदर भीलनी शबरी के जूठे बेर खाकर किया। सैन्य-विहीन, निर्वासित अवस्था में लगभग अकेले ‘वानर’ एवं ‘ऋक्ष’ नामक वनवासीजातियों (ये उनके गण-चिन्ह थे, जिनसे वे जानी जाती थीं) का संगठन कर लंका पर अभियान किया। रावण की विरोधी और राक्षसी अपार शक्ति को नष्ट कर राज्य विभीषण को सौंप दिया। लक्ष्मण के मन की बात समझकर कि इस सुख-सुविधा से भरपूर लंका में क्यों न रूकें, राम के मुख से प्रकटे वे अमर शब्द, ‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।‘
राम ने अपने जीवन में सदा मर्यादा का पालन किया, इसी से ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’ कहलाए। अयोध्या में राजा के रूप में प्रजा-वात्सल्य की एक अपूर्व घटना आती है, जिसने मुझे विद्यार्थी जीवन में अनेक बार रूलाया है। एक बार प्रजा की स्थिति जानने के लिए राम रात्रि में छिपकर घूम रहे थे कि एक धोबी अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘अरी, तू कुलटा है, पराए घर में रह आई। मैं स्त्री – लोभी राम नहीं हूँ, जो तुझे रखूँ।‘
बहुतों के मुख से बात सुनने पर लोकापवाद के डर से उन्होंने अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण गर्भवती सीता का परित्याग किया। वह वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। उन्होंने दो जुड़वॉं पुत्र-लव और कुश—को जन्म दिया। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के भी दो-दो पुत्र हुए।
राम ने गृहस्थ मर्यादा के अनुरूप एक-पत्नीव्रत धारण किया था। इसलिए राजसूय यज्ञ के समय सीता की स्वर्ण मूर्ति अपनी बगल में बैठाकर यजन किया। निर्वासित सीता ने राम को हृदय में धारण करते हुये अपने पुत्रों को वाल्मीकि के हाथों सौंपकर निर्वाण लिया। तब समाचार सुनकर राम अपने शोकावेश को रोक न सके। वह ब्रम्हचर्य व्रत ले प्रजा-रंजन में लगे। पर उस दु:ख से कभी उबर न पाए। कहते हैं कि एक आदर्श राज्य का संचालन अनेक वर्षो तक करने के बाद एक दिन राम, भरत और लक्ष्मण ने (तथा उनके साथ कुछ अयोध्यावासियों ने) सरयू में जल-समाधि ले ली। अयोध्या उजड़ गई।
शत्रुघ्न ने मधुबन में मधु के पुत्र लवण राक्षस को मारकर वहॉं मथुरापुरी बसाई थी। लव के नाम पर लाहौर बसा और कुश ने बसाया महाकौशल का दक्षिणी भाग। जब अयोध्या की दशा का पता चला तब कुश की प्रेरणा से उनके पुत्रों ने पुन: अयोध्या बसाई। कृष्ण लीला दु:ख और जोखिम से भरा कृष्ण का बहुआयामी जीवन अगले अवतार की कहानी है। इस दुनिया का कौन सा ऐसा कष्ट है जो कृष्ण ने मुसकराते न झेला हो; कौन सा संकट है जिसका युक्ति से निराकरण न किया हो।
क्या कहा जाय उसे, जिसके माता-पिता यौवन की दहलीज पर कारागार में डाल दिए गए हों ! जिसके छह अग्रज जनमते ही मार डाले गए। जन्म के समय जिसकी ऑंखें कारागार में खुलीं। जिसने माता-पिता का सुख कभी देखा नहीं आर उनके रहते लालन-पालन पराए घर में हुआ। गोप-गोपियों के बीच गौऍं चराकर जिसका बचपन बीता। और ऐसे समय मृत्यु के घाट उतारने में जिसके मामा ने कोई कसर बाकी र रखी। जिसके भाग्य मेंजन्म-स्थान और लालन-पालन के स्थान छोड़कर दूर द्वारका में शरण लेना बदा था। रण छोड़कर भागना पड़ा, इसी से ‘रणछोड़’ कहलाया। मणि चुराने का झूठा अपवाद सहन करना पड़ा। सारा जीवन अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करते बीता। राजसूय यज्ञ में अपने लिए जिसने जूते रखने का कार्य चुना। सर्वगुण-संपन्न होने के बाद भी अर्जुन के रथ को हॉंकने वाला सारथि बना। सदा विजय होने के बाद भी कभी राजा बनना नहीं स्वीकारा। महाभारत में जिसने चार अक्षौहिणी सेना विरूद्ध पक्ष को देकर नष्ट होने दी। जिसने गांधारी के क्रोध और ‘तुम्हारे भी कुल का सर्वनाश हो जाय’, इस दारूण शाप को हँसते हुए सिर-माथे पर लगाया, कहा, ‘तुम्हारे ज्ञान चक्षु होते तो तुम समझतीं कि हर बार मैं ही मरा हूँ।‘
उसके बाद अपने यादव वंश को अपने सामने नष्ट होते देखा। कुल की ललनाओं का अपहरण हो गया, उन्हें महाबली अर्जुन भी न बचा सके और जिस परम वीर की मृत्यु जंगली जंतु की भॉंति व्याध के हाथों हुई।
इस संकटापन्न जीवन में सदा धर्म की मर्यादा बनाए रखी, उसी के अनुगामी बने। सर्वदा उसी का समर्थन। हँसते-हँसते महाविपत्तियों को झेला। मानो महाकाल को भी चुनौती दी। युद्ध न हो, यही सतत प्रयत्न; पर जब युद्ध अवश्यंभावी दिखा तो विजय की कामना ही मूल मंत्र बनी। जिसने ‘गीता’ में समस्त वेद- उपनिषदों का सारतत्व गाया, भारतीय दर्शन का चरम सत्य समझाया। नृत्य, गान आदि ललित कलाओं का प्रवर्तक; सौंदर्य, माधुर्य, भक्ति और प्रेम रस की खान, वह योगेश्वर बना। कितना विरोधाभास और विसंगतियॉं आईं, द्वंदात्मक परिस्थितियॉं उभरीं; पर उनके बीच से निष्पाप निकलने का मार्ग बनाया। रामावतार विष्णु की बारह कलाओं का था पर सभी सोलह कलाओं से युक्त विष्णु का पूर्णावतार, ऐसा था श्रीकृष्ण का चमत्कारिक जीवन।
उनके बचपन में ब्रज में इंद्र की पूजा होती थी, जो वर्षा से पृथ्वी को सिंचित करता था। बालक कृष्ण ने कहा, ‘होंगे इंद्र स्वर्ग के राजा, उनसे बड़ी तो हमारी गोवर्द्धन पहाड़ी है, जिसने हमारी गायों को बड़ा किया। पूजा करनी है तो उसी की करो।‘
फिर क्या था, ब्रज में उस वर्ष इंद्र के स्थान पर गोवर्द्धन की पूजा हुई। तब इंद्र ने कुपित होकर घनघोर वर्षा की। सारी पृथ्वी जल-प्लावित हो गई। सब भागकर कृष्ण के पास गए। तब कृष्ण ने कहा, ‘चलो, गोवर्द्धन के पास चलें। उसकी पूजा की है, वही रक्षा करेगा।‘
कहते हैं कि सबने मिलकर उठाया तो पर्वत भी उठ गया। उसके नीचे सबने शरण ली। उस एक सप्ताह की घटाटोप वर्षा और कीचड़ से गोवर्द्धन ने व्रजवासियों तथा उनकी गायों को त्राण दिया। इस प्रकार कृष्ण ने जीवन में कृति से बताया कि स्वर्ग के राजा से अपनी मातृभूमि की छोटी सी वस्तु भी बड़ी है। यदि मिलकर काम करें तो पहाड़ भी उठ जाए; कौन सा ऐसा दु:साध्य कार्य है जो सरल नहीं हो जाता।कृष्ण गोवर्धन पर्वत उठाये हुऐ
कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों की की कथा
श्रीमद्भागवत में उस समय का रूपक है— ‘लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भार से धरती को आक्रांत कर रखा था। उसने गौ का रूप धारण किया। (संस्कृत में गो का अर्थ पृथ्वी भी होता है।) उसके नेत्रों से ऑंसू बहकर मुँह में आ रहे थे। मन खिन्न था और शरीर कृश हो गया था। वह करूण स्वर से रँभा रही थी।‘
परंतु एक-एक कर सभी कष्ट- बाधाओं का कृष्ण के द्वारा, स्वयं अथवा किसी को उपकरण बनाकर, निराकरण हुआ और धर्म का राज्य आया।
राधा कृष्ण का चित्र विकिपीडिया से और उसी की शर्तों में
उनके जीवन में ‘धर्म’ अर्थात विधि (कानून) के प्रवर्तन का शुभ कार्य अनेक कल्पनाओं में फँसकर एक-दो बार निंदा-अपवाद बना। भौमासुर (नरकासुर) ने सोलह हजार एक सौ सुंदरी राजकन्याओं को पकड़कर अपनी राजधानी प्राज्योतिषपुर के बंदीगृह में डाल रखा था। कृष्ण ने चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी विदीर्ण कर, शस्त्रों की मोरचाबंदी को छिन्न-भिन्न कर, जल से भरी खाई पार कर, अग्नि, बिजली और गैस की चारदीवारियों को तहस-नहस कर, उस नगर के चारो ओर दस हजार फंदों और यंत्रों को काटकर नगर के परकोटे का घ्वंस कर दिया। घनघोर युद्घ में भौमासुर को मारकर उन स्त्रियों का उद्घार किया। उन स्त्रियों ने कहा, 'जैसे हम कोई संपत्ति हो, भौमासुर ने पाशविक बल से हमारा अपहरण किया। समाज की दृष्टि में हम पतित हैं। हम कहां जाएं?'
तब कृष्ण ने उत्तर दिया, 'यदि भौमासुर तुम्हें संपत्ति समझता था तो उसकी पराजय पर तुम मेरी हो। कौन कहेगा कि मेरे द्वारा अंगीकार करने पर तुम पवित्र और सम्मान के योग्य नहीं हो?'
समाज में उनको उचित स्थान दिलाने का कार्य कृष्ण ने किया। यह कृष्ण की कथित सोलह हजार एक सौ रानियों का प्रवाद है।
महाभारत में, कृष्ण की धर्म शिक्षा महाभारत युद्घ को लेकर ऎसा ही एक वितंडा है। कृष्ण ने कहा, 'धर्म की संस्थापना के लिए मैंने जन्म लिया है।' ('परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।')
इसलिए महाभारत युद्घ धर्मयुद्घ कहा जाता है। उसमें पांडवों का धर्म का पक्ष है और कौरवों का अधर्म का। पर कौरवों के प्रथम सेनापति भीष्म ने नौ दिन तक पांडवों की सेना में भयंकर संहार मचाया। भीष्म ने घोषणा की थी - 'पांडवों के रथी शिखंडी पर मैं हथियार नहीं चलाऊंगा; क्योंकि वह पूर्वजन्म में स्त्री था। किसी स्त्री के ऊपर अस्त्र चलाना वीर के लिए वर्जित है, अधर्म है।'
जब तक भीष्म के हाथ में अस्त्र-शस्त्र थे, उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। तो कृष्ण की मंत्रणा से दसवें दिन भीष्म के विरूद्घ शिखंडी को सामने किया गया। भीष्म ने यह देख अपने हथियार डाल दिए। तब महावीर अर्जुन ने मानो स्त्री के पीछे छिपकर अपने दृढ़प्रतिज्ञ पितामह को बाणों से बींध डाला। किसने किया धर्म का पालन ? भीष्म ने, जिन्होंने उसके पीछे प्रच्छन्न शत्रु होने पर भी प्रतिरोध नहीं किया, क्योंकि शिखंडी पर वार करना अधर्म था; या अर्जुन ने, जिसने कृष्ण के कहने पर नीति-विरूद्घ छिपकर पीछे से अपने पितामह को युद्घभूमि में शर-शय्या प्रदान की?
कौरवों के दूसरे सेनापति हुए द्रोणाचार्य। वह जानते थे कि उनका पुत्र चिरजीवी है। परंतु पांचवें दिन कृष्ण ने अफवाह फैलाई- 'अश्वत्थामा मारा गया।'
अश्वत्थामा नामक हाथी मारा गया था। तब द्रोण ने युधिष्ठिर से पूछा, 'क्या यह सच है?'
पूर्व मंत्रणा के अनुसार सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, 'अश्वत्थामा हतो (मारा गया)',
परंतु इसके पहले कि वे 'नरो वा कुंजरो वा' कह सकते, कृष्ण ने शंख बजा दिया। बाद का वाक्यांश उस नाद में खो गया। द्रोणाचार्य पुत्र-शोक में डूब गए और धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट लिया। अर्द्घ सत्य (अथवा झूठ कहें क्या?) पर आधारित घटना या सत्यवादी युधिष्ठिर की असत्य का आवरण ओढ़े प्रतिध्वनि।
अर्जुन को गीता का ज्ञान देते समय, कृष्ण अपने दिव्य रूप दिखाते हुऐ
तब कौरवों ने सेनापति के रूप में वरण किया कर्ण का। कृष्ण ने कुंती से युद्घ के पहले कर्ण को कहलवाया था, 'तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो।'
और उससे अर्जुन के अन्य भाइयों को न मारने का वचन लिया था। इसी से अवसर पाकर भी कर्ण ने दूसरे भाइयों को छोड़ दिया। ब्राम्हण का वेश धरकर इंद्र ने उससे कवच-कुंडल मांगे, जो जन्म से उसे मिले थे। सूर्य के मना करने पर भी, 'मैं दानवीर हूं',
इसलिये उसने वे कवच-कुंडल दे दिए। उसका सारथि शल्य ताने कसकर उसका उत्साह भंग करता रहा। अंत में कृष्ण कर्णार्जुन के घनघोर युद्घ को उस ओर घसीट ले गए जहां दलदल था। कर्ण के रथ का पहिया उसमें फंस गया। तब कर्ण ने धनुष-बाण त्याग कर युद्घ के नियमों का आह्वान करते हुए अर्जुन से कहा, 'मैं शस्त्र -त्याग करता हूं। धर्मानुसार कुछ छणों के लिए युद्घ बंद करो। मैं रथ का पहिया निकाल लूं।'
जब वह रथ का पहिया निकाल रहा था तब कृष्ण ने कहा, 'कर्ण, कहां था तुम्हारा धर्म का विचार जब तुम्हारे साथ दुर्योधन, दु:शासन और शकुनि द्रौपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए दरबार में लाए? तब धर्म था क्या जब तुम लोगों ने युधिष्ठिर को फुसलाकर जुए में छल-कपट किया? यह भी धर्म है, जब बारह वर्ष वनवास और तेरहवें वर्ष अज्ञातवास में रहने के बाद उनका राज्य उन्हें देने से इनकार करते हो? तुम्हारी धर्मबुद्घि तब कहां थी जब लाक्षागृह में सब भाइयों को जलाने का यत्न किया गया? अकेले और निहत्थे अभिमन्यु को जब तुम सबने मिलकर मार डाला तब कहां गया था तुम्हारा क्षात्रधर्म और न्याय-व्यवहार?'
कर्ण ने अमोघ अस्त्र का मंत्र दोहराना चाहा, पर उसकी स्मृति लुप्त हो गई। कृष्ण ने कहा, 'क्या देख रहे हो, अर्जुन? आततायी शत्रु के हनन का यही समय है।'
अनिच्छा से ही सही, पर कृष्ण की बात पर अर्जुन के बाण से कर्ण का सिर भू-लुंठित हो गया। महाभारत में उल्लेख है कि सभी ने अर्जुन के इस अन्यायपूर्ण कृत्य की निंदा की, पर कृष्ण ने उसकी जिम्मेदारी स्वयं ली।
दुर्योधन ने सुना तो उसे अपार दु:ख हुआ। उसके भाई, बड़े-बड़े योद्घा, भूपति मारे जा चुके थे। तब शल्य को कौरवों का सेनापति चुना गया। जब शल्य भी युद्घ में खेत रहा और दुर्योधन के शेष भाई मारे गए तब अपनी पराजित सेना की पुन: एकजुट न कर पाने पर विवश, वह अकेल मानो तप्त शरीर को ले व्यास ताल में छिप गया। पीछा करते पांडवों की ललकार पर वह बाहर आया।
दुर्योधन ने कहा, 'एक-एक कर आओ, मैं तुम सबको देख लूंगा। निश्चय ही तुम सब एक साथ आक्रमण न करोगे; क्योकि मैं एकाकी, कवचविहीन, थका और घायल हूं।'
युधिष्ठिर ने कहा, 'मिलकर अकेले को मारना यदि अधर्म था तो निहत्थे अभिमन्यु पर कैसे सभी महारथी मिलकर टूट पड़े? दुर्भाग्य के समय घर्म का पर-उपदेश लोग देने लगते हैं। पर तुम हममें से किसी को चुन लो और युद्घ करो। उसमें मृत्यु को पाकर स्वर्ग पाओ अथवा जीतकर राज्य लो।'
यदि दुर्योधन चाहता तो नकुल या सहदेव को चुनकर विजयी बनता; पर कृष्ण के ताने पर उसने अपने जोड़ीदार भीम को चुना। उस बराबरी के युद्घ में एकाएक कृष्ण ने अर्जुन से कहा, 'भीम दुर्योधन की जंघा विदारकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करेगा।'
तब भीम के मन:चक्षुओं में द्रौपदी का अपमान तथा धृतराष्ट्र के दरबार की प्रतिज्ञा पुन: कौंध गई। वह दुर्योधन पर टूट पड़ा और गदा से उसकी दोनो जांघें तोड़ डालीं। दुर्योधन पृथ्वी पर गिर पड़ा और भीम निपातित दुर्योधन के ऊपर बीभत्स नृत्य कर उठा।
युद्घ अवश्यंभावी देख एक बार गांधारी ने दुर्योधन को उस रूप में जैसा वह पैदा हुआ था, सायंकाल में आने को कहा। कृष्ण ने देखा तो दुर्योधन से कहा, 'अरे, तुम्हारी मां है तो क्या हुआ, ऎसे नंगे जाओगे?'
तब लज्जावश दुर्योधन ने कमर में वल्कल लपेट लिया। गांधारी ने आंखों से पट्टी क्षण भर के लिए खोली। शरीर के जितने भाग में गांधारी की दृष्टि पड़ी, वह भाग पत्थर-सा कठोर हो गया। पर वल्कल से ढका जांघ का भाग वैसा ही रह गया। यह कृष्ण को पता था।
पर गदायुद्घ में नाभि के नीचे प्रहार वर्जित था। जब दुर्योधन-भीम का युद्घ हो रहा था तभी तीर्थाटन कर बलराम वहां आए। बलराम ने क्रोध में कहा, 'धिक्कार है सबको, जो खड़े देख रहे हैं इस अधर्म को। मैं सहन नहीं कर सकता इसे।'
हलधर अपना हल उठाकर भीम की ओर बढ़े। तभी कृष्ण ने बीच में पड़कर कहा, 'भीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। पर विचारें वे अत्याचार और अधर्म, जो निर्दोष और निष्पाप पांडवों पर बरपे गए।'
सभी घटनाओं का स्मरण उन्हें मनवा न सका, पर उनका क्रोध शांत हो गया। यह प्रश्न शेष रहता है कि किसने किया धर्म का पालन? दुर्योधन ने, जिसने नकुल-सहदेव को छोड़ भीम को ही युद्घ के लिए चुना; अथवा भीम ने, जिसने गदायुद्घ के नियमों को तिलांजलि दे दुर्योधन की जांघ पर वार किया? धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य- ये सनातन प्रश्न हैं। पर कृष्ण का एक उत्तर है। जिन्होंने व्यक्तिगत अहम्मन्यता के वश होकर, जिसके द्वारा समाज की धारणा हो, उस धर्म की अवहेलना की उन्होंने आचार-व्यवहार के एक छोटे व्यक्तिगत अंश का पालन किया होगा। भीष्म पितामह ने कहा, मैं स्त्री के विरूद्घ हाथ नहीं उठाऊंगा । द्रोणाचार्य, यह जानकर भी कि अश्वत्थामा चिरजीवी है, पुत्र-शोक में विह्वल वेशधारी इंद्र को कवच-कुंडल के दान से कैसे इनकार करते। दुर्योधन भीम से ही लड़ेगा, इस घमंड ने भीम को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया। युद्घ में अधर्म पनपता है। आततायी का हनन और धर्म पक्ष की विजय-कामना-यह समाज-धर्म है और यही शाश्वत है।
युद्घ के श्रीगणेश के समय कृष्ण ने कहा, 'जिधर धर्म है उधर मैं रहता हूं।'
पर अंत में जो करके दिखाया, 'जिधर मैं हूं (अर्थात् जिधर भगवान् का व्यक्त स्वरूप समाज की जीवनी शक्ति है) उधर धर्म है।'
कृष्ण ने बताया, 'जो व्यक्तिगत भावना के वश कार्य करते हैं, पर-समाज की हानि करते हैं वे अधर्म के राही हैं। पांडवों का पक्ष धर्म का था, क्योंकि वह मानव-कल्याण का मार्ग था।'
कृष्ण की मृत्यु और कलियुग की प्रारम्भ महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई। (एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, १,०९,३५० पैदल और ६५,६१० घुड़सवार होते थे।) कहते हैं, इसमें ज्ञात संसार के अनेक देशों और जातियों ने भाग लिया। धरती का वह भाग श्मशान तथा मरूभूमि हो गया। ब्रम्हास्त्र (आणविक अस्त्र) तथा आग्नेय अस्त्रों के प्रयोग ने धरती और उस पर सभी कुछ जला डाला। यह भयानक संहार का मूक साक्षी संभवतया थार का मरूस्थल है। जो भी हो, उसके बाद राजस्थान (भारत) के क्षेत्र में भौमिकीय उथल-पुथल होती रही। सरस्वती नदी, जो पश्चिम की ओर बहकर प्रभाकर प्रभासक्षेत्र में समुद्र में मिलती थी और लहलहाती वनस्पति से भरी शस्य-श्यामला उर्वरा भूमि सूख गई और रेगिस्तान निकल आया।
कृष्ण ने कहा,
'मेरा अभी एक काम शेष है। ये यदुवंशी बल-विक्रम,वीरता-शूरता और धन-संपत्ति से उन्मत्त होकर सारी पृथ्वी ग्रस लेने पर तुली हैं। यदि मैं घमंडी और उच्छृंखल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किए बिना चला जाऊंगा तो ये सब मर्यादाओं का उल्लंघन कर सब लोकों का संहार कर डालेंगे।'
अंत में कृष्ण के परामर्श से सब प्रभासक्षेत्र में गए। वहां मदिरा में मस्त हो एक-दूसरे से लड़ते 'यादवी' संघर्ष में वे नष्ट हो गए। मानवता का अंतिम कार्य भी पूरा हुआ। बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली। यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों के अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई। आज भी आधुनिक द्वारका से रेल से ओखा और वहां से जलयान द्वारा 'बेट द्वारका' पहुंचते हैं। तब द्वीप के पहले, यदि सागर शांत हो तो, तल में डूबी कृष्ण की द्वारका देखी जा सकती है।
कृष्ण की जीवन-लीला समाप्त होते ही कलियुग आया। यह घटना विक्रमी संवत् से ३०४४ वर्ष पहले की है। युधिष्ठिर के राज्य का अंत होते कलिकाल का पदार्पण हो चुका था। उसके उत्पात भी प्रारंभ हो गए। अपशकुनों के बीच जब युधिष्ठिर को कृष्ण के निधन का समाचार मिला तब पांडवों ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज्य सौंपकर द्रौपदी सहित स्वर्ग (त्रिविष्टप : आधुनिक तिब्बत) पहुंचने के लिए मानसरोवर की यात्रा की। कुत्ता मानव का साथी रहा है, उसी प्रकार धर्म हिमालय यात्रा में वह उनके साथ चला।
परीक्षित ने कलियुग को बांधने और उसके उत्पातों को क्षीण करने का यत्न किया। अंत में सर्पदंश से उनकी मृत्यु हो गई। इसलिये उनके पुत्र जन्मेजय ने मानवता के कल्याण के लिए सर्प-संहारक 'नागयज्ञ' किया। भ्रामक पूर्व धारणाएं कैसी कल्पनाओं को जन्म देती हैं, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। 'आर्य कहीं बाहर से आए' इस भूमिका ने इस नागयज्ञ की एक विचित्र व्याख्या को जन्म दिया, जो हिंदी के प्रसिद्घ साहित्यकार जयशंकर प्रसाद के नाटक 'जन्मेजय का नागयज्ञ' में देखी जा सकती है।
जन्मेजय के नागयज्ञ का यह चित्र, कृष्णा डाट कॉम के सौजन्य से है
मेरे बाबा जी कहते थे, यह 'मथुरा' शत्रुघ्न ने बसाई होगी, पर यह कंस की मथुरा नहीं है।
वह किंवदंतियों से अरब प्रायद्वीप के उत्तर-पूर्व की नदी, जो पास में रत्नाकर (सिंधु सागर) में गिरती है, के तट पर बसे नगर को कंस की मथुरा बताते थे। प्राचीन भू-चित्रावली में यह नगर और नदी 'मथुरा' और 'यमन' के नाम से प्रसिद्घ थे। संसार की किंवदंतियां इसी प्रकार ग्रथित हैं। ऎसा भी हो सकता है कि भारतीय संस्कृति से प्रभावित इन क्षेत्रों के निवासियों ने अपनी मथुरा और यमुना बना ली हो। सागर तट पर बसी द्वारका पश्चिम से भारत आने का द्वार थी ही।
संसार में फैले राम और कृष्ण की लीला के चिन्ह अभी अनखोजे हैं। ये चिन्ह भारत में ही नहीं, संपूर्ण एशिया में, मध्य-पूर्व में, भूमध्य सागर के चारों ओर और सुदूर मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग में-जो प्राचीन सभ्यताओं की पृथ्वी को घेरती मेखला थी-में किसी-न-किसी रूप में फैले हैं। ये विष्णु के अथवा अन्य मंदिरों के रूप में हैं, अथवा प्राचीन मंदिरों में उत्कीर्ण कहानियों में विष्णु के प्रारंभिक अवतारों की झलक मिलती है। दुर्भाग्य से उनका संबंध उनके मूल और अखंड प्रेरणा के स्त्रोत भारत से छूट गया। दुर्दैव से कालांतर में भारत गुलाम होकर संकुचित हो गया। आज सारे संसार में फैली मेखला में भारतीय संस्कृति के अवशिष्ट चिन्हों का अर्थ, हेतु और व्याख्या यूरोपीय विद्वान खोजते हैं; पर भारतीय लोक-गाथाओं से अनभिज्ञ होने के कारण, स्पष्ट होने के बाद भी वे सांस्कृतिक प्रतीक एवं चिन्ह उनकी समझ से बाहर हैं।
बौद्ध धर्मवेदव्यास के पुत्र शुकदेव के मुख से विष्णु के अवतारों की गाथा परीक्षित ने सुनी थी। वह 'भागवत पुराण' में संगृही है। यह बुद्घ के जन्म से पहले कही गई। इसलिए इसमें केवल उल्लेख है, 'फिर आगे चलकर भगवान् ही बुद्घ के रूप में प्रकट होंगे और यज्ञ के अनधिकारियों को यज्ञ करते देख अनेक प्रकार तर्क-वितर्क से उन्हें मोहित कर लेंगे।'
महाभारत के जागतिक युद्घ के बाद संसार में शांतिपर्व आया, जिसमें सभ्यता के चरण अबाध आगे बढ़े। लगभग २५०० वर्ष बाद विक्रम संवत् पूर्व सातवीं तथा छठी शताब्दी को विश्व इतिहास में 'जागरण काल' कहा जाता है। भारत में यह गहन विचार-मंथन का युग था। इस समय महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। अनेक विद्वान् (ब्राम्हण) तथा श्रमण हुए, जिन्होंने आमूल चिंतनस कर विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया। उनमें कई ने परिव्राजक अथवा यायावर जीवन अपनाया। इन श्रमण संप्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्घ तथा जैन आगम (मान्य ग्रंथ) में है और जैन तथा बौद्घ मतों के प्रणेता महावीर एवं बुद्घ के प्रवचनों में उनकी आलोचना। वास्तव में जैन तथा बौद्घ दो प्रमुख श्रमण संप्रदाय माने जाते हैं।
उस समय के दर्शन में विभिन्न मतों का वर्णन करते समय दो शब्दों का प्रयोग आता है। आज उनके अर्थ भिन्न हो गए हैं। 'आस्तिक' उस परंपरा को कहते थे जो वेद को अकाट्य प्रमाण माने। मनु ने 'नास्तिक' वेद निंदक को कहा है। उसका अर्थ 'निरीश्वरवादी' नहीं था। परंतु स्व-अनुभव अथवा तर्क के आधार पर अपने मत का प्रतिपादन करने वाले संप्रदायों ने भी वेद आदि ब्राम्हण (अर्थात् विद्वानों के) ब्रम्ह विषयक ग्रंथों से कुछ अंश ग्रहण कर अपने पंथ में प्रमुखता दी। ब्राम्हण ग्रंथ अर्थात् विद्वानों द्वारा रचित ब्रम्ह विषयक ग्रंथ। इसका अर्थ कोई जाति विशेष (ब्राम्हण) द्वारा अथवा उनके लिखित ग्रंथ नहीं हैं। वास्तव में प्राचीन स्मृतिकारों में विरले ने ही, जिसे आज ब्राम्हण कुल कहा जाय, में जन्म लिया। इसलिये मनीषा समझे बिना और उस समय का अर्थ जाने बिना शब्दों का ठप्पा लगाना गलत है। वैसे इन श्रमण संप्रदायों को बुद्घ ने 'अनधिकृत' (heretic) कहा है।
इन श्रमण धार्मिक प्रवृत्तियों में कुछ समान लक्षण पाए जाते हैं। यह बौद्घिक विकास का समय था, इसलिये केवल वेद-वाक्यों को प्रमाण न मानकर तर्क से तथा अनुभूति से समझने का यत्न हुआ। अपने संप्रदाय में उन्होंने सभी लोगों को बिना वर्ण या आश्रम का विचार कर सम्मिलित किया। इसी से कुछ लोग जैन एवं बौद्घ पंथों को सुधारवादी कहते हैं, जो उनकी स्वयं की धारणाओं के विपरीत हैं। श्रमण संप्रदाय विशिष्ट नैतिक सिद्घांतों का पालन करते थे। साधारणतया ये सांसारिक जीवन से दूर निवृत्ति मार्ग के अनुगामी थे। इनमें कोई भी वयस्क घर-द्वार त्याग परिव्राजक बन सकता था। ब्रम्चर्य (वेदाध्ययन एवं ज्ञानार्जन का समय) का अर्थ भिक्षाटन रह गया। ये श्रमण संप्रदाय अपने प्रणेता के नाम से जाने जाते हैं। चिंतन के अनेक फलक प्रदर्शित करते, जैन एवं बौद्घ दर्शन की भूमिका समझने के लिए, ये इतिहास के विशिष्ट पन्ने हैं।
वैदिक चिंतन जगत् के मूल तत्व की खोज है। एक 'पुरूष' तत्व है, निष्क्रिय, पर जिसके बिना सृष्टि संभव नहीं। दूसरी ओर पदार्थ (matter) अथवा प्रकृति का मूल तत्व या उपादान, जिससे यह सारी सृष्टि रचित है, कौन है? इसकी खोज। तीसरी दिशा है सृष्टि में परिवर्तन की नियमितता देखकर आत्मा-शरीर तथा कर्मफल के संबंधों का निरूपण। इसलिए कर्मवाद इस चिंतन का एक अभिन्न भाग बना। पर कर्मवाद से अनेक जटिल प्रश्न उठते हैं। इसका हल श्रमण संप्रदायों में मुक्त चिंतन द्वारा खोजने का यत्न हुआ। संसार का यह विचार-मंथन का समय, इसमें कितने प्रकार की विचारधाराएं श्रमण संप्रदायों द्वारा फली-फूलीं, इसे देख आश्चर्य होता है।
इन विचाराधाराओं और प्रवर्तकों के नाम व जानकारी, साधारणतया उनके आलोचकों की, जैन-बौद्घ साहित्य अथवा तमिल एवं चीनी साहित्य की देन है। कैसे निर्भीक चिंतक थे। अपने तर्क पर विश्वासी, सिद्घांतवादी और अपने नैतिक मूल्यों के पालनकर्ता। अपने चिंतन की छाप उन्होंने छोड़ी। इस प्रकार के छह (अथवा दस?) प्रमुख श्रमण संप्रदाय कहे जाते हैं, जिनका चीनी अथवा तमिल साहित्य में भी वर्णन है। उसमें इन श्रमण आचार्यों के दर्शनों के अनेक नाम दिए गए। 'कालवाद', 'भौतिकवाद' (materialism), 'नियतिवाद', 'ज्ञानवाद', 'शाश्वतवाद', 'उच्छेदवाद', 'संशयवाद' (scepticism) आदि। ऎसा है यह बहुदर्शी बौद्घिक पट। अधिकांश विचारक जन्म से पुनर्जन्म के संचरण को दु:खमय तथा कर्मफल के अधीन मानते थे। किंतु जीव, कर्म, मोक्ष आदि सभी विषयों में अनेक उनझे मतभेद थे।
पूर्ण काश्यप 'अक्रियावाद' अथवा 'अहेतुवाद' के प्रवक्ता थे। वैसे आज के वैज्ञानिक विकास की प्रक्रिया को 'अहेतुक' ही कहते हैं। फिर 'आजीविक' थे, जिस संप्रदाय में 'शील' के अनुपालन पर विशेष बल दिया जाता था। 'आजीविक' संभवतया इसलिए कि गृहविहीन होकर भी आजीविका कमाने को महत्व देते थे, जिसमें फलित ज्योतिष, शकुन-अपशकुन, फलाफल का विचार और मार्गदर्शन सम्मिलित था -और थे घोर भौतिकवादी। केशकंबली अर्थात् (केशों का कंबल धारण करने वाले) का विश्वास पुनर्जन्म पर न था। बेलद्विपुत्र 'संशयवाद' के आचार्य थे, जिसमें सापेक्षवाद का जन्म हुआ। 'चार्वाकपंथी' अथवा जिन्हें 'लोकायत' (केवल इस लोक पर विश्वास रखने वाले) कहते हैं, वे भी बुद्घ के समय थे। इसलिए बुद्घ ने 'धम्म' (धर्म) का, बीच का मार्ग अपनाने को कहा।
इनके अतिरिक्त जैन एवं बौ मत भी श्रमण परंपरा के अंग कहे जाते हैं। वर्द्घमान (जो बाद में महावीर कहलाए) और सिद्घार्थ ( जो बुद्घ कहलाए) जैसे मत-प्रवर्तकों ने इसी कालखंड में जन्म लिया। इनके दर्शन ने एशिया और अंततोगत्वा सारे संसार को प्रभावित किया। बौद्घ ग्रंथों ने जैनियों के अंतिम तीर्थंकर (जो भवसागर को पार करने के लिए तीर्थ अर्थात् घाट बनाए) महावीर को 'निर्ग्रंथ ज्ञतृपुत्र' कहा है। निर्ग्रंथ (सब प्रकार की गांठों-बंधनों से मुक्त) मार्गी, जिन्होंने ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय कुल में जन्म लिया।
विचार-स्वतंत्रता का यह अद्भुत प्रस्फुटन एक जीवंत, प्रखर तथा बुद्घिमान समाज की निशानी थी, जैसा संभवतया संसार की किसी अन्य सभ्यता में नहीं हुआ (सुकरात को ऎसी परिस्थिति में मृत्युदंड दिया गया)। इससे भी बढ़कर सभी विचारों के प्रति सहिष्णुता तथा उदारता, उन्हें समझने का यत्न। एक-दूसरे के प्रति मत-भिन्नता रहते हुए भी द्वेषरहित भाव। आपस में बिना कोई दुर्भाव लाए विचार-विनिमय तथा मंथन, परस्पर विरोधी विचारों एवं मान्यताओं का सह-अस्तित्व। यह सभ्यता का चरमोत्कर्ष है। ऎसे समय में इन श्रमण संप्रदायों के विचार-आलोड़न के बीच उनकी परंपराओं के घ्रुवीकरण में दो प्रमुख मतों-जैन और बौद्घ का जन्म हुआ। यह उनका नवनीत था।
एक समृद्घ, समुन्नत और शांति के वातावरण में जहां मानव-मानव एवं मानव-प्रकृति के संबंधों को समझने और निर्धारण करने की अखंड परंपरा तथा व्यवहार चला आया वहां ही महावीर तथा गौतम बुद्घ सरीखे महापुरूषों का जन्म हो सकता था।
जैन धर्म जैन परंपरा के अनुसार उनके प्रथम तीर्थंकर (प्रवर्तक अथवा शास्त्रकार) ऋषभदेव थे, जिनका उल्लेख भागवत पुराण में (एकादश स्कंध के चतुर्थ अध्याय में) विष्णु के एक अवतार के रूप में आता है। उन्होंने आत्म-साक्षात्कार के साधनों का उपदेश दिया। महाभारत युद्घ के समय जैन मत के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे। नाथ संप्रदाय के लोग नेमिनाथ को अपना आदि आचार्य मानते हैं। और अंत में चौबीसवें तीर्थंकर महावीर गौतम बुद्घ के समकालीन कहे जाते हैं।
ऋषभदेव, पहले तीर्थंकर
शांति के बहुत बड़े कालखंड में भी महाभारत युद्घ की त्रासदी भूली नहीं होगी। वह वेदव्यास की वाणी में गूंजती रही और सैनिक वृत्ति थी ही। भारत में चारों ओर फैले छोटे गणराज्य (republics) थे, जिनमें खेल-कूद, सैनिक शिक्षण, शौर्य का प्रदर्शन वस्तुत: अनिवार्य था। यही सब और शास्त्रों का ज्ञान प्रमुख (राजा) के चयन का आधार था। तब इसे संयोग कैसे कहें कि जैन मत के सभी चौबीस तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय परिवार अर्थात् सैनिक परंपरा में हुआ; किंतु 'अहिंसा' जैनियों का मूल मंत्र बना। यह कैसे हुआ कि सिद्घार्थ गौतम (जो बुद्घ बने) का जन्म भी सैन्य वृत्ति करने वाले क्षत्रिय कुल में हुआ और उन्होंने भी 'अहिंसा' अपनाई। यह किसी युद्घ की विभीषिका की प्रतिक्रिया न थी। यह तो थी नचिकेता सरीखी जिज्ञासा, जिसने वेद वाक्य को भी चुनौती दी और था समाज तथा जीवन -मृत्यु के रहस्य उद्भासित करने की तीव्र आकांक्षाजनित का फल। इससे भारत में सभ्यता एवं संस्कृति के उत्कर्ष की कल्पना की जा सकती है, जैसा संसार में अन्य कहीं, कभी नहीं हुआ। प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष द्वारा शिव को शाप देने पर पुरोहित हंसे थे, तब नंदी का पुरोहितों को बदले में दिया गया शाप सच हो आया। पुरोहितों में सांसारिक वस्तुओं के भोग की प्रवृत्ति जगी। वे कर्मकांडी रह गए; जीव हत्या करते और यज्ञ में बलि चढ़ाते। सिद्घान्त से जन्म-मरण और पुनर्जन्म का चक्र प्राणियों को मानव के साथ जोड़ता है। (जातक कथाएं बुद्घ की पशु-पक्षी के रूप में पूर्वजन्म की गाथाएं हैं।) इसलिए जनमानस में पशुबलि पर आपत्ति स्वाभाविक थी। महावीर ने कहा, 'जीव, वनस्पति और जड़ वस्तुओं के प्रति भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। वेद के नाम पर दी जाने वाली बलि निरर्थक है।' स्पष्ट ही यह अहिंसा बलवान की थी। उनकी, जिन्होंने इच्छाशक्ति से इंद्रियों पर विजयी हो संयम सीखा तथा भोग्य वस्तुओं को त्याग निवृत्ति मार्गी बने। वर्द्घमान (जो महावीर कहलाए) का जन्म वैशाली (आधुनिक बसढ़, बिहार) के पास कौंडिन्यपुर (क्षत्रियकुंडपुर ग्राम) के प्रमुख के घर, वैशाली के लिच्छवि गणराज्य के राजा की पुत्री त्रिशला देवी की कोख से हुआ था। क्षत्रियों के योग्य शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनके चिंतनशील मन को जगत् असार लगने लगा। विवाह एवं पुत्री के जन्म के बाद अट्ठाईस या तीस वर्ष की अवस्था में घर-द्वार छोड़ संन्यासी बने। तब बारह वर्ष तक घोर तपस्या एवं साधना की। अनेक वर्ष वस्त्र त्यागकर नग्न बिताए। अज्ञानियों के हाथों तिरस्कार एवं कष्ट झेले; पर मन में विषाद, क्रोध आदि न आने दिया। किसी जीव और जड़ को उनके द्वार पीड़ा न पहुंचे, इसका सतत प्रयत्न किया। जीवन में उन सिद्घांतों को उतारा जो जैन मत का मूल चिंतन था। तब उन्हें कैवल्य - अर्थात् संशय तथा भ्रमरहित ज्ञान - प्राप्त हुआ। वह महावीर बने। 'जिन' का अर्थ विजेता है- अर्थात् जिसनसे मोह, राग-द्वेष आदि आत्मा के शत्रुओं पर विजय प्राप्त की हो। ऎसे जो तीर्थंकर 'जिन' हुए उनके अनुयायी 'जैन' कहलाए। वर्द्घमान का परिवार तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जो उनके लगभग २५० वर्ष पहले हुए, का अनुयायी था। उन्हीं के अनुगामी बने। अपने निर्ग्रन्थ (गांठरहित अर्थात् बंधनों से मुक्त) मत के प्रचार के लिए महावीर ने बिहार तथा उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर विहार (भिक्षुओं के मठ) स्थापित किए। उन्होंने जैन समुदाय को संगठित किया। मत में दीक्षित करने के लिए सरल पद्घति अपनाई और उसमें सम्मिलित होने के आकांक्षी स्त्री-पुरूष-सभी को लिया, चाहे वे जिस वर्ण के हों। वर्ण-भेद को कर्मणा माना। पार्श्वनाथ ने प्रत्येक जैन को चार व्रत अपनाने को कहा-अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना; पर निरी आवश्यकता से अधिक रखना भी चोरी मानी) और अपरिग्रह (शरीर के लिए जितना आवश्यकता हो उससे अधिक न लेना) । पर महावीर ने अंतिम व्रत अपरिग्रह को दो भागों में विभाजित कर दिया--ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह। उनका पंचाणुव्रत संप्रदाय कहलाया। अहिंसा- अर्थात् जीव, वनस्पति और जड़ वस्तुओं, सभी के प्रति कर्म, वचन और मन से अहिंसा का भाव रखना। यह जैनियों का मूल मंत्र है। महावीर ने कहा, 'सजीव-अजीव किसी को पीड़ा पहुंचाने के अतिरिक्त काम-भोगों में आसक्ति भी हिंसा है, इसलिए सच्ची अहिंसा क्रोध, राग-द्वेष आदि विकारों पर विजय, इंद्रिय-दमन और समस्त कुवृत्तियों को त्यागने में है।' द्वितीय, कर्म का सिद्घान्त,जिसे सर्वोपरि माना। मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है, क्योंकि अच्छे-बुरे कर्मों का फल अवश्य मिलता है। सत्कर्मों द्वारा मनुष्य अपने विकास के चरमोत्कर्ष को पहुंच सकता है और यही ईश्वर है। इस प्रकार सब भेदभावों को मिटा, मानव के लिए निर्ग्रंथ राग-द्वेषरहित होने को मोक्ष (सृष्टि के प्रपंच से मुक्ति) का मार्ग बताया। जैन दर्शन का तीसरा आधार 'अनेकांतवाद' है। इसे अहिंसा का व्यापक रूप कह सकते हैं। यह वैचारिक सह-अस्तित्व की घोषणा है। एक ही बात किसी दृष्टिकोण से है, पर दूसरे दृष्टिकोण से नहीं है- इसे 'स्याद्वाद' कहते हैं। यह 'ही' ठीक है, इस आग्रह से विवाद खड़े होते हैं। यह 'भी' ठीक है, इससे विवाद समाप्त होते हैं। यह सच्चा, किसी को पीड़ा न पहुंचाने का मार्ग है। स्पष्ट रीति से जैन मत में साम्य (समता) भाव प्रतिष्ठित हुआ। अपने चरित्र तथा व्यवहार द्वारा जीवन में जो असमानता है उसे दूर करना जैन मत का 'संवर' (मनोनिग्रह) है। भारतीय दर्शन का वह पक्ष लेकर जिसकी उस समय आवश्यकता थी, यह मत बढ़ा। यह दृष्टिकोण वही है जो उपनिषदों के 'ब्रम्हन' की कल्पना है, या उससे जनित होती है। ऎसा आचरण, व्यवहार एवं दार्शनिक विचार जो समता की वृत्ति उत्पन्न करे उसे ही जैन मत में 'ब्रम्हचर्य' कहा गया। 'श्रमण', जिसमें समानता मूर्तिमंत हुई हो, ही (वैदिक) 'ब्राम्हण' है। इसी से जैन मत का मोक्षमार्ग रत्न-त्रय पर आधारित है--सम्यक् दर्शन (सही श्रद्घा), सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र (सही आचार)। ये भागवत के भक्तिमार्ग, वेदांतिन के ज्ञानमार्ग और मीमांसाकों के कर्ममार्ग का स्थान ले लेते हैं। भक्ति, ज्ञान तथा कर्म को अकेले महत्व न देते हुए जैन मत का आग्रह है इन तीनों का एक साथ व्यक्ति के अंदर उदय, जिससे सांसारिक प्रपंच से मुक्ति प्राप्त हो। इसकी तुलना दवा की आरोग्य करने की प्रक्रिया से दी जाती है; दवा पर विश्वास चाहिए तथा उसके उपयोग करने की विधि का ज्ञान और उसे लेने का कर्म भी चाहिए। एक बार वैदिक षडदर्शन पर दृष्टि डालने से दिखता है कि प्राचीन भारतीय चिंतन से युगानुकूल मानव-मूल्यों के अनुरूप तत्व को जैन दर्शन ने किस प्रकार आगे बढ़ाया। यही इसकी व बौद्घ चिंतन की अलौकिकता है। महावीर ने गणतंत्र पद्घति, जो इस कालखंड में भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का सर्वत्र आधार थी, अपनाकर जैन चैत्य-विहारों (जैन मठों) का गठन किया। सर्वसाधारण जैन मतावलंबियों और जैन मुनियों के लिए अलग-अलग व्यवहार नियम निर्धारित किए तथा जैन मत को एक सुदृढ़ नींव पर खड़ा किया। महावीर की देशना (उपदेश) से जैन मत बड़ा व्यापक बना। उसे समय-समय पर राजाश्रय भी प्राप्त हुआ। मगध के राजा बिंबिसार ने जैन मत स्वीकार किया। चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मगध में भयंकर अकाल पड़ा। उसके बाद पाटलिपुत्र में जैन आगमों (मान्य पाठ) की प्रथम बांचना हुई। कहा जाता है कि चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ली और दक्षिण के जैन तीर्थ श्रवणबेलगोला (जहां अब संसार की सबसे बड़ी जैन मुनि बाहुबली की प्रतिमा स्थापित हुई में देह-त्याग किया। सम्राट् अशोक के पौत्र संप्रति ने भी जैन दीक्षा ली। कलिंग (उत्कल) के राजा खारवेले ने जैन मत अपनाया। राज्य में ऋषभदेव की प्रतिमा तथा जैन साधुओं के लिए गुफा खुदवाई। मथुरा, गिरिनार (मुजरात), पैठन (महाराष्ट्र), आबू (राजस्थान) जैनियों के केंद्र बने, जहां अत्यंत सुंदर मंदिर और भवन निर्मित हुए।
जैनियों ने उस समय की अपभ्रंश भाषाओं में अर्द्घ-मागधी (प्राकृत का वह रूप, जो पटना से मथुरा तक प्रचलित था) एवं शौरसेनी ( मथुरा के आसपास की भाषा) में अपने उपदेश दिए। इनमें जैन साहित्य का सृजन हुआ। इससे भारत की अपभ्रंश भाषाओं के साहित्यिक विकास में अभूतपूर्व योगदान मिला। जैनियों द्वारा भारत की स्थापत्य कला के विकास के उदाहरण आज सारे देश में फैले हैं। भारत की अधिकांश आधुनिक भाषाएं उस समय की देन हैं और आज जैन मत संबंधी बहुत सी जानकारी तमिल ग्रंथों में मिलती है। सिद्धार्त से गौतम बुद्ध तक का सफर इन श्रमण परंपराओं और जैन मत की भूमिका में यह कहानी उभरती है, जिसने एशिया महाद्वीप की काया-पलट कर दी और अंततोगत्वा सारे संसार को प्रभावित किया। ईसाई पंथ भी जिसका चिर ऋणी है। ऎसी है मानव जीवन में उदात्त पराकाष्ठा की सिद्घार्थ गौतम (जो बाद में 'बुद्घ' बने) की कहानी। सिद्घार्थ का जन्म भारतीय साक्ष्य के अनुसार विक्रम संवत् पूर्व १८३० में (न कि पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार विक्रम संवत् के ५०६ वर्ष पूर्व) (युगाब्द १२१५ में) शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी (आधुनिक रूम्मिदेई) वन में गौतम गोत्र के क्षत्रिय राजा शुद्घोदन के यहां बैसाखी पूर्णिमा को हुआ था। यह स्थान भारत की सीमा से आठ किलोमीटर दूर नेपाल में है। वहां सम्राट् अशोक का स्तंभ-लेख है, 'यहां बुद्घ का जन्म हुआ था।' माता मायादेवी का उस सप्ताह में ही निधन हो गया। तब उनका लालन-पालन उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। कहते हैं कि महापुरूषों के बत्तीस लक्षणों को देखकर उनके बुद्घ (पूर्ण विकसित ज्ञानी) बनने की भविष्यवाणी असित और देवल ऋषियों ने की। बुद्घपुराण (पराशर रचित 'ललित-लघुविस्तर') में उनके बचपन के चमत्कारों का वर्णन है। कैसे उन्होंने ६४ लिपियों का और परमाणु गणना का विवरण देकर अपने आचार्यों को चकित कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों की क्षत्रियोचित विद्या एवं शिल्प तथा कलाओं में पारंगत होने के बाद उनका विवाह यशोधरा से हो गया। उनके संन्यासी बनने की भविष्यवाणी के कारण उनके पिता ने उनके ग्रीष्म, हेमंत एवं वर्षा ऋतु के लिए अलग-अलग प्रासाद बनवाए। उनका लालन-पालन एक मनोरम सुखोपभोग के वातावरण में हुआ, जहां दु:ख, व्याधि, जरा, मरण की हवा भी न लगे। कहते हैं कि उद्यान-यात्रा में उन्होंने इन सबको देखा और बाद में शांतचित्त आनंदमय संन्यासी को देखा। ये दु:ख उनके मन को मथने लगे। उनके लौटते समय कुश गौतमी ने उनकी प्रशंसा में गीत कहा। उसमें उनके लिए 'निवृत्त' शब्द का प्रयोग हुआ था। सिद्घार्थ ने निवृत्ति (मोक्ष ) को ही इस संसार के दु:खों से पीछा छुड़ाने का साधन समझा। वापस आने पर पुत्र-जन्म का सुखद समाचार मिला। पर उनको लगा कि मोह का एक नया बंधन आया तब रात्रि को सिद्घार्थ पत्नी, पुत्र, कुटुम्ब और घर-द्वार छोड़कर, रथ पर सवार हो सारथि के साथ निकल गए। रातोंरात शाक्य, कोलिय एवं मल्ल गणराज्य की सीमा पार कर अनोमा नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने संन्यासी का वेश धारण किया। सारथि को रथ-घोड़े सहित लौटा दिया और तर्क से इस संसार की गुत्थी को सुलझाने चल पड़े; अर्थात् बोधिसत्व बने। पहले वह अनेक ऋषियों से मिले। अश्वघोष ने 'बुद्घचरित्र' में उनका वर्णन किया है। दो सांख्य योगियों --आलाम कालार तथा उद्दक रामपुत्त को उन्होंने अपना गुरू माना। परंतु उपदेशों, दर्शन एवं यौगिक क्रियाओं से वह पूर्ण संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें लगा कि जब तक भोगों की इच्छा रहेगी, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए उन्होंने उरूवेला में सेनानिग्राम के निकट नैरंजना नदी के किनारे घोर तपस्या प्रारंभ की। शरीर सूखकर कांटा हो गया और उसने जवाब दे दिया। एक दिन मूर्च्छा आ गई। तब उनको अनुभूति हुई कि इससे ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। तत्पश्चात उन्होंने अपना जीवन बदला। उचित मात्रा में भोजन लेना प्रारंभ किया। उनके पांच शिष्यों ने उन्हें मार्ग से स्खलित समझकर छोड़ दिया। वह पुन: ह्रष्ट-पुष्ट हो गए। उन्हें बचपन की ध्यानावस्था स्मरण आने लगी। एक दिन प्रभात में सेनानिग्राम के जमींदार की पुत्री सुजाता ने उन्हें चावल की खीर दी। सारा दिन उन्होंने साल वृक्षों के कुंज में व्यतीत किया और सायंकाल पास में अश्वत्थ वृक्ष (बोधिवृक्ष) के नीचे पालथी मारकर बैठ गए, इस संकल्प से कि चरम ज्ञान प्राप्त करके ही उठेंगे। तब 'मार' (ललचाने और बहकाने वाली शक्तियां : शैतान) से द्वंद्व प्रारंभ हुआ। दुर्वासनाओं के स्वामी 'मार' ने अपने बीभत्स और पैशाचिक झुंड के साथ आकर उन्हें पथ से भटकाने की कोशिश की। पर गौतम वैसे ही अडिग रहे। अपने पारमिता (सद्गुण; बौद्घ मत में वे दस कहे जाते हैं-- उदारता, सदाचार, त्याग, प्रज्ञा, ध्यान, उद्यमशीलता, धैर्य, सत्यता, संकल्प, सभी से प्रेम, मित्रता एवं शांति), जो पूर्वजन्म में बोधिसत्व (बुद्घ बनने के प्रयत्न) के रूप में अर्जित किए थे, के कारण वह अपने पथ से नहीं डिगे। उन्होंने मार से कहा,'तुम्हारी प्रथम सेना काम-वासनाएं हैं, दूसरी उदात्त जीवन के प्रति अश्रद्घा, तीसरी भूख और प्यास, चौथी लालसाएं, पांचवीं जड़ता और आलस्य, छठी भय और कायरता, सातवीं संशय, आठवीं पाखंड और अपश्चाताप, नौवीं प्रशंसा, झूठा लाभ, मान या महिमा बखानना और दसवीं अहम्मन्यता व दूसरों से घृणा। कोई दुर्बल व्यक्ति इन्हें जीत नहीं सकता। तुम्हें चुनौती है। मेरे जीवन को धिक्कार है, यदि मैं हार जाॐ। हारने से मरना अच्छा।'
अच्छाई और बुराई के इस अंतर्द्वंद्व में सिद्घार्थ ने विजय पाई। और तब रात्रि के प्रथम प्रहर में उन्हें अपने सभी पूर्वजन्मों की घटनाएं याद हो आईं। ये 'जातक' में संगृहीत हैं, जो विश्व कथा साहित्य का आदि स्त्रोत है। (आयुर्वेद में वर्णन है कि कैसे नवयौवन में मनुष्य चिंतन करके बचपन और फिर पूर्वजन्म के भी स्मरण की शक्ति प्राप्त कर सकता है।) मध्य प्रहर में उन्हें 'दिव्य चक्षु' प्राप्त हुए, जिससे लोगों का पुनर्जन्म में संचरण देख सकते थे। और रात्रि के तीसरे प्रहर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, सारे विकार एवं दूषण छंट गए और 'चार महान् सत्य' उद्भासित हुए। इस प्रकार पैंतिस वर्ष की आयु में गौतक चेतन सत्ता का चरम ज्ञान प्राप्त कर बैसाखी पूर्णिमा को 'बुद्घ' बने। उन्होंने कुछ सप्ताह उरूवेला में बिताए। इस परम चेतना के साक्षात्कार से जब जन्म-मृत्यु के आवागमन से परे का बोध हुआ तो मोक्ष के लिए व्यग्र बुद्घ को मानो इंद्र एवं ब्रम्हा का संदेश मिला, 'कठिन साधना द्वारा अर्जित ज्ञान को मानव-कल्याण के लिए प्रचारित करो।'
एक दिन उस वृक्ष के नीचे बैठे उन्हें प्रेरणा मिली, 'मैंने उस सत्य को देखा, जो अत्यंत गूढ़ है, जिसे देखना और समझना कठिन है और जो प्रज्ञा ही समझ सकते हैं।'
पर सोचा, 'कमल के फूल कीचड़ में फूलकर भी निर्लिप्त रहते हैं, वैसे ही इस दुनिया में भी कुछ लोग होंगें जो सत्य को देख सकेंगे। लोग विकास की विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं।'
उनके दोनों गुरूओं का निधन हो चुका था। तब पांच संन्यासियों को, जो उन्हें छोड़कर चले गए थे, सारनाथ (वाराणसी) जाकर प्रथम उपदेश दिया। यह 'धर्मचक्र-प्रवर्तन सूत्र' के नाम से प्रसिद्घ है।
उन्होंने दोनों छोरों को त्याग बीच का मध्यम मार्ग सुझाया, जो अतिवादी नहीं है; न घोर असंयम का प्रवृत्तिमार्ग और न पूर्ण आत्मदमन का निवृत्तिमार्ग। 'चार आर्य (महान्) सत्य', जो उन्हें उद्भासित हुए, अपने उपदेश में इस प्रकार कहे, 'मूल रूप से इस अनित्य संसार में आवागमन एक दु:खमय चक्र है। यह दु:ख मन के भोग-विलास की, सत्ता की और जीवित रहने की लालसा के कारण उत्पन्न होता है। इन इच्छाओं को मर्यादित करने से दु:ख- निरोध हो सकता है। इसके लिए एक उदात्त आठ सूत्री कार्यक्रम है। जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण, अर्थात् इस सांसारिक आवागमन से मुक्ति है।'
अपने जीवन का जो कार्य बुद्घ ने जो कार्य बुद्घ ने निर्धारित किया, उसके लिए उन्होंने सारे उत्तरी भारत को मथ डाला। केवल वर्षा काल के चातुर्मास (जैसी परंपरा थी) एक स्थान पर व्यतीत किए। जहां वह रहे, उन स्थानों की सूची और उस समय के उनके उपदेश बौद्घ परंपरा में सुरक्षित हैं। प्रति स्थान पर प्रभावशाली और संपन्न व्यक्ति जुड़े, उनके शिष्य बने। उन्होंने बौद्घ बिहारों के लिए स्थार दिया। मगधराज बिंबिसार को राजगृह में उपदेश दिया, जिनसे वेणुवन नामक उद्यान बौद्घ संघ को प्राप्त हुआ और एक प्रमुख केन्द्र बना। प्रारंभ में जितने भी अर्हत् (परम ज्ञानी) शिष्य हुए, बुद्घ ने उन्हें सभी दिशाओं में प्रचारार्थ भेजा। गणराज्यों की परंपरा पर आधारित बौद्घ संघ का गठन किया। वहां पखवारे में निराहार व्रत के लिए सभी भिक्षु- भिक्षुणी अपने विहार में इकट्ठा होकर सभी नियमों का पाठ करते। उसके आठ विभागों में से प्रति विभाग के बाद सबसे पूछा जाता, 'क्या आप सभी इन दोषों से शुद्घ हैं?'
भिक्षु द्वारा व्यतिक्रम होने पर प्रायश्चित्त अथवा दंड की व्यवस्था होती।
बुद्घ की दिनचर्या उनके मौन, एकांत-प्रेमी और मननशील मन के अनुरूप थी। प्रात: नित्यकर्म के बाद एकांत आसन और ध्यान। भिक्षा के समय कभी अकेले और कभी भिक्षुओं के साथ और निमंत्रण पर घर जाकर भोजन तथा उपदेश । लौटने पर भिक्षुओं को उपदेश के बाद स्वल्प विश्राम, फिर दर्शनार्थियों को उपदेश। सायं स्नान-ध्यान के बाद भिक्षुओं की समस्याएं हल करते। कहते हैं कि वह रात्रि को देवताओं के प्रश्नों के उत्तर देते और दिव्य चक्षुओं से संसार का अवलोकन कर विश्राम करते। दया की प्रतिमूर्ति, जिसकी कहानियां 'जातक' में संग्रहीत हैं। विहार में रहते हुए प्रतिदिन रूग्ण भिक्षुओं को देखते। उपेक्षित रोगी की सेवा करते। उन्होंने कहा, 'इनकी सेवा मेरी सेवा है।'
उनका तथा संघाराम का अनुशासन राजाओं के आश्चर्य की वस्तु थी। पर यह बुद्घ के असीम स्नेह और उनके प्रति समादर एवं प्रतिष्ठा तथा सबकी निष्ठा का फल था। वह महान् व्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने दुर्दांत दस्यु 'अंगुलिमाल' और बच्चों को खाने वाली राक्षसी को भी वश में किया।
उनका वैचारिक स्वतंत्रता का समर्थन उन्हें आधुनिक युग के समकक्ष खड़ा कर देता है। इसी से भागवत पुराण में कहा गया कि वह अपने तर्कों द्वारा लोगों को मोहित कर लेंगे। उन्होंने अपनी पालनकर्त्री मौसी महाप्रजापति गौतमी और आनंद के कहने पर स्त्रियों को भी संघ में स्थान दिया और भिक्षुणी संघ बना। सभी वर्णों (जातियों) और वर्गों के लोगों को उन्होंने अपना शिष्य बनाया। विद्या प्राप्त तथा आचरण-शुद्घ व्यक्ति ही उनके समक्ष ब्राम्हण कहलाने का अधिकारी था। उन्होंने समाज में जाति-पांत के परे समता की प्रतिष्ठा की। कहा, 'अपराध का दमन केवल दंड देने से नहीं होता। दरिद्रता अनैतिकता और अपराध को जन्म देती है। आर्थिक दशा तथा मन का सुधार अपराध का स्थायी उपाय है।' उनके लिए आंतरिक ज्ञान तथा परसेवा ही परमार्थ बना।
निर्वाण के पहले चातुर्मास में वे बीमार पड़े। आनंद की शंका पर उन्होंने कहा, 'मैंने धर्म का उपदेश दिया। अब अस्सी वर्ष की आयु में मेरी इच्छा आगे संघ का नेतृत्व करने की नहीं।'
अंत में पावा ग्राम में वे रक्तातिसार से ग्रसित हुए। बीमारी में ही वे कुशीनगर के लिए चल पड़े और उसके पास शालवन में लेट गए। वहीं अंतिम उपदेश दिया। भिक्षुओं से कहा, 'मैंने जो शिक्षा दी तथा 'धर्म' (सिद्घांत) बताया, आगे वही तुम्हारा शासक होगा।'
गणतंत्र पद्घति के अनुसार उन्हें कार्य करने को कहा। छोटे-मोटे परिवर्तन करने की छूट संघ को दी और कुछ दशा में ब्रम्हदंड का भी विधान किया। उन्होंने तीन बार पूछा, 'कोई शंका है क्या, जिसका निराकरण मुझसे चाहते हो?'
सबके चुप रहने पर उन्होंने कहा, 'सब अनित्य है। धर्म (उद्देश्य) को अध्यवसायपूर्वक प्राप्त करो।'
सिद्धार्त से गौतम बुद्ध तक का सफर इन श्रमण परंपराओं और जैन मत की भूमिका में यह कहानी उभरती है, जिसने एशिया महाद्वीप की काया-पलट कर दी और अंततोगत्वा सारे संसार को प्रभावित किया। ईसाई पंथ भी जिसका चिर ऋणी है। ऎसी है मानव जीवन में उदात्त पराकाष्ठा की सिद्घार्थ गौतम (जो बाद में 'बुद्घ' बने) की कहानी।
सिद्घार्थ का जन्म भारतीय साक्ष्य के अनुसार विक्रम संवत् पूर्व १८३० में (न कि पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार विक्रम संवत् के ५०६ वर्ष पूर्व) (युगाब्द १२१५ में) शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी (आधुनिक रूम्मिदेई) वन में गौतम गोत्र के क्षत्रिय राजा शुद्घोदन के यहां बैसाखी पूर्णिमा को हुआ था। यह स्थान भारत की सीमा से आठ किलोमीटर दूर नेपाल में है। वहां सम्राट् अशोक का स्तंभ-लेख है, 'यहां बुद्घ का जन्म हुआ था।' माता मायादेवी का उस सप्ताह में ही निधन हो गया। तब उनका लालन-पालन उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। कहते हैं कि महापुरूषों के बत्तीस लक्षणों को देखकर उनके बुद्घ (पूर्ण विकसित ज्ञानी) बनने की भविष्यवाणी असित और देवल ऋषियों ने की। बुद्घपुराण (पराशर रचित 'ललित-लघुविस्तर') में उनके बचपन के चमत्कारों का वर्णन है। कैसे उन्होंने ६४ लिपियों का और परमाणु गणना का विवरण देकर अपने आचार्यों को चकित कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों की क्षत्रियोचित विद्या एवं शिल्प तथा कलाओं में पारंगत होने के बाद उनका विवाह यशोधरा से हो गया।
उनके संन्यासी बनने की भविष्यवाणी के कारण उनके पिता ने उनके ग्रीष्म, हेमंत एवं वर्षा ऋतु के लिए अलग-अलग प्रासाद बनवाए। उनका लालन-पालन एक मनोरम सुखोपभोग के वातावरण में हुआ, जहां दु:ख, व्याधि, जरा, मरण की हवा भी न लगे। कहते हैं कि उद्यान-यात्रा में उन्होंने इन सबको देखा और बाद में शांतचित्त आनंदमय संन्यासी को देखा। ये दु:ख उनके मन को मथने लगे। उनके लौटते समय कुश गौतमी ने उनकी प्रशंसा में गीत कहा। उसमें उनके लिए 'निवृत्त' शब्द का प्रयोग हुआ था। सिद्घार्थ ने निवृत्ति (मोक्ष ) को ही इस संसार के दु:खों से पीछा छुड़ाने का साधन समझा।
वापस आने पर पुत्र-जन्म का सुखद समाचार मिला। पर उनको लगा कि मोह का एक नया बंधन आया तब रात्रि को सिद्घार्थ पत्नी, पुत्र, कुटुम्ब और घर-द्वार छोड़कर, रथ पर सवार हो सारथि के साथ निकल गए। रातोंरात शाक्य, कोलिय एवं मल्ल गणराज्य की सीमा पार कर अनोमा नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने संन्यासी का वेश धारण किया। सारथि को रथ-घोड़े सहित लौटा दिया और तर्क से इस संसार की गुत्थी को सुलझाने चल पड़े; अर्थात् बोधिसत्व बने। पहले वह अनेक ऋषियों से मिले। अश्वघोष ने 'बुद्घचरित्र' में उनका वर्णन किया है। दो सांख्य योगियों --आलाम कालार तथा उद्दक रामपुत्त को उन्होंने अपना गुरू माना। परंतु उपदेशों, दर्शन एवं यौगिक क्रियाओं से वह पूर्ण संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें लगा कि जब तक भोगों की इच्छा रहेगी, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए उन्होंने उरूवेला में सेनानिग्राम के निकट नैरंजना नदी के किनारे घोर तपस्या प्रारंभ की। शरीर सूखकर कांटा हो गया और उसने जवाब दे दिया। एक दिन मूर्च्छा आ गई। तब उनको अनुभूति हुई कि इससे ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। तत्पश्चात उन्होंने अपना जीवन बदला। उचित मात्रा में भोजन लेना प्रारंभ किया। उनके पांच शिष्यों ने उन्हें मार्ग से स्खलित समझकर छोड़ दिया। वह पुन: ह्रष्ट-पुष्ट हो गए।
उन्हें बचपन की ध्यानावस्था स्मरण आने लगी। एक दिन प्रभात में सेनानिग्राम के जमींदार की पुत्री सुजाता ने उन्हें चावल की खीर दी। सारा दिन उन्होंने साल वृक्षों के कुंज में व्यतीत किया और सायंकाल पास में अश्वत्थ वृक्ष (बोधिवृक्ष) के नीचे पालथी मारकर बैठ गए, इस संकल्प से कि चरम ज्ञान प्राप्त करके ही उठेंगे। तब 'मार' (ललचाने और बहकाने वाली शक्तियां : शैतान) से द्वंद्व प्रारंभ हुआ। दुर्वासनाओं के स्वामी 'मार' ने अपने बीभत्स और पैशाचिक झुंड के साथ आकर उन्हें पथ से भटकाने की कोशिश की। पर गौतम वैसे ही अडिग रहे। अपने पारमिता (सद्गुण; बौद्घ मत में वे दस कहे जाते हैं-- उदारता, सदाचार, त्याग, प्रज्ञा, ध्यान, उद्यमशीलता, धैर्य, सत्यता, संकल्प, सभी से प्रेम, मित्रता एवं शांति), जो पूर्वजन्म में बोधिसत्व (बुद्घ बनने के प्रयत्न) के रूप में अर्जित किए थे, के कारण वह अपने पथ से नहीं डिगे। उन्होंने मार से कहा, 'तुम्हारी प्रथम सेना काम-वासनाएं हैं, दूसरी उदात्त जीवन के प्रति अश्रद्घा, तीसरी भूख और प्यास, चौथी लालसाएं, पांचवीं जड़ता और आलस्य, छठी भय और कायरता, सातवीं संशय, आठवीं पाखंड और अपश्चाताप, नौवीं प्रशंसा, झूठा लाभ, मान या महिमा बखानना और दसवीं अहम्मन्यता व दूसरों से घृणा। कोई दुर्बल व्यक्ति इन्हें जीत नहीं सकता। तुम्हें चुनौती है। मेरे जीवन को धिक्कार है, यदि मैं हार जाॐ। हारने से मरना अच्छा।' अच्छाई और बुराई के इस अंतर्द्वंद्व में सिद्घार्थ ने विजय पाई।
और तब रात्रि के प्रथम प्रहर में उन्हें अपने सभी पूर्वजन्मों की घटनाएं याद हो आईं। ये 'जातक' में संगृहीत हैं, जो विश्व कथा साहित्य का आदि स्त्रोत है। (आयुर्वेद में वर्णन है कि कैसे नवयौवन में मनुष्य चिंतन करके बचपन और फिर पूर्वजन्म के भी स्मरण की शक्ति प्राप्त कर सकता है।) मध्य प्रहर में उन्हें 'दिव्य चक्षु' प्राप्त हुए, जिससे लोगों का पुनर्जन्म में संचरण देख सकते थे। और रात्रि के तीसरे प्रहर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, सारे विकार एवं दूषण छंट गए और 'चार महान् सत्य' उद्भासित हुए। इस प्रकार पैंतिस वर्ष की आयु में गौतक चेतन सत्ता का चरम ज्ञान प्राप्त कर बैसाखी पूर्णिमा को 'बुद्घ' बने। उन्होंने कुछ सप्ताह उरूवेला में बिताए। इस परम चेतना के साक्षात्कार से जब जन्म-मृत्यु के आवागमन से परे का बोध हुआ तो मोक्ष के लिए व्यग्र बुद्घ को मानो इंद्र एवं ब्रम्हा का संदेश मिला, 'कठिन साधना द्वारा अर्जित ज्ञान को मानव-कल्याण के लिए प्रचारित करो।'
एक दिन उस वृक्ष के नीचे बैठे उन्हें प्रेरणा मिली, 'मैंने उस सत्य को देखा, जो अत्यंत गूढ़ है, जिसे देखना और समझना कठिन है और जो प्रज्ञा ही समझ सकते हैं।'
पर सोचा, 'कमल के फूल कीचड़ में फूलकर भी निर्लिप्त रहते हैं, वैसे ही इस दुनिया में भी कुछ लोग होंगें जो सत्य को देख सकेंगे। लोग विकास की विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं।'
उनके दोनों गुरूओं का निधन हो चुका था। तब पांच संन्यासियों को, जो उन्हें छोड़कर चले गए थे, सारनाथ (वाराणसी) जाकर प्रथम उपदेश दिया। यह 'धर्मचक्र-प्रवर्तन सूत्र' के नाम से प्रसिद्घ है।
उन्होंने दोनों छोरों को त्याग बीच का मध्यम मार्ग सुझाया, जो अतिवादी नहीं है; न घोर असंयम का प्रवृत्तिमार्ग और न पूर्ण आत्मदमन का निवृत्तिमार्ग। 'चार आर्य (महान्) सत्य', जो उन्हें उद्भासित हुए, अपने उपदेश में इस प्रकार कहे, 'मूल रूप से इस अनित्य संसार में आवागमन एक दु:खमय चक्र है। यह दु:ख मन के भोग-विलास की, सत्ता की और जीवित रहने की लालसा के कारण उत्पन्न होता है। इन इच्छाओं को मर्यादित करने से दु:ख- निरोध हो सकता है। इसके लिए एक उदात्त आठ सूत्री कार्यक्रम है। जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण, अर्थात् इस सांसारिक आवागमन से मुक्ति है।'
अपने जीवन का जो कार्य बुद्घ ने जो कार्य बुद्घ ने निर्धारित किया, उसके लिए उन्होंने सारे उत्तरी भारत को मथ डाला। केवल वर्षा काल के चातुर्मास (जैसी परंपरा थी) एक स्थान पर व्यतीत किए। जहां वह रहे, उन स्थानों की सूची और उस समय के उनके उपदेश बौद्घ परंपरा में सुरक्षित हैं। प्रति स्थान पर प्रभावशाली और संपन्न व्यक्ति जुड़े, उनके शिष्य बने। उन्होंने बौद्घ बिहारों के लिए स्थार दिया। मगधराज बिंबिसार को राजगृह में उपदेश दिया, जिनसे वेणुवन नामक उद्यान बौद्घ संघ को प्राप्त हुआ और एक प्रमुख केन्द्र बना। प्रारंभ में जितने भी अर्हत् (परम ज्ञानी) शिष्य हुए, बुद्घ ने उन्हें सभी दिशाओं में प्रचारार्थ भेजा। गणराज्यों की परंपरा पर आधारित बौद्घ संघ का गठन किया। वहां पखवारे में निराहार व्रत के लिए सभी भिक्षु- भिक्षुणी अपने विहार में इकट्ठा होकर सभी नियमों का पाठ करते। उसके आठ विभागों में से प्रति विभाग के बाद सबसे पूछा जाता, 'क्या आप सभी इन दोषों से शुद्घ हैं?'
भिक्षु द्वारा व्यतिक्रम होने पर प्रायश्चित्त अथवा दंड की व्यवस्था होती।
बुद्घ की दिनचर्या उनके मौन, एकांत-प्रेमी और मननशील मन के अनुरूप थी। प्रात: नित्यकर्म के बाद एकांत आसन और ध्यान। भिक्षा के समय कभी अकेले और कभी भिक्षुओं के साथ और निमंत्रण पर घर जाकर भोजन तथा उपदेश । लौटने पर भिक्षुओं को उपदेश के बाद स्वल्प विश्राम, फिर दर्शनार्थियों को उपदेश। सायं स्नान-ध्यान के बाद भिक्षुओं की समस्याएं हल करते। कहते हैं कि वह रात्रि को देवताओं के प्रश्नों के उत्तर देते और दिव्य चक्षुओं से संसार का अवलोकन कर विश्राम करते। दया की प्रतिमूर्ति, जिसकी कहानियां 'जातक' में संग्रहीत हैं। विहार में रहते हुए प्रतिदिन रूग्ण भिक्षुओं को देखते। उपेक्षित रोगी की सेवा करते। उन्होंने कहा, 'इनकी सेवा मेरी सेवा है।'
उनका तथा संघाराम का अनुशासन राजाओं के आश्चर्य की वस्तु थी। पर यह बुद्घ के असीम स्नेह और उनके प्रति समादर एवं प्रतिष्ठा तथा सबकी निष्ठा का फल था। वह महान् व्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने दुर्दांत दस्यु 'अंगुलिमाल' और बच्चों को खाने वाली राक्षसी को भी वश में किया।
उनका वैचारिक स्वतंत्रता का समर्थन उन्हें आधुनिक युग के समकक्ष खड़ा कर देता है। इसी से भागवत पुराण में कहा गया कि वह अपने तर्कों द्वारा लोगों को मोहित कर लेंगे। उन्होंने अपनी पालनकर्त्री मौसी महाप्रजापति गौतमी और आनंद के कहने पर स्त्रियों को भी संघ में स्थान दिया और भिक्षुणी संघ बना। सभी वर्णों (जातियों) और वर्गों के लोगों को उन्होंने अपना शिष्य बनाया। विद्या प्राप्त तथा आचरण-शुद्घ व्यक्ति ही उनके समक्ष ब्राम्हण कहलाने का अधिकारी था। उन्होंने समाज में जाति-पांत के परे समता की प्रतिष्ठा की। कहा, 'अपराध का दमन केवल दंड देने से नहीं होता। दरिद्रता अनैतिकता और अपराध को जन्म देती है। आर्थिक दशा तथा मन का सुधार अपराध का स्थायी उपाय है।' उनके लिए आंतरिक ज्ञान तथा परसेवा ही परमार्थ बना।
निर्वाण के पहले चातुर्मास में वे बीमार पड़े। आनंद की शंका पर उन्होंने कहा, 'मैंने धर्म का उपदेश दिया। अब अस्सी वर्ष की आयु में मेरी इच्छा आगे संघ का नेतृत्व करने की नहीं।'
अंत में पावा ग्राम में वे रक्तातिसार से ग्रसित हुए। बीमारी में ही वे कुशीनगर के लिए चल पड़े और उसके पास शालवन में लेट गए। वहीं अंतिम उपदेश दिया। भिक्षुओं से कहा, 'मैंने जो शिक्षा दी तथा 'धर्म' (सिद्घांत) बताया, आगे वही तुम्हारा शासक होगा।'
गणतंत्र पद्घति के अनुसार उन्हें कार्य करने को कहा। छोटे-मोटे परिवर्तन करने की छूट संघ को दी और कुछ दशा में ब्रम्हदंड का भी विधान किया। उन्होंने तीन बार पूछा, 'कोई शंका है क्या, जिसका निराकरण मुझसे चाहते हो?'
सबके चुप रहने पर उन्होंने कहा,
'सब अनित्य है। धर्म (उद्देश्य) को अध्यवसायपूर्वक प्राप्त करो।'
भारत में बौद्घ मत के ह्रास के कारण और वेदांती की आवश्यकता कैसे कभी-कभी सद्गुणों की विकृति हो जाती है, इसका उल्लेख वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक 'भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ' में किया है। यह 'सद्गुण विकृति' तभी होती है जब अनेक वर्ष अथवा शताब्दियां बीतने पर उन सद्गुणों का विस्मरण हो जाय और उनका स्थान कोरे कर्मकांड ने ले लिया हो; जब सद्गगुणों की कारण-मीमांसा बंद हो जाय अथवा श्रेष्ठ गुणों का हेतु साधारण जन को उपलब्ध न हो, अथ्वा गुणों के अतिचार में एक अदूरदर्शी, संकुचित अंधविश्वासी दृष्टि आ जाय। ऎसा बौद्घ और जैन मत के इतिहास में भी हुआ। उदात्त भाव लेकर चलने वाले मानव जीवन के परम सुख की कल्पना ले और उसको श्रेष्ठ गुणों से संयुक्त करने वाले तथा मोक्ष की कल्पना करने वाले इन मतों में भी 'सद्गुण विकृति' आ सकती है, इसका गुमान न था। पर ऎसा प्रसंग आया।
एक बार मुंबई के उपनगर में पैदल जब एक सीधी जाने वाली सड़क से निकला तो मेरे साथी ने उधर जाने से मना किया। कहा, 'उधर जैनियों का मठ है।' आश्चर्यचकित मुझे बताया गया, 'उस मठ के जैन साधक मूत्र को सीवर में नहीं डालते। उससे नाली के कीड़े मर जायेंगे, इसलिये इकट्ठा कर सड़क पर बहाते हैं। इससे दुर्गन्ध फैलती है और पड़ोसियों का निकलना-बैठना दुश्वार है।'
सीवर के कीड़े सुरक्षित रहें, इसलिए पड़ोसियों को कष्ट हें।
व्यक्तिगत मान-अपमान भी विकृति उपजाता है। ऎसी विक्रमी संवत् के पूर्व शताब्दी की जैन आचार्य की कहानी है। कालकाचार्य ने उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल (विक्रमादित्य के पिता) द्वारा अपनी बहन से दुर्व्यवहार किए जाने पर दु:खित हो गजनी जाकर शक-हूणों को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। अनंततोगत्वा अगली पीढ़ी में विक्रमादित्य की विजय हुई और भारत शक और हूणों के आतंक से मुक्त हो गया। किंवदंती है कि जब विक्रमादित्य की सारी सेना नष्ट हो गई तब मिट्टी की मूर्तियों में प्राण फूंककर सेना खड़ी की। ये मिट्टी की मूर्तियां, अर्थात् साधारण किसानों को संगठित कर मानो प्राण फूंके और भारत की धरती शक और हूण आक्रांताविहीन की। इस विजय के उपलक्ष्य में विक्रमी संवत् प्रारंभ हुआ। एक किंवदंती और भी है कि ईरान (आर्यान) के राजा मित्रादित्य (मित्रडोट्स), जो तानाशाह हो अत्याचारी बना, का वध करके विक्रमादित्य ने यह 'विक्रमारि' संवत् प्रारंभ किया।
महावीर और बुद्घ ने जिस अहिंसा को अपनाने को कहा, वह बलवान की अहिंसा थी। बलवान् के द्वारा अहिंसा का व्रत सार्थक है। प्राणिमात्र को किसी प्रकार की पीड़ा न पहुंचाना, यह ईश्वरीय गुण है। बुद्घ का एक प्रसंग है - एक राज्य के सेनापति ने दीक्षा लेकर शिष्य बनने की प्रार्थना की। बुद्घ ने पूछा कि, 'आखिर सेनापति का पद छोड़कर शिष्य बनने की इच्छा क्यों हुई ? शत्रु सेना वापस नहीं जाएगी और युद्घ होकर रहेगा। तब जन-धन की अपार हानि होगी; और उस हिंसा के लिए वही उत्तरदायी होगा, क्योंकि उसने अपना कतर्व्य नहीं निभाया। रक्षा करना धर्म-कार्य में प्राण हानि होने पर उसे पातक न लगेगा?'
बुद्घ ने उसे उपदेश दिया कि उसका 'भिक्षु बनने का विचार कर्तव्यच्युत होना है।'
'अहिंसा परमो धर्म:'; पर उसका दूसरा भाग जो शास्त्रों ने कहा, 'धर्महिंसा तथैव च'। यदि अहिंसा परम धर्म है तो धर्महिंसा (अर्थात् कानून के अनुसार हिंसा) भी परम धर्म है। आत्मरक्षा में हिंसा विधिसम्मत है, इसलिए वह भी परम धर्म है। बाद के भाग का विस्मरण होता गया। पर जब कोई सभ्यता या संस्कृति अपने लोगों की रक्षा नहीं कर सकती तो वह मर जीती है। जब मुसलिम आक्रमणकारियों ने गांधार (कंधार) और सिंध पर आक्रमण किया तब जनता ने अपने को 'बौद्घ' कहकर युद्घ करने से इनकार किया। मुहम्मद-बिन-कासिम ने सब प्रदेश जीता। राजा दाहिर को बंदी बनाकर मार डाला और उसके बाद नरसंहार प्रारंभ किया। आखिर इस पाप की दोषी तो वहां की बौद्घ जनता थी, जो अहिंसा व्रत के कारण युद्घ से विरत रही। यह बात दूसरी है कि दो राजकुमारियों ने इसका बदला लिया। सिंध कुछ वर्ष के बाद भीषण रक्तपात के बीच स्वतंत्र हो गया। ऎसा कि १५० वर्ष तक फिर भारत पर विदेशी आक्रमण नहीं हुआ। अहिंसा के दैवी सद्गुण की भी कैसी विकृति हो सकती है, और परिणाम, कैसी भयानक दुर्दशा! इसके उदाहरण भारत की पश्चिमी सीमा पर हुए इसलामी आक्रमणों की कहानियां हैं।
बौद्घ मत में कालांतर में अनेक मतांतर उत्पन्न हुए। इसलिए कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न होता है कि संभवतया विदेशी आक्रमणकारियों से मत का नामा, देश के अन्य बांधवों से बड़ा दिखा हो, जैसा कि इतिहास में बाद में हुआ। आखिर मुसलिम और ईसाई आक्रमणकारियों ने अत्याचारों से ; भय, लालच, जाल-फरेब आदि से, तलवार तथा धन से मुसलमान और ईसाई बनाकर अनेक देशों में अपने हस्तक निर्मित किए। आज जिनको सामान्यतया हिंदू ( अथवा उनका बौद्घ मत) कहते हैं, उनका उस प्रकार का कोई पंथ (मजहब अथवा रिलीजन) कभी नहीं रहा। जिस प्रकार धर्मांतरण या तबलीग (Proselytization) करने वाले पंथ हैं। बौद्घ मत भी हिंदू समाज में एक मत था; विशाल गंगा की एक प्रमुख धारा, जहां विचारों की स्वतंत्रता, तर्कपूर्ण शैली, त्याग तथा अहिंसा पर आधारित समग्र मानव के कल्याण की, दु:खों के निवारण की और मुक्ति की उसकी कल्पना है वहां बिना मूल धारा को समझे, ऊपरी सादृश्य के किसी तुच्छ भाग को ले, तिल से ताड़ बनाना मानव सभ्यता के इस महान् कल्याणकारी आंदोलनकारी आंदोलन का उपहास करना है।
पर मध्य एशिया और भारत से भी बौद्घ मत का धीरे-धीरे ह्रास होता गया। राजाश्रय गया। पेशावर (पुरूषपुर) और कंधार (गांधार) से पश्चिमी प्रदेशों में हूणों के आक्रमण के कारण क्षति प्रारंभ हुई। और जब आठवीं शताब्दी में गांधार और उड्डियान (उजबेकिस्तान) में इस मत में पुन: उभार आया तब तुर्क आक्रमण से और सिंध में अरब आक्रमण से बौद्घ समाप्तप्राय हो गए। भारत में जब विदेशी आक्रमणकारी आए तब देशरक्षा और प्रतिरोध के लिए क्षात्रशक्ति की आवश्यकता थी। ये सभ्यता के ऊंचे स्तर पर विराजमान मानवीय गुणों से विभूषित, उदात्त आध्यात्मिक चेतना के मत थे । संसार के इतिहास में अनेक बार बर्बर जातियों ने अपने से सभ्य लोगों का विनाश कर डाला। साधारण जनता के साथ-साथ बौद्घ तथा उनके विहार (मठ) भी इन मदांध आक्रमणकारियों के शिकार बने। जैन मत कुछ सीमा तक प्रतिकूल समय में अपने मठ-मंदिर और पूजा-वस्तुओं पर छद्मावरण डाल अच्छा समय आने पर पुन: उपासना की प्रतीक्षा के कारण बच सके। डा. अंबेडकर के अनुसार, 'बर्बर मुसलिम आक्रमण ही बौद्घ मत के समूल उच्छेद का कारण बने।'
भारत में बौद्घ मत के ह्रास का दूसरा कारण सार्वजनिक लौकिक जीवन से संबंध छूटना है। इन सब कमियों को दूर करने के लिए एक वेदांती की आवश्यकता थी।
वेदांती शंकर अथार्त आदि शंकराचार्य विक्रमी संवत् से ४५२ वर्ष पूर्व (यह आचार्य उदयवीर शास्त्री का मय-निर्धारण है) केरल के एक गांव में प्रसिद्घ वेदांती शंकर (जो बाद में आदि शंकराचार्य कहलाए) का जन्म हुआ। वह अद्वैत दर्शन के आचार्य हुए; आज के हिंदू विचारों में जिनका सबसे अधिक प्रभाव दिखता है। कम आयु में ही वह संन्यासी हुए। जिसे इतिहास उनकी 'दिग्विजय' कहता है, वह काशी से प्रारंभ की। वहां मीमांसा-दार्शनिक मंडन मिश्र के साथ प्रसिद्घ शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी भाती निर्णायिका थी। उसके बाद उन्होंने सादे देश को मथ डाला। भारत के चार कोनों में, दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में पुरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में शंकराचार्य ने मठ स्थापित किए। ये विहारों की परंपरा के अनुसार संचालित होते थे। इनका कार्यक्षेत्र तथा नियम भी 'मठाम्नाय' और 'महानुशासनम्' द्वारा निर्धारित किए। समूचे देश में 'दशनाम' संन्यासियों के अखाड़े प्रारंभ किए। इन्हें देश की नागरिक सेना कह सकते हैं। इन दशनाम संन्यासियों में पुरी, सागर, गिरि, पर्वत, अरण्य, तीर्थ, आश्रम, भारती, सरस्वती जैसे नाम थे। स्पष्ट ही यह भिन्न-भिन्न स्थलों की रक्षा के लिए बनाई संन्यासियों की सेना थी जो देश भर में घूमकर धर्म (नियम तथा नैतिकता) की और समय आने पर अस्त्र-शस्त्र की तथा आक्रमण से बचाव की शिक्षा देती थी। वह निश्चित समय पर अपने केंद्र (आश्रम और अखाड़े) में उत्सव तथा अगली शिक्षा के आदान-प्रदान के लिए आती। अधिकांशत: बौद्घ विहार की पद्घति पर इनका संघटन हुआ। इस प्रकार इन चार मठों और इन अखाड़ों, दोनों ने मिलकर उन कमियों को पूरा किया जो भारत से बौद्घ मत के लोप होने के कारण थे। आदि शंकराचार्य की मूर्ती का चित्र विकिपीडिया से सुबोध और प्रांजल भाषा के धनी शंकर लगभग ३०० भाष्यों एवं पुस्तकों के रचयिता कहे जाते हैं। कुछ इतिहासज्ञ कहते हैं कि अपने ३२ वर्ष के जीवन में उनके बौद्घिक दिग्विजय के कारण पुन: उस अस्थिर राजनीतिक वातावरण में वेदांत पर आस्था जगी, उससे रहा-सहा बौद्घ मत भारत से समाप्त हुआ। वहीं दूसरी ओर इतिहासज्ञ उनके दादागुरू गौड़पाद एवं स्वयं शंकर को प्रच्छन्न बौद्घ कहते हैं। उन शंकर को भी देश ने अवतारी पुरूष कहा।
वास्तव में यह उदाहरण है कि भारतीय संस्कृति की भिन्न धाराएं कैसे एक-दूसरे से ग्रथित हैं। इन्हें अलग करके देखना संभव नहीं है। परंतु यह सदा होता आया है कि छोटा सा अंतर, जो वास्तव में हिंदु जीवन में वैचारिक स्वतंत्रता की निशानी है, उसको लेकर इस संस्कृति से अनभिज्ञ व्यक्ति तिल का ताड़ बनाकर लोगों को बहकाते आए हैं। विचारों की स्वतंत्रता पथभ्रष्टता का लक्षण न होकर उत्कृष्ट बुद्घि तथा परिपक्वता का लक्षण है और मानव सभ्यता के उस स्तर को प्रदर्शित करता है जिसकी बहुतेरे अन्य समाज कल्पना भी नहीं कर सकते। इसी से अनेक बार भ्रमित होकर हास्यास्पद बातें हिंदु समाज के लिए कही जाती हैं। आज इस समाज की मूलभूत सभ्यता की छलांगों में संसार को आश्चर्यचकित करने वाले एकता के सूत्र को न समझने के कारण उसको छिन्न-भिन्न दिखाने के प्रयासों को प्रगतिशीलता माना जाता है।
भविष्य का अवतार - 'कल्कि' Copper engraving of Kalki from the late 18th century.काल्कि का यह चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से है भविष्य के गर्भ में है 'कल्कि' अवतार। यदि मानव सभ्यता के भविष्य पर विश्वास लाते हैं तो इस पर छाई काली घटाएं छंटनी ही हैं। बुद्घ का 'संघ' पर बड़ा विश्वास था। भागवत पुराण में संकेत दक्षिण मे जनमे अवतार का है। पर वह कोई संघटन भी हो सकता है। बिना समाज में दैवी शक्ति उत्पन्न किए और बिना विकृतियों को हटाए मानव का उद्दिष्ट पूरा नहीं होगा।