कृष्ण ने कहा,
'मेरा अभी एक काम शेष है। ये यदुवंशी बल-विक्रम,वीरता-शूरता और धन-संपत्ति से उन्मत्त होकर सारी पृथ्वी ग्रस लेने पर तुली हैं। यदि मैं घमंडी और उच्छृंखल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किए बिना चला जाऊंगा तो ये सब मर्यादाओं का उल्लंघन कर सब लोकों का संहार कर डालेंगे।'
अंत में कृष्ण के परामर्श से सब प्रभासक्षेत्र में गए। वहां मदिरा में मस्त हो एक-दूसरे से लड़ते 'यादवी' संघर्ष में वे नष्ट हो गए। मानवता का अंतिम कार्य भी पूरा हुआ। बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली। यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों के अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई। आज भी आधुनिक द्वारका से रेल से ओखा और वहां से जलयान द्वारा 'बेट द्वारका' पहुंचते हैं। तब द्वीप के पहले, यदि सागर शांत हो तो, तल में डूबी कृष्ण की द्वारका देखी जा सकती है।
कृष्ण की जीवन-लीला समाप्त होते ही कलियुग आया। यह घटना विक्रमी संवत् से ३०४४ वर्ष पहले की है। युधिष्ठिर के राज्य का अंत होते कलिकाल का पदार्पण हो चुका था। उसके उत्पात भी प्रारंभ हो गए। अपशकुनों के बीच जब युधिष्ठिर को कृष्ण के निधन का समाचार मिला तब पांडवों ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज्य सौंपकर द्रौपदी सहित स्वर्ग (त्रिविष्टप : आधुनिक तिब्बत) पहुंचने के लिए मानसरोवर की यात्रा की। कुत्ता मानव का साथी रहा है, उसी प्रकार धर्म हिमालय यात्रा में वह उनके साथ चला।
परीक्षित ने कलियुग को बांधने और उसके उत्पातों को क्षीण करने का यत्न किया। अंत में सर्पदंश से उनकी मृत्यु हो गई। इसलिये उनके पुत्र जन्मेजय ने मानवता के कल्याण के लिए सर्प-संहारक 'नागयज्ञ' किया। भ्रामक पूर्व धारणाएं कैसी कल्पनाओं को जन्म देती हैं, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। 'आर्य कहीं बाहर से आए' इस भूमिका ने इस नागयज्ञ की एक विचित्र व्याख्या को जन्म दिया, जो हिंदी के प्रसिद्घ साहित्यकार जयशंकर प्रसाद के नाटक 'जन्मेजय का नागयज्ञ' में देखी जा सकती है।
जन्मेजय के नागयज्ञ का यह चित्र, कृष्णा डाट कॉम के सौजन्य से है
मेरे बाबा जी कहते थे,
यह 'मथुरा' शत्रुघ्न ने बसाई होगी, पर यह कंस की मथुरा नहीं है।
वह किंवदंतियों से अरब प्रायद्वीप के उत्तर-पूर्व की नदी, जो पास में रत्नाकर (सिंधु सागर) में गिरती है, के तट पर बसे नगर को कंस की मथुरा बताते थे। प्राचीन भू-चित्रावली में यह नगर और नदी 'मथुरा' और 'यमन' के नाम से प्रसिद्घ थे। संसार की किंवदंतियां इसी प्रकार ग्रथित हैं। ऎसा भी हो सकता है कि भारतीय संस्कृति से प्रभावित इन क्षेत्रों के निवासियों ने अपनी मथुरा और यमुना बना ली हो। सागर तट पर बसी द्वारका पश्चिम से भारत आने का द्वार थी ही।
संसार में फैले राम और कृष्ण की लीला के चिन्ह अभी अनखोजे हैं। ये चिन्ह भारत में ही नहीं, संपूर्ण एशिया में, मध्य-पूर्व में, भूमध्य सागर के चारों ओर और सुदूर मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग में-जो प्राचीन सभ्यताओं की पृथ्वी को घेरती मेखला थी-में किसी-न-किसी रूप में फैले हैं। ये विष्णु के अथवा अन्य मंदिरों के रूप में हैं, अथवा प्राचीन मंदिरों में उत्कीर्ण कहानियों में विष्णु के प्रारंभिक अवतारों की झलक मिलती है। दुर्भाग्य से उनका संबंध उनके मूल और अखंड प्रेरणा के स्त्रोत भारत से छूट गया। दुर्दैव से कालांतर में भारत गुलाम होकर संकुचित हो गया। आज सारे संसार में फैली मेखला में भारतीय संस्कृति के अवशिष्ट चिन्हों का अर्थ, हेतु और व्याख्या यूरोपीय विद्वान खोजते हैं; पर भारतीय लोक-गाथाओं से अनभिज्ञ होने के कारण, स्पष्ट होने के बाद भी वे सांस्कृतिक प्रतीक एवं चिन्ह उनकी समझ से बाहर हैं।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों
uttam blog.....! gyaanvarddhak jaankaari
जवाब देंहटाएंसुना है महाभारत के समय नियमानुसार युद्ध सूर्योदय से प्रारम्भ होकर सूर्यास्त तक चलता था, फिर सभी अपने अपने शिविरों में चले जाते थे। कृपया इस पर भी कुछ प्रकाश डालें कि यह कैसे सम्भव होता था।
जवाब देंहटाएंपढ़ा है और सुना है, कि महाभारत के युद्ध के नियमानुसार युद्ध केवल सूर्योदय से सूर्यास्त तक होता था, शेष समय युद्ध नहीं होता था तथा सभी अपने शिविरों में आराम, मंत्रणा, चिकित्सा, भोजन, शयन इत्यादि किया करते थे। कृप्या इस पर प्रकाश डालें कि यह कैसे सम्भव होता था।
जवाब देंहटाएंsabava tha pahele xtireye yuda niyumo ke palan kasrte te uas samye bagwan kirsna ka raj tha
जवाब देंहटाएंभगवान श्रीकृष्ण जन्म और मृत्यु के परे हैं ।भगवान कृष्ण की मृत्यु हुई और कलियुग का आना है ऐसी भ्रामक ज्ञान नहीं फैलाने की कृपा करें ।
जवाब देंहटाएंJi ha bhagwan shree krishna ki mratyu hui thi.....kyoki bhagwan ne khud kaha hai ki jo dharti par janm leta hai uski mrityu nishchit hai.agar bhagwan krishna ne apni mrityu ka natak kar k sharir na tyaga hota to vishnu shiv bhrahma ka kathan asatya sabit hota...isiliye. Bhagwan ne kaha h jo janm lega vo marega ..khud krishna ne bola tha geeta me ki jo janm liya hai vo marega...agar bhagwan na mare hote to geeta galat saabit hoti...samjhe bhai..vo sansaar ko chhaliya ne chhal diya
जवाब देंहटाएंभगवान् श्री कृष्ण अजर और अमर हैं ।
जवाब देंहटाएंवो हम लोगो के ह्रदय में निवास करते हैं ।
रही शरीर की बात तो वह मिट्टी का होता है ।उस पर किसी का बस नही चलता क्योंकि ये तो एक अडिग सच है । कि इस संसार में जिसने जन्म लिया है ।उसकी मृत्यु निश्चित है चाहे वह इंसान हो या भगवान् । या कथन स्वंय भगवान् का ही है ।
नाम - यश पटेल
जिला - बाराबंकी
श्री कृष्ण मानव रूप में जन्मे और मानव की भांति मृत्यु को भी प्राप्त हुये, और यही वो सबको समझा गये कि जन्म के साथ मृत्यु जुडी है और वो आवश्यक है, जिसका हमें शोक नहीं करना चाहिये, यदि कुछ करना है तो जन्म और मृत्यु के बीच के समय(जीवन) को सफल बनाने के लिये श्रेष्ठ कर्म करने चाहिये।
हटाएंमानव को यह समझाने श्री कृष्ण मानव रूप में ही आये।
क्या श्री कृष्णा स शरीर गए ?
जवाब देंहटाएंभगवान कृष्ण के बारे में यह कथा कुछ पौराणिक ग्रंथों में मिलती है।कुछ संतों का मानना है कि प्रभु ने त्रेता में राम के रूप में अवतार लेकर बाली को छुपकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी।
जवाब देंहटाएंजिस तरह भगवान की मृत्यु हुई उसके पीछे भी एक कहानी जुडी हुई है, इसके अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि कृष्ण के पास पहुंचे और आज्ञा दी कि वे जब तक स्नान करके वापस लौटे, तब तक उनके लिए खीर का प्रसाद भोजन के रूप में तैयार रखें। भगवान ने ऐसा ही किया। ऋषि ने खीर खाई और जो थोड़ी सी बची, कृष्ण को आज्ञा दी कि वे इस बची खीर का अपने शरीर पर लेप कर लें। भगवान ने ऐसा ही किया। जब वे लेपन के बाद ऋषि के पास पहुंचे तो ऋषि ने कहा शरीर के जिस भाग पर तुमने मेरी झूठी खीर का लेप किया है, वह वज्र का हो गया है।
केवल पैरों के तलवे ही शेष रहे हैं।इसलिए जब भी तुम्हारी मृत्यु होगी, पैरों के तलवों पर ही प्रहार होगा। श्रीमद्भागवत पुराण के 11 वे स्कंध की कथा के अनुसार यदुवंश का नाश होने के बाद एक दिन भगवान प्रभास क्षेत्र में अकेले पैर पर पैर रखे पेड़ के तने से सट कर लेटे हुए थे। उनका लाल सुंदर तलवा एक बहेलिए को हिरण के मुंह के समान नजर आया। उसने बाण चलाया और भगवान के पैर के तलवे से खून की धार बह निकली। इस बाण पर लोहे के उसी मूसल का टुकड़ा लगा हुआ था। जिसे यदुवंशियों ने ऋषियों के शाप के बाद चूर कर समुद्र में बहा दिया था। इस तरह भगवान ने अपनी लीला को समेटा और अपने धाम चले गए।