गुरुवार, मई 29, 2008

गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा

भारत के पौराणिक राजवंशों में सबसे प्रसिद्ध इक्ष्‍वाकु कुल है। इस कुल की अट्ठाईसवीं पीढ़ी में राजा हरिश्‍चंद्र हुए, जिन्‍होंने सत्‍य की रक्षा के लिए सब कुछ दे दिया। इसी कुल की छत्‍तीसवीं पीढ़ी में सगर नामक राजा हुए। ‘गर’ (विष ) के साथ पैदा होने के कारण वह ‘सगर’ कहलाए। सगर चक्रवर्ती सम्राट बने। अपने गुरूदेव और्व की आज्ञा मानकर उन्‍होंने तालजंघ, यवन, शक, हैडय और बर्बर जाति के लोगों का वध न कर उन्‍हें विरूप बना दिया। कुछ के सिर मुँड़वा दिए, कुछ की मूँछ या दाढ़ी रखवा दी। कुछ को खुले बालों वाला रखा तो कुछ का आधा सिर मुँड़वा दिया। किसी को वस्‍त्र ओढ़ने की अनुमति दी, पहनने की नहीं और कुछ को केवल लँगोटी पहनने को कहा। संसार के अनेक देशों में इस प्रकार के प्राचीन काल में रिवाज थे। इनकी झलक कहीं-कहीं आज भी दिखती है। भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा गंगावतरण, जिसके द्वारा भारत की धरती पवित्र हुई, इन राजा सगर से संबंधित है।


गंगा-यमुना संगम, प्रयाग

उनके राज्‍य में एक बार बारह वर्ष तक अकाल पड़ा। भयंकर सूखा और गरमी के कारण हाहाकार मच गया। तब राजा सगर से यज्ञ करने को कहा गया एक उद्देश्‍य से एकजुट होना ही यज्ञ है। राजा सगर ने सौवें यज्ञ का घोड़ा छोड़ा। वह एक स्‍थान पर एकाएक लुप्‍त हो गया। जब हताश हो लोग राजा के पास आए तो उसने उसी स्‍थान के पास खोदने की आज्ञा दी। प्रजाजनों ने वहॉं खोदना प्रारंभ किया। पर न कहीं अश्‍व मिला, न जल निकला। खोदते हुए वे पूर्व दिशा में कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे। कपिल मुनि सांख्‍य दर्शन के प्रणेता और भगवान् के अंशावतार माने गए हैं। ऐसा उनके दर्शन का माहात्‍म्‍य है। उन्‍हीं के आश्रम में कपिला गाय कामधेनु थी, जो मनचाही वस्‍तु
प्रदान कर सकती थी। वहीं पर वह यज्ञ का अश्‍व बँधा दिखा। तब लोग बिना सोचे-समझे कि किसने बॉंधा, कपिल मुनि को ‘चोर’ आदि शब्‍दों से संबोधित कर तिरस्‍कृत करने लगे। मुनि की समाधि भंग हो गई और लोग उनकी दृष्टि से भस्‍म हो गए।

संगम- प्रयाग से सूर्यास्त

राजा सगर की आज्ञा से उनका पौत्र अंशुमान घोड़ा ढूँढ़ने निकला और खोजते हुए प्रदेश के किनारे चलकर कपिल मुनि के आश्रम में साठ हजार प्रजाजनों की भस्‍म के पास घोड़े को देखा। अंशुमान की स्‍तुति से कपिल मुनि ने वह यज्ञ-पशु उसे दे दिया, जिससे सगर के यज्ञ की शेष क्रिया पूर्ण हुई। कपिल मुनि ने कहा,
‘स्‍वर्ग की गंगा यहॉं आएगी तब भस्‍म हुए साठ हजार लोग तरेंगे।‘

तब अंशुमान ने स्‍वर्ग की गंगा को भरतभूमि में लाने की कामना से घोर तपस्‍या की। उनका और उनके पुत्र दिलीप का संपूर्ण जीवन इसमें लग गया, पर सफलता न मिली। तब दिलीप के पुत्ररू भगीरथ ने यह बीड़ा उठाया।

यह हिमालय पर्वत (कैलास) शिव का निवास है, और मानो शिव का फैला जटाजूट उसकी पर्वत-श्रेणियॉं हैं। त्रिविष्‍टप ( आधुनिक तिब्‍बत) को उस समय स्‍वर्ग, अपवर्ग आदि नामों से पुकारते थे। उनके बीच है मानसरोवर झील, जिसकी यात्रा महाभारत काल में पांडवों ने सशरीर स्‍वर्गारोहण के लिए की। इस झील से प्रत्‍यक्ष तीन नदियॉं निकलती हैं। ब्रम्‍हपुत्र पूर्व की ओर बहती है, सिंधु उत्‍तर-पश्चिम और सतलुज (शतद्रु) दक्षिण-पश्चिम की ओर।
यह स्‍वर्ग का जल उत्‍तराखंड की प्‍यासी धरती को देना अभियंत्रण (इंजीनियरी) का अभूतपूर्व कमाल होना था। इसके लिए पूर्व की अलकनंदा की घाटी अपर्याप्‍त थी।

संगम-प्रयाग में माघ मेला पर पूजा का दृश्य

यह साहसिक कार्य अंशुमान के पौत्र भगीरथ के समय में पूर्ण हुआ, जब हिमालय के गर्भ से होता हुआ मानसरोवर (स्‍वर्ग) का जल गोमुख से फूट निकला। गंगोत्री के प्रपात द्वारा भागीरथी एक गहरे खड्ड में बहती है, जिसके दोनों ओर सीधी दीवार सरीखी चट्टानें खड़ी हैं। किंवदंती है कि गंगा का वेग शिव की जटाजूट ने सँभाला। गंगा उसमें खो गई, उसका प्रवाह कम हो गया। जब वहॉं से समतल भूमि पर निकली तो भगीरथ आगे-आगे चले। गंगा उनके दिखाए मार्ग से उनके पीछे चलीं। आज भी गंगा को प्रयाग तक देखो तो उसके तट पर कोई बड़े कगार न मिलेंगे। मानो यह मनुष्‍य निर्मित नगर है। ऐसा उसका मार्ग यम की पुत्री यमुना की नील, गहरे कगारों के बीच बहती धारा से वैषम्‍य उपस्थित करता है। प्रयाग में यमुना से मिलकर गंगा की धारा अंत में गंगासागर ( महोदधि) में मिल गई। राजा सगर का स्‍वप्‍न साकार हुआ। उनके द्वारा खुदवाया गया ‘सागर’ भर गया और उत्‍तरी भारत में पुन: खुशहाली आई। आज का भारत गंगा की देन है।

पूर्वजों द्वारा लाई गई यह नदी पावन है। इसे ‘गंगा मैया’ कहकर पुकारा जाता है। इसके जल को बहुत दिनों तक रखने के बाद भी उसमें कीड़े नहीं पड़ते । संभवतया हिमालय के गर्भ, जहॉं से होकर गंगा का जल आता है, की रेडियो-धर्मिता के कारण ऐसा होता है। प्राचीन काल में, इसकी धारा अपवित्र न हो, इसका बड़ा ध्‍यान रखा जाता था। बढ़ती जनसंख्‍या और अनास्‍था के कारण इसमें कमी आई होगी। पर गंगा की धारा भारतीय भारतीय संस्‍कृति की प्रतीक बनी। कवि ने गाया –
‘यह कल-कल छल-छल बहती क्‍या कहती गंगा-धारा, युग-युग से बहता आता यह पुण्‍य प्रवाह हमारा।‘


कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा

मंगलवार, मई 20, 2008

राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा

इस कालखंड में पहुँचकर ‘क्षत्रिय’ और ‘राजा’ की उत्‍पत्ति पर विचार करना पड़ेगा। कहते हैं कि आपस में लड़ाई-झगड़ों से तंग आकर सब ब्रम्‍हा के पास गए। ब्रम्‍हा न स्‍वायंभुव मनु से प्रजापालन हेतु कहा। पहले मनु ने इनकार किया। जब प्रजा ने आश्‍वासन दिया कि हम छठा भाग राज्‍य-संचालन के लिए देंगे तथा सत्‍कर्म का भी छठा भाग देंगे और आपकी बात मानेंगे, तब मनु प्रजापति बने। उस समय की अत्‍यंत विरल जनसंख्‍या में शासन का विधिसंगत प्रारंभ बताने के लिए इस प्रकार की कथा प्रतिपादित की गई। यही रूसी (Rousseau) के सामाजिक अनुबंध (Social Contract) के सिद्धांत की पूर्व पीठिका है।

दूसरी कथा है कि पहले धर्म का शासन था। उसका ह्रास होने पर नीति शास्‍त्र की रचना की गई और विरज शासक हुआ। इस विरज के दो पीढ़ी बाद वेन, जिसे मृत्‍यु का नाती बताया गया है, अगुआ बना। यह राग-द्वेष के वशीभूत हो प्रजा को धर्म से च्‍युत करने लगा तो ऋषियों ने मंत्रपूत कुशाओं से उसे मार डाला। अराजकता बढ़ने पर शव के दाहिने हाथ को मथकर पृथु को उत्‍पन्‍न किया। इसे भगवान् का अंशावतार कहते हैं। ऋषियों ने पृथु से कहा कि वह स्‍वयं दुर्गुणों से रहित होकर धर्म की रक्षा करे और अधर्मियों को दंड दे। पृथु ने यह मान लिया। वह प्रजा का रंजन करने के कारण ‘राजा’ कहलाया और क्षतों से त्राण करने के कारण ‘क्षत्रिय’ । पृथु के नाम पर ही यह वसुंधरा ‘पृथ्‍वी’ कहलाई।

पृथु के अभिषेक के पहले वेन के अनाचार से और कोई प्रजापालक न रहने के कारण पृथ्‍वी अन्‍नहीन हो गई थी और प्रजाजनों के शरीर सूखकर कॉंटे। इस पर पृथु ने गौ रूपिणी पृथ्‍वी से कहा, ‘तू यज्ञ में देवता रूप में भाग तो लेती है, किन्‍तु बदले में हमें अन्‍न नही देती।‘ तब पृथ्‍वी ने कहा, ‘राजा लोगों ने मेरा पालन तथा आदर करना छोड़ दिया है। दुष्‍ट और चोर सर्वरूत्र फैले हैं। इसलिए धान्‍य और औषध को मैंने छिपा रखा है। अब आप मुझे समतल करें, जिससे इंद्र का बरसाया जल सदैव बना रहे। फिर मेरे योग्‍य बछड़े की व्‍यवस्‍था कर इच्छित वस्‍तु दुह लें।‘ पृथु ने पर्वतों को फोड़ भूमि समतल की। यथायोग्‍य निवास स्‍थान बनाकर प्रजा के पालन-पोषण की व्‍यवस्‍था की। गॉंव, कस्‍बे, नगर, दुर्ग, पशुओं के स्‍थान, छावनियॉं, खानें आदि बसाईं। पहले इस प्रकार के ग्राम, नगर आदि का विभाजन न था। फिर पृथु ने धान्‍य, औषध तथा खनिज आवश्‍यकतानुसार और बछड़े का ध्‍यान रखकर दुहा। इस प्रकार पृथु के समय कृषि और धातु उद्योग मानव समाज को प्राप्‍त हुए तथा ग्राम-नगर से युक्‍त सभ्‍यता आई। पर साथ-साथ उठा पर्यावरण और वनस्‍पति एवं प्राणिमात्र के संरक्षण का विचार, उसकी नितांत आवश्‍यकता तथा प्रकृति के प्रति भक्ति।



कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा

गुरुवार, मई 15, 2008

वामन अवतार और बलि

अगली कथा प्रहलाद के पौत्र बलि की है। बलि ने शुक्राचार्य आदि भृगुवंशियों की सेवा कर एवं विश्‍वजित यज्ञ कर सोने की चादर से मढ़ा दिव्‍य रथ तथा धनुष, दो अक्षय तूणीर और कवच प्राप्‍त किए थे। इनसे युक्‍त होकर बलि ने इंद्र की नगरी अमरावती और सारे विश्‍व को जीत लिया। तब उसने सौ अश्‍वमेध यज्ञ किए।

अंतिम यज्ञ के समय एक नन्‍हें ब्रम्‍हचारी ने यज्ञ- मंडप में प्रवेश किया। बलि ने अवसर के अनुसार स्‍वागत कर जो चाहे मॉंगने को कहा। वामन ने कुल परपरा एवं धर्माचरण की प्रशंसा करते हुए और उसकी दानवीरता की दुहाई देकर केवल तीन पग पृथ्‍वी मॉंगी। बलि ने पूरा द्वीप मॉंगने को कहा। पर वामन अपने आग्रह पर डटा रहा, ‘चक्रवर्ती नरेश भी धन और भोग की सामग्री प्राप्‍त होने पर तृष्‍णा का पार न पा सके। संतोषी, इंद्रियोंको वश में रखने वाला व्‍यक्ति ही सुखी रहता है। इसलिए जितने से मेरा काम बने, वह तीन पग मॉंगता हूँ।‘ बलि हँस पड़ा, ‘जितनी इच्‍छा हो, ले लो।‘ कहकर संकल्‍प को उद्यत हुआ। इस पर शुक्राचार्य ने मना किया ‘यह तीन पग में सारे लोक नाप लेगा। जब तुम सर्वस्‍व दे दोगे तब निर्वाह कैसे होगा? अपनी जीविका की रक्षा के लिए, प्राण संकट पर या किसी को मृत्‍यु से बचाने के लिए असत्‍य भाषण उतना निंदनीय नहीं है।‘ पर बलि न माना और पत्‍नी से जल ले संकल्‍प किया।

तब एक अद्भुत घटना घटी । वामन का रूप बढ़कर संसार-व्‍यापी हो गया। दो पगों में ही उसने तीनों लोकों को नाप लिया। तब बलि से कहा, ‘तुमने मुझे तीन पग पृथ्‍वी देने का दंभ किया था। अब तीसरे पग का स्‍थान कहॉं ?’ इस पर बलि ने अपना सिर दिखा दिया। वामन ने उसे पाताल लोक में राज्‍य करने भेज दिया। कहा, ‘जो तुम्‍हारा असुर भाव होगा वह मेरे संसर्ग से नष्‍ट हो जाएगा।‘ इस प्रकार वामन ने बलि से पृथ्‍वी की भिक्षा मांग कर देवताओं को स्‍वर्ग लौटा दिया। बाद में बलि इंद्र बना।


इसी कथा से प्रेरित हो कर जयंत विष्णु नार्लीकर ने एक विज्ञान कहानी द रिटर्न ऑफ वामन (The Return of Vaman) लिखी

यह समाज की अगली सभ्‍य अवस्‍था का चित्र है। वामन शिशु रूप समाज है। तब हिंसा अथवा ‘जंगल के नियम’ की आवश्‍यकता नहीं पड़ी। यह शिशु रूपी समाज सब जगह फैल गया। इसके मॉंगने मात्र से अधिकार मिल गए। इस कथा से स्‍पष्‍ट है कि असुर को भी आसुरी भाव नष्‍ट होने पर देवताओं का राज्‍य एवं इंद्र पद मिल सकता है।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी

०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि

मंगलवार, मई 06, 2008

हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद

अमृत-मंथन से अंकुरित, विभिन्‍नताओं के बीच अनेक उपासना पद्धतियों का समन्‍वय करते हुए, सभी प्रकार के मत-मतांतरों को समेटकर एक सहिष्‍णु सामाजिक जीवन देवों के उपासकों के देश में प्रारंभ हुआ। पर असुरों के उपासक भारत से गए नहीं। अगली कहानी असुर राजा हिरण्‍यकशिपु की है।
‘हिरण्‍यकशिपु तथा हिरण्‍याक्ष दो जुड़वॉं भाई थे। जिस समय वे पैदा हुए, पृथ्‍वी एवं अंतरिक्ष में अनेक उत्‍पात होने लगे। पृथ्‍वी और पर्वत कॉंपने लगे, सब दिशाओं में दाह होने लगा। उल्‍कापात होने लगा और बिजलियॉं गिरने लगीं। घटाऍं छा गईं। समुद्र कोलाहल करने लगा। बिना बादलों के गरजने का शब्‍द होने लगा तथा गुफाओं से रथ की घरघराहट-सा शब्‍द निकलने लगा। पशु अमंगल शब्‍द करते, रेंकते, पागल होकर इधर-उधर दौड़ने लगे और मल-मूत्र त्‍याग करने लगे। ये दोनों दैत्‍य सहसा अपने फौलाद के समान कठोर शरीर से पर्वताकार हो गए। उनका हेमकिरीट स्‍वर्ग को छूता था। जब वे कदम रखते तब भूकंप आता।‘
श्रीमद्भागवत का यह वर्णन ज्‍वालामुखी पर्वतों के जन्‍म का है। हिरण्‍याक्ष तो वाराह के समय नष्‍ट हो गया, हिरण्‍यकशिपु सहस्‍त्रों शताब्दियों तक जीवित रहा। हिरण्‍यकशिपु का शाब्दिक अर्थ ‘स्‍वर्ण कछुआ’ या ‘स्‍वर्ण पर्वत’ है। कालांतर में एक असुर राजा हुआ जो ‘हिरण्‍यकशिपु’ अर्थात् उस ज्‍वालामुखी का पुजारी या प्रवक्‍ता बना। इसी से वह स्‍वयं हिरण्‍यकशिपु कहलाया। असुरों को इस प्रकार शक्ति दिखाने की माया आती थी। कहते हैं, हिरण्‍यकशिपु राजा ने तप किया। (ज्‍वालामुखी का आगे वर्णन चलता है) जब बहुत दिनों तक तपस्‍या करते वह मिट्टी के ढेर में छिप गया तब उसके सिर से अग्नि धुऍं के साथ निकलने लगी और लोगों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप एवं पर्वतों सहित पृथ्‍वी डगमगाने लगी। दसों दिशाओं में आग लग गई। तब ब्रम्‍हा वहॉं गये । हिरण्‍यकशिपु ने वर मॉंगा—
‘आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्‍य, पशु, देवता, दैत्‍य, नागादि किसी से मेरी मृत्‍यु न हो। मैं समस्‍त प्राणियों पर राज्‍य करूं।‘
ब्रम्‍हा से वरदान पाकर दैत्‍यराज ने समस्‍त प्राणियों को जीतकर अपने वश में कर लिया। पृथ्‍वी के सातों द्वीपों पर उसका अखंड राज्‍य था। ऐश्‍वर्य के मद में मतवाला और घमंड में चूर होकर उसने अपने को ‘भगवान’ प्रसिद्ध किया और अत्‍याचारी बना।

जब हिरण्‍यकशिपु तप के द्वारा शक्ति बटोर रहा था, उसकी रानी ने नारद के आश्रम में शरण ली। वहॉं प्रहलाद नामक पुत्र पैदा हुआ। आश्रम के संस्‍कारों के कारण वह समस्‍त प्राणियों के साथ समता का बरताव करने वाला, सबका प्रिय, हितैषी एवं गुणी हुआ। हिरण्‍यकशिपु के लौटने पर प्रहलाद ने कहा,
‘अपने-पराए का भेदभाव झूठा है। इसे अज्ञानी करते हैं। भगवान सबके अन्‍दर, सब जगह है।‘
प्रहलाद ने अपने पिता को भगवान मानने से इनकार किया और समझाने में न आया। अपने साथियों को भी आसुरी प्रवृत्ति और विषयों में आसक्ति त्‍याग सबकी भलाई करने की सलाह दी। हिरण्‍यकशिपु ने पहले ताड़ना दी, फिर उसके मरवाने के यत्‍न किए। उसे मतवाले हाथी के सामने डाला गया, पर हाथी ने उठा लिया। विषधर सॉंपों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। पहाड़ की चोटी से नीचे गिराने तथा चट्टान से दबाने पर भी वह बच गया।

हिरण्‍यकशिपु को चिंति‍त देख उसकी बहन होलिका ने प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करने का प्रस्‍ताव रखा। होलिका को वर प्राप्‍त था कि वह स्‍वयं अग्नि में न जलेगी। पर जब होलिका प्रहलाद को गोद में ले चिता पर बैठी तो एक चमत्‍कार हुआ। होलिका जल गई—दूसरे के साथ, हृदय में पाप लेकर जो बैठी थी। पर प्रहलाद को अग्नि ने छुआ भी नहीं। प्रहलाद रूपी संस्‍कृति बच गई। तभी फाल्‍गुन की पूर्णिमा को इसी स्‍मृति में प्रति वर्ष पतझड़ के पत्‍ते और डाल इकट्ठा कर होली जलाते हैं। और अगले दिन प्रहलाद के जीवित निकलने के उपलक्ष्‍य में रंग और गुलाल डालकर तथा गले मिलकर बधाई देते और खुशियॉं मनाते हैं। हृदय का कल्‍मष जलाकर, बुराई को त्‍यागकर और पुराने अप्रिय प्रसंगों को भूलकर पुन: संस्‍कृति में पगें।

तब हिरण्‍यकशिपु ने प्रहलाद से पूछा,
‘किसके बलबूते पर तू मेरी आज्ञा के विरूद्ध कार्य करता है ?’
प्रहलाद ने कहा,
‘आप अपना असुरभाव छोड़ दें । सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की पूजा है।‘
हिरण्‍यकशिपु क्रोध में कहा,
‘तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्‍वामी बताता है। कहॉं है वह तेरा जगदीश्‍वर ? क्‍या इस खंभे में है जिससे तू बँधा है ?’
कहकर खंभे में घूँसा मारा। तभी खंभा भयंकर शब्‍द के साथ फट गया और उसमें से एक डरावना रूप प्रकट हुआ। सिर सिंह का और धड़ मनुष्‍य का, पीली ऑंखें, जम्‍हाई लेते समय लहराती अयाल, विकराल डाढ़ें, तलवार-सी लपलपाती जीभ। सिंह का भयानक मुख और अनेक बड़े नखों से युक्‍त हाथ कँपकँपी पैदा करते थ। यही ‘नृसिंह अवतार’ है। वेग से नृसिंह ने हिरण्‍यकशिपु को पकड़ लिया और द्वाभा की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जॉंघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्‍त्र से, न शास्‍त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला। हजारों सैनिक जो प्रहार करने आए, उन्‍हें नृसिंह ने हजारों भुजाओं और नख रूपा शस्‍त्रों से खदेड़कर मार डाला।

फिर क्रोध से उद्दीप्‍त नृसिंह सिंहासन पर जा बैठा। किसी को पास जाने का साहस न हुआ। तब प्रहलाद ने दंडवत हो उसकी प्रार्थना की। प्रहलाद का राजतिलक करने के बाद नृसिंह चला गया।

नृसिंह अपने सहस्‍त्रों हाथों सहित समाज का क्रोधित अर्द्ध जंगली स्‍वरूप है। उस समय समाज पशुभाव से पूर्णरूपेण उठ नहीं पाया था। प्रहलाद रूपी संस्‍कृति ने समता का – सभी वस्‍तुओं में भगवान के दर्शन का-संदेश दिया। उसकी रक्षा समाज ने सत्‍ता के विरूद्ध विद्रोह करके और अपना क्रोध दिखाकर की। उस अत्‍याचारी का, जो लगता था कि अमर है, हनन किया। संस्‍कृति की रक्षा हुई और समाज का कार्य संपन्‍न हुआ।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी


०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि