कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१ संक्षेप में२ प्रस्तावना
वसंत ऋतु की यह सुहावनी अँधेरी रात्रि। आओ, बाहर निकलकर देखें। अभी आठ बजे हैं और रात्रि प्रारंभ हुई है। सारे आकाश में तारे छिटके हुए हैं। यह अनंताकाश और इसमें टिमटिमाते आसमानी दीपक, इन्होंने कितनी सुंदर कवि- कल्पनाओं को जन्म दिया है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने इस आकाश के गोले यानी खगोल (celestial sphere) को देखा था और इसमें चित्रित अनेक तारा समूह, जिन्हें उन्होंने नक्षत्र (constellation) की शंज्ञा दी, देखकर भिन्न-भिन्न आकारों की कल्पनाऍं की थीं। उन्हीं आकारों से या उनमें स्थित प्रमुख तारे के नाम से ये नक्षत्र पुकारे जाने लगे। तारे और नक्षत्रों के ये नाम भारतीय ब्रम्हांडिकी (Cosmology) की देन है।
जैसे-जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, तारे पूर्व से पश्चिम की ओर चक्कर काटते दिखाई पड़ते हैं। आकाश में रविमार्ग अर्थात पृथ्वी का केन्द्र, जिस समतल में सूर्य के चारों ओर घूमता है, उसका खगोल (आकाशीय गोले) पर प्रक्षेपण ‘क्रांतिवृत्त’ कहलाता है। इस आकाशीय मार्ग (क्रांतिवृत्त) को १२ बराबर भागों में बॉंटा गया है, जिन्हें राशियां कहते हैं। पूरे वृत्त में ३६० अंश होते हैं, इसलिए प्रत्येक राशि ३० अंश की है। यह क्रांतिवृत्त २७ नक्षत्रों से गुजरता है और इस प्रकार एक राशि में सवा दो नक्षत्र हैं। ये सभी भारतीय गणनाऍं हैं।
अभी आकाशमंडल के शिरोबिंदु से दक्षिण-पश्चिम में मृगशिरा नक्षत्र (Orion)है, जो आकाश के सबसे मनोहर दृश्यों में से एक है। इसे देहात में ‘हिरना-हिरनी’ कहते हैं। इसमें तीन तारों का एक कटिबंध है और उत्तर की ओर है एक लाल तारा ‘आर्द्रा’, तथा दक्षिण में एक चमकदार नीला तारा। कटिबंध एवं पश्चिम के तारे मानो मृग का सिर है और लटकते तीन तारे खूँटा और रस्सी हैं, जिससे वह मृग बंधा है। यह रस्सी खूँटे की रेखा दक्षिण क्षितिज को दक्षिणी बिंदु पर काटती है। इसके पूर्व मिथुन राशि में दो चमकते तारे हैं—‘पुनर्वसु’ एवं ‘कस्तूरी’। उसके पूर्व कर्क राशि में ‘पुष्य’ और ‘अश्लेषा’ हैं तथा उसके भी पूर्व सिंह राशि में ‘मघा’ तारे का उदय हो चुका है। मृगशिरा नक्षत्र के पश्चिम में है रोहिणी नक्षत्र तथा उसी नाम का तारा। उसके पश्चिम दिख रही हैं कृत्तिकाऍं (Pleiades), छोटे-छोटे तारों से भरा एक छोटा सा लंबा-तिकोना पुंज, जिसे देहात में ‘कचबचिया’ कहते हैं। इन्हें छोड़ उत्तर की ओर दृष्टि डालें तो ध्रुव तारा है और उसके कुछ दूर पूर्व में उदित हुए सप्तर्षि, जिन्हें पहले ऋक्ष ( इसी से अंग्रेजी में Great Bear) कहते थे। इनका चौखटा ऊपर निकल आया है और तीन तारों के हत्थे का अंतिम तारा उदित होने जा रहा है। हत्थे के बीच का तारा ‘वसिष्ठ’ है। उसी के बिल्कुल समीप बहुत मद्धिम ‘अरूंधति’ है। चौखटे के ऊपरी दो तारे सीधे ध्रुव तारे की ओर इंगित करते हैं। ध्रुव तारे से नीचे क्षितिज की ओर सप्तर्षि के आकार की ही ऋक्षी (Little Bear) है, जिसके हत्थे का अंतिम तारा ध्रुव है। वैसे ही प्रभात में पॉंच बजे शीर्ष स्थान से कुछ पश्चिम दो ज्वलंत तारे ‘स्वाति’ एवं ‘चित्रा’ क्रमश: थोड़ा उत्तर व दक्षिण में दिखाई देंगे। शीर्ष स्थान के आसपास ‘विशाखा’ नक्षत्र के चार तारे मिलेंगे और पूर्व-दक्षिणी आकाश में वह बिच्छू की शक्ल, वृश्चिक राशि। इस बिच्छू के डंक का चमकीला तारा ‘मूल नीचे की ओर है पर आकाश में सबसे चमकदार तारा ‘ज्येष्ठा’ पास अपनी लाल छवि दिखा रहा है। उसके पश्चिम, जहाँ से बिच्छू के मुख के पंजे प्रारंभ होते हैं, है ‘अनुराधा’।
रात्रि को मृगशिरा के दक्षिण में जिसका आभास-सा दिखेगा, वह गरमी में और भी स्पष्ट, आकाशगंगा की ‘दूध धारा’ (the Milky Way) है। अगणित तारे इस आकाशीय दूध धारा के अंदर दिखते हैं। आकाश गंगा में फैले अगणित तारापुंज हमारी नीहारिका (Galaxy) बनाते हैं। कैसा है यह रंगमंच, जिसके अनंताकाश के धूल के एक कण के समान इस पृथ्वी के अंदर जीवन का उदय हुआ, जिसकी यह कहानी है।
यह नीहारिका [‘दूध धारा’ (the Milky Way)] अधिकांशत: आकाश या शून्यता है, जिसमें अचानक कहीं छोटे से जलते प्रकाश-कण के समान विशाल और लगभग अपरिमित दूरी के बाद तारे मिल जाते हैं। जिस प्रकाश की गति लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड है उसे भी निकटस्थ तारे से पृथ्वी तक आने में साढ़े चार वर्ष और दूर के तारों से तो लाखों वर्ष लगते हैं। कहते हैं कि हमारी नीहारिका एक-दूसरे से ढकी दो तश्तरियों के समान एक दीर्घवृत्तज (ellipsoid) है, जिसके किनारे आकाश गंगा के रूप में दिखते हैं। इसी से संस्कृत में इसे ‘ब्रम्हांड’ कहा गया। आज विज्ञान कहता है कि इन तारों का रहस्य मानव उसी प्रकार जान रहा है जैसे सागर तट पर बालू के कुछ लोकोक्ति कण उसके हाथ पड़ गए हों। इससे समझ सकते हैं कि भारतीय ब्रम्हांडिकी की देन कितनी बड़ी है।
उन [तारों] की दूरी का पता लगाना भी ‘लंबन सिद्धांत’ (parallax) पर आधारित है। रेलगाड़ी में हम यात्रा कर रहे हों तो खिड़की से दिखता है कि पास के पेड़, खंभे या मकान हमारे विरूद्ध दौड़ रहे हैं, और दूर की वस्तुऍं हमारी ही दिशा में। पृथ्वी भी वर्ष में दो बार—अर्थात२२ जून को, जब दिन सबसे बड़ा तथा रात्रि सबसे छोटी होती है और २२ दिसंबर को, जब दिन सबसे छोटा और रात्रि सबसे बड़ी होती है - अपने सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्त कक्षा के दो दूरस्थ बिंदुओं (पात: elliptical nodes)पर रहती है। इन दोनों बिंदुओं से तारों का लंबन नापकर उनकी दूरी की गणना की गई। भारतीय गणितज्ञ भी इस सिद्धांत से भलीभांति परिचित थे।
कुछ युग्म तारे (double stars) हैं। एक भीमकाय तारे के साथ एक वामन तारा एक-दूसरे का चक्कर काट रहे हैं। उभयनिष्ठ परिभ्रमण में जब भीमकाय सूर्य तारे और पृथ्वी के बीच यह काला एवं अंध वामन तारा आ जाता है तो प्रकाश कुछ धीमा पड़ जाता है। यह काला वामन भीमकाय सूर्य की तुलना में सदा बहुत छोटा, पर अत्यधिक सघन होता है। सप्तर्षि मंडल में उल्लिखित वसिष्ठ और अरूंधति (वसिष्ठ पृथ्वी के पास एवं अरूंधति बहुत दूर), दोनों ऐसे ही युग्म तारे हैं।
कहीं-कहीं अपारदर्शी भीमकाय काले गड्ढे आकाश में दिखाई पड़ते हैं। ये काले छिद्र (black holes) (या ‘कालछिद्र’ इन्हें कहें क्या ?) संभवतया ऐसे पदार्थ या तारे हैं जो प्रकाश-कण को भी आकर्षित करते हैं, अर्थात प्रकाश-कण (photons) उससे बाहर नहीं निकल सकते। कहते हैं कि इन तारों की एक चम्मच धूलि इतनी सघन है कि वह इस पृथ्वी के लाखों टन द्रव्यमान (mass) के बराबर है। इन ‘कालछिद्रों’ के अंदर कैसा पदार्थ है, हम नहीं जानते।किस भयंकर ऊर्जा-विस्फोट के दाब ने परमाणु की नाभि (nucleus) और विद्युत कणों (electrons) को इस प्रकार पीस डाला कि ऐसे अति विशाल घनत्व के पदार्थ का सृजन हुआ? वहॉं पर भौतिक नियम, जैसे हम जानते हैं, क्या उसी प्रकार क्रिया करते हैं ? और ‘काल’ की गति वहॉं क्या है, कौन जाने।
हम जानते हैं कि संसार में निरपेक्ष स्थिरता या गति नहीं है। सभी सापेक्ष र्है। आकाशीय पिंडों में कोई ऐसा नहीं जिसे हम स्थिर निर्देश बिंदु मान सकें। यह प़ृथ्वी अपने अक्ष पर घूम रही है, जिससे दिन-रात बनते हैं। यह सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में घूमती है। इसका अक्ष भ्रमण कक्षा के समतल पर लंब (perpendicular) नहीं, पर लगभग २३.२७ अंश का कोण बनाता है। इससे ऋतुओं का सृजन होता है। यजुर्वेद (२००० संवत पूर्व) के अध्याय 3 की कंडिका छह में कहा गया है- ‘यह पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर अंतरिक्ष में घूमती है जिससे ऋतुऍं उत्पन्न होती हैं।‘ इसी प्रकार सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घूम रहे हैं। उनकी कक्षाओं में भी कोणीय गति है। इनके अक्ष भी कहीं-कहीं टेढ़े नाचते हुए लट्टू के अक्ष की भॉंति घूमते हैं।
सूर्य सौरमंडल सहित अपनी नीहारिका, आकाशगंगा में अनजाने पथ का पथिक है। यह नीहारिका भी घूम रही है अनजाने केंद्र के चारों ओर। संभवतया यह केंद्र ऋग्वैदिक ‘वरूण’ है। लगभग ८० करोड़ सूर्य इस नीहारिका में है। तारे, जो शताब्दियों के खगोलीय वेध के बाद ऊपरी तौर पर स्थिर दिखते हैं, अज्ञात पथ पर चल रहे हैं। इन हलचलों के गड़बड़झाले के बीच कौन कह सकता है, क्या गतिमान है और क्या स्थिर। सभी गति सापेक्ष हैं और सारा ब्रम्हाण्ड आंदोलित है।
गुरूत्वाकर्षण, जो पदार्थ मात्र का गुण है,सदा से वैज्ञानिकों के लिये एक पहेली रहा है। वैशेषिक दर्शन (२००० विक्रमी पूर्व) में इसका उल्लेख आया है। आज भी यह पहेली अनबूझी है और प्रकृति का यह नियम है, कहकर हमने छुट्टी पा ली है। पर हम जानते हैं कि चुंबकीय या विद्युतीय आकर्षण (attraction) और अपकर्षण (repulsion) दोनों होते हैं। गुरूत्वाकर्षण और त्वरित गति (acceleration) दोनों के प्रभाव समान हैं। अत: ऐसे ही क्या कहीं कोई विलोम-द्रव्य (anti-matter) है, जिसका प्रभाव अपकर्षण होगा ? यह जादुई द्रव्य अभी मिला नहीं।
साधारणतया पृथ्वी पर हम आकाशीय समष्टि (space) की तीन विमाओं (dimensions) का जगत जानते हैं; पर सापेक्षिकता सिद्धांत इसमें एक नई दिशा, विमा जोड़ देता है ‘समय’ (time) की। इस दिक-काल (space-time) के चतुर्विमीय ताने-बाने में यह संसार बुना हुआ है। गतिमान जगत में कहीं पर भी समय निर्धारण करने पर ही हमें किसी ( आकाशीय) पिंड की सही स्थिति का ज्ञान हो सकता है। पर ‘काल’ विचित्र विमा है। समष्टि की तीन विमाओं में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, सभी ओर जा सकते हैं; पर ‘काल’ या ‘समय’ सदैव एक ओर प्रवाहित होता है। यह अटल है। बीता हुआ समय फिर कभी वापस नहीं आता। (चाहे जैसी कल्पनाऍं विज्ञान कहानियॉं कर लें।) उसकी यह कैसी अक्षय,अनंत गति है, कौन सा भयानक रहस्य इसमें बँधा है? इसने प्राचीन काल से दार्शनिकों को विमोहित किया है। आज तक इसकी गुत्थी पर जितना विचार हुआ, यह उतनी ही उलझती गयी। ‘काल’ के मूलभूत स्वरूप के बारे में उसकी प्रकृति एवं क्रियाओं पर सोचते हुये भारतीय चिन्तकों ने भौतिकी ( Physics) से पराभौतिकी (Metaphysics) में अतिक्रमण किया है। अंततोगत्वा यह कोरे सिद्धान्तवाद के कल्पना विलास में विलीन हो जाता है। पर इतिहास समय के साथ ग्रथित है।
सूर्य, जिसे हमने जीवन का दाता कहा, अनन्य ऊर्जा केन्द्र है। यह पीला तारा है, तारों के विकास-क्रम में प्रौढ़। यह पृथ्वी से लगभग १५ करोड़ किलो मीटर दूर एक आग का गोला है, जहां तप्त-दीप्त धातुओं के वाष्प बादल हिरण्यगर्भ में घुमड़ते रहते हैं। वहाँ से प्रकाश की किरण को पृथ्वी पर आने में लगभग 9 मिनट लगते हैं। सौरमंडल में सूर्य के प्रकाश से आलोकित दस ग्रह एवं अनेक ग्रहिकाऍं हैं, जो दीर्घवृत्त (ellipse) कक्षा में उसकी नाभि पर स्थित सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त हैं अंतरिक्ष से प्रेत की भॉंति पूँछ फटकारते कभी-कभार आने वाले और आदि मानव को भय-विकंपित करने वाले धूमकेतु या पुच्छल तारे।
अंतरिक्ष कैसी विस्तृत शून्यता से व्याप्त है, यह एक नमूना खड़ा करने से समझ में आ सकता है। यदि पृथ्वी की कल्पना ढाई सेंटीमीटर व्यास की एक छोटी गेंद से करें तो सूर्य २८० सेंटीमीटर व्यास का एक गोला उस ढाई सेंटीमीटर की पृथ्वी से २९,४४३ सेंटीमीटर दूर होगा। इसी प्रकार दो मटर के दानों के समान ग्रह बुध (Mercury) एवं शुक्र (Venus) ११,३४० तथा २१,२१४ सेंटीमीटर दूर होंगे। पृथ्वी की कक्षा के बाहर लाल ग्रह मंगल (Mars), नील ग्रह बृहस्पति (Jupiter), वलयित शनि (Saturn), उरण ( Uranus), वरूण ( Neptune), हर्षल ( Herschell) तथा यम (Pluto) उससे क्रमश: ४४६, १,५८८, २,८०४, ५,६४१, ८,८३९, १०,००० (?) तथा १२,४६२ मीटर दूरी पर होंगे। चंद्रमा उपग्रह पृथ्वी से ३६ सेंटीमीटर की दूरी पर मटर के एक छोटे दाने के समान रहेगा। और कुछ अन्य ग्रहिकाएँ, जो लाल ग्रह मंगल एवं नीलग्रह बृहस्पति के बीच सूर्य का चक्कर लगाती हैं, केवल धूलि कणों के समान दिखेंगी। निकटस्थ तारा तो इस पैमाने पर ६४,४०० किलोमीटर दूर होगा और बहुतांश तारे इस छोटे नमूने में करोडों किलोमीटर दूर होंगे। बीच में और चारों ओर मुँह बाए मानो समष्टि की अगाध शून्यता खड़ी है—निष्प्राण, निर्जीव, ठंडी, केवल रिक्तता। कैसा आश्चर्य है कि इस रिक्तता, अर्थात शून्य आकाश और अंतरिक्ष का भाव सुदूर अतीत में भारतीय चिंतकों के मन में आया।
यह संसार, चराचर सृष्टि कैसे आई, यह गुत्थी आज भी रहस्य की अभेद्य चादर ओढ़े खड़ी है। भारतीय दर्शन का कहना है कि जब संसार में एक ही तत्व था तब वह जाना ही नहीं जा सकता था। ऐसी दशा में न जाननेवाला कोई था, न जो जानी जाय वह वस्तु थी। ब्रम्हांडिकी का आदि सूत्र नासदीय सूक्त है - ‘नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम‘। तब कोई अस्तित्व (existence) न था, इसलिये अनस्तित्व (non-existence) भी न था।‘ उस साम्यावस्था में आदि पदार्थ (primordial matter) में असंतुलन (imbalance) उत्पन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न पदार्थ या पिंड निर्मित हुये। इसी से सृष्टि उत्पन्न हुई (‘सदेव सौम्य ! इदमग्रमासीत’)। जब विमोचन होता है तो सृष्टि होती है और जब संकोचन होता है, सब कुछ किसी नैसर्गिक प्रचंड शक्ति के दबाव से सूक्ष्म बनाता है तो प्रलय। आज कुछ वैज्ञानिक विश्वास करते हैं कि ब्रम्हांड किसी मध्यमान के दोनों ओर स्पंदित है और इस समय विस्तार की अवस्था में है। जड़ जगत के निर्माण की यह परिकल्पना (hypothesis) आज भी अपने ढंग की अनूठी है।