सभ्यता का दोहरा कार्य रहा है। एक ओर नग्न प्रकृति भयानकता में खड़ी है। वह आग उगलता ज्वालामुखी और मानो क्रोध में कॉंपती पृथ्वी, वह हहराती और सब कुछ ढहाती बाढ़, वह रक्त से रँगे जानवर के पंजे व दॉंत और महामारी तथा मृत्यु का दारूण दु:ख। पश्चिमी विचारधारा कहती है कि प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्त करना सभ्यता का प्रथम लक्ष्य है। मानव के पास नवीन उपकरणों के निर्माण के लिए हाथ थे। उसके पास विकासोन्मुख वाक्-शक्ति और अत्यंत उन्नत मस्तिष्क था। इन तीन साधनों से वह धीरे-धीरे प्रकृति और अन्य प्राणियों पर प्रभुत्व पाने के लिए बढ़ा।
पर हिंदु विचारों ने यह दृष्टिकोण कभी नहीं स्वीकारा। सामी सभ्यताओं के लिए प्रकृति एक ‘स्त्री’ है। उसके ऊपर विजय प्राप्त करना, उसे दबाकर अपनी मुट्ठी में रखना, यही उन सभ्यताओं की मूल प्रवृत्ति थी। पर भारतीय दर्शन ने प्रकृति को ‘मॉं’ की संज्ञा दी। इसी से उपजा उसके प्रति भक्ति एवं श्रद्धा का भाव; प्राकृतिक सुषमा की उपासना। ऐसे सुंदर स्थल देवी-देवताओं के निवास, तीर्थ बने। इसी से संपूर्ण प्रकृति एवं चराचर सृष्टि के साथ सह-अस्तित्व की और पर्यावरण के संरक्षण की भावना आई। इसी से प्रारंभ हुआ भूमि पर कुछ करने के पहले भूमि-पूजन। प्रात: शय्या से नीचे पैर रखते समय प्रार्थना—‘समुद्रवसने देवि, पर्वतस्तन मंडले; विष्णुपत्नि: नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में।‘ माता समान प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर पुत्रवत् भाव से प्राकृतिक शक्तियों का आवाहन। यह विज्ञान की ओर देखने का भारतीय दृष्टिकोण है। उसका उपयोग प्रकृति के शोषण और इस प्रकार अंततोगत्वा वनस्पति तथा अन्य जीवन के विनाश के लिए नहीं वरन् सृष्टि के संरक्षण के लिए एक माध्यम अथवा सरणि प्रदान करना है।
इसी प्रकार मानव-मानव के बीच संबंध न्यायपूर्ण एवं स्नेह से निर्मित हों, जिसपर समाज का ढॉचा खड़ा हो सके, यह दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण कार्य है। पहले कार्य से कुछ कम प्रयत्न मनुष्यों के संबंध निर्धारण करने में और एक न्यायपूर्ण सामाजिक ढॉंचा खड़ा करने में नहीं लगे। सिग्मंड फ्रायड ने अपनी पुस्तक ‘सभ्यता के कार्य’ ( The Tasks of Civilization) में यूरोपीय दृष्टिकोण से मानव सभ्यता के उद्देश्यों का मनोवैज्ञनिक विश्लेषण किया है।
प्राचीन वैदिक साहित्य में कभी-कभी शब्द- प्रयोग आते हैं ‘विद्या’ और ‘अविद्या’। ‘विद्या’ से अभिप्राय उस दर्शन या विचारों से है जो ‘मानव’ और ‘भगवान्’ के संबंधों का निरूपण करें। जैसा ‘गीता’ में कहा, समाज भगवान का व्यक्त स्वरूप है। इसलिये मानव और समाज के संबंध या दूसरे शब्दों में समाज में मानव-मानव के संबंध के विचार ही सर्वश्रेष्ठ ‘ज्ञान’ है, यही ‘विद्या’ है। अर्थात ‘समाजशास्त्र’ (social sciences), जिसे महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम में मानविकी (humanities) कहते हैं, ‘विद्या’ है। ‘अविद्या’ कभी-कभी उस दर्शन या विचारों को कहते थे जो मानवशास्त्र से परे प्रकृति के बारे में थे। इसे अब ‘विज्ञान’ कहते हैं। यह द्विभाजन सभ्यता के दोहरे ध्येय को दर्शाता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इन दोनों प्रकार के शास्त्रों का समान स्थान था। जहॉं एक ओर ऋषि-मुनियों ने सामाजिक शास्त्रों का चिंतन किया वहॉं उन्होंने आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी कार्य किया। यह तो बाद में हुआ कि भारतीय चिंतन पर एकपक्षीय आवरण छाता गया।
किस प्रकार मानव सभ्यता अपने इन दो लक्ष्यों की ओर बढ़ी - यह अगली बार।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१- समय का पैमाना
२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
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