कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१ संक्षेप में
२ प्रस्तावना
३ भौतिक जगत और मानव-१
४ भौतिक जगत और मानव-२
५ भौतिक जगत और मानव-३
६ भौतिक जगत और मानव-४
७ भौतिक जगत और मानव-५
८ भौतिक जगत और मानव-६
९ भौतिक जगत और मानव-७
जीव के स्ववर्धन, प्रवजन और मृत्यु रूपी चक्र (cycle)के आश्चर्यजनक परिणाम हुए। इस चक्र के कारण जीव के विकास का चमत्कार संभव हुआ। जो पैदा होता है, वह ( कभी-कभी अन्य अवस्थाओं से गुजरकर) अपने जनक की तरह बनता है। पर वह ठीक जनक का प्रतिरूप नहीं होता, कुछ-न-कुछ अंतर रहता ही है, क्योंकि वह एक पृथक व्यक्तित्व है। आज का जीव- संसार अपने पूर्वजों की तरह है, जो काल-गर्त में चले गए, पर उनसे भिन्न है, क्योंकि यह अपनी प्रजाति की नई पीढ़ी है। यह सभी जीवधारियों के लिए, कीट- पतंगों से लेकर मानव तक, काई से लेकर आधुनिक वृक्षों तक; सत्य है कि जीव की एक पीढ़ी मरण को प्राप्त होती है तो पुन: उस जाति की नई पीढ़ी खड़ी हो जाती है।
सोचें कि नवजन्य पीढ़ी का क्या होगा? यह सच है कि कई दुर्घटना के शिकार बनेंगे या भाग्य उनसे आँखमिचौली खेलेगा, पर साधारणतया जो जीवन यात्रा के लिए अधिक उपयुक्त है, वे टिके रहेगें, प्रौढ़ बनेंगे और नई पीढ़ी को जन्म देंगे; जबकि कमजोर और अनुपयुक्त छँट जाऍंगे। इस प्रकार हर पीढ़ी में उपयुक्त का चयन और अनुपयुक्त की छँटनी सी होती रहती है। इसे हम ‘प्राकृतिक वरण’( natural selection) या ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’(survival of the fittest) कहते हैं। इसके द्वारा विभिन्न योनियाँ (species) अपने को प्रत्येक पीढ़ी में काल एवं परिस्थिति के अनुकूल बनाती चलती हैं।
परिस्थितियाँ एक-सी नहीं रहतीं और जलवायु में कभी-कभी आकस्मिक परिवर्तन भी होते हैं। नई पीढ़ी की अनुकूलनशीलता की एक सीमा है। नई पीढ़ी में इक्की-दुक्की संरचना की विलक्षणताऍं, जो पीढ़ी के अंदर की व्यक्तिगत विभिन्नताओं से परे हों, प्रकट होती हैं,जिन्हें जीव विज्ञान में ‘उत्परिवर्तन’ (mutation) कहते हैं। कभी-कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में बाधा बनकर खड़े होते हैं या बेतुका, अनर्गल उत्परिवर्तन हुआ तो प्राकृतिक वरण द्वारा ऐसे जीवों की छँटनी हो जाती है। कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में सहायक होते हैं तथा ऐसे जीवों को अपनी जाति में प्रोत्साहन मिलता है। और कभी-कभी ये उत्परिवर्तन उस जाति की जीवित रहने की शक्ति को प्रभावित नहीं करते, पर असंबद्ध होने पर भी फैल जाते हैं।
जब परिस्थिति या जलवायु में शीघ्रता से परिवर्तन होता है और कोई सहायक उत्परिवर्तन नहीं होते तो समूची योनि ( प्रजाति) नष्ट हो जाती है। पर जहां बदलती परिस्थिति के साथ अनुकूल उत्परिवर्तन होते हैं और उन्हें क्रमिक पीढियों द्वारा फैलने का समय मिलता है तो कठिन समय को पार कर वह प्रजाति पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने को जलवायु एवं परिस्थिति की चुनौती स्वीकार करने योग्य बनाती है। इसी को योनियों का रूपांतर (modification of species) कहते हैं। यदि एक भाग में परिवर्तन आया तो पूर्वजों से भिन्न एक नई प्रजाति खड़ी होगी। यही योनियों अथवा प्रजातियों का विभेदीकरण ( differentiation of species) है।
इस प्रकार जीवन सदा बदल रहा है। इस जन्म, वर्द्धन, प्रजनन और मृत्यु के चक्कर में फँसकर, प्राकृतिक उथल-पुथल के बीच, विकासपरक परिवर्तन उसकी मूल प्रवृत्ति है। पुरानी प्रजातियॉं लुप्त होती रहेंगी और नई, जो परिस्थितियों की चुनौती का सामना कर सकेंगी, प्रकट होंगी। यही इतिहास की प्रक्रिया है। जैसे यह जीव के लिए सच है वैसे ही मानव सभ्यता के लिए।
मेरे बचपन में एक चुटकुला कहा जाता था। दार्शनिक ने पूछा, ‘मुरगी पहले आई या मुरगी का अंडा।‘ आखिर मुरगी के पहले मुरगी का अंडा रहा होगा, जिससे मुरगी ने जन्म लिया, और अंडे के पहले मुरगी, जिसने वह अंडा दिया। पर यह स्पष्ट है कि यह मुरगी, जो अंडे से निकली, वह मुरगी नहीं है जिसने अंडा दिया था। यह उससे भिन्न सदा विकसित होती रही, अनगिनत सूक्ष्म परिवर्तनों से होकर। इसलिए उपर्युक्त प्रश्न उठता ही नहीं।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१ संक्षेप में
२ प्रस्तावना
३ भौतिक जगत और मानव-१
४ भौतिक जगत और मानव-२
५ भौतिक जगत और मानव-३
६ भौतिक जगत और मानव-४
७ भौतिक जगत और मानव-५
८ भौतिक जगत और मानव-६
यह विश्वास अनेक सभ्यताओं में रहा है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की। भारतीय दर्शन में ईश्वर की अनेक कल्पनाऍं हैं। ऐसा समझना कि वे सारी कल्पनाऍं सृष्टिकर्ता ईश्वर की हैं, ठीक न होगा। ईश्वर के विश्वास के साथ जिसे अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं, यहॉं पनपता रहा। कणाद ऋषि ने कहा कि यह सारी सृष्टि परमाणु से बनी है।
सांख्य दर्शन को भी एक दृष्टि से अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं। सांख्य की मान्यता है कि पुरूष एवं प्रकृति दो अलग तत्व हैं और दोनों के संयोग से सृष्टि उत्पन्न हुई। पुरूष निष्क्रिय है और प्रकृति चंचल; वह माया है और हाव-भाव बदलती रहती है। पर बिना पुरूष के यह संसार, यह चराचर सृष्टि नहीं हो सकती। उपमा दी गई कि पुरूष सूर्य है तो प्रकृति चंद्रमा, अर्थात उसी के तेज से प्रकाशवान। मेरे एक मित्र इस अंतर को बताने के लिए एक रूपक सुनाते थे। उन्होंने कहा कि उनके बचपन में बिजली न थी और गैस लैंप, जिसके प्रकाश में सभा हो सके, अनिवार्य था। पर गैस लैंप निष्क्रिय था । न वह ताली बजाता था, न वाह-वाह करता था, न कार्यवाही में भाग लेता था, न प्रेरणा दे सकता था और न परामर्श। पर यदि सभा में मार-पीट भी करनी हो तो गैस लैंप की आवश्यकता थी, कहीं अपने समर्थक ही अँधेरे में न पिट जाऍं। यह गैस लैंप या प्रकाश सांख्य दर्शन का ‘पुरूष’ है। वह निष्क्रिय है,कुछ करता नहीं। पर उसके बिना सभा भी तो नहीं हो सकती थी।
इसी प्रकार प्रसिद्ध नौ उपनिषदों में पॉंच उपनिषदों को, जिस अर्थ में बाइबिल ने सृष्टिकर्ता ईश्वर की महिमा कही, उस अर्थ में अनीश्वरवादी कह सकते हैं। जो ग्रंथ ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में मानते हैं उनमें एक प्रसिद्ध वाक्य आता है, ‘एकोअहं बहुस्यामि’। ईश्वर के मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं एक हूँ, अनेक बनूँ, और इसलिए अपनी ही अनेक अनुकृतियॉं बनाई—ऐसा अर्थ उसमें लगाते हैं। पर एक से अनेक बनने का तो जीव का गुण है। यही नहीं, यह तो पदार्थ मात्र की भी स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
भारतीय दर्शन के अनुसार यह सृष्टि किसी की रचना नहीं है, जैसा कि ईसाई या मुसलिम विश्वास है। यदि ईश्वर ने यह ब्रम्हाण्ड रचा तो ईश्वर था ही, अर्थात कुछ सृष्टि थी। इसलिए ईश्वर स्वयं ही भौतिक तत्व अथवा पदार्थ था, ऐसा कहना पड़ेगा। ( उसे किसने बनाया?) इसी से कहा कि यह अखिल ब्रम्हांड केवल उसकी अभिव्यक्ति अथवा प्रकटीकरण (manifestation) है, रचना अथवा निर्मित (creation) नहीं। उसी प्रकार जैसे आभूषण स्वर्ण का आकार विशेष में प्रकटीकरण मात्र है। इसी रूप में भारतीय दर्शन ने सृष्टि को देखा।
धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को यह विचार कि जीवन इस पृथ्वी पर स्वाभाविक और अनिवार्य रासायनिक- भौतिक प्रक्रिया द्वारा बिना किसी चमत्कारी शक्ति के उत्पन्न हुआ, इसलिए प्रतिकूल पड़ता है कि वे जीव का संबंध आत्मा से जोड़ते हैं। उनका विश्वास है कि बिना आत्मा के जीवन संभव नहीं और इसलिए कोई परमात्मा है जिसमें अंततोगत्वा सब आत्माऍं विलीन हो जाती हैं। पर जड़ प्रकृति का स्वाभाविक सौंदर्य, वह स्फटिक (crystal), वह हिमालय की बर्फानी चोटियों पर स्वर्ण-किरीट रखता सूर्य, वह उष:काल की लालिमा या कन्याकुमारी का तीन महासागरों के संधि-स्थल का सूर्यास्त, अथवा झील के तरंगित जल पर खेलती प्रकाश-रश्मियॉं- ये सब कीड़े-मकोडों से या कैंसर की फफूँद से या अमरबेल या किसी क्षुद्र जानवर से निम्न स्तर की हैं क्या? पेड़-पौधे और उनमें उगे कुकुरमुत्ते में आत्मा है क्या ? एक बात जो मुसलमान या ईसाई नहीं मानते। सृष्टि में इस प्रकार के जीवित तथा जड़ वस्तुओं में भेदभाव भला क्यों ?
शायद हम सोचें, सभी जीवधारियों का अंत होता है। ‘केहि जग काल न खाय।‘ वनस्पति और जंतु सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं और उनका शरीर नष्ट हो जाता है। परंतु यदि एक-कोशिक जीव बड़ा होकर अपने ही प्रकार के दो या अधिक जीवों में बँट जाता है तो इस घटना को पहले जीव की मृत्यु कहेंगे क्या ? वैसे तो संतति भी माता-पिता के जीवन का विस्तार ही है, उनका जीवनांश एक नए शरीर में प्रवेश करता है।
जीवन और मृत्यु का रहस्य अपने प्राचीन चिंतन का बहुत बड़ा भाग रहा है। यह चिंतन आत्मा रूपी केंद्र से प्रारंभ होकर संपूर्ण जीव और जड़ सृष्टि तथा उनके नियमों को व्याप्त करता था। इस दर्शन में कालांतरजनित विकृति, क्षेपक, अंधविश्वास और मत-मतांतरों के तोड़-मरोड़ जुड़ गए। पर आज भी उसकी नैसर्गिक हृदयग्राही अपील देश तथा युगों के परे सनातन है। इसलिए यह हिंदु संस्कृति आध्यात्मिक कहलाई।
इसी से संबंधित पुनर्जन्म का विश्वास है। मेरे एक मामाजी का पुत्र तीन-चार वर्ष की अवस्था में युद्ध के आधुनिकतम शास्त्रास्त्रों की, जिन्हें कम आयु में समझना संभव न था, चर्चा करने लगा। उसने बताया कि कैसे लद्दाख के मोरचे पर खंदक में एकाएक प्रबल प्रकाश कौंध गया। उसी समय एक चीनी बम गिरने से वह आहत हो गया और अंत में सैनिक अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई; कि वह डोगरा है और उसके पत्नी और बच्चे हैं। इस तरह की अनेक घटनाऍं सुनने में आती हैं, जहॉं जीवन-मरण के उस पार से अचेतन मन को स्पर्श करता हुआ एक इंद्रियातीत स्मृति का झोंका आ रहा हो परा-मनोविज्ञान ( para psychology) के रहस्यों के इन किनारों की ओर,जिन्हें पहले कपोल कल्पना कहकर टाल देते थे, अब वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हो रहा है। फिर भी जिस ‘आत्मा’ की खोज में ऋषि-मुनियों ने इतनी पीढियॉं लगाई, उसका ज्ञान आज विलक्षण अनुभूमि के अतिरिक्त दिखता नहीं, न वैज्ञानिक जगत इसे समझता है।
इसी ‘आत्मा’ के साथ उलझा है जीवन-मरण का परम सत्य। वास्तव में जीवन और मृत्यु क्या है, यह निश्चित रूप से कहना कठिन है। और उनके बीच की विभाजन रेखा प्रारंभ में कहाँ थी, यह जानना तो और कठिन है। भारत में ‘आत्मा’ साधारणतया उस अनुभूति को मानते थे जो किसी शरीर को अनुप्राणित रखे और परमात्मा मन की उस चरम अनुभूमि को, जो सृष्टि में व्याप्त सामूहिक सत्ता का बोध कराए।