सोमवार, अप्रैल 26, 2010

दक्षिण-पूर्व एशिया

दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का प्रकाश जिन्होंने फैलाया, उनकी चार लहरों की चर्चा शरद हेबालकर ने अपने पुस्तक 'भारतीय संस्कृति का विश्व-संचार' (Indian Culture over the World by Sharad Hebalkar) में की है। प्रथम, भारतीय अन्वेषक तथा व्यापारी के रूप में हिंदु संस्कृति के प्रचारक वहाँ पहुँचे। जब सम्राट अशोक के समय तृतीय संगीति के निर्णयानुसार बौद्घ भिक्षु संसार के देशों में गए तो वहाँ के भारतीय व्यापारियों ने सहायता की। दूसरी लहर आंध्र के सातवाहन (शालिवाहन) कुल के राजाओं ने युवा पीढ़ी को प्रोत्साहन देकर निर्मित की। दक्षिण भारत के लोग अगस्ति ऋषि की परंपरा में अपने को तीनों सागरों का स्वामी कहते थे। दक्षिण-पूर्व एशिया की संस्कृति के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका उन्हीं की थी। तीसरी लहर गुप्त सम्राट के समय की है, जिसे भारत के इतिहास में स्वर्ण युग कहा गया। इसका साक्षी वहाँ के शिलालेखों में प्रयुक्त गुप्त संवत् है। और चौथा प्रवाह काँची के पल्लव सम्राटों के कालखंड का है, जिनकी भाषा, लिपि एवं ग्रंथ महोदधि के पूर्वी देशों ने अपनाए।

महासागर और दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों का अन्वेषण वैदिक ऋषि अगस्ति की देन है। दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों में इस महान अन्वेषक की मूर्तिरूप अर्चना आज भी होती है। उनकी परंपरा में कुछ प्रात:स्मरणीय वीर हुए, जिनमें कंबु, कौंडिन्य और चोल राजा राजेंद्र प्रमुख हैं, जिन्होंने एशिया के इस बड़े भूभाग को भारतीय संस्कृति रूपी अमूल्य निधि प्रदान की।

दक्षिण भारत से कौंडिन्य ने सागर मार्ग से जाकर दक्षिण-पूर्व हिंद-चीन (Indo-China) में फूनान (Funan) साम्राज्य स्थापित किया। दक्षिणी चीन सागर से दक्षिण-पश्चिम में महोदधि (बंगाल की खाड़ी) को छूता यह विशाल साम्राज्य पूर्ण विकास में अपने अंदर दक्षिणी चीन अर्थात नानचाओ प्रदेश (जिसे प्राचीन काल में गांधार भी कहते थे), जिसका एक भाग यूनान (Yunan) प्रांत है (जिसे विदेह कहते थे) तथा प्राचीन चंपा देश, जिसे आज वियतनाम (Vietnam) कहते हैं और कंबुज (या कंबोज) (Cambodia, आधुनिक कंपूचिया: Kampuchea), लवदेश (Laos) और स्याम (आधुनिक थाईलैंड) तथा मलय (Malaya) के पर्वतीय भागों को समाये था। आंग्ल विश्वकोश ने 'फूनान' के बारे में लिखा है- 

'यह हिंदू राज्य कंबुज में पहली शताब्दी में (संभवतया यह तिथि इससे पहले विक्रम संवत् पूर्व चौथी या तीसरी शताब्दी की है) उदित हुआ। दक्षिण-पूर्व एशिया में यह प्रथम पूर्ण हिंदुकृत साम्राज्य था-जिसके अंतर्गत संभवतया उत्तरी मलय के बौद्घ राज्य भी आते थे। पुरातात्विक तथ्य इसके भारतीय सांस्कृतिक स्वरूप के साक्षी हैं।'
इस प्रतापी साम्राज्य की स्थापना की एक कहानी है। कहते हैं कि इस प्रदेश में नागवंशी भिन्न जातियाँ निवास करती थीं। एक दिन कौडिन्य का जलयान इस रम्य अरण्य प्रदेश के किनारे लगा। कौंडिन्य और उसके साथी अंदर गए तो नागवंशी रानी सेना लेकर प्रतिकार करने आई। पर उसके देश में आए वेशभूषाधारी लोग लड़ने नहीं आए थे, न लूटने अथवा दास बनाने आए थे। उनकी वीरोचित मुद्रा से उदारता टपकती थी। इधर कौंडिन्य ने देखा कि नाग रानी और सभी विवस्त्र हैं; वे कपड़े पहनना न जानते थे। तब कौंडिन्य ने वस्त्र मँगाकर अर्पण किया। नाग रानी ने उसे चारों ओर लपेट लिया। किंवदंती है कि कौंडिन्य का नाग रानी सोमा (Willow Leaf) से विवाह हुआ। राजा चुने जाने पर उन्होंने सागर से १६० किलोमीटर दूर 'व्याधपुर' में राजधानी बनायी और महत फूनान साम्राज्य की नींव डाली। विष्णु के अंशावतार पृथु के आदेशानुसार बाँधों, नहरों तथा खानों का निर्माण किया। प्रदेश में खुशहाली छायी।

इसी समय दक्षिण भारत का एक राजपुत्र 'कंबु' हिंद-चीन प्रायद्वीप के दक्षि-पश्चिम भाग में पहुँचा। उसके नाम पर इस देश का नाम कंबुज (अथवा कंबोज) पड़ा। कंबु ने पूर्व दिशा के अभियान में वहाँ के नाग-पूजक राजा की पुत्री से विवाह किया और वहीं बस गया। हिंदी विश्वकोश में उल्लिखित है वहाँ की दंतकथा, जिसके अनुसार- 

'इस देश की नींव आर्यदेश के राजा कंबु स्वायंभुव ने डाली, जो भगवान शिव के प्रेरणा से आए और यहाँ बसी हुयी नाग जाति तथा उनके राजा की सहायता से मरूस्थल में नया राज्य बसाया। वह नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे-भरे सुंदर प्रदेश में परिणत हुआ।' 
कहते हैं कि प्राचीन काल में इसकी मनोहारी छटा भारत के वनांचल की सुषमा को छूती थी। इन्हीं के वंशजों में प्रसिद्घ श्रुतवर्मा हुए। उन्हें कंबुज के हिंदु साम्राज्य का आदि पुरूष कहा जाता है। उनके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपनी राजधानी श्रेष्ठपुर बनायी। उसके अवशेष लव देश (जिसका नाम राम के पुत्र 'लव' पर पड़ा) स्थित 'लिंग पर्वत' (भारत में इसे कैलास कहेंगे) के पास पाए जाते हैं। आगे चलकर कंबु और कौडिन्य के दोनों घराने 'भववर्मन' में एक हो गए। उससे एक नया वंश ख्मेर (Khmer) चला। उन्होंने तथा उनके बाद के राजाओं ने हिंदु जीवन और संस्कृति की ज्योति जन-जन के हृदय में प्रज्वलित की। बाद में आने वाले 'चेनला' (Chenla) तथा 'ख्मेर' राज्य और दक्षिण-पूर्व एशिया के सभी देश कौंडिन्य  एवं कंबु को अपने देश का आदि पुरूष और फूनान तथा कंबोज को आदर्श राज्य मानते थे।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश 
३७ - दक्षिण-पूर्व एशिया

2 टिप्‍पणियां:

  1. दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति के अंकुरण एवं उन्नयन पर यह महत्वपूर्ण आलेख है. आपको नमन.

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  2. Here is extract from an article "क्या चीन पड़ोसी देशों को प्यासा मार देगा?" by डॉ. गौरीशंकर राजहंस -(Hindi daily Hindustan) - 27/04/2010 :

    "गंगा की तरह ‘मेकांग’ संसार की विशालतम नदियों में से एक है। तिब्बत से निकलने वाली यह नदी चीन, लाओस, म्यांमार, कंबोडिया और वियतनाम होते हुए साउथ चाईना सी में जा गिरती है। तिब्बत से साउथ चाइना सी तक की इसकी दूरी 4200 किलोमीटर है। अभी हाल में चीन ने मेकांग के उद्गम स्थान पर अनेक डैम बनाकर लाओस, थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम को रेगिस्तानबनाने का प्रयास किया है।

    ‘मेकांग’ की कहानी अत्यन्त दिलचस्प है। सम्राट अशोक के समय में जब बौद्ध भिक्षु बर्मा और थाईलैंड जिसका नाम उन दिनों ‘सियाम’ था, होकर लाओस, कंबोडिया और वियतनाम में बौद्ध धर्म का प्रचार करने गये तब थाईलैंड से लाओस जाते समय रास्ते में उन्हें एक विशालकाय नदी दिखाई दी। समुद्र की तरह दीखने वाली इस नदी को देखकर अचानक बौद्ध भिक्षुओं के मुंह से निकल गया ‘मां गंग’। उन्होंने इस पवित्र नदी के जल को अपने सिर पर छिड़का और बड़े-बड़े नावों पर सवार होकर इसे पार कर लाओस गये। तब से इस नदी का नाम वर्षो तक ‘मां गंग’ ही रहा। जब हिन्द चीन के तीनों देश लाओस, कंबोडिया और वियतनाम फ्रांस के उपनिवेश बन गये तब फ्रांसीसियों को ‘मां गंग’ काउच्चारण करने में कठिनाई हुई और उन्होंने इस नदी का नाम ‘मेकांग’ रख दिया।

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