तॉंबे की धार जल्दी नष्ट हो जाती है, पर यदि तॉंबे और रॉंगे की मिश्र धातु (alloy) बनाई जाए तो कॉंसा होकर कठोर हो जाती है। इसका प्रयोग सिंधु घाटी की सभ्यता के प्रारंभ से हम देखते हैं। भारत में तॉंबा और जस्ता (Zinc) के खनिज साथ-साथ प्राप्त होते हैं। इनकी मिश्र धातु पीतल (brass) का बीसवीं सदी तक भारत में प्रयोग होता रहा है। पुरातत्वज्ञ इन यूरोपीय प्रागैतिहासिक कालखंडों को कॉंस्य काल ( bronze age) कहकर पुकारते हैं। तभी लौह काल (iron age) आया। संभवतया लौह पाइराइट (iron pyrites) को भट्ठी में कोयला (यह भारत में साथ-साथ उपलब्ध है) तथा लकड़ी के साथ जलाकर लोहा प्राप्त किया गया। वैसे ही जैसे बस्तर के वनवासी आज तक करते चले आए हैं। लोहे के सर्वश्रेष्ठ हथियारों के लिए भारत प्रसिद्ध था। लोहे के हथियारों से मानव जीवन की कायापलट हो गई। कहते हैं कि लौह युग आज तक चला आता है। पर भारत में बहुत पहले से धातु का कालखंड था और भिन्न धातुओं के कालखंड का विभाजन न था।
सुमेर और मिस्त्र, दो प्राचीन सभ्यताओं के प्रदेश में तॉंबा, लोहा आदि धातुओं के खनिज अप्राप्य थे। इसी प्रकार राल, लकड़ी तथा कोयला भी बाहर से आयात करना पड़ता था। ये सब वस्तुऍं भारत में आसपास प्राप्त होती थीं। स्पष्ट है कि खान से धातु का ओषिद (oxide) प्राप्त कर उसे कोयला, राल तथा लकड़ी के साथ जपाकर, अर्थात उस क्रिया द्वारा जिसे रसायन शास्त्र में अपचयन (reduction) कहते हैं,धातु प्राप्त करने की विधि पहले-पहल भारत में खोजी गयी।
सभ्यता के चरण धातु के अन्वेषण के बाद द्रुत गति से बढ़े। जहॉं कृषि एवं पशुपालन द्वारा मानव ने विज्ञान में पहला कदम उठाया वहॉं दूसरा बड़ा कदम नए-नए आविष्कारों का था। मकान, मृद्भांड और वस्त्र बनाने की विधि का आविष्कार पहले हो चुका था। गाड़ी और पालदार नाव सरीखे यातायात के साधनों का उपयोग करना आ गया था। हथियार तथा बरतनों के लिए धातु का प्रयोग प्रारंभ हुआ। नए आविष्कारों ने सामाजिक क्रांति कर दी। प्रथमत: विशेष कार्य करने वाले कुछ वर्ग –ठठेरा, बढ़ई, कुम्हार, लोहार आदि बने। धीरे-धीरे ये अपने व्यवसाय पर आश्रित हो गए और खेती से इनका संबंध टूट गया। व्यक्ति और ग्राम स्वयं में पूर्ण न होकर परस्परावलंबी बने। दूसरे, नए-नए अन्वेषणों से संपत्ति का सृजन हुआ। इससे व्यापार प्रारंभ हुआ। यह सारा क्रम भारत में स्पष्ट है। सिंधु, सुमेर और मिश्र में घटती वर्षा और शुष्क होती भूमि ने मानव को नदी के किनारे बसने के लिए विवश किया, जहॉं कृषि तथा व्यक्तिगत आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त जल था। नदी किनारे के दलदलों का जल निकालने, झाड़-जंगल साफ करने, बाढ़ को सँभालने के लिए बॉंध बनाने और दूर शुष्क स्थान पर नहरें ले जाने तथा व्यापार की आवश्यकताओं ने मानव को बड़े समूहों में, नगर में बसने के लिए बाध्य किया। नदियों द्वारा व्यापार आसानी से होता था। इस प्रकार नगर-क्रांति मानव जीवन में आई। प्राचीन ग्रंथों में अर्जुन को नगर सभ्यता का जन्मदाता कहा गया है।
आज भ्रमवश नगर-क्रांति को मानव सभ्यता का उदय कहते हैं। पर सभ्यता के चरण वहॉं से प्रारंभ हुए जब कुटुम्ब मानव जीवन की इकाई बना अथवा मानव ने कबीले के रूप में रहना प्रारंभ किया। यह भी कारण है कि यूरोपीय विद्वानों ने संसार के प्रथम कृषि देश, भारत को दुर्लक्ष्य किया। सभ्यता का सबसे बड़ा पग था कृषि उद्योग के कारण ग्राम्य बस्तियों का सृजन। इस कृषि सभ्यता का लाख वर्ष का जीवन, जिसके बाद नगरों की अथवा बड़ी बस्तियों की हलचल प्रारंभ हुई, इन्होंने ओझल कर दिया।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१- समय का पैमाना२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
३- सभ्यता का दोहरा कार्य
४- पाषाण युग
५- उत्तर- पाषाण युग
६- जल प्लावन
७- धातु युग
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