सोमवार, अप्रैल 26, 2010

दक्षिण-पूर्व एशिया

दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का प्रकाश जिन्होंने फैलाया, उनकी चार लहरों की चर्चा शरद हेबालकर ने अपने पुस्तक 'भारतीय संस्कृति का विश्व-संचार' (Indian Culture over the World by Sharad Hebalkar) में की है। प्रथम, भारतीय अन्वेषक तथा व्यापारी के रूप में हिंदु संस्कृति के प्रचारक वहाँ पहुँचे।

रविवार, अप्रैल 18, 2010

ब्रम्ह देश

बौद्ध मन्दिर - चित्र विकिपीडिया से
ब्रम्ह देश के बीच से बहती भारत की नौ पवित्र नदियों में से एक है इरावती नदी (Ayeyarwady)। इसी के पूर्वी तट पर मांडले के दक्षिण-पश्चिम में बसा पैगन नगर तथा पास में है प्राचीन विष्णु मंदिर के खंडहर। भग्न मूर्तियों के बीच गर्भगृह में मानव मुखाकृतिवाले गरूड़ पर आरूढ़ कमलासन पर बैठे विष्णु की सुंदर मूर्ति। उनके चारों ओर दशावतारों की खंडित मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। इसी के पास नवम अवतार बुद्घ का मंदिर है, जिसमें हिंदुओं के शुभ चिन्ह अंकित हैं। इस मंदिर के खडहर में संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है एक शिलालेख, जिसे केरल से आए एक व्यापारी ने भगवान की प्रार्थना में खुदवाया था। वहाँ सभामंडप एवं सिंहद्वार भी बनवाया। जनश्रुतियों के अनुसार कभी जगन्नाथपुरी से गरूड़ पर विष्णु भगवान ने ब्रम्ह देश आकर इरावती के किनारे 'श्रीक्षेत्र' नगरी स्थापित की। एक अन्य कथा के अनुसासर यह विष्णु नामक एक महान ऋषि थे। यह 'श्रीक्षेत्र' इतिहास में ब्रम्ह देश की राजधानी थी। इसी से इसका आधुनिक नाम 'प्यै' (Pye) (शाब्दिक अर्थ- राजधानी) पड़ गया; 'प्रोम' (Prome या Pyay) इसी का अंग्रेजी अपभ्रंश है। कहते हैं कि तीन सहस्त्र वर्ष पूर्व प्रथम हिंदु राज्य का निर्माण अराकान तट पर वाराणसी से आए चंद्रवंशीय राजा ने किया था और श्रीक्षेत्र राजधानी बनायी थी।

भारत एवं ब्रम्ह देश का गहन सांस्कृतिक नाता रहा है। यह नाता उस देश के स्थलों के पुराने नामों में, वहाँ की पुरानी परंपराओं एवं मान्यताओं में, साहित्य, रीति-रिवाजों तथा सामाजिक धारणाओं में दिखता है। यहाँ का जीवन वैष्णव एवं बौद्घ मतों का अद्भुत समन्वय है। प्राचीन काल में विष्णु और बुद्घ एक ही मंदिर में स्थापित रहते थे।

चीनी यात्रियों ने उस समय के हिंदु राज्य के वैभव का वर्णन किया है। परंपरा के अनुसार उत्तर भारत में वैशाली से और दक्षिण भारत में पल्लव राजाओं की प्रेरणा से संस्कृति का संदेश लेकर भारतीय यहाँ आए। ऎसे ही ब्रम्ह देश के 'वर्मा' या 'वर्मन' राजा दक्षिण भारत के मूल निवासी थे। यहीं 'हरिविक्रम' ने विक्रम वंश की नींव डाली, जिसमें प्रतापी राजा हुए। उन्होंने 'श्रीक्षेत्र' नगर को अपनी राजधानी बनाया और 'शक' नाम से एक संवत् भी चलाया। उनका तथा जन साधारण का वैष्णव जीवन था। रीति और शिक्षा में हिंदु परंपराएँ आईं। भारतीय शासन प्रणाली और मनुस्मृति पर आधारित विधि स्थानिक परिस्थितियों को ध्यान में रख अपनायी गयी। इसी से देश में स्वायत्तता आई और भारतीय संस्कृति की भूमिका में वहाँ की मूल प्रकृति का विकास हुआ। सामाजिक जीवन, कला, स्थापत्य- सभी में भारतीय ढंग होते हुए भी स्वतंत्र प्रतिभा विकसित हुयी।बौद्घ मंदिरों में उत्तरी भारत के समान शिखर थे और दक्षिण भारतीय गर्भगृह। बौद्घ मत में भी वैदिक पूजा-पद्घति। वैसे ही उपासना, उत्सव, अभिषेक, समारोह वैदिक पद्घति से करने की रीति बनी। सभी उत्सवों के प्रारंभ में भगवान की प्रार्थना होती। संवत् की बारहवीं शताब्दी में 'अनव्रत' नामक राजा हुआ, जिसने 'पैगन' को राजधानी बनाया। पाली वहाँ की राजभाषा बनी। उस समय अनेक 'स्मृतियों' के पाली भाषा में अनुवाद हुए। ऎसे ही 'मान' (Mon)  लोगों ने, जो अपने को 'तेलंगी' कहते थे, दक्षिण में अपनी राजधानी 'हंसावती' (आधुनिक पेगू : Pegu)  बसायी। उन्हीं का 'रमम्गो' नगर आज रंगून (Rangoon ) बन गया।

पर यह जीवन आगे टिकने वाला न था। दसवीं शती में चीन की उथल-पुथल के कारण विस्थापितों की लहरें ब्रम्ह देश एवं स्याम (आधुनिक थाईलैंड) में आईं। इन्होंने ब्रम्ह देश के जीवन को हिला दिया। पर विक्रम संवत् की तेरहवीं शताब्दी में चीन के मंगोल सम्राट कुबलई खाँ के आक्रमण ने पैगन एवं श्रीक्षेत्र के मंदिर तथा प्रासाद नष्ट कर दिए।


प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर
३६ -  ब्रम्ह देश

रविवार, अप्रैल 11, 2010

अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर

अगस्त्य मुनि की प्रतिमा का चित्र - विकिपीडिया के सौजन्य से
अब हिंदु महासागर के द्वीप एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के देश। कभी अगस्ति (अगस्त्य) (Agastya) मुनि ने हिंदु महासागर का अन्वेषण किया था। इसी से आलंकारिक भाषा में कहते हैं, उन्होंने उस 'महासागर को चुल्लू में भरकर पी लिया'। दक्षिणी गोलार्द्घ में महासागर यात्रा करते समय उनकी कीर्ति का सूचक दक्षिण का अगस्ति तारा पथ-प्रदर्शक बना (देखें- पूष्ठ ४०)। प्राचीन काल में गुजरात से सीधा दक्षिणी ध्रुव का सागर मार्ग, जिस पर बीच में कोई भूमि नहीं पड़ती, पता था। आज सोमनाथ मंदिर के परकोटे पर दक्षिणी ध्रुव तक यह सीधा सागर मार्ग बताता, तीर चिन्हांकित पट्ट देख सकते हैं। शरद हेबालकर ने अपनी पुस्तक 'भारतीय संसकृति का विश्व-संचार' में भारत के उन साहसी नाविकों की महासागर की विजय-गाथा और भारतीय संस्कृति के इन प्रचारकों की कहानी का हृदयग्राही वर्णन किया है-जिन्होंने उत्ताल तूफानी तरंगों के बीच, आँधियों के साये में, काल से खेलते हुए अनजाने प्रदेशों की यात्रा कर नवीन भूखंडों में भारतीय संस्कृति का दीप प्रज्वलित किया।

कभी श्रीलंका (सिंहल द्वीप : Ceylon ) और ब्रम्ह देश ( या बर्मा : Burma) (आधुनिक म्याँमार : Myanmar) वैसे ही भारत के अंग थे जैसे गांधार (कंधार और अफगानिस्तान)। इनका संपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जीवन भारतीयों द्वारा निर्मित था। भारत के प्राचीन साहित्य में यह 'लंका', 'सिंहल' अथवा 'रत्नद्वीप' कहकर विख्यात है। रामायण में राम द्वारा लंका विजय का वर्णन है। कहते हैं कि चित्तौड़ की रानी पद्मिनी सिंहल द्वीप की राजकुमारी थी।

सिंहली परंपरा, जो प्राचीन ग्रंथ 'महावंश' में उल्लिखित है, के अनुसार गुजरात से सिंहपुर का राजकुमार विजय अपने सात सौ साथियों सहित विक्रम संवत् पूर्व पाँचवीं शताब्दी में पोत से श्रीलंका आया। किंवदंती है कि उसके पूर्वज बंगाल में सिंहपुर के निवासी थे तथा अपने को 'सिंहल' कहते थे। लंका में यक्षों का निवास था। विजय ने एक यक्ष-कन्या से विवाह भी किया; पर बाद में वह चली गयी। तब मदुराई के पांडु राजा से निवेदन करने पर उसका विवाह पांडु राजकुमारी के साथ हुआ और उसके सभी साथियों को वधुएँ प्राप्त हुयीं। बाद में विजय ने अपने छोटे भाई को सिंहपुर (बंगाल) से बुला भेजा, जिसने अपने कनिष्ठ पुत्र पांडुवासुदेव को भेजा। वह अपने कुछ साथियों सहित पूर्वी तट पर 'गोकन्न' (आधुनिक त्रिंकोमाली) पत्तन पर उतरा। विजय और पांडुवासुदेव के वंशजों ने सिंहली राज्य स्थापित किया, जो उतार-चढ़ाव तथा व्यवधानों के बीच उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता रहा। इस प्रकार उत्तरी भारत के पूर्व एवं पश्चिम दोनों ओर से आकर सिंहल बसे और फिर दक्षिण भारतीय। इन्होंने अपनी राजधानी अनुराधापुर, सारस्वत सभ्यता की नगर-रचना के समान बनाई और उसी प्रकार की समाज-रचना और राजनीतिक ढाँचा खड़ा किया। भारतीय संस्कृति का यह नवीन पालना बना।

ये हिंदुओं के उपनिवेश वैष्णव मतावलंबी थे। जब सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र को यहाँ भेजा ('महावंश' के अनुसार, वे आकाश मार्ग से आए) तो राजा-प्रजा सभी ने उनका स्वागत किया। राजा ने 'महामेघ' नामक उपवन दिया, जहाँ उन्होंने प्रथम बौद्घ विहार बनाया। बाद में महेंद्र की बहन संघमित्रा भी आई। दोनों ने भिक्षु-भिक्षुणी संघ स्थापित किए। लंका ने बौद्घ मत अपनाया। भारतीय संस्कृति और उसके मत-मतांतर शांति काल के सुफल हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने सिंहल द्वीप पर भी प्रभाव जमाया। तब पांडु, चोल तथा पल्लव राजाओं के झगड़ों का प्रक्षेप लंका पर पड़ना स्वाभाविक था। यदाकदा उनके आपसी झगड़ों की लीलास्थली लंका भी बनी। दक्षिण भारत में मुसलिम राज्य आने पर संस्कृति का भारत से आता प्रवाह सूख गया।

लंका की प्रमुख नदियों को 'गंगा' कहते हैं। 'महावेलि गंगा' पूर्व त्रिकोमाली में सागर में मिलती है; 'कालू गंगा' एवं 'केनाली गंगा' पश्चिम सागर में गिरती है और 'बलवे गंगा' दक्षिण में। नगरों और व्यक्तियों के नाम, प्रशासनिक शब्द तथा पद, जीवन और समाज-रचना, सभी एक लघु भारत की सृष्टि करते हैं, जो उत्तरी भारत के नमूने पर है। उसमें वृंत से कट जाने के कारण भटकाव तथा आपसी संघर्ष आया।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन 
३५ - अगस्त्य मुनि और हिन्दु महासागर

गुरुवार, मार्च 25, 2010

चीन को भारत की देन

स्वभाव से गर्वीले और दुनिया से अलग लोगों के बीच बौद्घ मत के प्रसार की कहानी भारतीय संस्कृति की अलौकिक प्रक्रिया का उदाहरण है। सम्राट अशोक के समय हुयी तीसरी संगीति के बाद मोग्गालिपुत्र तिस्स के नेतृत्व में सारे संसार में पुनः भारतीय संस्कृति के संदेशवाहक गए। उनसे मध्य एशिया और चीन में उसकी एक नवीन तथा अनेक शताब्दियों तक निरंतर प्रवहमान लहर उठी।

कुची क्षेत्र से गौतम बुद्ध की प्रतिमा, चित्र विकिपीडिया से
ये प्रचारक जो प्रारंभ में चीन गए, उनमें कश्यप, मातंग, धर्मरक्ष आदि थे। महायान मत के प्रचारक 'कुमारजीव' के पिता कुमारायन भारत के एक राज्य में मंत्री थे। उसे त्याग वे मध्य एशिया जाकर काशगर के उत्तर 'कुची' में, जहाँ हिंदु राज्य था, रहने लगे। वहाँ की राजकन्या 'जिवा' से उनका विवाह हुआ। जिवा अपने पुत्र कुमारजीव को उसके बचपन में शिक्षा दिलाने कश्मीर आई। यहाँ कुमारजीव ने अन्य भाषाओं के साथ चीनी भाषा सीखी और चीन को अपना कार्यक्षेत्र चुना। संस्कृत एवं पाली ग्रंथों के चीनी भाषा में अनुवाद किए और संपूर्ण जीवन चीन को समर्पित कर दिया। इस कालखंड में अनेक चीनी यात्री भारत आए और यहाँ के ज्ञान के कुछ कण पाकर अपने को धन्य माना। उनके साथ भी प्रचारकों के दल चीन गए। सहस्त्रों वर्षों तक यह प्रवाह चलता रहा। कश्मीर संस्कृत और पाली के साथ मध्य एशियाई और चीनी भाषाओं का अध्ययन केंद्र था। इन्होंने विक्रमी चौथी शताब्दी तक नालंदा के नमूने पर अनेक छोटे-बड़े विहार चीन में खड़े किए, जहाँ चीनी नवयुवक शिक्षा प्राप्त कर भारतीय संस्कृति के प्रचारक बने। चीन की प्रतिकूल धरती ने भी श्रद्घावनत होकर भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि सिर-आँखों लगायी।

यह मध्य एशिया और चीन का हिंदु जीवन मुसलमानों के आक्रमण तक चलता रहा। मध्य एशिया में मुसलमानों के आक्रमण और शासन होने के बाद उन पर घोर अत्याचारों द्वारा इसलाम लादा गया। तब भारत में भी उनके आक्रमण प्रारंभ हो गए थे और संस्कृति का प्रेरणास्त्रोत सूख गया। चीन का भारत से संबंध टूट गया। फिर भा भारतीय संस्कृति की प्रेरणा बची रही, जो साम्यवादी दर्शन के आच्छादन पर समूल नष्ट सी दिखती है।

भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जब चीन गए तो वहाँ के प्रधानमंत्री ने उनसे चीन-भारत के संबंध और मान्यता के बारे में कहा था,
'चीन में कहावत है, यदि तुम सत्कर्म करोगे तो तुम्हारा अगला जन्म भारत में होगा। वैसे भारतीय संस्कृति का चीन से कभी गुरू-शिष्य का नाता रहा है।'
कितनी श्रद्घा भारत के चरणों में चीन ने उड़ेली थी। पर भारत की विश्व-गुरू की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाते इसलाम व साम्यवाद के इन क्षेत्रों में आगमन का कारण है भारत की दैवी शक्ति का ह्रास।

स्वर्ग, अपवर्ग नामों से विभूषित त्रिविष्टप (तिब्बत) में भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। संस्कृत, पाली और उनके स्थानिक अनुवाद आज भी वहाँ के मठ-मन्दिरों में मिलते हैं। त्रिविष्टप में फैले सैकड़ों विहार विद्या के केंद्र थे, जिनकी पुस्तकें भारतीय संस्कृति की अनुपम निधि हैं। वहाँ भारतीय देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बुद्घ भगवान के साथ सम्मान से प्रतिष्ठित हैं। वहाँ मानसरोवर झील है, जिसकी युधिष्ठिर ने अपने भाइयों व द्रौपदी सहित स्वर्गारोहण के समय यात्रा की। तिब्बती लोगों के जीवन का भारत से सदा का नाता रहा है। यह अटूट सांस्कृतिक नाता आज त्रिविष्टप पर चीनी आक्रमण तथा उनकी हवस के बाद भी कुछ सीमा तक सुरक्षित है।

ऐसे ही कोरिया और जापान। चीन व त्रिविष्टप के बौद्घ प्रचारकों द्वारा इन दूरस्थ प्रदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रकाश फैला। जहाँ कहीं भारतीय संस्कृति का स्पर्श हुआ, उस देश की अपनी विशेषताओं को मानवतावादी दृष्टिकोण मिला, उदात्त जीवन की प्रेरणा मिली। कोरिया के भिक्षु-संघ मातृभूमि पर आक्रमण के समय शस्त्र धारण कर प्रतिरोध में कूदे। जापान में प्राचीन 'शिंतो' मत (अर्थात 'देवमार्ग') और उनकी प्रकृति पूजा से इन प्रचारकों ने पूर्ण समन्वय स्थापित किया। उनकी मूल परम्पराएं हिंदु संस्कृति की प्रेरणा से मानव धर्म के साये में फली-फूली। रामायण, महाभारत, पंचतंत्र आदि की कथाओं ने उनके साहित्य, कला और जीवन पर अमिट छाप छोड़ी। भारतीय धारणाओं के अनुसार जापान ने अपने को 'उगते सूर्य का देश' कहा।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३ - चीन
३४ - चीन को भारत की देन

रविवार, मार्च 21, 2010

चीन

प्रागैतिहासिक युग में चीन में सिया (Hsia) व शांग (Shang) वंशों का राज्य कहा जाता है। किसी बड़े कार्य को प्रारंभ करते समय पशुबलि तथा नरबलि दी जाती थी। राजघराने के व्यक्ति के शरीरांत पर उसके शव के साथ सुविधापूर्वक जीने की वस्तुएँ, भोजन तथा पेय, यहाँ तक कि उसके गुलामों को भी जीवित दफना दिया जाता था। अंत में युद्घ एवं अत्याचारों से विवश हो गुलामों ने विद्रोह किया। महलों में आग लगा दी। तब विक्रम संवत् पूर्व दसवीं शताब्दी में पश्चिम से आए नए वंश का शासन प्रारंभ हुआ। सामाजिक जीवन में बहुदेववाद तथा बलि के साथ चीन के तौर-तरीके विचित्र थे। कृषक एवं उच्च वर्ग (अर्थात सामंत, राजकर्मचारी, पुजारी आदि) के जीवन में बहुत बड़ा अंतर था। ऐसे समय में बौद्घ मत चीन में आया।

कन्फूसियस का चित्र के विकिपीडिया के सोजन्य से
इस बहुदेववादी चीन में प्रचलित जीवन के बीच संभवतया भारत से संबंध होने पर दो सुधारवादी धाराएँ आईं। एक कन्फूसियस (Confucius: चीनी नाम कुंग फू जू Kung Fu Tzu) संप्रदाय  और दूसरा ताओ (Tao) । दोनों के प्रणेता समकालीन और विक्रम संवत् पूर्व पाँचवीं शताब्दी के एक ही राज्य के कहे जाते हैं। कन्फूसियस कर्मकांड विरोधी थे। उन्होंने अपने आश्रम में काव्य, इतिहास, सामाजिक उत्सव तथा संगीत की शिक्षा देना प्रारंभ किया। परलोक एवं दर्शन के स्थान पर साहित्य, नैतिक जीवन, ईमानदारी और आचार-व्यवहार की शिक्षा दी। कहा, 'राज्य का मूल आधार जनता का समर्थन है जो राजा के चरित्र, सुशासन तथा प्राचीन परंपराओं का पालन करने पर निर्भर है।' 'ताओ' का शाब्दिक अर्थ है 'मार्ग'। 'ली' या 'लाओत्जे' (= वृद्घ गुरू) ने 'ताओ' शब्द का उपयोग एक शास्वत प्राकृतिक तत्व के रूप में किया था, जिसके अनुरूप चलना है। प्राकृतिक मार्ग से हटकर सब कृत्रिम नियम आदि स्वतंत्रता का हनन है। उन्होंने कहा, 
'जो तोको काँटा बुवै ताहि बोय तू फूल।'

उसके बाद चीन में एक और विविक्त और अलगाव का अध्याय प्रारंभ हुआ। तब उत्तर में लगभग ३००० किलोमीटर लंबी 'चीन की महान दीवार' निर्मित हुयी। तत्कालीन सम्राट यिंग चेंग ने इस धमंड में कि 'इतिहास उसी से प्रारंभ होता है', अतीत के सब चिन्ह मिटाने का आदेश दिया। सभी पुस्तकें और लिखित लकड़ी व बाँस की पाटियाँ जला दी गयीं। विद्वानों एवं दार्शनिकों को मरवा डाला अथवा जीवित दफना दिया। विदेशों से संबंध-विच्छेद कर सोचा कि पहले की सभी विचारधाराओं का अंत हो गया। इस पार्थक्य की कालरात्रि के बाद जब कन्फूसियस और ताओ के विचारों का स्मरण प्रारंभ हुआ तो उनके साथ बौद्घ मत भी लहलहा उठा।

प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ -  योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
२९ - ईसाई चर्च
३० - रोमन साम्राज्य
३१ - उत्तर दिशा का रेशमी मार्ग
३२ -  मंगोलिया
३३- चीन