यह अरब प्रायद्वीप, जहाँ संसार के दो बड़े पंथों ने जन्म लिया, प्राचीन काल में 'अर्व' (संस्कृत अर्वन्=घोड़े) देश के नाम से प्रसिद्घ था। यह घास का मैदान, जहाँ संसार के श्रेष्ठ घोड़े पाए जाते थे, धीरे-धीरे मरूभूमि में परिणत हो गया। इसी प्रकार अफ्रीका में 'सहारा' मरूभूमि बनी। विक्रम संवत् प्रारंभ होने के बाद संसार का जो चित्र बदला, उसमें इन ईसाई और मुसलिम पंथों की और उनके मज़हबी उन्माद की अहम भूमिका रही। इन दोनों पंथों ने सभ्यता के प्रवाह को बदला; उन पर अपना मुलम्मा चढ़ाया और अपनी ही बात अथवा अपनी किताब के आग्रही बने। सभी दूसरी संस्कृतियों को उन्होंने नकारा। कहा कि उनके मसीहा पर जो विश्वास न करे उसे कभी सदगति या स्वर्ग नहीं मिलेगा। अंत:करण की तथा अपनी परंपराओं, मान्यताओं एवं विश्वासों के अनुरूप आचरण करने की स्वतंत्रता, विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता नष्ट हो गयी और आया मज़हब के नाम पर अत्याचारों का युग।
परंतु यह सब ईसा मसीह के निश्छल सरल स्वभाव में न था। उन्होंने मानवमात्र को स्नेह, अहिंसा का पाठ सिखाया; अनासक्ति और सबकुछ अर्पण करने की शिक्षा दी। ऎसे एक असामान्य व्यक्तित्व की ईश्वर से प्रेम की सीख को मजहब के ठेकेदार कैसे छल-कपट, लोभ तथा अत्याचार द्वारा धर्मांतरण की जोर-जबरदस्ती की आँधी में अपने 'चर्च' के स्वार्थ के लिए डुबो देते हैं! इसका दूसरा उदाहरण तलवार से इसलाम का प्रसार है।
'ईसा' या 'यीशु' के जन्म और प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कम ज्ञात है। जो कुछ कहा जा सकता है वह बाइबिल में ईसाई पंथ के 'सुसमाचार' (Gospel) में भिन्न दृष्टिकोण से अंकित कुछ मज़हबी सूचनाओं पर आधारित है। 'ईसा' इब्रानी शब्द 'येशुआ' (Joshua अथवा यीशु) का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है 'मुक्तिदाता'। 'मसीह' उनकी पदवी थी, जो उनका ईश्वर-प्रेरित होना दर्शाती है। हिंदी शब्दकोश के अनुसार इसका अर्थ है 'अभिषिक्त', अर्थात यूनानी भाषा में 'खीस्तोस'। इसी से पश्चिम में इन्हें 'यीशु ख्रीस्त' (Jesus Christ) कहा गया है। श्री पुरूषोत्तम नागेश ओक के अनुसार संस्कृत शब्द 'ईशस्' ही 'जीसस' (Jesus) हो गया। यहूदी इसीको इशाक (Issac, जहाँ 'सी' का उच्चारण 'स' के स्थान पर 'क' हो गया) कहते हैं।
ईसा का जन्म यहूदी परिवार में विक्रम संवत् ५१ में (६ वर्ष ईस्वी पूर्व) कहा जाता है। उनकी माता 'मरियम' नाजरेथ की रहने वाली थीं। श्री पी.एन.ओक के अनुसार यह नाम 'मरि अंबा' अथवा 'मरिअम्मा', वैदिक 'मातृदेवी' (लैटिन 'Mater Dei') है, दक्षिण भारत में जिनके अनेक मंदिर हैं। बाइबिल के अनुसार उनकी माता कुँवारी रहते हुए भी ईश्वरीय प्रभाव से गर्भवती हो गयीं। तब दैवी संकेत पाकर उनके वाग्दत्त यूसुफ उनसे विवाह कर यहूदा (Juda या Judea) प्रांत के बेथलेहम (Bethlehem) नगर में बस गए, जहाँ ईसा का जन्म हुआ। इस प्रकार उनके अलौकिक जन्म का रहस्य छिप गया। आंग्ल विश्वकोश का कहना है कि संभवतया यह कथा ईसा का संबंध डेविड के राजघराने से स्थापित करने के लिए बनायी गयी और कुँवारी माता के गर्भ से उत्पन्न होने की कथा यवन भाषा में दुविधापूर्ण अनुवाद का परिणाम हो सकती है। जो भी हो, रोम के निरंकुश शासक हिरोद (Herod) से शिशु को बचाने के लिए यूसुफ मिस्त्र भाग गए। वे हिरोद की मृत्यु के बाद लौटकर पुन: नाजरेथ में बसे। तीस वर्ष की आयु तक ईसा ने पारिवारिक बढ़ईगिरी में मन लगाया।
पर (संवत् ८५ में) जब योहन बपतिस्ता (John, the Baptist) ने कहना प्रारंभ किया,
'पश्चाताप करो, क्योंकि ईश्वर का राज्य निकट है',ईसा ने बढ़ईगिरी त्याग, उनसे बपतिस्मा (Baptism) (स्नान करके दीक्षा) ली और देश में घूमकर उपदेश देने लगे। डेविड के बाद यहूदियों में कोई नबी (पैगंबर, ईश्वर का दूत) पैदा नहीं हुआ था। धर्मग्रंथ (देखें-बाइबिल, पूर्व विधान) में वर्णित था, मसीहा (शाब्दिक अर्थ, फूँक मारकर शव में जीवन डालनेवाला) अथवा नबी आएगा, जो स्वर्ग का राज्य अपने प्रियजन यहूदियों को दिलाएगा, अर्थात लौकिक दृष्टि से पराधीनता से मुक्ति दिलाने वाला होगा। इसलिए अचानक जब सरल शब्दों में दैनिक जीवन के उदाहरणयुक्त उपदेश ईसा ने देने प्रारंभ किए तो लोगों ने समझा कि उनका नया मसीहा आ गया।
(Repent for the kingdom of God is near)
ईसा ने मानव धर्म का प्रचार किया। हिंदी विश्वकोश के अनुसार ईसा के उपदेशों का सार है-
'पहला, ईश्वर को अपना दयालु पिता समझकर समूचे हृदय से प्यार करना और उसी पर भरोसा रखना। दूसरा, अन्य सभी मनुष्यों को भाई-बहन मानकर किसी से बैर न रखना, अपने विरूद्घ किए हुए अपराध को क्षमा करना तथा सच्चे हृदय से सबका कल्याण चाहना। जो यह भ्रामृप्रेम निबाहने में असमर्थ हो वह ईश्वरभक्त होने का दावा न करे। भगवद्भक्ति की कसौटी भ्रातृप्रेम है।'वे येरूसलम में मंदिर में जाते थे। पर्वत प्रवचन (Sermon on the Mount) में उन्होंने कहा,
'मैं मूसा के नियम और नबियों की शिक्षा रद्द करने नहीं, पूरी करने आया हूँ।'यहूदी अपने को ईश्वर का विशेष प्रिय पात्र समझते थे। ईसा ने कहा,
'स्वर्ग के राज्य पर यहूदियों का एकाधिकार नहीं है, मानवमात्र उसे पा सकते हैं।'रोगी, दीन-दु:खी के लिए उमड़ता वात्सल्य, सिद्घार्थ गौतम के समान, उन्हे मिला था। उनके चमत्कारों की कहानियों ने ईसा के 'नबी' और 'मसीह' होने की पुष्टि कर दी।
उनके इस मानव पक्ष के कारण, जो भारतीय संस्कृति का स्पष्ट प्रक्षेपण है, और प्रारंभ के तीस वर्ष के अज्ञात जीवन ने अनेक कल्पनाओं को जन्म दिया है। कुछ विद्वानों ने कहा कि संभवतया ईसा के जीवन का कुछ भाग भारत में पालिताना (गुजरात) में बीता, जहाँ उन्होंने जैनियों से व्रत रखना सीखा, या फिर कश्मीर में, जो शिक्षा का केंद्र था। परंतु पुलस्तिन् में भी बौद्घ विहार प्रारंभ हो गए थे, जिनसे अहिंसा का मंत्र प्राप्त हो सकता था। स्वयं यहूदियों में 'फारिसी' एवं 'एस्सेनी' आदि संप्रदाय थे, जिन्होंने अपना धार्मिक जीवन बहुत कुछ भारत से लिया था। ईसा ने बारह शिष्यों को चुनकर उन्हें प्रशिक्षित किया और उनको अपनी शिक्षा पर विश्वास करने वाले समुदाय के संगठन का कार्य सौंपा। ये बारह शिष्य उनके बाद ईसाई पंथ के प्रचारक बने।
लेकिन उस समय के यहूदी जनमानस का एक अंश ईसा के मानव धर्म को येरूसलम के उनके मंदिर के विरोध में एक नए पंथ का प्रसारण समझ संशय की दृष्टि से देखने लगा। ईसा के संदेश ने कि
'वे यहूदी जाति को पापों से मुक्ति का मार्ग सुझाने आए हैं',इस धारणा को बढ़ावा दिया। अंत में ईसा को (संवत् ८७, अर्थात सन् ३० में) इस अपराध में कि वे 'मसीह' अथवा 'ईश्वर का पुत्र' होने का झूठा दावा करते हैं, बंदी बना लिया गया। किंवदंती है कि उन्होंने जो शिष्य चुने थे और जो उनके प्रति आजन्म सच्ची निष्ठा की शपथ लेकर अंतिम रात्रिभोज में शामिल हुए, उन्हीं में से तेरहवें शिष्य ने रात के अवसान के पहले (इसके पूर्व कि मुरगा बाँग देता) विश्वासघात कर उनके विरोधियों को पता-ठिकाना बता दिया। रोमन दंडाधिकारी (Pilate) उन्हें निर्दोष समझकर छोड़ना चाहता था; पर यहूदी विरोधियों ने, जिनमें रोमन साम्राज्य के पिट्ठू भी थे, यह न होने दिया। यहूदी महासभा ने उन्हें प्राणदंड दिया, जिसकी रोमन शासक ने पुष्टि कर दी। ईसा को सूली (क्रॉस: Cross) पर चढ़ा दिया गया।
इस चिट्ठी का चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से।
कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
अवतारों की कथा
स्मृतिकार और समाज रचना
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
अवतारों की कथा
स्मृतिकार और समाज रचना
प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य
०९ - बैबिलोनिया१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ - आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७ - मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन
१८ - पुलस्तिन् के यहूदी
१९ - यहूदी और बौद्ध मत
२० - जाति संहार के बाद इस्रायल का पुनर्निर्माण
२१ - एजियन सभ्यताएँ व सम्राज्य
२२ - फणीश अथवा पणि
२३ - योरोप की सेल्टिक सभ्यता
२४ - योरोपीय सभ्यता के 'द्रविड़'
२५ - ईसाई चर्च द्वारा प्राचीन यरोपीय सभ्यताओं का विनाश
२६ - यूनान
२७ - मखदूनिया
२८ - ईसा मसीह का अवतरण
उत्तम लेख
जवाब देंहटाएंनिस्पृह लेखन से अभिभूत हुआ...!
जवाब देंहटाएं